हरीश चन्द्र पाण्डेय की कविताएँ

 


 

सामान्य तौर पर केन्द्र अक्सर बनाया जाता है। लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपने कृतित्व और व्यक्तित्व के चलते खुद केन्द्र बन जाते हैं। इसके लिए उन्हें किसी कन्धे या सहारे की जरूरत नहीं पड़ती। हरीश चन्द्र पाण्डे ऐसे कवि हैं जिन्होंने अपनी कविताओं के द्वारा खुद को साबित किया है। पक्षधर के हालिया अंक में हरीश चंद्र पाण्डे की दस कविताएँ अष्टभुजा शुक्ल की विस्तृत टिप्पणी के साथ प्रकाशित की गई है। हम इस आलेख और कविताओं को साभार यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। 


अन्ततः सिर्फ कवि : हरिश्चन्द्र पाण्डे


अष्टभुजा शुक्ल


हिन्दी कविता में जिसे नवें दशक से अभिहित करने की कोशिशें हुईं, उसके कई अब के उल्लेखनीय कवियों की पृष्ठभूमि के केन्द्र में पहले का सांस्कृतिक शहर इलाहाबाद रहा। आशय यह कि तब के कवियों की जनपदीयता भले किंचित् भिन्न रही हो लेकिन उनकी युवा-चेतना और संवेदना का नाभिक अब का प्रयागराज ही रहा। स्वाभाविक रूप से इस कविता पर अस्सी के दशक का प्रभाव और दबाव शुरुआती दौर में दिखा किन्तु कालान्तर में आए वैश्विक परिवर्तनों के मद्देनजर इसने अपने काव्य-प्रत्यय और मुहावरे अर्जित करने और उन्हें विकसित करने की प्रतिज्ञाएं ठानीं और जैसा कि हिन्दी समाज एवं साहित्य के साथ अक्सर होता रहा है, बाद में इसे प्रायोजित ढंग से 'लांग नाइन्टीज़' इत्यादि सिद्धान्तों से जोड़ने की जी-जान से किन्तु असफल कोशिशें भी हुईं, जिनकी तफसील में जाना यहाँ बेमतलब है। इसे महज संयोग नहीं माना जा सकता कि उन्हीं दिनों इलाहाबाद से ही एक अनियतकालीन किन्तु कविता केन्द्रित पत्रिका 'उन्नयन' की शुरुआत हुई जिसके हरेक अंक में संपादक श्रीप्रकाश मिश्र ने अपनी टिप्पणी के साथ 'जिनसे उम्मीद है' नामक स्तम्भ जारी किया। इसके अन्तर्गत उन्होंने उभरते हुए कवियों को शामिल किया और इसी श्रृंखला में पहली बार मेरा सामना हरिश्चन्द्र पाण्डेय की कुछ इकट्ठी कविताओं से हुआ। उनकी कविताओं का यह प्रथम पाठ ही इतना अमिट रहा, उनका मर्म, वस्तुबोध और सौन्दर्य बोध पर इतना प्रभावी रहा, उनकी काव्यदृष्टि और संवेदना इतनी विरल प्रतीत हुई कि व्यक्तिगत रूप से मैं क्रमशः उनकी कविता का एक प्रेमी-पाठक बनता गया।


उक्त परिदृश्य में दो महत्त्वपूर्ण कवि ऐसे रहे जिन्हें अस्सी-नब्बे करने वालों ने लगातार अनदेखा किया। दिनेश कुमार शुक्ल और हरिश्चन्द्र पाण्डेय। इसी में तीसरे संजय चतुर्वेदी को भी रखा जा सकता है। ये कवियों, आलोचकों, लेखकों या साहित्य की जमात से बाहर के किन्तु असली कवि रहे। इन्हें वैसी केन्द्रीयता न मिल सकी जिसके वे हकदार रहे। वैसे दिनेश कुमार शुक्ल और हरिश्चन्द्र पाण्डेय की कविता के फलक और काव्यशिल्प में आत्यंतिक रूप से मौलिक अन्तर है। दिनेश शुक्ल की कविता में स्पन्दन, आन्तरिक लय और भाषा कुछ और है तो हश्चिंद्र में कुछ और। लेकिन काव्यकर्म की उभयता करीब-करीब एक समान है। ये दोनों अस्सी-नब्बे को अधिकाधिक पास लाने और पारस्परिक बनने वाले ऐसे प्रतिनिधि कवि हैं जिनसे प्रेरित आज तक की कविता का आकाश विस्तृत होता है और जमीन बहुव्यापिनी। फिलहाल, आठवें दशक की कविता का सचेतन प्रभाव नवें दशक पर कई रूपों में पड़ा। आरंभिक रूप में प्रतिरोध की सैद्धान्तिक वैचारिकी ने नवें दशक के नवोदित कवियों पर इस कदर प्रभाव डाला कि बचपन भी इसके अतिरेक से अछूता नहीं रहा। कहीं 'पिपिहरी' से 'तूर्य की आवाज' आने लगी तो कहीं खेल-खेल में 'आइस-पाइस' से 'मौत को भी देखकर' चिह्नित कर लेने की कल्पना; तो कहीं 'कॉपी से कागज फाड़ कर जहाज बना लेने' की कामनाएँ प्रकट हुईं। कागज के इस जहाज के साथ हरिश्चंद्र पाण्डेय जैसे धीर-संवेदन वाले कवि, 'बेटी जहाज हो गई थी? की थीम को लेकर चले आ रहे थे। यहाँ बेटी ओर जहाज एक साथ आकर हमारे समय की कविता की प्रस्तावना तैयार कर रहे थे। मतलब हरिश्चंद्र की कविता में अगर कोई 'उड़ान' भी है तो उसमें रोर या शोर कथमपि नहीं।


आठवें दशक की कविता का लोकायत और लोकेषणा नवें दशक तक आते-आते और घनीभूत, मार्मिक एवं सांद्र होने लगी। इसमें सजगता, विश्वसनीयता तथा वैश्वीकरण के बरक्स जन-पदीयता का कारगर आग्रह था। आठवें दशक की कविता की एक प्रमुख रीति घर-परिवार, पड़ोस के सम्बन्धों पर लिखने की चल पड़ी। इसमें माँ, पिता, बहन, बेटी पत्नी आदि को कविता का आलम्बन बनाया गया। लेकिन ये विषय सम्बन्धों की एकरैखिक सरलता, मर्मभेदी भावाकुलता या जैविक-सांस्कृतिक उपस्थित तक ही सीमित रहे। घर-परिवार के परितंत्र में इन चरित्रों या पात्रों की सामाजिक संश्लिष्टता, उनकी स्वाधीन इयत्ता, उनके स्वप्न और व्यक्तिगत समस्याएँ, आर्थिक स्थिति आदि प्रायः अलक्षित ही रह गए। ऐसी कविताएँ एक-तरफा संवेदना को हवा देने वाली साबित हुईं । नवें दशक की कविता इस लिहाज से अधिक सजग और सतर्क रही। लघु पत्रिका 'उन्नयन' में 'जिनसे उम्मीद है 'स्तम्भ' के अन्तर्गत प्रकाशित हरिश्चंद्र पाण्डेय की 'माँ' शीर्षक कविता अपनी इसी संश्लिष्ट संवेदना के नाते काफी प्रभावी सिद्ध हुई। इस अपेक्षाकृत छोटी और सघन कविता में आलंबन की नख-शिख व्याप्ति और उसमें सामाजिक-पारिवारिक अवस्थिति का हार्दिक संघटन तो है ही, अपने समय और समाज की वह पर्यावरणीय चिन्ता भी शामिल है, जो किसी पहाड़ी-मन में; दूसरों की तुलना में अधिक खिन्नत पैदा करने वाली है और जहाँ से 'चिपको आंदोलन' का सूत्रपात होता है। ध्यातव्य यह है कि 'चिपको आन्दोलन' जैसा अहिंसक आंदोलन शायद ही विश्व इतिहास में घटित हुआ हो! यह सर्वथा जड़ीभूत, मूक और अविरोध जीवन-प्रणाली के संरक्षण का अपूर्व और मनुष्कृत जज्बा था। क्रूरताओं को भीतर तक हिला देने वाली आत्माहुति क अद्वितीय आकांक्षा थी। कविता शायद इस तरह थी- 


'पिता पेड़ हैं

हम शाखाएँ हैं उनकी

माँ

छाल की तरह चिपकी हुई है

पूरे पेड़ पर

जब भी चली है कुल्हाड़ी

पेड़ या उसकी शाखाओं पर

माँ ही गिरी है सबसे पहले

टुकड़े-टुकड़े हो कर।'


वास्तव में तथाकथित सभ्यता के विकास के छलावे या मनुष्य की अतृप्त अहम्मन्यता के चलते यह कुठाराघात केवल वनोपज पर ही नहीं बल्कि सहजीवन पर भी लगातार जारी है। इसका सबसे अनिष्ट प्रभाव जल, जंगल और जमीन के साथ समूचे स्नायुतंत्र से जुड़े उस मानव-जीवन पर पड़ रहा है जो इस विनाशक विकास की अवधारणा से ही त्रस्त और असहमत है। वस्तुतः आरण्यक जीवन से ही मनुष्य की प्रकृति के प्रति अपनापा एवं संवेद्यता के संकेत और उसे प्राणवंत मानने के प्रमाण हमें महाभारतकार के यहाँ भी मिलते हैं। वे वृक्षों, वनौषधियों, लताओं आदि को विशेष रूप से अन्तःस्पर्शी बताते हैं-

वनस्पत्यौषधिलतात्वक्सारा विरुधाः द्रुमाः। अंतः स्पर्शिनः विशेषिणः।' 

जब हरिश्चंद्र पाण्डेय 'माँ' कविता में माँ को पेड़ की समूची त्वचा (छाल) की तरह लिपटी हुई बताते हैं तो उस पर कुठाराघात की थरथराहट हमें भीतर तक हिला देती है। आशय यह कि हरिश्चंद्र की कविता में किसी थ्रिल के बजाय एक थरथराहट है जो उनके पदबन्धों में सतत् उपलब्ध होती है। एक-एक वाक्य पाठक को विचलित कर सकने की संवेदना से भरे पड़े हैं। और हर वाक्य एक अपूर्ण कविता की धड़कन से अनुप्राणित है। अमुखरता की ऐसी आन्तरिक ऊष्मा दुर्लभ है। हिन्दी में पहाड़-मूल के कई महत्त्वपूर्ण कवियों की भाँति हरिश्चंद्र पाण्डेय भी कविता में अपना परिवेश लेकर पूरी शिद्दत के साथ आते हैं। किन्तु इलाहाबाद में धुरीकृत अपनी जीविका के चलते संस्थानों, संगठनों या माध्यमों से निरासक्त रहने के कारण अथवा अपने अचंचल और सौम्य स्वभाव के नाते उनकी भाँति कौतूहल के कवि नहीं सिद्ध हो पाते। किन्तु उनकी कविताओं में निहित स्थितिज उर्जा कविता की अचल पूँजी है। अधिकांश देवी-देवता पहाड़ों में ही परिकल्पित हैं। यह अकारण नहीं कि मैदानों में आ कर भी वे पत्थरों में ही मूर्त होते हैं। 'देवता' कविता में 'पत्थर' तीन रूपों में आता है। पहला, आदमी की उदर-पूर्ति के लिए उठता है। दूसरा, आदमी द्वारा आदमी के लिए ही उठता है। लेकिन, तीसरा उठने से इनकार कर देता है और देवता बना दिया जाता है। वैसे कविता में यह 'पाहन' कबीर, रसखान, तुलसी आदि के यहाँ भी विभिन्न संदर्भों में आता है, लेकिन आधुनिक जीवन-संदर्भों में पहाड़ी आदमी हाड़-माँस-त्वचा की देह को दिल पत्थर कर के ही जीता है और हर टीले या खोह में किसी देवता के बूते ही जीने को अभिशप्त है। यह देवता एक अनसुलझा रहस्य है और जिन्दगी है कि इसी रहस्य तले दबी भी है और असुरक्षित ढंग से सुरक्षा का काल्पनिक आश्वासन। पहाड़ों और पत्थरों के बीच 'पानी' कितना दुर्लभ किन्तु अनिवार्य है। पहाड़ी स्रोतों के साथ जीवन की कितनी स्मृतियाँ संगुफित हैं। लेकिन 'धारे का पानी' जब एक समाचार की तरह आता है, उसके सूख जाने की स्तब्धकारी खबर आते-आते पोस्टकार्ड का एक कोना ही नदारद हो जाता है। धारे के पानी का सूखना एक ऐसा सांस्कृतिक अपरदन है जिससे उत्सव, परंपरा प्रेम, श्रम, आकांक्षा आदि एकाएक नीरस, बेजान और विरंजित हो उठते हैं। सपनों और दृश्यों के विरंजन को अनेक उदास कर देने वाली मार्मिक कविताएँ हश्चिंद्र पाण्डेय की दुनियाँ में शामिल है। नए 'परदे' पर चित्रित अनेक पशु-पक्षियों के चटक रंग समय के साथ उड़ने लगते हैं लेकिन परदे में चौकड़ी भरते हिरण के उठे हुए पैर अंत तक जमीन नहीं छू पाते। घरों में आई प्रकृति की ऐसी चित्राकृतियाँ भी पहाड़ी जीवन की उन्हीं असहाय और बेबस जिन्दगी की अधूरी गाथाएं हैं, जिसे हरिश्चंद्र अपनी काव्यात्मक सूक्ष्मेक्षिका से, किसी घड़ीसाज की चिमटी से पकड़ कर पूरी करने की बार-बार कोशिश ही नहीं करते, उसे समूचे स्नायुतंत्र से उकेरते हैं। जिन्दगी की इस सॉसत और पेंचोखम के बीच कुछ ऐसे रसायन भी हैं, जिनके मूल तत्वों के सहारे जीवन सदैव जीने योग्य बना रहता है। एक ऐसी ही काव्य-रीति या पुरानी विधा रही है- अंत्याक्षरी ।


बचपन का यह तुकात्मक संवाद-बात से बात उठा लेने की यह वाग्मिता-संवादहीनता के इस आत्मकेनिद्रत होते जा रहे समय में कितनी तसल्ली देती है जैसे छोड़ा गया सिरा कोई आगे थाम लेने को मौजूद हो। जीवन में इस चुम्बक की निर्मिति भी कविता का एक महत्त्वपूर्ण कार्यभार है, जिसे हरिश्चंद्र पाण्डेय बखूबी और बराबर निभाते चलते हैं हरिश्चंद्र अफ़सोस में उम्मीद के कवि हैं। उनके अनुभव की सघन ऐन्द्रिकता में रपटीला या फौरी कुछ भी नहीं। वे प्रतिक्रिया के कम, प्रक्रिया के कवि अधिक हैं। जीवन-प्रक्रिया ही उनकी रचना-प्रक्रिया है जिसमें निरुक्त और अनिरुक्त दोनों ही विषय यथाप्रसंग समाहित हैं। दुनिया के स्त्री-पुरुष के लिंगवाची झमेले से इतर मनुष्यरूपेण होते हुए जहाँ स्त्री या पुरुष नहीं हैं फिर भी स्त्री या पुरुष का असफल स्वाँग रचते हुए 'विद्रूप हारमोनों' और उदास वल्दियत के साथ 'दुनिया के हर मेले में शामिल हो रहे 'हिजड़ों' की जीवन-विडम्बना का इतना विश्वस्त अनुभव किसी दूसरे कवि के यहाँ शायद ही मिले। तो दूसरी ओर पैतृक पेशे को चुनौती देती विधवा 'महराजिन बुआ' का मर्दाना चरित्र है, जो जलती चिताओं के बीच 'खिले पलाश वन' सरीखी विचरती है। यह कविता जीवन के सारे सामाजिक और दार्शनिक सवालों के साथ झकझोरने की ताकत रखती है। हरिश्चंद्र की कविता में जिन्दगी के सिक्के का कोई इकलौता पहलू या निर्दिष्ट जीवन-प्रक्रिया खोजना कवि की संपूर्णता से वंचित हो जाना है।


विष्णु खरे के बाद हरिश्चंद्र पाण्डेय दूसरे ऐसे कवि हैं जिनकी कविता का गद्यान्वय इतना मर्मभेदी और इतना विषयविपुल है। कहीं-कहीं विष्णु खरे में वर्णनात्मकता का अतिरेक (ओवरनैरेटिक) कथ्य को बहुत लचीला बना देता है जबकि हरिश्चन्द्र के गद्यान्वय का कसाव अभिव्यक्ति की शिथिलता का आभास कराता है, लेकिन अनुभूति की गहनता इस आभासी शिथिलता में जैसा स्फुरण और तनाव पैदा करती है, वह अद्वितीय है। यथार्थ का पुनसृजन शायद इसे ही कहते होंगे। इस पुनसृजन का भाष्य केवल राजनीतिक शब्दावलियों में घटित नहीं किया जा सकता। जैसा कि पहले ही संकेत किया गया है कि जीवन की विडम्बनाओं को उकेरने में कवि हरिश्चंद्र का जवाब नहीं। एक किशोरावय का हथरिक्शा खींचना, किसी फूल का रिक्शा खींचना बन जाता है, जिस पर सवार होकर हमारी सदी भविष्य की ओर बढ़ना चाहती है। बाल श्रमिकों पर राजनीति प्रेरित या देखा-देखी बहुत-सी कविताएँ लिखी गई हैं। लेकिन 'इक्कीसवीं सदी की ओर' कविता का ऐसा अमिट बिम्ब हमारे मन-मस्तिष्क पर पड़ता है, जो भुलाए नहीं भूलता।


हम रिक्शे पर बैठे

राजनीति पर बातें कर रहे थे

लड़का रिक्शा खींच रहा था


तेरह वसंतों में जितनी शक्ति

और जितना अनुभव संचित हो सकता है। सब शौक दिया था उसने


कभी एक और झुकता हुआ पूरा

कभी दूसरी ओर

अपने दिवंगत पिता की उम्र की पीढ़ी को

उस परिचित रास्ते पर ले जा रहा था

जो कच्चा ही नहीं

उतार चढ़ावों से भरा भी था 

खुश थे हम कि 

रिक्शा सस्ता मिल गया था

खुश थे हम कि

बसन्त के आते ही पेड़ कैसे लद गए हैं फूलों से

ग़जब की चीज होती है यह वसंत भी भाई

क्या कहते हैं

डालों पर फूलों का आना

किस औरत का

अपने जीवन को धन्य समझना होता है।


यहाँ इस कविता की व्याख्या में जाने का अवकाश नहीं, फिर भी यह कहना आवश्यक है कि हरिश्चन्द्र पाण्डेय गहरी सभ्यता-समीक्षा के सिर्फ़ कवि हैं। वे कवि, बनना, होना या दिखना नही चाहते। कविता उनके संवेदनशील कवि-मन की विवशता है। उनका कवि न तो निर्द्वन्द्व है और न ही स्थूल प्रत्ययों में द्वन्द्वाधीन। वह अधिकतम मनुष्य होने का विचलन है। कविता में आया उष्ट्रपृष्ठ हथरिक्शा इलाहाबादी स्थानीयता की एक कारगर पहचान है। 'कसाईबाड़े की ओर' कविता में रिक्शे पर बकरी लेकर जाता कसाई जैसे तथाकथित विकास के जाते हुए जनाजे का शोकगीत है। कसाई की मनुष्यता का चरम और उसकी वर्ग-विवशता के बीच बकरी की अवस्थिति से मन सिहर-सिहर उठता है और कविता पाठक को असहाय छोड़ देती है। 'लाश घर में', 'बड़े-बूढ़े', 'मिट्ठू हमारे घर में', 'नृत्यांगना' जैसी कविताएँ, कविता के आयतन को और बड़ा करती हैं तो ‘अधूरा मकान' और 'बैठक का कमरा' निम्न मध्यवर्गीय जीवन की आकांक्षाओं और सपनों के फिर-फिर हरियाते-मुरझाते उद्वेगों के, घर-घर के स्पंदित होते आख्यान हैं। बल्कि 'बैठक का कमरा' कविता तो थोड़े अलग परिप्रेक्ष्य में भीष्म साहनी की कहानी 'चीफ की दावत' के टक्कर और वजन-विजन की प्रतीति कराती है। यह देखने की बात है कि काफी पहले लिखी हुई कविता 'किसान और आत्महत्या' तमाम पौराणिक और भारतीय जीवन-विश्वासों के साथ कैसे हमारे अभी के समय को सम्बोधित कर रही है। हत्या एवं आत्महत्या के कारक भी हरिश्चंद्र की कविता में बार-बार आते हैं तो यह अकारण नहीं बल्कि हमारे दुर्घट समय के साक्षी बन कर आते हैं। इस कौशल विकास के समय में कुछ भी सकुशल नहीं। सिर्फ राजनीतिक कौशल बचे हैं और समूची कृषि-सभ्यता संकटापन्न है। बकौल श्रीकांत वर्मा- 'कोसल में कमी है तो विचारों की। बचे हैं सिर्फ वाचाल।' 


हरिश्चंद्र पाण्डेय एक विचारशील कवि हैं। लाउडनेस न तो उनके कवि-स्वभाव में है। न जीवन-स्वभाव में। एक शालीन उद्विग्नता सदैव उनकी कविता का स्थायी भाव है। कुछ ही कवि अब तक की बनी-बनाई परिभाषाओं को ढहाकर काव्य-विवेक के जरिए अपनी कविता का परिसर निर्मित कर पाते हैं। हरिश्चन्द्र उनमें से एक हैं। उनमें सायास लिखने या कवि बनने की न तो बहुत उत्कंठा या उठाबैठक है, न तो अनायास लिखने का क्रीड़ा-विलास या निष्प्रयोजनीयता। ‘गले की ज्योति मिलना' से लगायत ‘फूल को खिलते हुए सुनना' जैसे तमाम पदबंध पारंपरिक इंद्रियबोध से आगे बढ़ कर कवि के अनुभव-संसार को व्यापक करते हुए सर्वथा नई अनुभूतियों से बावस्ता होते हैं। आभासी दृश्यों के घटाटोप को भेदती हुईं उनकी कविताएँ उन अनगिनत आवाज़ों को ठहर कर सुनने का प्रस्ताव करती हैं जिनमें एतराज, चीख, चीत्कार, हँसी और क्वचित् ललकार के कंठ भी ध्वनित होते हैं। और 'हर आवाज़ चाहती है कि उसे गौर से सुना जाए।' क्योंकि हमारी दुनिया 'अँधे के टापू' में तब्दील होती जा रही है और भयावहता अँधेरे को बेकाबू हाथी के अक्स में ढालती जा रही है। इसे कोई दृष्टिसंपन्न देख पाए या न देख पाए लेकिन एक 'सूर गायक' अपनी प्रज्ञाचक्षु से देख भी रहा है और उन्हें अपनी आवाज भी दे रहा है-एक ऐसी टेर जिससे लोकगीत कहते हैं कि हमें अपना कंठ दे दो और निर्गुन कहते हैं कि हमें हरिश्चंद्र की कविताएँ ऐसी आवाजों के समवेत स्वर हैं जिसमें एकदम बेआवाज 'बादल छँटने की आवाज' भी शामिल है। इनमें हमारे समय की उद्दण्ड बर्बरता भी शरीक है और खिलखिलाहट भी जिसमें किशोरवय को सेलीब्रेट करतीं, खुसुर-पुसुर, चुहल, चहचहाहट भरी कालेज जाती लड़कियाँ हैं तो कोई विघ्नसंतोषी एसिड की बोतल खरीदता घात लगाए युवक। इसीलिए अपने नतोन्नत पहाड़ों पर खिलते बुरूंश के फूलों से ले कर गंगा-जमुना के कछारों तक पसरी हरिश्चंद्र पाण्डेय की कविताएँ अपनी सौन्दर्यदृष्टि, वस्तुबोध और अनुभव-जगत के जरिए तथाकथित मुख्य-धारा से अलग कवि के काव्य-परिसर को और आगे तक देखने को आमंत्रित करती हैं। वे दशकों के टुकड़ों में आमने-सामने वाले या प्रचलित मुहावरों के कवि नहीं। वे अंततः और पूर्णतः कवि है। सिर्फ़ कवि।

 

 

संपर्क : 

 

आचार्य रामचंद्र शुक्ल नगर (इटैली पाण्डेय), 

कैली रोड, पो. लबनापार, 

जिला-बस्ती-272002 (उ.प्र.)


मो. : 8795594931


हरीश चन्द्र पाण्डेय की दस कविताएँ


आदिम बनाम आदमी


भूख लगने पर ढूँढ़ के खाता था आहार 

भरा होने पर मिले हुए को छोड़ देता था

पेट ही जेब रहा

कोई भी अतिरिक्त जेब न थी

कोई बाहरी पेट न था

वह आदिम, आदमी होने की राह पर था

आदिम ने पेट भरते ही कहा था-आज बस इतना ही

होते हुए आदमी ने कहा-

कल के लिए भी रख लो

परसों के लिए गाड़ दो

आदमी ने कहा-बरसों के लिए 

अब धड़ नंगा नहीं रह गया था

अब पेट ही जेब नहीं।



कहानी में बच्चे


पहले कहानियों में बच्चे

अक्सर अपनी नानी के घर जाया करते थे


बाद में वे

दादी के घर जाने लगे


अब तो अपने माँ-बाप के घर जाने लगे हैं बच्चे

आगे किसी एक के घर अवश्य जाएँगे वे


कहानी में बच्चे बचे रहे तो।


श्मशान घाट पर


दूसरे को राख कर

खुद बची हुई है गँठीली लकड़ी


श्मशान सब कुछ राख नहीं कर पाता


जो राख है उसमें भी

ढूँढ़ रहे हैं कुछ जीवन के जेवर

कुछ अधजली लकड़ी के बचेपन पर निगाहें गड़ाए हुए हैं


एक गूँगा बची हुई लकड़ी को

अपनी अव्यय आवाज़ के सहारे उठा कंधे पर लाद लेता है।


श्मशान सबको राख नहीं कर पाता

बल्कि कुछ लोग इसे ठंडी रातों में

लिहाफ़ बना ओढ़ लेते हैं।





तलवारों की प्रशस्ति में


खड्ग वजनी रहे


भरपूर वार के लिए उन्हें हाथों का संयुक्त बल चाहिए

भाले कहते हमें एक अपेक्षित दूरी चाहिए

हाथी-घोड़े सी ऊँचाई भी

गुप्ती छल में इस्तेमाल होती रही

ख़ासकर गले मिलते हुए

चाकू चिरकुट रहा

गोद-गोदकर मारने में असफल प्रयास की बड़ी प्रतिशतता लिये हुए


बस तलवार ही थी

जिसका दबदबा इतिहास और मिथक दोनों में रहा


धार की वर्तुल रेंज, पैनी और दीर्घ

बहुविध कौतुक की गुंजाइश लिये हुए

यानी कम से कम समय में अधिक से अधिक काम हो सके


विक्रम-बेताल में दिखी वह, रावण अहिरावण में भी

दुर्गा का एक हाथ उसकी मूठ थामने के लिए रहा


तलवार की छाँह में अपने प्रेम को ले गया पृथ्वीराज

तलवारों को हवा में लहराते हुए आए सारे आक्रांता


जो तलवार लहराते आया वह रक्त टपकाते हुए ले गया ख़ज़ाने

जो किताबें लेकर गया वह तलवार लेकर नहीं आया था।


तलवारों के इस दबदबे में

ढाल और जिरहबख़्तर का कहीं कोई ज़िक्र नहीं आता

जो हमेशा तलवारों के साथ-साथ रहते हैं


जो लौह-कुल के होते हुए भी

हंता-कुल से नहीं।


यहाँ से


जो भी गया

जंगल-गाड़-गधेरे-धुनें सब लेता गया साथ

पर यहाँ ज़रा भी कम नहीं हुआ कुछ

पूरे में से पूरा निकलकर पूरा बचा रहा


जो आया

एक भी फूल गाँव जवार के जूड़े में नहीं खोंसने दिया उसने

एक भी फल ज़मीन का गुरुत्वाकर्षण नहीं पा सका

जो भी आया थनों के लिए आया मुख के लिए कोई नहीं


भाषा-बोली

संस्कृति-डोली के अग्रिम कहारों में थी

वह आठवीं अनुसूची के दरवाज़े को पीट रही है

देर से... ।


कोरोना-काल में स्कूल


दूर-दूर तक नहीं दिखता कोई भी बच्चा

यह कैसा समय है घास दिख रही है लंबी-लंबी

तारे दिख रहे हैं और भी साफ

गहरे पानी में मछलियाँ दिख रही हैं।

दूरस्थ हिमालय की चोटियाँ भी दिखने लगी हैं

पर बच्चे नहीं दिख रहे हैं


बच्चे ही तो थे मेरा सूर्योदय

मैं एक, ध्रुवीय सूर्यास्त में पड़ा हुआ हूँ


अपने-अपने घरों से निकले फूल से ये बच्चे

मुझे एक फुलवारी बना देते थे

हाफ़टाइम में जब खुलते इनके टिफिन

खुशबुओं से मेरा प्रांगण पट जाता

और अहाते का आकाश पक्षियों से।


आओ बच्चो! बहुत उदास हूँ मैं

मैं जो समय को घंटा बना कर ऊँचाई पर टाँक देता था

मैं जो छोटी-छोटी ग़ैरहाज़िरी पर तुम्हें मुर्गा बना देता था

अब इस लंबी गैरहाज़िरी पर तुम्हें याद कर रहा हूँ बेतरह

मैं कहाँ से लाऊँ वह रजिस्टर

जिसमें सारे के सारे बच्चे एक साथ अनुपस्थित दर्ज़ किए जा सकें

कैसे पूहूँ वह कारण

जिससे पूरी कायनात वाबस्ता है।


देखो, इतनी बारिश हुई पर एक भी रेनीडे नहीं हुआ

एक दिन की छुट्टी में कितना झूम उठते थे तुम

अब इतनी छुटिट्याँ हैं और तुम

बिना पानी के पौधे की तरह मुरझा रहे हो


आओ बच्चो! आओ!

फिर शरारत करो उधम मचाओ

तुम्हारे परस्पर दाँत गड़ाने के साँचे मेरी यादों में नत्थी हैं अभी भी

गिर कर उठने की धूल झाड़ती सरपट मुद्राएँ भी


आओ कि झाडू खुद गंदे हो गए हैं

रोशनदानों में मकड़ियों ने जालीदार पर्दे टाँक दिए हैं


मैं तुम्हारी दृष्य-नींव हूँ बच्चो, आओ

दूसरों को सुनना और अपना कहना सीखो


आओ कि नेटवर्क की पहुँच के बाहर है एक बहुत बड़ी दुनिया

जहाँ बच्चों के लिए दुधारु जानवरों को बेच कर स्मार्टफोन खरीदे जा रहे हैं


आओ बच्चो! आओ

फिर से लाओ ब्लैकबोर्डों वाले उजले दिन।





लौह-यात्रा


अन्न ही नहीं उगाया जाता 

धरती पर लोहे की कीलें भी उगाई जाती हैं।


उन्हीं के लिए जो अन्न उगाते हैं।


कीलें, हलब्बी-हलब्बी बीहड़

पृथ्वी की कक्षा से बाहर जाने को उद्यत सी


भले ही शरीर में धँसने से रह गई

पर आत्मा में धँस गईं गहरे ।


बहुत गहराई में छुपे हैं लौह अयस्कों के भण्डार

एक लौह-यात्रा यह भी

मज़दूरों से किसानों तक की


फ़सल एक धैर्य का नाम है बीज से बालियों तक

कितना समय लगता है कीलों को ढालने में


काश! ठीक उलट कर रख दी गई होती वे कीलें

धरती का बंजरपन चला गया होता

दिमागों का भी।


वह नन्ही चिड़िया रंगीन

( कोरोना समय में पृथक्वास के दिनों )


वह सीधे रँगरेज़ के यहाँ से चली आई थी कमरे में

मेरा अपना रंग धूसर था उस वक़्त


पहाड़ था कि पेड़ पता नहीं क्या था उसके लिए

वह डर नहीं रही थी मुझसे

मुझे लगा वह मेरी बाँह को शाख समझ कर बैठ जाएगी

अभी कुछ न कुछ ज़रुर गाएगी

शायद वह जानती थी ये गाने के दिन नहीं


सारे नन्हें पावों की नुमाइंदगी करते हुए उसके पाँव

अभी कमरे के बहाने पूरी धरती नाप रहे थे

और धरती के हर कोने में अभी ऑक्सीजन

सारे मज़हबों का अकेला ईश्वर थी


जंगल ऑक्सीजन के विशाल संयंत्र थे

और पेड़ भरे हुए सिलिंडर


वह पेड़ से उतर कर ही कमरे में आई होगी

मेरी अनींद में नींद की कलम लगा कर चली गई।

 


 


लय


जो उखाड़ा गेंदे के फूल को तो देखा

जड़ें अभी कई फूल खिलाने को हैं


उजाड़ने की लय में यह भूल ही गया

ये फूल हैं आदमी नहीं।


उस्ताद

(गुलज़ार का एक साक्षात्कार देखते हुए)


बात फिल्मों से होते हुए राजनीति पर आ गई थी

राजनीति के भी कई दौर आए-गए

और कई नाम भी

गाँधी भी एक नाम था


बोलते ही गाँधी दोनों हाथकानों को स्पर्श करने लगे

बात राजनीति की ही चल रही थी संगीत की नहीं


चलो, अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है


संगीत की ऊँचाइयों तक पहुँचाया जा सकता है राजनीति को भी 

बस उस्ताद चाहिए।


संपर्क: 

ए/114, गोविंदपुर कॉलोनी, 

प्रयागराज-21110 


मोबाइल : 9455623176








टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'