महादेवी वर्मा का रेखाचित्र 'घीसा'
कोई भी चित्रकार रेखाओं के द्वारा अपने चित्र का अंकन करता है। इसी तरह जब कोई शब्दकार अपने शब्दों के जरिए कोई चित्र अपने पाठकों के सामने खींच दे उसे रेखाचित्र कहा जाता है। महादेवी वर्मा प्रख्यात रेखाचित्रकार रही हैं। उनके रेखाचित्र पढ़ कर जैसे वस्तु, घटना, परिस्थिति या समय जैसे साकार हो उठता है। 'घीसा' उनके द्वारा लिखा गया ऐसा ही रेखाचित्र है जिसमें एक सामान्य बच्चे घीसा का अनुभूतिपरक वर्णन किया गया है। आज महादेवी वर्मा की जयन्ती पर उन्हें नमन करते हुए हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं महादेवी वर्मा का रेखाचित्र 'घीसा'। इस रेखाचित्र को हमने हिंदवी से साभार लिया है।
घीसा
महादेवी वर्मा
वर्तमान की कौन-सी अज्ञात प्रेरणा हमारे अतीत की किसी भूली हुई कथा को संपूर्ण मार्मिकता के साथ दोहरा जाती है यह जान लेना सहज होता तो मैं भी आज गाँव के उस मलिन सहने नन्हें से विद्यार्थी की सहसा याद आ जाने का कारण बता सकती जो एक छोटी लहर के समान ही मेरे जीवन-तट को अपनी सारी आर्द्रता से छू कर अनंत जल-राशि में विलीन हो गया है।
गंगा पार झूँसी के खँडहर और उसके आस-पास के गाँवों के प्रति मेरा जैसा अकारण आकर्षण रहा है उसे देख कर ही संभवतः लोग जन्म-जन्मान्तर के संबंध का व्यंग करने लगे हैं। है भी तो आश्चर्य की बात! जिस अवकाश के समय को लोग इष्ट मित्रों से मिलने, उत्सर्वों में सम्मिलित होने तथा अन्य आमोद-प्रमोद के लिए सुरक्षित रखते हैं उसी को मैं इस खँडहर और उसके क्षतविचत चरणों पर पछाड़ें खाती हुई भागीरथी के तट पर काट ही नहीं, सुख से काटदेती हूँ।
दूर पास बसे हुए गुड़ियों के बड़े-बड़े घरौंदों के समान लगने वाले कुछ लिपे-पुते, कुछ जीर्ण-शीर्ण घरों से स्त्रियों का जो झुंड पीतल ताँबे के चमचमाते, मिट्टी के नए लाल और पुराने भदरंग घड़े ले कर गंगाजल भरने आता है उसे भी मैं पहचान गई हूँ। उनमें कोई बूटेदार लाल, कोई निरी काली, कोई कुछ सफ़ेद और कोई मैल और सूत में अद्वैत स्थापित करने वाली कोई कुछ नई और कोई छेदों से चलनी बनी हुई धोती पहने रहती है। किसी की मोम लगी पाटियों के बीच में एक अंगुल चौड़ी सिंदूर रेखा अस्त होते हुए सूर्य की किरणों में चमक रहती है और किसी की कडूवे तेल से भी अपरिचित रूसी जटा बनी हुई छोटी-छोटी लटै मुख को घेर कर उसकी उदासी को और अधिक केंद्रित कर देती है। किसी की साँवली गोल कलाई पर शहर की कढ़ी नगदार चूड़ियों के नग रह-रह कर हीरे-से चमक जाते हैं और किसी के दुर्बल काले पहुँचे पर लाख की पीली-मैली चूड़ियाँ काले पत्थर पर मटमैले चंदन की मोटी लकीरें जान पड़ती हैं। कोई अपने गिलट के कड़े-युक्त हाथ घड़े की ओट में छिपाने का प्रयत्न-सा करती रहती है और कोई चाँदी के पछेली-ककना की झनकार के ताल के साथ ही बात करती है। किसी के कान में लाख की पैसे वाली तरकी धोती से कभी-कभी झाँक भर लेती है और किसी की ढारें लंबी ज़ंजीर से गला और गाल एक करती रहती हैं। किसी के गुदना गुदे गेहुँए पैरों में चाँदी के कड़े सुडौलता की परिधि-सी लगते हैं और किसी की फैली उँगलियों और सफ़ेद एड़ियों के साथ मिली हुई स्याही राँग और काँसे के कड़ों को लोहे की साफ़ की हुई बेड़ियाँ बना देती है।
वे सब पहले हाथ-मुँह धोती हैं फिर पानी में कुछ घुस कर घड़ा भर लेती है−तब घड़ा किनारे रख सिर पर इँडुरी ठीक करती हुई मेरी ओर देख कर कभी मलिन, कभी उजली, कभी दुःख की व्यथा-भरी, कभी सुख की कथा-भरी मुस्कान से मुस्कुरा देती हैं। अपने मेरे बीच का अंतर उन्हें ज्ञात है तभी कदाचित वे इस मुस्कान के सेतु से उसका वार-पार जोड़ना नहीं भूलतीं।
ग्वालों के बालक अपनी चरती हुई गाय भैंसों में से किसी को उस ओर बहकते देख कर ही लकुटी ले कर दौड़ पड़ते हैं, गड़रियों के बच्चे अपने झुंड की एक बकरी या भेड़ को उस ओर बढ़ते देख कर कान पकड़ कर खींच ले जाते हैं और व्यर्थ दिन भर गिल्ली-डंडा खेलने वाले निठल्ले लड़के भी बीच-बीच में नज़र बचा कर मेरा रुख़ देखना नहीं भूलते।
उस पार शहर में दूध बेचने जाते या लौटते हुए वाले क़िले में काम करने जाते या घर आते हुए मज़दूर, नाव बाँधते या खोलते हुए मल्लाह कभी-कभी ‘चुनरी त रँगाउब लाल मजीठी हो' गाते गाते मुझ पर दृष्टि पड़ते ही अचकचा कर चुप हो जाते हैं। कुछ विशेष सभ्य होने का गर्व करने वालों से मुझे एक सलज्ज नमस्कार भी प्राप्त हो जाता है।
कह नहीं सकती कब और कैसे मुझे उन बालकों को कुछ सिखाने का ध्यान आया। पर जब बिना कार्यकारिणी के निर्वाचन के, बिना पदाधिकारियों के चुनाव के, बिना भवन के, बिना चंदे की अपील के और सारांश यह कि बिना किसी चिरपरिचित समारोह के मेरे विद्यार्थी पीपल के पेड़ की घनी छाया में मेरे चारों ओर एकत्र हो गए तब में बड़ी कठिनाई से गुरु के उपयुक्त गंभीरता का भार वहन कर सकी।
और वे जिज्ञासु कैसे थे सो कैसे बताऊँ! कुछ कानों में बालियाँ और हाथों में कड़े पहने, धुले कुरते और ऊँची मैली धोती में नगर और ग्राम का सम्मिश्रण जान पड़ते थे, कुछ अपने बड़े भाई का पाँच तक लंबा कुरता पहने, खेत में डराने के लिए खड़े किए हुए नक़ली आदमी का स्मरण दिलाते थे, कुछ उभरी पसलियों, बड़े पेट और टेढ़ी दुर्बल टाँगों के कारण अनुमान से ही मनुष्य संतान की परिभाषा में आ सकते थे और कुछ अपने दुर्बल रूखे और मलिन मुखों की करुण सौम्यता और निष्प्रभ पीली आँखों में संसार भर की उपेक्षा बटोरे बैठे थे। पर घीसा उनमें अकेला ही रहा और आज भी मेरी स्मृति में अकेला ही आता है।
वह गोधूली मुझे अब तक नहीं भूली! संध्या के लाल सुनहली आभा वाले उड़ते हुए दुकूल पर रात्रि ने मानो छिप कर अंजन की मूठ चला दी थी। मेरा नाव वाला कुछ चिंतित-सा लहरों की ओर देख रहा था; बूढ़ी भक्तिन मेरी किताबें, काग़ज़ क़लम आदि सँभाल कर नाव पर रख कर, बढ़ते अंधकार पर खिजला कर बुदबुदा रही थी या मुझे कुछ सनकी बनाने वाले विधाता पर, यह समझना कठिन था। बेचारी मेरे साथ रहते-रहते दस लंबे वर्ष काट आई है, नौकरानी से अपने आपको एक प्रकार की अभिभाविका मानने लगी है, परंतु मेरी सनक का दुष्परिणाम सहने के अतिरिक्त उसे क्या मिला है! सहसा ममता से मेरा मन भर आया, परंतु नाव की ओर बढ़ते हुए मेरे पैर, फैलते हुए अंधकार में से एक स्त्री-मूर्ति को अपनी ओर आता देख ठिठक रहे। साँवले कुछ लंबे-से मुखड़े में पतले स्याह ओठ कुछ अधिक स्पष्ट हो रहे थे। आँखें छोटी, पर व्यथा से आई थीं। मलिन बिना किनारी की गाढ़े की धोती ने उसके सलूका रहित अंगों को भली भाँति ढक लिया था, परंतु तब भी शरीर की सुडौलता का आभास मिल रहा था। कंधे पर हाथ रख कर वह जिस दुर्बल अर्धनंग बालक को अपने पैरों से चिपकाए हुए थी उसे मैंने संध्या के झुटपुटे में ठीक से नहीं देखा।
स्त्री ने रुक-रुक कर कुछ शब्दों और कुछ संकेत में जो कहा उससे में केवल यह समझ सकी कि उसके पति नहीं है, दूसरों के घर लीपने पोतने का काम करने वह जाती है और उसका यह अकेला लड़का ऐसे ही घूमता रहता है। मैं इसे भी और बच्चों के साथ बैठने दिया करूँ तो यह कुछ तो सीख सके।
दूसरे इतवार को मैंने उसे सबसे पीछे अकेले एक ओर दुबक कर बैठे हुए देखा। पक्का रंग, पर गठन में विशेष सुडौल मलिन मुख जिसमें दो पीली पर सचेत जड़ी-सी जान पड़ती थीं। कस कर मंद किए हुए पतले होठों की दृढ़ता और सिर पर खड़े हुए छोटे-छोटे रूखे बालों की उग्रता उसके मुल की संकोच-भरी कोमलता से विद्रोह कर रही थी। उभरी हड्डियों वाली गर्दन को सँभाले हुए झुके कंधों से रक्त-हीन मटमैली हथेलियों और टेढ़े-मेढ़े कटे हुए नाख़ूनों युक्त हाथों वाली पतली बाहें ऐसे भूलती थीं जैसे ड्रामा में विष्णु बनने वाले की दो नक़ली भुजाएँ। निरंतर दौड़ते रहने के कारण उस लचीले शरीर में दुबले पैर ही विशेष पुष्ट जान पड़ते थे।−बस ऐसा ही था यह घीसा। न नाम में कवित्व की गुंजाइश न शरीर में।
पर उसकी सचेत आँखों में न जाने कौन-सी जिज्ञासा भरी थी। वे निरंतर घड़ी की तरह खुली मेरे मुख पर टिकी ही रहती थी। मानो मेरी सारी विद्या-बुद्धि को सोख लेना ही उनका ध्येय था।
लड़के उससे कुछ खिँचे-खिँचे-से रहते थे। इसलिए नहीं कि वह कोरी था बरन् इसलिए कि किसी की माँ, किसी की नानी, किसी की बुआ आदि ने घीसा से दूर रहने की नितांत आवश्यकता उन्हें कान पकड़-पकड़ कर समझा दी थी। यह भी उन्हीं ने बताया और बताया घीसा के सबसे अधिक कुरूप नाम का रहस्य। बाप तो जन्म से पहले ही नहीं रहा। घर में कोई देखने-भालने वाला न होने के कारण माँ उसे बंदरिया के बच्चे के समान चिपकाए फिरती थी। उसे एक ओर लिटा कर जब वह मज़दूरी के काम में लग जाती थी तब पेट के बल घिसट-घिसट कर बालक संसार के प्रथम अनुभव के साथ-साथ इस नाम की योग्यता भी प्राप्त करता जाता था।
फिर धीरे-धीरे अन्य स्त्रियाँ भी मुझे आते-जाते रोक कर अनेक प्रकार की भावभंगिमा के साथ एक विचित्र सांकेतिक भाषा में घीसा की जन्म-जात अयोग्यता का परिचय देने लगीं। क्रमश: मैंने उसके नाम के अतिरिक्त और कुछ भी जाना।
उसका बाप था तो कोरी, पर बड़ा ही अभिमान और भला आदमी बनने का इच्छुक। डलिया आदि बुनने का काम छोड़ कर वह थोड़ी बढ़ईगीरी सीख आया और केवल इतना ही नहीं, एक दिन चुपचाप दूसरे गाँव से युवती वधू ला कर उसने अपने गाँव की सब सजातीय सुंदरी बालिकाओं को उपेक्षित और उनके योग्य माता-पिता को निराश कर डाला। मनुष्य इतना अन्याय सह सकता है, परंतु ऐसे अवसर पर भगवान की असहिष्णुता प्रसिद्ध ही है। इसी से जब गाँव के चौखट किवाड़ बना कर और ठाकुरों के घरों में सफ़ेदी करके उसने कुछ ठाट-बाट से रहना आरंभ किया तब अचानक हैज़े के बहाने वह वहाँ बुला लिया गया जहाँ न जाने का बहाना न उसकी बुद्धि सोच सकी न अभिमान। पर स्त्री भी कम गर्वीली न निकली। गाँव के अनेक विधुर और अविवाहित कोरियों ने केवल उदारतावश ही उसकी जीवन नैया पार लगाने का उत्तरदायित्व लेना चाहा, परंतु उसने केवल कोरा उत्तर ही नहीं दिया प्रत्युत् उसे नमक-मिर्च लगा कर तीता भी कर दिया। कहा 'हम सिंघ कै मेहरारू होइके का सियारन के जाब।' फिर बिना स्वर-ताल के आँसू गिरा कर, बाल खोल कर, चूड़ियाँ फोड़ कर और बिना किनारे की धोती पहन कर जब उसने बड़े घर की विधवा का स्वाँग भरना आरंभ किया तब तो सारा समाज क्षोभ के समुद्र में डूबने उतराने लगा। उस पर घीसा बाप के मरने के बाद हुआ है। हुआ तो वास्तव में छः महीने बाद, परंतु उस समय के संबंध में क्या कहा जाय जिसका कभी एक क्षण वर्ष सा बीतता है और कभी एक वर्ष क्षण हो जाता है। इसी से यदि वह छः मास का समय रबर की तरह खिंच कर एक साल की अवधि तक पहुँच गया तो इसमें गाँव वालों का क्या दोष!
यह कथा अनेक क्षेपकोमय विस्तार के साथ सुनाई तो गई थी मेरा मन फेरने के लिए और मन फिरा भी, परंतु किसी सनातन नियम से कथावाचकों की ओर न फिर कर कथा के नायकों की ओर फिर गया और इस प्रकार घीसा मेरे और अधिक निकट आ गया। जीवन-संबंधी अपवाद कदाचित् पूरा नहीं समझ पाया था, परंतु अधूरे का भी प्रभाव उस पर कम न था क्योंकि यह सबको अपनी छाया से इस प्रकार बचाता रहता था मानो उसे कोई छूत की बीमारी हो।
पढ़ने, उसे सबसे पहले समझने, उसे व्यवहार के समय स्मरण रखने, पुस्तक में एक भी धब्बा न लगाने, स्लेट को चमचमाती रखने और अपने छोटे से छोटे काम का उत्तरदायित्व बड़ी गंभीरता से निभाने में उसके समान कोई चतुर न था। इसी से कभी-कभी मन चाहता था कि उसकी माँ से उसे माँग ले जाऊँ और अपने पास रख कर उसके विकास की उचित व्यवस्था कर दूँ−परंतु उस उपेक्षिता पर मानिनी विधवा का वही एक सहारा था। वह अपने पति का स्थान छोड़ने पर प्रस्तुत न होगी यह भी मेरा मन जानता था और उस बालक के बिना उसका जीवन कितना दुर्बह हो सकता है यह भी मुझसे छिपा न था। फिर नौ साल के कर्तव्यपरायण घीसा की गुरु-भक्ति देख कर उसकी मातृ-भक्त के संबंध में कुछ संदेह करने का स्थान ही नहीं रह जाता था और इस तरह घीसा यहीं और उन्हीं कठोर परिस्थितियों में रहा जहाँ क्रूरतम नियति ने केवल अपने मनोविनोद के लिए ही उसे रख दिया था।
शनिश्वर के दिन ही यह अपने छोटे दुर्बल हाथों से पीपल की छाया को गोबर-मिट्टी से पीला चिकनापन दे आता था। फिर इतवार को माँ के मज़दूरी पर जाते ही एक मैले फटे कपड़े में बंधी मोटी रोटी और कुछ नमक या थोड़ा चना और एक डली गुड़ बग़ल में दबा कर पीपल की छाया को एक बार फिर झाड़ने बुहारने के पश्चात् वह गंगा के तट पर आ बैठता और अपनी पीली सतेज आँखों पर क्षीण साँवले हाथ की छाया कर दूर-दूर तक दृष्टि को दौड़ाता रहता। जैसे ही उसे मेरी नीली सफ़ेद नाथ की झलक दिखाई पड़ती वैसे ही वह अपनी पतली टाँगों पर तीर के समान उड़ता और बिना नाम लिए हुए ही साथियों को सुनाने के लिए गुरु साहब, गुरु साहब कहता हुआ फिर के नीचे पहुँच जाता जहाँ न जाने कितनी बार दुहराए-तिहराए हुए कार्य-क्रम की एक अंतिम आवृत्ति आवश्यक हो उठती। पेड़ की डाल पर रखी हुई मेरी शीतलपाटी उतार कर बार-बार झाड़ पोंछ कर बिछाई जाती, कभी काम न आने वाली सूखी स्याही से काली कच्चे काँच की दवात, टूटे निब और उखड़े हुए रंगवाले भूरे हरे क़लम के साथ पेड़ के कोटर से निकाल कर यथास्थान रख दी जाती और तब इस चित्र पाठशाला का विचित्र मंत्री और निराला विद्यार्थी कुछ आगे बढ़ कर मेरे प्रथम स्वागत के लिए प्रस्तुत हो जाता।
महीने में चार दिन ही मैं वहाँ पहुँच सकती थी और कभी-कभी काम की अधिकता से एक-आध छुट्टी का दिन और भी निकल जाता था, पर उस थोड़े से समय और इने-गिने दिनों में भी मुझे उस बालक के हृदय का जैसा परिचय मिला वह चित्रों के एल्बम के समान निरंतर नवीन सा लगता है।
मुझे आज भी वह दिन नहीं भूलता जब मैंने बिना कपड़ों का प्रबंध किए हुए ही उन बेचारों को सफ़ाई का महत्व समझाते-समझाते थका डालने की मूर्खता की। दूसरे इतवार को सब जैसे के तैसे ही सामने थे−केवल कुछ गंगा जी में मुँह इस तरह धो आए थे कि मैल अनेक रेखाओं में विभक्त हो गया था, कुछ ने हाथ पाँव ऐसे घिसे थे कि शेष मलिन शरीर के साथ वे अलग जोड़े हुए से लगते थे और कुछ 'न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी' की कहावत चरितार्थ करने के लिए कीट से मैले फटे घर ही छोड़ कर ऐसे अस्थिपंजरमय रूप में उपस्थित हुए थे जिसमें उनके प्राण, 'रहने का आश्चर्य है गये अचंभा कौन' की घोषणा करते जान पड़ते थे। पर घीसा ग़ायब था। पूछने पर लड़के कानाफूसी करने या एक साथ सभी उसकी अनुपस्थिति का कारण सुनाने को आतुर होने लगे। एक-एक शब्द जोड़-तोड़ कर समझना पड़ा कि घीसा माँ से कपड़ा धोने के साबुन के लिए तभी से कह रहा था−माँ को मज़दूरी के पैसे मिले नहीं और दूकानदार ने नाज लेकर साबुन दिया नहीं। कल रात को माँ को पैसे मिले और आज सवेरे वह सब काम छोड़ कर पहले साबुन लेने गई। अभी लौटी है, अतः घीसा कपड़े धो रहा है क्योंकि गुरु साहब ने कहा था कि नहा धो कर कपड़े पहन कर आना और अभागे के पास कपड़े ही क्या थे! किसी दयावती का दिया हुआ एक पुराना कुरता जिसकी एक आस्तीन आधी थी और एक अंगौछा जैसा फटा टुकड़ा। जब घीसा नहा कर गीला अंगौछा लपेटे और आधा भीगा कुरता पहने अपराधी के समान मेरे सामने आ खड़ा हुआ तब आँखें ही नहीं मेरा रोम-रोम गीला हो गया। उस समय समझ में आया कि द्रोणाचार्य ने अपने भील शिष्य से अँगूठा कैसे कटवा लिया था।
एक दिन न जाने क्या सोच कर मैं उन विद्यार्थियों के लिए 5-6 सेर जलेबियाँ ले गई पर कुछ तौलने वाले की सफ़ाई से, कुछ तुलवाने वाले की समझदारी से और कुछ वहाँ की छीना-झपटी के कारण प्रत्येक को पाँच से अधिक न मिल सकीं। एक कहता था मुझे एक कम मिली, दूसरे ने बताया मेरी अमुक ने छीन ली, तीसरे को घर में सोते हुए छोटे भाई के लिए चाहिए, चौथे को किसी और की याद आ गई। पर इस कोलाहल में अपने हिस्से की जलेबियाँ लेकर घीसा कहाँ खिसक गया यह कोई न जान सका। एक नटखट अपने साथी से कह रहा था 'सार एक ठो पिलवा पाले है ओही का देय बरे गा होई' पर मेरी दृष्टि से संकुचित हो कर चुप रह गया। और तब तक घीसा लौटा ही। उसका सब हिसाब ठीक था−जलखईवाले छन्ने में दो जलेबियाँ लपेट कर वह भाई के लिए छप्पर में खोंस आया है, एक उसने अपने पाले हुए, बिना माँ के कुत्तों के पिल्ले को खिला दी और दो स्वयं खा लीं। और चाहिए पूछने पर उसकी संकोच-भरी आँखें झुक गईं−ओठ कुछ हिले पता चला कि पिल्ले को उससे कम मिली है। दें तो गुरु साहब पिल्ले को ही एक और दे दें।
और होली के पहले की एक घटना तो मेरी स्मृति में ऐसे गहरे रंगों से अंकित है जिनका धुल सकना सहज नहीं। उन दिनों हिंदू मुस्लिम वैमनस्य धीरे-धीरे बढ़ रहा था और किसी दिन उसके चरम सीमा तक पहुँच जाने को पूर्ण संभावना थी। घीसा दो सप्ताह से ज्वर में पड़ा था−दवा मैं भिजवा देती थी परंतु देख-भाल का कोई ठीक प्रबंध न हो पाता था। दो चार दिन उसकी माँ स्वयं बैठी रही फिर एक अंधी बुढ़िया को बैठा कर काम पर जाने लगी।
इतवार की साँझ को मैं यथाक्रम बच्चों को विदा दे घीसा को देखने चली; परंतु पीपल से पचास पग दूर पहुँचते न पहुँचने उसी को डगमगाते पैरों से गिरते-पड़ते अपनी ओर आते देख मेरा मन उद्विग्न हो उठा। वह तो पंद्रह दिन से उठा ही नहीं था, अतः मुझे उसके सन्निपातग्रस्त होने का ही संदेह हुआ। उसके सूखे शरीर में तरल विद्युत-सी दौड़ रही थी, आँखें और भी सतेज और मुख ऐसा था जैसे हल्की आँच में धीरे-धीरे लाल होने वाला लोहे का टुकड़ा।
पर उसके वात-ग्रस्त होने से भी अधिक चिंताजनक उसको समझदारी की कहानी निकली। वह प्यास से जाग गया था पर पानी पास मिला नहीं और अंधी मनियों की आजी से माँगना ठीक न समझ कर वह चुपचाप कष्ट सहने लगा। इतने में मुल्लू के कका ने पार से लौट कर दरवाज़े से ही अंधी को बताया कि शहर में दंगा हो रहा है और तब उसे गुरु साहब का ध्यान आया। मुल्लू के कक्का के हटते ही वह ऐसे हौले-हौले उठा कि बुढ़िया को पता ही न चला और कभी दीवार कभी पेड़ का सहारा लेता-लेता इस ओर भागा। अब वह गुरु साहब के गोड़ धर कर यहीं पड़ा रहेगा पर पार किसी तरह भी जाने देगा।
तब मेरी समस्या और भी जटिल हो गई। पार तो मुझे पहुँचना था ही पर साथ ही बीमार घीसा को ऐसे समझा कर जिससे उसकी स्थिति और गंभीर न हो जाए। पर सदा के संकोची नम्र और आज्ञाकारी घीसा का इस दृढ़ और हठी बालक में पता ही न चलता था। उसने पारसाल ऐसे ही अवसर पर हताहत दो मल्लाह देखे थे और कदाचित इस समय उसका रोग से विकृत मस्तिष्क उन चित्रों में गहरा रंग भर कर मेरी उलझन को और उलका रहा था। पर उसे समझाने का प्रयत्न करते-करते अचानक ही मैंने एक ऐसा तार छू दिया जिसका स्वर मेरे लिए भी नया था। यह सुनते ही कि मेरे पास रेल में बैठ कर दूर-दूर से आए हुए बहुत से विद्यार्थी हैं जो अपनी माँ के पास साल भर में एक बार ही पहुँच पाते हैं और जो मेरे न जाने से अकेले घबरा जाएँगे, घीसा का सारा हठ सारा विरोध ऐसे बह गया जैसे वह कभी था ही नहीं। और तब घीसा के समान तर्क की क्षमता किसमें थी! जो साँझ को अपनी माई के पास नहीं जा सकते उनके पास गुरु साहब को जाना ही चाहिए। घीसा रोकेगा तो उसके भगवान जो ग़ुस्सा हो जाएँगे क्योंकि वे ही तो घीसा को अकेला बेकार घूमता देख कर गुरु साहब को भेज देते हैं आदि-आदि। उसके तर्कों का स्मरण कर आज भी मन भर आता है। परंतु उस दिन मुझे आपत्ति से बचाने के लिए अपने बुख़ार से जलते हुए अशक्त शरीर को घसीट लाने वाले घीसा को जब उसकी टूटी खटिया पर लिटा कर मैं लौटी तब मेरे मन में कौतूहल की मात्रा ही अधिक थी।
इसके उपरांत घीसा अच्छा हो गया और धूल और सूखी पत्तियों को बाँध कर उन्मत्त के समान घूमने व गर्मी की हवा से उसका रोज़ संग्राम छिड़ने लगा−झाड़ते-फाड़ते ही वह पाठशाला धूल-धूसरित हो कर, भूरे, पीले और कुछ हरे पत्तों की चादर में छिप कर, तथा कंकालशेप शाख़ाओं में उलझते, सूखे पत्तों को पुकारते वायु की संतप्त सरसर से मुखरित हो कर उस भ्रांत बालक को चिढ़ाने लगती, तब मैंने तीसरे पहर से संध्या समय तक वहाँ रहने का निश्चय किया, परंतु पता चला घीसा किसकिसाती आँखों को मलता और पुस्तक से बार-बार धूल झाड़ता हुआ दिन भर वहीं पेड़ के नीचे बैठा रहता है मानो वह किसी प्राचीन युग का तपोव्रती अनगारिक ब्रह्मचारी हो जिसकी तपस्या भंग करने के लिए ही लू के झोंके आते हैं।
इस प्रकार चलते-चलते समय ने जब दाई छूने के लिए दौड़ते हुए बालक के समान झपट कर उस दिन पर उँगली धर दी जब मुझे उन लोगों को छोड़ जाना था तब तो मेरा मन बहुत ही अस्थिर हो उठा। कुछ बालक उदास थे और कुछ खेलने की छुट्टी से प्रसन्न। कुछ जानना चाहते थे कि छुट्टियों के दिन चूने की टिपकियाँ रख कर गिने जाएँ या कोयले की लकीरें खींच कर। कुछ के सामने बरसात में चूते हुए घर में आठ पृष्ठ की पुस्तक बचा रखने का प्रश्न था और कुछ काग़ज़ों पर अकारण को ही चूहों की समस्या का समाधान चाहते थे। ऐसे महत्वपूर्ण कोलाहल में घीसा न जाने कैसे अपना रहना अनावश्यक समझ लेता था, अतः सदा के समान आज भी मैंने उसे न खोज पाया। जब मैं कुछ चिंतित सी वहाँ से चली तब मन भारी-भारी हो रहा था, आँखों में कोहरा-सा घिर-घिर जाता था। वास्तव में उन दिनों डाक्टरों को मेरे पेट में फोड़ा होने का संदेह हो रहा था—ऑपरेशन की संभावना थी। कब लौटेंगी हो रहा या नहीं लौटूँगी यही सोचते-सोचते मैंने फिर कर चारों ओर जो आर्द्र डाली यह कुछ समय तक उन परिचित स्थानों को भेंट कर वहीं उलझ रही।
पृथ्वी के उच्छ्वास के समान उठते हुए धुँधलेपन में वे कच्चे घर आकंठ मग्न हो गए थे−केवल फूस के मटमैले और खपरैल के कत्थई और काले छप्पर, वर्षा में बढ़ी गंगा के मिट्टी जैसे जल में पुरानी नावों के समान जान पड़ते थे। कछार की बालू में दूर तक फैले तरबूज़ और ख़रबूज़ के खेत अपने सिरकी और फूस के मुठियों, टट्टियों और रखवाली के लिए बनी पूर्णकुटियों के कारण जल में बसे किसी आदिम द्वीप का स्मरण दिलाते थे। उनमें एक-दो दिए जल चुके थे तब मैंने दूर पर एक छोटा-सा काला धब्बा आगे बढ़ता देखा। यह घीसा ही होगा यह मैंने दूर से ही जान लिया। आज गुरु साहब को उसे विदा देना है यह उसका नन्हा हृदय अपनी पूरी संवेदन-शक्ति से जान रहा था इसमें संदेह नहीं था परंतु उस उपेक्षित बालक के मन में मेरे लिए कितनी सरल ममता और मेरे विछोह की कितनी गहरी व्यथा हो सकती है यह जानना मेरे लिए शेष था।
निकट आने पर देखा कि उस धूमिल गोधूली में बादामी काग़ज़ पर काले चित्र के समान लगने वाला नंगे बदन, घीसा एक बड़ा तरबूज़ दोनों हाथों में सम्हाले था जिसने बीच के कुछ कटे भाग में से भीतर की ईषत-लक्ष्य ललाई चारों ओर के गहरे हरेपन में कुछ खिले कुछ बंद गुलाबी फूल जैसी जान पड़ती थी।
घीसा के पास न पैसा था न खेत—तब क्या वह इसे चुरा लाया है! मन का संदेह बाहर आया ही और तब मैंने जाना कि जीवन का खरा सोना छिपाने के लिए उस मलिन शरीर को बनाने वाला ईश्वर उस बूढ़े आदमी से भिन्न नहीं जो अपनी सोने की मोहर को कच्ची मिट्टी की दीवार में रख कर निश्चिंत हो जाता है। घीसा गुरु साहब से झूठ बोलना भगवान जी से झूठ बोलना समझता है। यह तरबूज़ कई दिन पहले देख आया था। माई के लौटने में न जाने क्यों देर हो गई तब उसे अकेले ही खेत पर जाना पड़ा। वहाँ खेत वाले का लड़का था जिसकी उसके नए कुरते पर बहुत दिन से नज़र थी। प्रायः सुना-सुना कर कहता रहता था कि जिनकी भूख जूठी पत्तल से बुझ सकती है उनके लिए परोसा लगाने वाले पागल होते है। उसने कहा पैसा नहीं है तो कुरता दे जाओ। और घीसा आज तरबूज़ न लेता तो कल उसका क्या करता। इससे कुरता दे आया—पर गुरु साहब को चिंता करने की आवश्यकता नहीं क्योंकि गर्मी में वह कुरता पहनता ही नहीं और जाने-आने के लिए पुराना ठीक रहेगा। तरबूज़ सफ़ेद न हो इसलिए कटवाना पड़ा—मीठा है या नहीं यह देखने के लिए उँगली कुछ निकाल भी लेना पड़ा।
गुरु साहब न लें तो घीसा रात भर रोएगा—छुट्टी भर रोएगा ले जावें तो यह रोज़ नहा-धोकर पेड़ के नीचे पढ़ा हुआ पाठ दोहराता रहेगा और छुट्टी के बाद पूरी किताब पट्टी पर लिख कर दिखा सकेगा।
और तब अपने स्नेह में प्रगल्भ उस बालक के सिर पर हाथ रख कर मैं भावातिरेक से ही निश्चल हो रही। उस तट पर किसी गुरु को किसी शिष्य से कभी ऐसी दक्षिणा मिली होगी ऐसा मुझे विश्वास नहीं, परंतु उस दक्षिणा के सामने संसार के अब तक के सारे आदान-प्रदान फीके जान पड़े।
फिर घीसा के सुख का विशेष प्रबंध कर चली गई और लौटते-लौटते कई महीने लग गए। इस बीच में उसका कोई समाचार न मिलना ही संभव था। जब फिर उस ओर जाने का मुझे अवकाश मिल सका तब घीसा को उसके भगवान जी ने सदा के लिए पढ़ने से अवकाश दे दिया था—आज वह कहानी दोहराने की मुझ में शक्ति नहीं है पर संभव है आज के कल, कल के कुछ दिन, दिनों के मास और मास के वर्ष बन जाने पर मैं दार्शनिक के समान धीर भाव से उस छोटे जीवन का उपेक्षित अंत बता सकूँगी। अभी मेरे लिए इतना ही पर्याप्त है कि मैं अन्य मलिन मुखों में उसकी छाया ढूँढ़ती हूँ।
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