जगदीश स्वामीनाथन की कविताएँ

जगदीश स्वामीनाथन



भारत के एक प्रमुख पेण्टर जगदीश स्वामीनाथन ने कविताएँ भी लिखी हैं। बहुत कम लोग यह बात जानते हैं। स्वामीनाथन पूरी दुनिया में जे० स्वामीनाथन के नाम से जाने जाते हैं। शिमला में एक दक्षिण भारतीय परिवार में जन्मे और कथाकार निर्मल वर्मा व उनके बड़े भाई चित्रकार राम कुमार वर्मा के साथ शिमला के एक ही स्कूल में पढ़े जगदीश स्वामीनाथन ने चित्रकला की कोई औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं की थी, लेकिन फिर भी उनकी गिनती मक़बूल फ़िदा हुसैन, सूजा, रज़ा, अंजलि इला मेनन, जतिन दास और राम कुमार जैसे प्रसिद्ध चित्रकारों के बीच की जाती है। आज हम पहली बारके पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं जगदीश स्वामीनाथन की दुर्लभ कविताएँ। ये कविताएँ सबसे पहले 1966 में जे. स्वामीनाथन की एक कला-प्रदर्शनी के दौरान सामने आई थीं। उसके बाद 1984 में इन्हें पहली बार प्रकाशित किया गया था। आशा है, हमारी यह प्रस्तुति आपको पसन्द आएगी।


जगदीश स्वामीनाथन



जे. स्वामीनाथन की कविताएँ और चित्र (पेण्टिंग्स)



पुराना रिश्ता

परबत की धार पर बाँहें फैलाए खड़ा है
जैसे एक दिन
बादलों के साथ आकाश में उड़ जाएगा जंगल
कोकूनाले तक उतरे थे ये देवदार
और आसमान को ले आए थे इतने पास
कि रात को तारे जुगनू से
गाँव में बिचरते थे
अब तो बस
जब मक्की तैयार होती है
तब एक ससुरा रीछ
पास से उतरता है
छापेमार की तरह बरबादी मचाता है
अजी क्या तमंचे, क्या दुनाली बंदूक
सभी फ़ेल हो गए महाराज
बस, अपने ढंग का एक ही, बूढ़ा खुर्राट
न जाने कहाँ रह गया इस साल  



जलता दयार


झींगुर टर्राने लगे हैं
और खड्ड में दादुर
अभी हुआ-हुआ के शोर से
इस चुप्पी को छितरा देंगे सियार
ज़रा जल्दी चलें महाराज
यह जंगल का टुकड़ा पार हो जाए
फिर कोई चिन्ता की बात नहीं
हम तो शाट-कट से उतर रहे हैं
वरना अब जंगल कहाँ रहे
देखा नहीं आपने
ठेकेदार के उस्तरे ने
इन पहाड़ों की मुण्डिया किस तरह साफ़ कर दी
डर जानवरों का नहीं महाराज
वे तो ख़ुद हम आप से डर कर
कहीं छिपे पड़े होंगे
डर है उस का
उस एक बूढ़े दयार का
जो रात के अँधेरे में कभी-कभी निकलता है
जड़ से शिखर तक
मशाल-सा जल उठता है
एक जगह नहीं टिकता
सन्तरी की तरह इस जंगल में गश्त लगाता रहता है
उसे जो देख ले
पागल कुत्ते के काटे के समान
पानी के लिए तड़प-तड़प कर
दम तोड़ देता है
ज़रा हौसला करो महाराज
अब तो बस, बीस पचास क़दम की बात है
वह देखो उस सितारे के नीचे
बनिये की दुकान की लालटेन टिमटिमा रही है
वहाँ पहुँच कर
घड़ी भर सुस्ता लेंगे। 




मनचला पेड़


बीज चलते रहते हैं हवा के साथ
जहाँ गिरते हैं थम जाते हैं ढीठ
बिरक्स बन जाते हैं
और टिके रहते हैं कमबख़्त
बगलों की तरह, या कि जोगी हैं महाराज
आज तो आकाश निम्मल है
पर पार साल
पानी ऐसा बरसा कि पूछो मत
हम पहाड़ के मानुस भी सहम गए



एक रात
ढाक गिरा और उसके साथ
हमारा पंद्रह साल बूढ़ा रायल का पेड़
जड़ समेत उखड़ कर चला आया
धार की ऊँचाई से धान की क्यार तक
(
अब जहाँ खड़ा था वहाँ मुझे तकलीफ़ थी
यार बोरड़ खा गए थे बेवकूफ़)
सेटिंग ठीक न होने पर दस पेटी देता था, दस
मैं तो सिर पीट कर रह गया मगर
लम्बरदारिन ने नगाड़े पर दी चोट पर चोट
इकट्ठा हो गया सारा गाँव
गड्ढा खोदा, रात भर लगे रहे पानी में
और खड़ा किया मनचले को नए मुक़ाम पर
अचरज है, ससुरा इस साल फिर फल से लदा है 





ग्राम देवता


ये मन्दिर पाण्डुओं ने बनाया है
पहले यहाँ
इस टीले के सिवा कुछ न था



काल के उदर में पगी
इसकी शहतीरों को देखो
पथरा गई हैं
और इसके पत्थर ठोंको
फौलाद-सा बोलते हैं
चौखट के पीछे
काई में भीगी इसके भीतर की रोशनी
गीली
नम
जलमग्न गुफ़ा
कोख में जिसके
गिलगिला पत्थर
गुप्त विद्याओं को संजोए
मेंढ़कनुमा
बैठा है हमारे गाँव का देवता
न जाने कब से



पहले यहाँ कुछ न था
इस टीले के सिवा
बस,
ये नंगा टीला
पीछे गगन के विस्तार को नापता
धौलाधार
अधर में मण्डराता पारखी
नीचे
घाटी में रेंगती पारे की लीक
गिरी गंगा के किनारे
श्मशान
पराट की झिलमिलाती छत
बीस घर उस पार
दस बारह इधर जंगल के पास



चीड़ों के बीच
धूप-छाँव का उँधियाता खेल
कगार पर बैठी
मिट्टी कुरेदती सपना छोरी
हरी पोशाक ढाटू लाल गुड़हल-सा
सूरज
डिंगली से डिंगली किरण पुंजों के मेहराब
सजाती ठहरती सरसराती हवा
तितलियों-सा डोलती
टीले पर दूब से खेलती
धूप
सीसे में ढलता पानी
चट्टान पर
टकटकी बाँधे
गिरगिट का तन्त्रजाल
धौनी सी धड़कती छाती दोपहर की
यहाँ पहले कुछ न था
इस टीले के सिवा



ये मन्दिर पाण्डुओं ने बनाया है
रातों-रात
कहते हैं
यहाँ पहले कुछ न था
दिन ढलते
एक अन्देशे के सिवा
अनहोनी का एक अहसास
यकायक आकाश सुर्ख़ हो गया था
गिरी गंगा लपलपा उठी थी
महाकाल की जिह्वा की तरह
यकायक बिदक गए थे
गाम लौटते डंगर
फटी आँखे लपकी थी खड्ड की ओर
पगडण्डी छोड़
इधर उधर सींगें उछाल
चढ़ गए थे धार पर बदहवास
चरवाहा
दौड़ पड़ा था बावला-सा
गाँव की ओर



कौवे उठ-उठ कर गिरते थे वृक्षों पर
और जंगल एक स्याह धब्बे-सा
फैलता चला गया था हाशिए तोड़
सिमट गया था घरों के भीतर
सहमा-दुबका सारा गाँव



रात भर आकाश
गड़गड़ाता रहा फटता रहा बरसता रहा
टूटती रही बिजली गिरती रही रात भर
कहते हैं स्वयं
ब्रह्मा विष्णु महेश
उतरे थे धरती पर
पाण्डुओं की मदद और
धरती के अशुभ रहस्यों से निबटने के लिए
लाए थे हाटकोटी से देवदार की
सप्त-सुरों वाली झालर-शुदा शहतीरें
चैट के लिए पीने तराशे स्लेट
दीवारों के लिए बैद्यनाथ से पत्थर
और काँगड़े में ढली ख़ास
अष्ट धात की मूर्ति
शिखर के लिए काँस-कलश
रातोंरात
ये मन्दिर पाण्डवों ने बनाया है



सुबह
जब बुद्धुओं की तरह घर लौटते
पशुओं की घण्टियों के साथ
कोहरा
छँटा
वही निम्मल नीला आकाश
और धुन्ध से उबरते टीले पर
न जाने कब से खड़ा ये मन्दिर
हवा में फहराती जर्जर पताका
मानो कुछ हुआ ही न हो



बस!
न जाने कब
रातों-रात
गर्भगृह को चीर
धरती से प्रकट हुआ
ये चिकना पत्थर
आदिम कालातीत
गाँव की नियति का पहरेदार
दावेदार
चौखट के पीछे
काई में सिंची भीतर की रोशनी
गीली
नम
जलमग्न गुफ़ा
कोख में जिसके
गुप्त विद्याओं को समेटे
मेंढ़कनुमा
हमारे गाँव का देवता
न जाने कब से
यहाँ पहले कुछ न था
इस टीले के सिवा  




कौन मरा


वह आग देखते हो आप
सामने वह जो खड्ड में पुल बन रहा है
अरे, नीचे नाले में वह जो टरक ज़ोर मार रहा था
पार जाने के लिए
ठीक उसकी सीध में
जहाँ वह बेतहाशा दौड़ती, कलाबाज़ियाँ खाती
सर धुनती नदिया
गिरिगंगा में जा भिड़ी है
वहीं किनारे पर है हमारे गाँव का शमशान
ऊपर पुडग में या पार जंगल के पास
मास्टर के गाँव में
या फिर ढाक के ये जो दस-बीस घर टिके हैं



या अपने ही इस चमरौते में
जब कोई मानुस खत्म हो जाता है
तब हम लोग नगाड़े की चोट पर
उसे उठाते हुए
यहीं लाते हैं, आग के हवाले करते हैं
लेकिन महाराज
न कोई खबर न संदेसा
न घाटी में कहीं नगाड़े की गूँज
सुसरी मौत की-सी इस चुप्पी में
यह आग कैसे जल रही है।  



दूसरा पहाड़


यह जो सामने पहाड़ है
इसके पीछे एक और पहाड़ है
जो दिखाई नहीं देता
धार-धार चढ़ जाओ इसके ऊपर
राणा के कोट तक
और वहाँ से पार झाँको
तो भी नहीं
कभी-कभी जैसे
यह पहाड़
धुँध में दुबक जाता है
और फिर चुपके से
अपनी जगह लौट कर ऐसे थिर हो जाता है
मानो कहीं गया ही न हो
-
देखो न
वैसे ही आकाश को थामे खड़े हैं दयार
वैसे ही चमक रही है घराट की छत
वैसे ही बिछी हैं मक्की की पीली चादरें
और डिंगली में पूँछ हिलाते डंगर
ज्यों की त्यों बने हैं,
ठूँठ-सा बैठा है चरवाहा
आप कहते हो, वह पहाड़ भी
वैसे ही धुँध में लुपका है, उबर आएगा
अजी ज़रा आकाश को तो देखो
कितना निम्मल है
न कहीं धुँध, न कोहरा, न जंगल के ऊपर अटकी
कोई बादल की फुही
वह पहाड़ दिखाई नहीं देता महराज
उस पहाड़ में गूजराँ का एक पड़ाव है
वह भी दिखाई नहीं देता
न गूजर, न काली पोशाक तनी
कमर वाली उनकी औरतें
न उनके मवेशी, न झबड़े कुत्ते
रात में जिनकी आँखें
अँगारों-सी धधकती हैं
इस पहाड़ के पीछे जो वादी है महाराज
वह वादी नहीं, उस पहाड़ की चुप्पी है
जो बघेरे की तरह घात लगाए बैठा है।  




सेव और सुग्गा


मैं कहता हूँ महाराज
इस डिंगली में आग लगा दो
पेड़ जल जाएँगे तो कहाँ बनाएँगे घोंसले
ये सुग्गे
देखो न, इकट्ठा हमला करते हैं
एक मिनट बैठे, एक चोंच मारा और
गए
कि सारे दाने बेकार
सुसरों का रंग कैसा चोखा है लेकिन
देखो न
बादलों के बीच हरी बिजली कौंध रही है
भगवान का दिया है
लेने दो इनको भी अपना हिस्सा
क्यों महाराज?  



गाँव का झल्ला


हम मानुस की कोई जात नहीं महाराज
जैसे कौवा कौवा होता है, सुग्गा, सुग्गा
और ये छितरी पूँछ वाले अबाबील, अबाबील
तीर की तरह ढाक से घाटी में उतरता बाज, बाज
शेर, शेर होता है, अकेला चलता है



सियार, सियार
बन्दर सो बन्दर, और कगार से कगार पर
कूद जाने वाला काकड़, काकड़
जानवर तो जानवर सही
बनस्पति भी अपनी-अपनी जात के होते हैं
कैल, कैल है, दयार, दयार
मगर हम मानुस की कोई जात नहीं
आप समझे न
मेरा मतलब इससे नहीं कि ये मंगत कोली है
मैं राजपूत
और वह जो पगडण्डी पर छड़ी टेकता
लंगड़ाता चला आ रहा है इधर
बामन है, गाँव का पण्डत
और आप, आपकी क्या कहें
आप तो पढ़े-लिखे हो महाराज
समझे न आप, हम मानुस की कोई
जात नहीं
हम तो बस, समझे आप,
कि मुखौटे हैं, मुखौटे
किसी के पीछे कौवा छुपा है
तो किसी के पीछे सुग्गा
सुयार भतेरे, भतेरे बन्दर
और सब बच्चे काकड़ काकड़या हरिन, क्यों महाराज
शेर कोई-कोई, भेड़िए अनेक
वैसे कुछ ऐसे भी, जिनकी आँखों में कौवा भी देख लो
सियार भी, भेड़िया भी
मगर ज़्यादातर मवेशी
इधर-उधर सींगें उछाल
इतराते हैं
फिर जिधर को चला दो, चल देते हैं
लेकिन कभी-कभी कोई ऐसा भी टकराता है
जिसके मुखौटे के पीछे, जंगल का जंगल लहराता है
और आकाश का विस्तार
आँखों से झरने बरसते हैं, या ओंठ यूँ फैलते हैं
जैसे घाटी में बिछी धूप
मगर यह हमारी जात का नहीं
देखा न मन्दर की सीढ़ी पर कब से बैठा है
सूरज को तकता, ये हमारे गाँव का झल्ला।  




(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स जगदीश स्वामीनाथन की हैं।) 

टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 2.7.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा -3750 पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
    धन्यवाद
    दिलबागसिंह विर्क

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  2. ठेकेदार के उस्तरे ने
    इन पहाड़ों की मुण्डियाँ किस तरह साफ़ कर दी है... इन कविताओं को बार-बार पढ़ने का मन कर रहा है वैसे ही चित्रों से आँखें ही नहीं हटतीं।

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