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ख़ान मोहम्मद सिंध की अफगान कहानी 'तमाशा'

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  रोजमर्रा का काम करने वाले लोगों की अपनी मुश्किलें होती हैं। ऐसा आदमी रोज अपने लिए और अपने घर परिवार के लिए जद्दोजहद करता है। लेकिन उसकी मुश्किलें कम नहीं होतीं। नौकरशाही की संवेदनशून्यता इन मुश्किलों को और भी पेचीदा बना देती है। वैसे भी नौकरशाही का चेहरा काफी कुछ उस पूंजीवाद से मिलता जुलता होता है जिसके यहां संवेदना के लिए कोई जगह नहीं होती। अफगानिस्तान आज भी कबीलाई मानसिकता वाला देश है। गरीबी और जहालत यहां की जैसे पहचान है। इस देश को समूची स्थिति ही मार्मिक है । ख़ान मोहम्मद सिंध ने अपनी इस कहानी के माध्यम से उस गरीब के जीवन को उकेरने का प्रयास किया है जो रोज ही कुंआ खोदने और पानी पीने के लिए अभिशप्त है। मूल रूप से पश्तो में लिखी गई इस कहानी का  अंग्रेज़ी अनुवाद एंडर्स विंडमार्क ने किया है, जिसका हिंदी अनुवाद चर्चित अनुवादक और रचनाकार श्रीविलास सिंह ने किया है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं  ख़ान मोहम्मद सिंध की अफगान कहानी 'तमाशा'। 'तमाशा' ख़ान मोहम्मद सिंध  पश्तो से अंग्रेज़ी अनुवाद: एंडर्स विंडमार्क हिंदी अनुवाद : श्रीविलास सिंह तब साँझ हुए देर ह...

केशव तिवारी की कविताएं

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  केशव तिवारी अपनी ढब के अलग तरह के कवि हैं। स्थानीयता को सार्वभौमिक बनाने की कला में उनका जवाब नहीं। कवि का मिट्टी से कुछ इस तरह का जुड़ाव है जैसे जीवन का सांसों की डोर से। इसीलिए उनकी कविता में सहज ही ऐसे शब्द आते हैं जो देशीयता की सुगन्ध भरपूर लिए हुए होते हैं। वे शब्द जिनके साथ हमारा अतीत जुड़ा है और दुर्भाग्यवश आज जो गुमशुदा से होते जा रहे हैं। आज जब कवि और उनकी कविताएं जैसे एकरूपता का शिकार हो गई हैं, केशव आज के उन विरल कवियों में से एक हैं जिनकी कविता पढ़ कर कवि को आसानी से पहचाना जा सकता है। हाल ही में हिंदगुग्म प्रकाशन से उनका नया संग्रह प्रकाशित हुआ है 'नदी का मर्सिया तो पानी ही गाएगा'। संग्रह से इन कविताओं का चयन किया है कविता के उम्दा पारखी सुधीर सिंह ने। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं केशव तिवारी की कविताएं। केशव तिवारी की कविताएं चैत है कि जंग लगी कटार जिसे बिल्ली काट गई  कल पता चला  उसके ठीक दाहिने कोने  खड़ा एक उम्रदराज गुलमोहर  इस चैत के आते ही चला गया जीवन-संगीत  किसी जोगी की झाँझ की तरह बज रहा था हर बात में मिट्टी की क़सम खाने वाले कि...

नामवर सिंह का आलेख 'मदन महीपजू को बालक बसंत'

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नामवर सिंह बसन्त को ऐसे ही ऋतुओं का राजा नहीं कहा गया है। बसन्त आते ही सहसा समूचा परिदृश्य बदल जाता है। जो मौसम काट खाने को दौड़ता था वह भी बसन्त के सान्निध्य में नरम पड़ गया है। तरह तरह के फूलों ने रंगों को जैसे नए आयाम प्रदान कर दिए हैं। कवि प्रसिद्धि और किसी मौसम में नहीं बल्कि इसी मौसम में सार्थक होती है। इस बसन्त का मोह ही कुछ ऐसा है कि इससे कोई रचनाकार नहीं बचा। प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह का एक आलेख है 'मदन महीपजू को बालक बसंत'। इसे पढ़ कर लगता है नामवर जी ऐसे ही नामवर नहीं थे। उनकी सोच समझ और जानकारी का दायरा काफी बड़ा था। गांव से ले कर राजधानी तक का बहुवर्णी जीवन उनकी दृष्टि में था। आज  नामवर जी की पुण्यतिथि है। पहली बार की तरफ से उन्हें सादर नमन। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं  नामवर सिंह का आलेख 'मदन महीपजू को बालक बसंत'।  (यह आलेख हम सन्तोष भदौरिया की फेसबुक वॉल से साभार ले रहे हैं।) मदन महीपजू को बालक बसंत नामवर सिंह लिखने बैठा कि देव के कवित्त की यह आखिरी कड़ी फिर सुनाई पड़ी। न जाने क्‍या हो गया है मेरे पड़ोसी मित्र को! आज भोर की उनींदी श्रुति मे...

बसंत त्रिपाठी की कविताएँ

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आज के  गलाकाट प्रतिद्वंदिता के दौर में जब सबको पीछे छोड़ कर आगे बढ़ने का सबक सिखाया जा रहा हो, हर व्यक्ति के प्रति सम्मान की भावना रखना अपने आप में कठिन कार्य है। लेकिन कवि इस कठिनाई को अपनी कविता के माध्यम से सहज बना देता है। दमित हो या वंचित, अल्पसंख्यक हो या पिछड़ा सबके प्रति एक सद्भावना कवि के यहां दिखाई पड़ती है। फिर बात प्रेम की हो तो बात कुछ और ही होती है। प्रतिष्ठित कवि बसन्त त्रिपाठी के यहां वह प्रेम है जो आत्मीय है। वह प्रकृति है जो जीवन को उसका अर्थ प्रदान करती है। बसन्त के यहां कोई औपचारिकता, दिखावा या पाखण्ड नहीं। वे मनुष्यता में यकीन रखते हैं। अपनी एक कविता में वह लिखते हैं 'ध्यान बस इतना रखूँ कि मेरे हिस्से की धूप/ किसी की छीनी हुई रोशनी न हो/ सुख केवल इतना/ कि दुखी न हो जाए कोई/ मेरे घर में खिली चमेली/ सबको बाँटे एक-सा सुगन्ध/ मेरे आम के पेड़ पर/ पत्थर भी बरसे तो/ आम ही मिले'। बसन्त त्रिपाठी का हाल ही में एक नया कविता संग्रह प्रकाशित हुआ है 'घड़ी दो घड़ी'। कवि को संग्रह के लिए बधाई देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनके इस संग्रह की कुछ चुनिंदा कविताएं। बसं...

प्रज्वल चतुर्वेदी की कविताएं

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  प्रज्वल चतुर्वेदी कविता मानव मन की वह सघन संवेदनात्मक अनुभूति है जिसे हर समय महसूस किया जा सकता है। हालांकि इस अनुभूति को शब्दबद्ध करने की क्षमता कवियों में ही होती है। एक ही समय में कई पीढ़ियों के रचनात्मक रूप से सक्रिय होना इसका बेहतर उदाहरण है। इलाहाबाद को साहित्यिक राजधानी के रूप में एक लम्बे समय तक देखा गया। हालांकि वह समय बीत गया लेकिन आज भी साहित्यिक जगत की नजरें इलाहाबाद की तरफ लगी रहती हैं। लोग अक्सर ही यह सवाल मुझसे पूछते हैं कि इधर नई पीढ़ी में कौन लिख पढ़ रहा है। जवाब इस दौर के साथ नत्थी मिलता है। इलाहाबाद में कई नए कवि बेहतरीन लिख रहे हैं। प्रज्वल चतुर्वेदी इन कवियों में महत्त्वपूर्ण हैं। भाषा और बिंब के तौर पर प्रज्वल ने कम समय में ही अपनी पहचान बना ली है। उनकी कविताएं ही इस बात की गवाह हैं। अरसा पहले हमने 'वाचन पुनर्वाचन' नामक एक स्तम्भ पहली बार पर आरम्भ किया था जिसमें एक कवि दूसरे कवि पर लिखता है। कुछ कारणवश यह शृंखला आगे नहीं बढ़ पाई थी। लेकिन एक बार फिर हम यह सिलसिला आरम्भ कर रहे हैं जिसमें कुछ नए कवियों पर टिप्पणी करेंगे अग्रज कवि नासिर अहमद सिकन्दर। साथ ही...