श्रीप्रकाश शुक्ल की कविताएँ
श्रीप्रकाश शुक्ल
समकालीन हिंदी कविता में नब्बे का जो दशक सबसे उर्वर, सक्रिय व मूल्यवान रहा है, श्रीप्रकाश शुक्ल उसी दशक की एक सार्थक उपस्थिति हैं जिन्होंने परंपरा से अंतर्दृष्टि पाई है और परिवेश से काव्य की संपदा। वे शास्त्र से सीखते हैं और लोक से प्रेरित होते हैं। उनके कविता का संसार विविधतागामी व अर्थपूर्ण है। उनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है---
जन्म : 18 मई 1965 को सोनभद्र (उत्तर प्रदेश) जिले के बरवां गाँव में।
शिक्षा: एम. ए. (हिन्दी), पी-एच. डी. (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)
प्रकाशित कृतियाँ :
कविता संग्रह : "अपनी तरह के लोग”, "जहाँ सब शहर नहीं होता”, "बोली बात”, "रेत में आकृतियाँ”, "ओरहन और अन्य कवितायेँ”। "कवि ने कहा"
'क्षीरसागर में नींद'।
आलोचना :
”साठोत्तरी हिंदी कविता में लोक सौन्दर्य" और “नामवर की धरती"।
*संपादन:“परिचय “ नाम से एक साहित्यिक पत्रिका का संपादन.
*पुरस्कार: कविता के लिए “बोली बात ” संग्रह पर वर्तमान साहित्य का मलखानसिंह सिसोदिया पुरस्कार, “रेत में आकृतियाँ” नामक कविता संग्रह पर उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान का नरेश मेहता कविता पुरस्कार,. "ओरहन और अन्य कवितायेँ" नामक कविता संग्रह के लिए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का ‘विजय देव नारायण साही कविता पुरस्कार’।
वर्तमान में बी०एच०यू० के हिंदी विभाग में प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं तथा भोजपुरी अध्ययन केंद्र, बी. एच. यू. के समन्वयक(Coordinator) हैं।
कोरोना काल में जैसे सब कुछ थम सा गया है। जीवन भी बहुत कुछ जैसे बदल गया है। सबसे एक दूरी बना कर रहने की सलाह दी जा रही है। बाहर निकलते समय मास्क और फेसशील्ड जैसे जरूरत बन गए हैं। बहरहाल इस समय में भी कविताएँ लिखी जा रही हैं। श्रीप्रकाश शुक्ल इस दौर की कविता को 'कोरोजीवी (कोरोना समय की) कविताएँ' कहते हैैं। आज पहली बार पर प्रस्तुत है श्रीप्रकाश शुक्ल की कविताएँ।
श्रीप्रकाश शुक्ल की कविताएँ
कचकचिया (Babbler)
घोंसला बन रहा है
सृष्टि के विधान में एक नई सांस
का उदय हो रहा है
स्पर्श सुख का कहना ही क्या
नेह गान थिरक रहा है
यह कचकचिया के आगमन का समय है
जिनके सामूहिक कचराग के बीच
एक नई संस्कृति आकार ले रही है
सभ्यता में तमाम सामाजिक दूरियों के
बीच
नजदीकियों का आसमान उतर रहा है
फूलों में रस भरा है
उदास सड़कों पर गुलमोहर खिलखिला
रहे हैं
चारों तरफ सन्नाटा है
मगर आस पास के पेड़ों से
मुँहमुहीं आवाजें उठ रही हैं
मैं इन आवाजों को सुन रहा हूं
जिसमें एक सन्नाटा टूट रहा है!
डर
बहुत ताकत बहुत डर पैदा करती है
जो बहुत ताकतवर होता है
डरा होता है!
बहुत ताकत का होना असल में
बहुत के शोषण से संभव होता है
और यह शोषण ही बहुत ताकत के तकिए
के नीचे दबा होता है
जो डराता रहता हैं
डरने का मुंह हमेशा एक सुरंग की
ओर खुलता है
जिसमें बचे रहने
की आशा से अधिक
बचाये रखने की निराशा होती है
यह नहीं है कोई साधारण क्रिया
इसकी नाभि में ही अतिरिक्त का
आकर्षण है
जो रह रह कर परेशान करता है!
इंतज़ार
एक दृश्य देखता हूँ
दूसरा उछलने लगता है
एक आंसू पोछता हूँ
अनेक टपकने लगते हैं
एक क्रिया से जुड़ता हूँ
अनेक प्रतिक्रिया कुलबुलाने लगती
है
दूर बहुत दूर कोई मां रो रही है
अर्थ तो बचा नहीं
भाषा भी खो रही है
जीवन महज़ एक घटना बन गया है
अनेक के इस्तक़बाल में!
हाय कैसे कहूँ कि हर क्षण एक बीतता हुआ क्षण है
और जो बीत रहा है
वह किसी अनबीते का महज़ इंतज़ार लगता
है
जिसमें सीझती हुई करुणा
गुजरते समय की उदासी बन
कंठ में अटक सी गई है!
लौटना
भूख तो बड़ी थी लेकिन उन्हें सिर्फ
पहुंचना था
उन तक पहुंचाए गए सारे आश्वासन अब
तक बेकार हो चुके थे
अनुशासन के नाम पर
उनके पास अब सिर्फ एक जिद बची थी
कि उन्हें घर पहुंचना है
उनकी जिद व घर के बीच एक
गहरा तनाव था
जिसमें घर लगातार निथर रहा था!
मुश्किलें विकराल हो रही थीं
जिनके समाधान के लिये वे घर पहुंचना चाह रहे थे
मानों ख़ैर ख्वाह यह घर
उनके ख़ैर -मकदम के लिए वर्षों से
खड़ा हो!
उनकी जिद लगातार बड़ी हो रही थी
और इस जिद में बड़ी हो रही थीं
उनकी उम्मीदें
जिसे अब एक घर से ही संभव होना था
कितना ताकतवर था यह 'पहुंचना' कि
एक पथियाई पथरीली जमीन पर कभी
सायकिल से तो कभी पैदल चलते
ठंडे पानी की तरह बह रहा था उनके भीतर
जिससे लौटने से अधिक पहुंच पाना
संभव हो रहा था
घर लौटने से अधिक पहुंचने के लिए
होता है
यह तब पता
चला जब वे तप्त सड़कों पर
संतप्त भाव से लौट रहे थे
और अपनी पुरानी स्मृतियों को
सहलाते
नंगे पांव उस सड़क पर दौड़ रहे थे
जिससे कभी वे गए थे।
जाना नहीं रही अब
एक ख़तरनाक क्रिया
नई सदी में लौटने की यह क्रिया
जाने से कहीं अधिक
ख़ौफ़नाक है!
बच्चा
सड़क पर अटैची है
और अटैची पर अटा पड़ा एक बच्चा
जो पहियों के बल सरक रहा है
बच्चा डोरी से बंधा है
जिसे मां एक टांग से खींच रही है
अपनी दूसरी टांग से सड़क को नापती
बच्चा मां की मदद कर रहा है
वह चुप्प है
कि ओह!
सब कुछ घुप्प है!
बच्चे की यह चुप्पी उसके
खिलखिलाने की आवाज से ज्यादे बड़ी है!
मां को नहीं पता कि सामान ने
बच्चे को पकड़ा है
या फिर बच्चे ने सामान को
वह बच्चे की नींद से भी अनजान है
जिसे जागते हुए कई दिन से खींच
रही है
यह लगातार बड़ी होती जाती एक
खबर है
कि जेठ की इस तपती दोपहरी में
सड़क के ठीक बीचो बीच एक बच्चा
शांत है
और मां की गर्दन की तरह सड़क को
दोनों हाथ से जकड़ रखा है
सड़क लगातार चौड़ी होती जा रही है
और बच्चा है कि दूरियों से बेखबर
अपनी पकड़ को मजबूत बनाये हुए है!
आज का यह शांत बच्चा
किसी भी अशांत नागरिक से ज्यादे
मुखर है
जिसमें एक मां लगातार बढ़ी जा रही
है
बच्चा चला जा रहा है
और चली जा रही है यह माँ भी
जिसके साथ लटक गई है यह कविता
न तो माँ को पता है
न ही इस कविता को
कि इनको किस पते पर जाना है!
गुलमोहर
धूप खड़ी है
हवा स्तब्ध है
जेठ की धरती पपड़िया गई है
पगडंडियां चिलचिला रही हैं
सड़क सुनसान है
और आदमी अपनी ही छाया में कैद है
एक ज़हर है
जिसमें पूरी बस्ती नीली हो गई है
बस बचा है केवल गुलमोहर
जो अपने चटक लाल रंगों में
अभी भी खिलखिला रहा है !
केवल हरे बबूल!
इस निर्जन में सब कुछ ठहरा
बासी हैं सब फूल
सूख गई है मन की काया
केवल हरे बबूल!
कोइलिया जल्दी कूको ना!!
देखो कैसा चांद उगा है
तन का शीतल तप्त हुआ है
गंगा निरमल कल कल छवि में
घाट विहसता जप्त हुआ है
इस उदास सी काया में अब
जीवन जग संशप्त हुआ है
कोइलिया जल्दी कूको ना!
श्रमिक चल पड़े आहें भरते
सूनीं सड़कें गुलज़ार हुईं
गिरते पड़ते पहुंचे घर फिर
हलचल गांव में चार हुईं
थके पांव हुलसित दौड़े जब
आंखें सब बेज़ार हुईं
कोइलिया जल्दी कूको ना!
घर की मलकिन देख रही है
'वे' आएंगे सोच रही है
चूल्हे पर अदहन डाल हठीली
बातें कुछ कुछ बोल रही है
हुलस उठी तब दौड़ पड़ी पर
भर उदास अब लौट रही है
कोइलिया जल्दी कूको ना!
गौरैया भी जगी हुई है
तिनका तिनका बीन रही है
सृजन राग से इस दुनिया में
जाग, भाग को साध रही है
हुआ सवेरा दौड़ी आयी
मिला नहीं जो ढूंढ रही है!
कोइलिया जल्दी कूको ना!
उठी लहर आया एक झोंका
ज़हर हवा ले
कहर रही है
नहीं चहकते कुत्ते बिल्ली
'जन' गायब क्यों
पूछ रही है
कोइलिया जल्दी कूको ना!
फुलसुंघी
फुलसुंघी घोंसला बना रही है
लटकी हुई लता पर
अपना पता लिख रही है
सदी के तमाम महा वृतांतों को
सुनते गुनते
कई तरह की हवाई घोषणाओं के बीच
वह निकल पड़ी है
फूलों से
रस चिचोड़ने
बाहर सब कुछ बिखर गया है
फिर भी वह तिनका तिनका बीन रही है
जिससे उसे छाजन बनाना है
गुजरते हुए वैशाख के बादल बहुत
जल्दी में हैं
आंधियों के बीच छुपे हुए वे
आकाश को अपनी लपलपाती हुई तलवार से चीरते हुए
धरती को बार बार कंपा रहे हैं
एक निर्वात सा फैला है जीवन चहुँ
ओर
जिंदगी अवसाद की मानिंद खिलखिला
रही है
जिसमें सूखी हुई पत्तियों के बीच
उसने डेरा डाल दिया है
अब वह घेर कर बैठ गई है अपने हिस्से का आकाश
जिसमें दौड़ेगा एक नया जीवन
सभी विभाजित सीमाओं को ध्वस्त
करता हुआ!
कोरोना में किचेन!
(पत्नी सुनीता के लिए)
एक ऐसे समय में जहां बाहर कोयल
कूक रही है
और भीतर तुम्हारा यह कूकर
मैँ मदद करना चाहता हूं
और तुम हो कि खिसिया रही हो
जब जब घुसता हूँ रसोई घर में
जब जब सोचता हूँ बेलन उठा ही लूं
छिली हुई मटर व आलू को छौंक ही
दूं आज
तुम दौड़ी चली आती हो
फैलाने, बिखराने, लीपने ,पोतने के साथ
तहस नहस करने की कई धाराओं के बीच
चालान कर देती हो
सब इधर उधर कर दिया
कहीं कुछ मिल नहीं रहा
जैसा कुछ बड़बड़ाने लगती हो
माना कि यह तुम्हारा परिसर है
तुमने इसे बहुत मेहनत से सजाया है
तुम्हारे लिए यह तुम्हारे पूजाघर
से भी पवित्र है
जहां सिर खुजलाना और रोटी बेलना
एक साथ संभव नहीं है
इसके साथ इसे भी मानने में कोई
हर्ज नही है
कि अपने प्रेम में तुम इतनी उदार तो हो ही
कि आटा गूंथते समय एक फोटो की
इजाजत दे ही सकती हो
जिसे मैं
चावल धोने और सब्जी चलाने की तस्वीर के साथ
तुम्हारे प्रति प्रेम के दस्तावेज
के रूप में किसी दीवार पर टांग ही सकता हूँ----
कि प्रेम भी तो एक टंगी हुई
तस्वीर ही है!
जिसे छूकर यह बताया जा ही सकता है
मैंने भी इस कठिन समय में कुछ न
कुछ तुम्हारा खयाल रखा ही था !
लेकिन तनिक सोचो भी कि
विषाक्त जीवाणुओं से भरे इस संसार में
जहां फिलहाल कोई भी चीज अपनी जगह पर नहीं रह गई है
कुछ कहने को आतुर हुए होठ
आंखों के एक रूखे इनकार में खुल रहे
हों
कोरोना में किचन का व्यवस्थित
रहना
कितना उचित है!
ठीक ऐसे समय में
जहां नजदीकियां योजन भर की दूरियों में रूपांतरित हो गई हैं
नदियां फैलकर समुद्र बन गई हैं
और सड़कें उलट कर आकाश
चम्मच का चम्मच की जगह पड़े रहना
क्या हमारे प्रेम का ठहर जाना
नहीं है!
जीवन कई बार रखाव में नहीं विखराव
में होता है
स्वाद पकी दाल में ही नहीं
जले भात में भी होता है!
(शास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिउ....)
चमगादड़!
मैं एक चमगादड़ हूँ
हज़ारों प्रजातियों में विकसित
मेरा परिवार
इस जगत का सबसे बड़ा समुदाय है
कुछ मुझे पक्षी कहते हैं क्योंकि
मैं उड़ सकता हूँ
कुछ मुझे पशु कहते हैं क्योंकि
मैं स्तनधारी हूँ
कुछ मुझे लक्ष्मी कहते हैं
क्योंकि दीपावली के अवसर पर मैं
अक्सर धनधारी हूँ
कुछ मुझे स्पर्श गंधी कहते हैं क्योंकि मैं हवाओ में तैर
सकता हूँ
और हर बुरे विषाणु में घुलकर
उसे धुन सकता हूँ
अपवित्र ही सही
एक फर्ज अदा कर सकता हूँ
सुनते हैं कि बनारस के 'बाबा' भी अपने सठियापे में
कौये के बहाने कहीं लिख गए हैं कि मैं एक अवतार भी हूँ
दुनिया के सभी निंदकों का
एक पपियाया हुआ निचोड़ हूँ!
कुछ देशभक्त तो मुझे सभ्यता की
समाप्ति का सूचक मानते हैं
और इसलिए उनके लिए
प्रकाश से दूर
एक अंतहीन रात हूं
जहां भी हूँ
उनके कूकर से फेंका हुआ
भात हूँ!
मैं दुनिया का सबसे शापित प्राणी
भर दिन उलझा रहता हूँ पेड़ों की
शिराओं में
और टहनियों में उल्टा लटक कर
पेड़ बाबा की तरह योग में लीन रहता
हूँ
जहां कभी कभार कुछ लोग आ कर
खुश होते हैं
और अपनी मंगलकामना की इच्छा से
मेरी पूजा भी करते हैं
आखिर मैं किससे कहूँ कि मैं भी
इसी वसुधा का नागरिक हूँ
जिसे एक देश के 'गीले बाजार' में ठोस दाम पर बेच
दिया गया हूँ
जहां जबरिया मेरी गर्दन को
एक प्रयोगशाला में डाल दिया गया
है
यह एक 'चीनी भूप'
का किस्सा है
जिसके लिए मैं महज सूप हूँ!
जब मेरे चीखने, चिल्लाने, गुर्राने, बर्राने का कोई मतलब
नहीं रहा
यह जानते हुए भी की सांस के साथ
खाना व पाखाना के नाम पर एक ही छिद्र है
मेरी नसों को नाथ दिया गया
मै एक क्रूर आततायी के नाख़ूनी
पंजों से भाग निकला
जहां दुनिया ने
मेरे ऊपर ईनाम घोषित कर दिया।
क्या आपने कभी सोचा कि आख़िरकार
यह मेरी भी तो धरा है
मुझे भी तो इस पर जीने का हक है
मैने जब जब जीने का हक माँगा
आपने मुझे बुरी तरह कैद कर लिया
एक निरपराध अपराधी की तरह मेरा मुंह
बंद कर दिया
और अपने चीरघर में मेरी
हत्या की कोशिश की
मानो मेरी जिंदगी का योग अब
आपके लिए प्रयोग है!
अब जब आपके इस वधशाला से भाग
निकला हूँ
आप मुझे हत्यारा कहते हैं
जैसे मैं ही आपका संकट निकट हूँ
अपनी यातना में एक वायरस विकट
हूँ।
उत्तर - कोरोना......
(आत्माएं होंगी,आत्मीयता न होगी!)
मैने तुम्हें फोन किया और तुम
मुझसे उत्तर मांग रहे हो
समय सुबह का है
सूरज की चमक थोड़ी गाढ़ी हुई ही थी
कि नदियों के स्वच्छ होते जल और
वातावरण में बढती हुई आक्सीजन के बीच
आसमान में निचाट सन्नाटा है
और तुम कहते हो
यह उत्तर- कोरोना तो नहीं है!
कितना विकट समय है कि जब दुनिया
का सारा विज्ञान एक रोएं के हजारवें भाग से भी छोटे वायरस की काट नहीं खोज पा रहा
है
लगभग एक ब्रह्म की सूक्ष्म सत्ता
की तरह इधर उधर छिटक रहा है
अपने स्वरूप को लगातार बदलता हुआ
हर क्षण धरती का खून पी रहा है
तुम मुझसे उत्तर की अपेक्षा कर
रहे हो
अब जबकि वर्तमान से बाहर आने की
उम्मीद कम ही बची है
चिडियों की बढ़ती चहचहाहट के बीच
दुनिया के सारे देवता असहाय व
असुरक्षित हो गए हैं
अल्लाह, ईसा, मूसा और ईश्वर
सबके सब मुंह बांध कर अपने अपने
कमरे में कैद हैं
और पुतलियों की जाती हुई गति से
दुनिया को आते हुए देख रहे हैं
तुम कोरोना के उत्तर से उत्तर
-कोरोना की बात क्यों कर रहे हो
क्या तुम जानते हो
यह आस्थाओं के फड़फड़ाने का दौर है
जिसमें संत कवियों की एक बार फिर
से वापसी हो रही है
जब उन्होंने कहा था कि इस जगत में
एक ही ब्रह्म की सत्ता है
बाकी सब मिथ्या है!
ठीक इसी जगह पर दुनिया बदल रही है
और बदलते हुए कोरोना के चरित्र
में
खुद के लिए एक उत्तर खोज रही है
शायद उत्तर कोरोना का उत्तर-----
जहाँ अभिव्यक्तियाँ होंगी
लेकिन आस्वाद न होगा
लोग लौट रहे होंगे
लेकिन लौटने के लिए कुछ न होगा
आत्माएं होंगी आत्मीयता न होगी
एक देह होगी जिसको एक आत्मा ढो
रही होगी
यह चिंताओं व शंकाओं के संघर्ष का दौर होगा
जिसमें हर कुछ एक भय की तरह समर्पित होगा
जहां स्वीकारने के अलावा और कुछ न
होगा
और संघर्ष के मोर्चे पर हर बार
विवेक ही मारा जायेगा
आदतें कुछ ऐसी होंगी
एक खास जंग के जैसी होंगी
जीवन निर्वात होगा
संघर्ष हवाओं का होगा
सत्ताएं उदार होंगी
शासन सख्त होगा
देश का हर आदमी लड़ेगा सिपाही की
तरह
लेकिन हर बार मारा जाएगा एक
नागरिक के मोर्चे पर
शासक बहुत उदार होंगे
लेकिन उनमें सब कुछ को पाने की एक
जल्दी होगी
लगभग इस समय की वाचाल मीडिया की
तरह
जहाँ ब्रेक के बाद भी
एक पुराना ही चीखता है
अद्भुत होगा यह समय की अद्भुत
जैसा कुछ नही होगा
केवल एक पुरातन की स्मृति होगी
और सभ्यता के एक वायरल इफेक्ट जैसा
खोने व पाने का संघर्ष होगा
हर नए विकल्प को अनचाही आस्थाओं का आदिम स्वर देता हुआ
यह असहाय कथाओं के सर्जन का समय
होगा
जिसमें कथाएं तो बहुत होंगी
काव्यत्व उतना ही कम होगा
स्मृति में मनोरंजन की सुविधाएं
होंगी
आकांक्षा में ढेर सारी दुविधाओं
के बीच
यह एक दूसरे की तारीफ का दौर होगा
जिसमें सराहनाएं भी शातिर होंगी
जहां एक ताकत दूसरे को आजमा रही होगी
खोए हुए को पाने की जिद में
दुनिया दौड़ रही होगी
जिसकी जद में आयी हुई सभ्यता
अपनी संपूर्णता में कराह रही होगी
यह एक नई शुरुआत होगी
लेकिन शुरू करने के लिए कोई न
होगा
क्या तुम जानते हो
वायरस का कोई पूर्व काल नहीं होता
उसका सिर्फ एक वर्तमान होता है
जो सदा एक उत्तर में बदल रहा होता
है
यह विचार नहीं
व्यवहार समझता है
और तुम्हारा व्यवहार है कि इसकी
आकंठ उलाहनाओं के बीच
पूंजी की ताकत के सामने सदा झुका रहता है
एक स्थायी विनम्रता की तरह!
इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
सुमेधस, 909,काशीपुरम कालोनी,
सीरगोवर्धन, वाराणसी, 221011
ई मेल: shriprakashshuklabhu@gmail.com
मोबाइल : 9415890513
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सीरगोवर्धन, वाराणसी, 221011
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सभी कविताएँ पसंद आईं, पहली बार फिर अपनी सक्रियता को प्राप्त कर रहा है, यह सुखद है।
जवाब देंहटाएंसभी कविताएँ पसंद आईं, पहली बार फिर अपनी सक्रियता को प्राप्त कर रहा है, यह सुखद है।
जवाब देंहटाएंधूप खड़ी है
जवाब देंहटाएंहवा स्तब्ध है
जेठ की धरती पपड़िया गई है
पगडंडियां चिलचिला रही हैं
सड़क सुनसान है
और आदमी अपनी ही छाया में कैद है
एक ज़हर है
जिसमें पूरी बस्ती नीली हो गई है
बस बचा है केवल गुलमोहर
जो अपने चटक लाल रंगों में
अभी भी खिलखिला रहा है !
हार्दिक आभार अनिल जी
हटाएंबेहद महत्वपूर्ण कविताएं।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना सर ।बधाई
जवाब देंहटाएंसभी कविताएँ बहुत ही अच्छी लगी। और इस कोरोना के समय को प्रासंगीक रखेंगी
जवाब देंहटाएं'पहलीबार' ब्लॉग पर कवि श्रीप्रकाश शुक्ल की प्रकाशित 11 कविताएं कॅरोना के समय में मनुष्य, उसकी सहजीविता एवं संवेदना को काव्यात्मक ढंग से रेखांकित करती है। भय और आशंकाओं की पहरेदारी में जीते हुए मध्यवर्गीय लोक जीवन की सूक्ष्म पड़ताल करती है।
जवाब देंहटाएंसंवेदनशील मन की सहज अभिव्यक्ति हैं ये रचनायें ।करुणा से ओतप्रोत मन प्रकृति के साहचर्य में अपने उदास समय की थाह ले रहा है जिससे दुख की साझेदारी कर सके।
जवाब देंहटाएंबधाई
Bahut sundar kavitayein
जवाब देंहटाएंकोयलिया जल्दी कूको ना...
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक कविताएं के लिए सर को बधाई
कोयलिया जल्दी कूको ना...
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक कविताएं के लिए सर को बधाई
अच्छी कविताएँ, सर!
जवाब देंहटाएंअच्छी कविताएँ, सर!
जवाब देंहटाएंइन कविताओं में यह कठिन दौर बहुत मार्मिक रूप में दर्ज है। बहुत अच्छी कविताएँ हैं। सर को बहुत- बहुत बधाई
जवाब देंहटाएं'पहलीबार' ब्लॉग पर कवि श्रीप्रकाश शुक्ल की प्रकाशित 11 कविताएं पढ़ने को मिली। यह कोरोना के समय की कविताएं है। इन कविताओं में मनुष्यता के आहत होने का भय, एक डर जो ज्यादा ताकत से उपजी है, देखने को मिलती है।
जवाब देंहटाएंविपदा स्थगन नहीं है बल्कि उसके बीच से हिम्मत करते हुए सिरजते हुए निकलना है। छोटे-छोटे कार्य व्यापारों के बीच, वनस्पतियों और अनाम चिड़ियों के बीच मनुष्य की स्थिति पर पुनर्विचार भी इसी समय किया जाना होता है। कवि श्रीप्रकाश शुक्ल यही करते हैं।
जवाब देंहटाएंकोरोना पर लिखी उनकी कविता अभी तो तात्कालिक लग सकती है लेकिन एक दो साल बाद वह आज के दौर पर एक सभ्यतागत टिप्पणी भी मानी जाएगी।
अच्छा लगा रमाशंकर जी
हटाएंबहुत सुंदर । रमाशंकरजी की टिप्पणी से सहमत । आत्माएँ होंगी, आत्मीयताओं के बारे में अभी कुछ कहना मुश्किल है । वे किस रूप में पुनर्परिभाषित होंगी, कहा नहीं जा सकता ।
जवाब देंहटाएंएक निर्वात सा फैला है जीवन चहुँ ओर
जिंदगी अवसाद की मानिंद खिलखिला रही है
जिसमें सूखी हुई पत्तियों के बीच
उसने डेरा डाल दिया है
अब वह घेर कर बैठ गई है अपने हिस्से का आकाश
जिसमें दौड़ेगा एक नया जीवन
सभी विभाजित सीमाओं को ध्वस्त करता हुआ!
आपकी टिप्पणी हमारे ऊर्जा का स्रोत है।आपकी पुस्तक राष्ट्र व राज्य तथा काविता सृष्टि चक्र पढ़ा हूँ।आपकी एक पंक्ति अभी याद आ रही है-
हटाएंसफर की तैयारी के पहले क्या तुमने मानचित्र को ठीक से देख लिया है।👌
अलग भावभूमि और राग-रंग की इन कविताओं को पढ़ते हुए हमारे ज़ेहन में कई तरह के पात्रों के चेहरे बनते-बदलते हैं और अंत तक उनमें अपना चेहरा भी दिखने लगता है। अतीत की सुखद स्मृतियों और भविष्य के चिंताओं के बीच ये कविताएं हमें सचेत तो करती हैं पर एक सुकून को साथ लेकर।
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब
जवाब देंहटाएंसभी कविताएंँ बहुत अच्छी लगीं
जवाब देंहटाएंविशेष रूप से 'डर'।
बधाई हो !