बुद्धिसेन शर्मा की ग़ज़लें
बुद्धिसेन शर्मा |
वरिष्ठ कवि बुद्धिसेन शर्मा नहीं रहे। कल 15 मार्च 2022 को सुबह उनका निधन हो गया।
इलाहाबाद थोड़ा और कमतर हुआ। वह काफी दिनों से बीमार चल रहे थे और अपने शागिर्द इश्क सुल्तानपुरी के साथ गौरीगंज में रह रहे थे।
वरिष्ठ कवि बुद्धिसेन शर्मा का जन्म 26 दिसंबर 1941 को कानपुर में हुआ था। बुद्धिसेन जी ने समाचार पत्र ‘दैनिक प्रताप’, ‘भारत’ और ‘मनोरमा’ पत्रिका में काम किया था। राष्ट्रपति से उन्हें ‘साहित्य श्री’ की उपाधि मिली थी। इसके अलावा वर्ष 2019 में गुफ्तगू द्वारा भी उन्हें ‘अकबर इलाहाबादी सम्मान’ प्रदान किया गया था।
आम जन जीवन से जुड़ी हुई उनकी ग़ज़लें ताज़ा हवा के झोंके की तरह होती थीं। तल्ख सच्चाई को वे सहजता से अपनी ग़ज़लों में बयां कर देते थे। समय उनकी ग़ज़लों में रोजमर्रा की तरह दर्ज मिलता है।
पहली बार की तरफ से उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी ग़ज़लें।
बुद्धिसेन शर्मा की ग़ज़लें
1
दर्द जैसा भी हो पल भर में हवा होता है,
याद उन्हें कीजिए फिर देखिए क्या होता है।
तीसरे का तो गुजर ही नहीं होता है वहां,
आप होते हैं जहाँ और खुदा होता है।
आसमानों में हवाएं उसे बहकती हैं,
भोला बादल जो समंदर से चला होता है।
हम उसी परदे को संसार कहा करते हैं,
आम आँखों पे जो हर वक्त पड़ा होता है।
उसको तालीम है वो पेड़ से आगे निकले,
पेड़ की शाख पे फल जो भी पका होता है।
देवता बन के जो मंदिर में है वह भी पत्थर,
वह भी पत्थर है जो रस्ते में पड़ा होता है।
डूबते को कोई तिनके का सहारा दे दे,
यह अमल सारी किताबों से बड़ा होता है।
लोग बुझ जाते हैं आँखे नहीं बुझतीं उनकी,
जिनकी आँखों में कोई ख्वाब सजा होता है।
वह दिया रहता है धरती पे हमेशा रोशन,
जो हिफाजत में हवाओं की पला होता है।
खाक से चाक का फिर चाक से आवां का सफ़र,
क्या समझते हो कोई यूँ ही घड़ा होता है।
तुम हो साहिल पे तलातुम के हवाले हैं हम,
देखना ये है कि अब कौन फ़ना होता है।
2
हवा का पा के इशारा जो उड़ने लगते हैं
वो खुश्क तिनके नहीं लोग इस सदी के हैं
तमाम दिन जो कड़ी धूप में झुलसते हैं
वही दरख़्त मुसाफिर को छाँव देते हैं
दियासलाई का इन पर असर नहीं होगा
ये नम हवाओं में सीले हुए पटाखे हैं
किसी से कोई बदलता नहीं है अपना ख्याल
हमारे शहर में जैसे सब ठठेरे हैं
दिलों में सदियों पुराना गुबार है महफूज़
मगर जबाँ पे मोहब्बत के फूल खिलते हैं
न जाने आगे अभी और क्या लिखा होगा
अभी किताब में बाक़ी बहुत से पन्ने हैं
3
जिस तट पर प्यास बुझाने से अपमान प्यार का होता हो‚
उस तट पर प्यास बुझाने से प्यासा मर जाना बेहतर है।
जब आंधी‚ नाव डुबो देने की, अपनी ज़िद पर अड़ जाए‚
हर एक लहर जब नागिन बनकर, डसने को फन फैलाए‚
ऐसे में भीख किनारों की मांगना धार से ठीक नहीं‚
पागल तूफानों को बढ़कर आवाज लगाना बेहतर है।
कांटे तो अपनी आदत के, अनुसार नुकीले होते हैं‚
कुछ फूल मगर कांटों से भी, ज्यादा जहरीले होते हैं‚
जिनको माली आंखें मीचे‚ मधु के बदले विष से सींचे‚
ऐसी डाली पर खिलने से पहले मुरझाना बेहतर है।
जो दिया उजाला दे न सके‚ तम के चरणों का दास रहे‚
अंधियारी रातों में सोये‚ दिन में सूरज के पास रहे‚
जो केवल धुंआं उगलता हो‚ सूरज पर कालिख मलता हो‚
ऐसे दीपक का जलने से पहले बुझ जाना बेहतर है।
4
शिकारी निकले हैं कन्धों पे जाल डाले हुए
परिंदों उड़ते चलो भूख को संभाले हुए।
सुनें तो कैसे सुनें दिलजलों की वो आवाज़
जो घर में सोये हैं कानों में तेल डाले हुए।
तरह-तरह के जो मंतर सिखा रहे हैं तुम्हें
ये लोग हैं मेरे स्कूल के निकाले हुए।
पसंद ही नहीं करते किसी को अपने सिवा
तो क्या जमाने में एक आप ही निराले हुए।
मैं इनके वास्ते चन्दन का पेंड हूँ गोया
ये नाग सब हैं मेरी बेबसी के पाले हुए।
बड़े-बड़े जो धुरंधर हुए हैं धरती पर
पलक झपकते सभी काल के निवाले हुए।
ज़रा से नाले में फिसले फिसल के डूब गए
जिन्हें गुरूर था दरिया को है खंगाले हुए।
झुलस के रह गयीं सारी मुरव्वतें अपनीं
हमारे मुल्क में ऐसे भी कुछ उजाले हुए।
जो हर कदम पे नए ज़ख्म दे रहे हैं मुझे
ये आईने थे मेरे हाथ के उछाले हुए
मेरे ग़मों के फरिश्तों मुझे सहारा दो
खुश्क आँखों में अब आंसुओं ले लाले हुए।
5
न निकलना था न मुश्किल का कोई हल निकला
जो समंदर में था वही बादल से जल निकला।
ज़िंदगी भर के दुखों का शिला जन्नत में मिला
बीज बोया था कहाँ और कहाँ फल निकला।
अब ये आलम है कि रस्ते पे लुटा बैठा हूँ
मैंने सोना जिसे समझा वो पीतल निकला।
सबसे बढ़ कर वही होशियार बना फिरता है
सबसे बढ़ कर वही शहर में पागल निकला।
इन खरतनाक दरिंदों से बचाना हमको
गाँव से आये तो ये शहर भी जंगल निकला।
आंधियाँ मुझको बुझाने पे तुली थीं लेकिन
जिसने बुझने से बचाया तेरा आँचल निकला
6
क़दम-क़दम पर नई मुश्किलें पैदा करता है
कहते हैं वो जो करता है अच्छा करता है।
आखिर क्यूँ मैं उसको अक्सर याद दिलाता हूँ
आखिर क्यूँ वो मुझको अक्सर वादा करता है।
उसके पैरों की किरचों को कौन निकालेगा
कुचल-कुचल कर आईने जो तोड़ा करता है।
आना भी उसकी मर्ज़ी पर है और न आना भी
लेकिन अच्छा लगता है जब वादा करता है।
जलती चट्टानों पर अपनी धुन में बढते पैर
कोई तो है जो सबके सर पर साया करता है।
कोई और है तुम जिसको इंसान समझते हो
वरना क्या मिट्टी का पुतला भी बोला करता है।
उसकी आँखें अमृत का विश्वास दिलाती हैं
एक नजर में मुर्दों को वो ज़िंदा करता है।
मुझसे जितनी हो सकती थी कोशिश मैंने की
इसके आगे देखना ये है वो क्या करता है।
उसे ज़रूरत नहीं किसी की दिल बहलाने की
दीवाना अपने ज़ख्मों से खेला करता है।
7
क्या जरूरी है कि हो त्यौहार की हर रोशनी
आग लगने से भी हो जाती है अक्सर रोशनी।
खिड़कियों को बंद रखने का मजा हम पा गए
देंगे दस्तक फिर कहीं बाहर ही बाहर रोशनी।
शर्त ये है सौंप दें हम अपनी बीनाई उन्हें
फिर तो वो देते रहेंगे ज़िंदगी भर रौशनी।
रास्ता तो एक ही था ये किधर से आ गए
बिछ गयी क्यों चादर इनके नीचे बन के रोशनी।
अपनी साजिश में हवाएं हो गयीं फिर कामयाब
रह गयी फिर बादलों के बीच फँस कर रोशनी।
खुद चमकते हैं हमेशा रात की पा कर पनाह
ये सितारे क्या भला बांटेंगे घर-घर रोशनी।
हम दिलों से दिल मिलाते हैं निगाहों से निगाह
रोशनी से कर रहे हैं हम उजागर रोशनी।
8
चाँद-सूरज की तरह और न सितारों की तरह,
हम हैं रोशन किसी दरिया पे चिराग़ों की तरह।
रू-ब-रू उसके कोई राज़ छुपा भी न सकूँ,
मैं इबारत की तरह वह खुली आँखों की तरह।
चंद अपने हैं जो तकलीफ बहुत देते हैं,
खुद निकल जाएँगे हिलते हुए दाँतों की तरह।
काश निकले कोई सूरत कि वो फिर से जुड़ जाएँ,
गिर के बिखरे हैं जो मिट्टी के खिलौनों की तरह।
बात-ही-बात में ये लोग चटख उठते हैं,
जंगली आग में जलते हुए बांसों की तरह।
अभी आकाश पे जी भर के चमक ले सूरज,
रात फिर तुझको बिखर जाना है तारों की तरह।
बस यही लगता है हम लूट लिए जाएँगे,
जब हमें मिलते हैं कुछ लोग फरिश्तों की तरह।
सबकी आँखों को भले लगते हैं हँसते हुए फूल,
घर से स्कूल को जाते हुए बच्चों की तरह।
कोई तहरीर जो अश्कों से लिखी जाती है,
वह अमिट होती है माथे की लकीरों की तरह।
अपने साँचे में कोई ढाल रहा है मुझको
व न ख्वाबों की तरह है न ख़यालों की तरह।
9
इस क़दर डूबे कि फिर खतरे का अंदेशा न था
फिर कोई कश्ती कोई तूफां कोई दरिया न था।
हर मुसाफिर था सफर में एक न एक हसरत के साथ
यूं अकेले थे सभी लेकिन कोई तनहा न था।
गालियाँ सभी दुआएं हो गयीं मेरे लिए
इस अमल को क्यूँ पहले कभी समझा न था।
यूं हुआ आपस में कुछ सच्चाइयां टकरा गयीं
वर्ना सब सच्चे थे धरती पे कोई झूठा न था।
जाने कितने रास्ते थे जाने कितनी मंजिलें
बाद उसके कोई मंजिल कोई रस्ता न था।
जितने कच्चे रंग थे सारे के सारे उड़ गए
ये मेरे दिल का वरक इतना कभी सादा न था।
वो घड़े झुकते थे बस प्यासों की खिदमत के लिए
कौन सा पानी था उनमें जो कभी घटता न था।
ये भी सच है देखता रहता था मेरा दिल उसे
ये भी सच है मेरी आँखों ने उसे देखा न था।
दूसरों के ऐब गिनवाने में माहिर थे सभी
सामने लेकिन किसी के कोई आता न था।
10
वहीं हीरा निकलता है वहीं कोयला निकलता है
क्या दोनों का आपस में कोई रिश्ता निकलता है।
ज़िंदगी ये है किसी उम्मीद के पीछे हमेशा भागते रहना
बराबर सोचते रहना कि आगे क्या निकालता है।
मुझे ऐ रास्तों पल भर ठहरने की इजाज़त दो
कहीं चलते हुए भी पाँव का काँटा निकलता है।
किसी इंसान को अपने से छोटा क्यूँ समझते हो
कोई कतरा हो अपने आप में दरिया निकलता है।
फक़त भूखी नहीं ये मछलियाँ पागल भी होती हैं
जिसे चारा समझती हैं वही काँटा निकलता है।
बहुत पहले वहीं पर एडियाँ रगडी थीं प्यासे ने
वहीं से आज तक अमृत का एक चश्मा निकलता है।
मेरी आँखों में हैं बाबा तेरी ये जागती आँखें
यहीं से दूसरे संसार का रस्ता निकलता है।
जरूरत आदमी की कैसे-कैसे गुल खिलाती है
जिसे दरिया समझता है वही प्यासा निकलता है।
हुई जो शाम सूरज दूब जाता है समंदर में
वही फिर ताज़ा दम हो कर सवेरे आ निकलता है।
11
अजब दहशत में है डूबा हुआ मंजर जहाँ मैं हूँ
धमाके गूंजने लगते हैं रह-रह कर जहाँ मैं हूँ।
कोई चीखे तो जैसे और बढ़ जाता है सन्नाटा
सभी के कान हैं हर आहट पर जहाँ मैं हूँ।
खुली हैं खिडकियां फिर भी घुटन महसूस होती है
गुजरती है मकानों से हवा बच कर जहाँ मैं हूँ।
सियासत जब कभी अंगडाइयाँ लेती है संसद में
क़यामत नाचने लगती है सड़कों पर जहाँ मैं हूँ।
समूचा शहर मेरा जलजलों की ज़द पे रखा है
जगह से हट चुके हैं नींव के पत्थर जहाँ मैं हूँ।
कभी मरघट की खामोशी कभी मयशर का हँगामा
बदल लेता है मौसम नित नया तेवर जहाँ मैं हूँ।
घुलेगी पर हरारत बर्फ में पैदा नहीं होगी
वहाँ हर आदमी है बर्फ से बदतर जहाँ मैं हूँ।
पराये दर्द से निस्बत किसी को कुछ नहीं लेकिन
जिसे देखो वही बनता है पैगम्बर जहाँ मैं हूँ।
सदन में इस तरफ हैं लोग गूँगे औ उस तरफ बहरे
नहीं मिलता किसी को प्रश्न का उत्तर जहाँ मैं हूँ।
मजा लेते हैं सब एक-दूसरे के जख्म गिन-गिन कर
मगर हर शख्स है अपने लहू में तर जहाँ मैं हूँ।
नीचे गिरना है तो एकबारगी गिर क्यूँ नहीं जाते
लटकती है सदा तलवार क्यूँ सर पर जहाँ मैं हूँ।
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