निशान्त पाठक की कविताएँ


निशान्त पाठक 

अनुभव के लिए जरूरी नहीं कि जीवन लम्बा हो। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो कम उम्र में ही अनुभव समृद्ध हो जाते हैं। कवि भी अनुभवों के जरिए ही समृद्ध होता है। निशान्त पाठक ऐसे ही कवि हैं जिनके पास कम में ही जीवन के तल्ख़ अनुभव हैं। उनकी कविताओं से रु ब रु होते समय यह स्पष्ट दिखता है। जीवन की गझिन बुनावट को निशान्त ने उम्दा तरीके से कविताओं में उतारा है। कई जगह कविताओं में कुछ झोल भी है लेकिन यह सहज और स्वाभाविक है। यह संभावनाशील कवि पहली बार कहीं भी प्रकाशित हो रहा है। हम उम्मीद करते हैं कि यह कवि भविष्य में और बेहतरीन कविताओं के साथ सामने आएगा। अत्यन्त संकोच के साथ निशान्त ने पहली बार के लिए ये कविताएँ दी हैं। कविता की दुनिया में इस नए कवि का स्वागत करते हुए हम आज पहली बार पर इनकी प्रस्तुत कर रहे हैं।


निशान्त पाठक की कविताएँ



अचार की संस्कृति


अचार हमारे लिए
पीढ़ियों की विरासत
एक समूची संस्कृति है
दादी की दादी लगाती थी अचार
नानी की नानी लगाती थी अचार
मां भी लगाती है अचार
अब बहन भी


बचपन से
अचार हमारे जीवन का
सबसे रंगीन हिस्सा
किस्सा होता था
हम किसी भी चीज में
टांक देते थे इसे
अचार हमारे अभाव के दिनों का साथी था
भरे पूरे दिनों में भी
भरपूर साथ है


खाने का कोई किस्सा हो
अचार उसमें मुखिया रहता
कभी अचार के साथ
खा लेते रोटी
चावल दाल अचार धरती का
सबसे स्वादिष्ट खाना होता
स्कूल की टिफिन में भी
मां रख देती
थोड़ा अचार


अचार के स्वाद से
पता लग जाता
किन हाथों का
लगाया अचार है
दरअसल अचार
सिर्फ अचार नहीं होता
विरासत से छनता हुआ
प्रेम होता है
पूरी की पूरी
संस्कृति होती है


अब थोड़ा चिंतित हूं
अचार के बाजारुपन से
कहीं बाज़ार न खा जाए
हमारी विरासत को
एक पूरी संस्कृति को
और अचार में
रिसते हुए प्रेम को।


सिर्फ स्त्री होना मां होना नहीं है


ना सिर्फ पुरुष होना पिता होना  है
स्त्री  और मातृत्व दोनो एक नहीं है
ना पुरुष और पितृत्व दोनों एक  है
दरअसल यह मौलिक रूप से
थोपी  गई अवधारणाएं हैं


कई बार एक पुरुष मां ज्यादा होता है
और पिता कम
कई बार एक स्त्री मां कम होती है
पिता ज्यादा
एकल मां के बच्चों से
अनुमान लगाना कठिन है
वह मां ज्यादा है कि पिता
एकल पिता के बच्चों से
अनुमान लगाना कठिन है
कि वह पिता ज़्यादा है या मां
यह सारी चीजें जरूरत, अभाव
और वक्त का समीकरण भर है


एक स्त्री अपने बच्चों के लिए
दो जून की रोटी जुगाड़ते जुगाड़ते
कब पिता हो जाती है
एक पुरुष अपने बच्चों को पालते पालते
कब मां बन जाता है
अंदाजा नहीं लग पाता
इसमें बहुत बारीक सी रेखा होती है
जो कभी भी लांघी जा सकती है
इसका लांघा जाना ही
बताता है कि
मां और पिता
की बुनावट
स्त्री और पुरूष
के धागों से नहीं
बल्कि मां और पिता
के अलग अलग धागों से होती है।





माँ पर कविता लिखना


जब भी लिखना चाहता हूं
मां पर कविता
लिख नहीं पाता
आंख लिखने लगती है
बचपन से मां
हमारे लिए अलादीन का चिराग थी
हम जान ही नहीं पाते थे
उसके अपने  भी
कुछ दुःख होते हैं
हमारे लिए तो
वो मलहम थी
जिसे किसी भी चोट पर
लगा लेते थे हम
हम नहीं समझ पाते थे
क्यों करती है मां
हाड़ तोड़ मेहनत
अब कुछ कुछ
जान पाता हूं
जिंदगी की धूप
उसे बैठने नहीं देती थी
जब तक हमारे पेट का
कोई भी हिस्सा
खाली रहता था
मां कुछ खाती नहीं थी
पूछने पर
मां कहती
भूख नहीं है अभी
अपने पैरों पर चलना सिखा कर
अपने पैरों पर खड़े होने के लिए
कई बार विदा किया
मां ने
हर बार उसके
हाथ नहीं हिलते थे
आंख हिल जाती थी
विदा करने के क्षणों से ले कर
लौटने तक
मां का कुशल क्षेम पूछना
अब दिनचर्या में शामिल था


आज जब हम अपने पैरों पर
खड़े हो गए हैं
आज भी
मां के वही सवाल हैं
खाना ठीक से खा लिया
तबीयत ठीक है
आज भी मां को
भूख नहीं लगती
हमें देख कर
अब जब कि मां की उम्र
कुछ ढल चुकी है
उसे भी जरूरत है
एक मां की।


जिंदगी के अर्थ


मैंने खोजने शुरू किए
ज़िन्दगी के अर्थ
जिंदगी के मायने तलाशने लगा
बहुत सारी दार्शनिक किताबों को खंगाल डाला
कितनी दार्शनिक बहसों में उलझा रहा
देर देर तक ध्यान में
बैठा रहा शून्य


कभी खुद सोचता
जीवन क्या है
एक साइलेंट मृत्यु
सोचता मृत्यु क्या है
एक नया जीवन
सब बातों में उलझा उलझा
एक दिन मैंने
पेड़ लगाने शुरू किए
पौधों की रोपनी शुरू की
बीज हवा धूप ताप पानी
के संतुलन से
उनमें कोंपले फूटने लगी
फिर मैंने सजाने शुरू किए
बिटिया के खिलौने
उसकी जिंदगी के लिए
एक सुगम कर्ता बन गया
मां की दवा देने लगा समय पर
कुछ वक्त साथ में बिताने लगा
बैठ कर सुनने लगा
उनके कुछ दुख
बाबा के खेतों में धान रोपने लगा
खाद पानी की जुगत में लग गया
किसी की धसी हुई आंखों को आकार देने लगा
बंजर पड़ गए चेहरों को पानी देने लगा
लोगों की पेट की आग से सिकता गया अंदर तक
फिर कुछ गुनने बुनने लगा


इन दिनों मैं
रोटियां बेलता हूं
रफू करता हूं
बीज बीनता हूं
नदी लिखता हूं
आकाश  ताकता हूं
जमीन सोचता हूं।


तथागत नहीं बन सकता

माफ करना  बुद्ध
मैं तथागत नहीं हो सकता
हालांकि जानता हूं कि
मृत्यु जीवन की अंतिम घटना है
खो जाता है सब कुछ एक शून्य में
ब्रह्मांड की अतल गहराइयों में
एक खाली आकाश भरा रहता है
फिर भी मैं जीवन के संगीत पर
थिरकना चाहता हूं
गाना चाहता हूं
लिखना चाहता हूं
प्रेम पर कविता
करना चाहता हूं प्रेम
प्रेम पाना चाहता हूं


कई बार गहरे
ध्यान में जाने के बाद भी
खुल जाती है आंख
किसी रोते बच्चे की आवाज सुन कर
किसी रोगी की पीड़ा सुन कर
किसी मां को उदास सोच कर
किसी बेटी का पिता सोच कर
किसी भूखे का पेट सोच कर


माफ करना बुद्ध
बहुत गहरे प्रभावित होने के बाद भी
मैं तथागत नहीं बन सकता।




 मृत्यु

मृत्यु होती है कई रूपों में कई बार
कई बार पूरी की पूरी, समूची
कई बार छोटे-छोटे टुकड़ों में
पहली मृत्यु तब होती है
जब व्यक्ति अपने शरीर की किसी भी रूप में
उपस्थिति की संभावना को खारिज कर
इस दुनिया की पटकथा से
हमेशा के लिए विदा कह देता है


दूसरी मृत्यु तब होती है
व्यक्ति सब कुछ सहन करता जाता है
अंदर ही अंदर घुटता जाता है
प्रतिरोधशून्यता की स्थिति में होता है


तीसरी मृत्यु तब होती है
जब प्रेम अलविदा कहता है
और व्यक्ति मूकदर्शक बन कर
अपनी भागीदारी का मुहर लगा देता है


चौथी मृत्यु तब होती है
जब व्यक्ति अपने आसपास
भय के खोल में सिमटा रहता है
एक अंतहीन भय के आवरण में


पांचवी मृत्यु तब होती है
जब व्यक्ति कुछ भी उपजा नहीं पाता
लाख कोशिशों के बावजूद


अंतिम मृत्यु तब होती है
जब आदमी मर जाता है अंदर से
और देखता रहता है
आंख खोल कर टुकुर टुकुर।



उसकी जीत 

बचपन से सुनता है आया हूं
जीत के किस्से
जीत के स्वाद के बारे में सुनता आया हूं
लेकिन इन दिनों
हारना सीख गया हूं
हार जाता हूं हर उस बच्चे से
जो तन कर खड़ा हो जाता है
मुझसे तेज चल कर दौड़ने के लिए
बाल तेज फेंक कर ताली पीटने के लिए
दूध भरा कटोरा मिनटों में खाली कर देता है
मुझे हराने के लिए


हार जाता हूं
उससे पंजा लड़ाने में भी
उसकी जीत की खुशी
आंखों में देखने के लिए
उसकी जीत ही मुझे
जीता देती है
दुनिया के तमाम उदासियों से।


कुछ इस तरह ही आई थी जिंदगी में


जब भी रात में नींद खुलती है
मैं सोचने लगता हूं कविता
फिर सोचते सोचते
सो जाता हूं
देखने लगता हूं सपना
सुबह उठता हूं तो
कुछ भी साथ नहीं रहता रहता
ना कविता ना सपना
तुम भी कुछ इस तरह ही आई थी जिंदगी में।





तुम


तुमने कहा प्रेम
मैंने दो अजूरी पानी भर कर
तुम्हें पिला दिया
गुनगुनी धूप में
एक कप चाय के साथ
तुम्हारे माथे को
हल्का सा सहला दिया
तुमने कहा भरोसा
मैंने तुम्हारे
दोनों हाथों को
कस कर पकड़ लिया।



रोटी अवाक थी


जिसने बेला, सेंका, पकाया
उसने नहीं खाई रोटी
वो तवे की तरह
जल गई
रोटी अवाक थी


विदा होते वक्त

विदा होते वक्त
बेटियां रो देती हैं
पिता सूख जाते हैं।


गुल्लक


जब गुल्लक
खाली हो तब
धरती पर
एक ही चिंता
गुल्लक भरने की होती है


जब गुल्लक भर जाता है
तब धरती की
तमाम चिंताएं
घेर लेती हैं।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)


सम्पर्क

मोबाइल : 9452588388

टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 23.7.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
    धन्यवाद
    दिलबागसिंह विर्क

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'