यतीश कुमार का संस्मरण 'स्मृति के रंग में होली' 



विविधता किसे नहीं सुहाती। रंग इस विविधता के ही प्रतीक होते हैं। ये एकरसता और एकतानता को तोड़ते हैं। भारतीय परम्परा में रंगों का त्यौहार है होली। दरअसल होली पर्व का संबंध खेती किसानी से भी है। होली के पर्व का भारतीय मानस में अपना अलग ही स्थान है। होली को ले कर सबकी अपनी अपनी यादें और अपने अपने अनुभव हैं। कवि यतीश कुमार ने होली पर अपना एक संस्मरण लिख भेजा है। पहली बार के समस्त पाठकों को होली की बधाई एवं शुभकामनाएं देते हुए आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं यतीश कुमार का संस्मरण 'स्मृति के रंग में होली'। 




स्मृति के रंग में होली (संस्मरण)


यतीश कुमार

 

उम्र की सीढ़ी चढ़ते-चढ़ते, वक़्त के हाथों से ना जाने कितने लम्हे चुपके से उड़ जाते है, इसका इल्म भी नहीं होता। बची-खुची स्मृतियाँ गुज़रते लम्हों के साथ उभरती हैं और अतीत की वृत्तियों का एक कोलाज बनाती हैं। यह कोलाज रह-रह कर स्मृति में कौंधते हुए अतीत की दस्तक दे जाती है। एक अलग अनुभूति या यूं कहें बिता दिन परिकल्पनाओं सा उभरता और डूबता रहता है। मन एक अजायबघर है जहाँ स्मृतियाँ अलग-अलग रूप में पनाह लेती हैं और रात्रि के एकांत में अर्द्ध-चैतन्य से बाहर निकल कर चेतना के मनोभाव पर नृत्य करने लगती है, और वही कभी-कभी सुबह के सपनों में ढ़ल जाती है। कुछ स्मृतियाँ सदैव स्थिर रहती हैं, कहीं भी कभी भी टीस दे कर जेहन में कौंध जाती और फिर अंततः संस्मरण का हिस्सा बन जाती हैं।


चूंकि बचपन की स्मृतियों में सबसे ज़्यादा रंग समाहित रहते हैं, इसलिए लखीसराय से ही मेरी स्मृतियों के अधिकतर तार जुड़े हैं। ये तार बार-बार झंकृत हो कर फुहार की शक्ल में स्मृति पटल को अनवरत सींचते रहते हैं। इन्ही स्मृतियों में उगे फूल सबसे खुशबूदार और खूबसूरत होते हैं।

 


जीवन के हर पड़ाव पर दोस्तों की महफिल सजती रही है, लेकिन बचपन की दोस्ती इतनी खास और ख़ालिस होती है की कभी-कभी तो खून के रिश्ते पर भारी पड़ जाती है।


बचपन का साझापन तो बचपन की छोटी -छोटी ख्वाहिशों की ही तरह दबाव मुक्त होता है लेकिन उम्र के साथ सपनों का भार बढ़ते जाता है। बचपन में जरूरत या अभाव का बोध सपनीले साझेपन में बंट जाता है। खासकर जब जेब चिंदी-चिंदी फटा हो तो दोस्ती का परवान और सिर चढ़ कर उफान भरता है। हमारे पास भी दोस्तों की एक टोली हुआ करती थी और उस टोली का स्वतः उभरा सिरमौर मैं रहा। मैं, जिसे चुना नहीं गया बल्कि अपनाया गया था।


उन्हीं दिनों की कुछ एक स्मृतियों में एक याद दोस्त प्रशांत के साथ की है। प्रशांत मेरे सारे दोस्तों से बिलकुल हट कर था। सातवीं और आठवीं कक्षा में हम ज़िंदगी की सबसे लम्बी उड़ान की बातें करते और उस उड़ान में भी हम जैसे पायलट और सह-पायलट जैसे होते। हम उड़ते हुए सपने एक साथ एक जैसे ही देखते। पढ़ाई-लिखाई से ले कर धमाचौकड़ी तक में हम साथ ही रहते। वह हमारी कॉलोनी के अंतिम छोर पर रहता था, जहां पर कॉलोनी को पानी सप्लाई करने वाला बोरिंग पम्प लगा हुआ था। बोरिंग की सप्लाई पाइप का एक सिरा वहीं उसके घर के पास ही खुला हुआ था जिससे पानी की मोटी तीव्र धार बहती थी। पास में ही सीमेंट का एक हौज भी बना हुआ था। हम दोनों स्कूल से लौट कर अक्सर उसी चहबच्चा में नहाते। नहाने का वह सुख सिर्फ बचपन में ही हासिल होता है। उस चहबच्चा में उछलते-कूदते रहने जैसा सुख किसी वाटर पार्क या स्विमिंग पूल में संभव नहीं है।

 

धीरे-धीरे इस संग-साथ से मित्रता घनिष्ठ होती गई। इस दोस्ती में दुनिया को जीतने के सपने और एक-दूसरे के प्रति आँख मूंद कर विश्वास करने की निश्छलता थी। मैं माँ से जिद करके उसकी पसंद का टिफ़िन बनवाता और वो भी मेरा यूँ ही ख़याल रखता। हम दिन-रात की परवाह किए बगैर घंटों मेड़ पर या छत से आसमान ताकते बिता देते। एक पागलपन था इस दोस्ती में जो हमें साथ जोड़े हुए रखती। ऐसे मानो एक पतंग में दो थपके की डोर लगी हो। हम हमेशा साथ उड़ना चाहते थे, साथ में आसमान छूना और चूमना चाहते थे। पर पतंग दो डोर से उड़ाना प्रकृति के संतुलित उसूलों के खिलाफ माना जाता है पर हम इस खिलाफत से घबराने वाले भी नहीं थे।

 


 

 

हम दोनों के घर के बीच लगभग एक किलोमीटर का फासला था और हम इस दूरी का इस्तेमाल एक दूसरे के बीच पनपती प्रगाढ़ता को मापने के लिए इम्तिहान लेने में करते। सिरफिरे लोगों की दोस्ती में प्रेम की प्रगाढ़ता और परवान का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। कई बार रात को हम साथ ही पढ़ते और देर रात उसके घर पढ़ते-पढ़ते अचानक वो मुझे कहता जाओ अपनी वो काली फ़ाउंटेन पेन ले कर आओ। दो बजे रात और सुबह के पहले पहर के बीच अपने प्रेम का सबूत मुझे देना पड़ता और मैं डरावनी रात में दौड़ता हुआ अपना सबसे चहेता पेन उसके लिए ले कर आता। मैं हाँफता हुआ लौटता और वो मुझे गले लगा कर कहता- रख ले अपनी कलम मुझे तो बस तुझे और तेरी दोस्ती को देखना था, परखना था कि मेरा दोस्त मुझे कितना मानता है ।



अक्सर वो ऐसे अजीब-अजीब इम्तिहान लेता। कभी कहता वो जो सबसे ऊँची फुनगी पर अमरूद दिख रहा है मुझे वही चाहिए। पोखर किनारे टहलते-टहलते अचानक कहता मुझे बीचों बीच खिला हुआ कमल चाहिए और उसकी मिट्टी भी। उसके लिए गए इम्तिहान और दी गई चुनौतियों को हृदय से स्वीकार करता, सरलता और प्रेम से निभाता और इसी में अपनी ख़ुशी समझता।


मेरा हर इम्तिहान में अव्वल आना उसके लिए एक शगल बन गया था। मेरी ओर से दोस्ती में कोई भी समझौता नहीं था। बहुत ही सहजता से मैं इस सच्ची दोस्ती के नशे में डूबा हुआ था। चूंकि मैं पूरी मंडली का सिरमौर था सो प्रशांत को हमेशा लगता मुझे कोई उससे छीन लेगा। उसकी व्याकुलता उसकी इनसिक्योरिटी थी, जिसे सांत्वना देने के लिए वो मुझसे इस तरह के इम्तिहान लेता रहता ।



आठवीं की परीक्षा हो चुकी थी और होली आने वाली थी। हम सभी बच्चे होली की पूरी तैयारी बहुत पहले से शुरू कर देते। लालटेन की कालिख को सलीक़े से सहेज कर महीनों से जमा कर उसमें केरोसिन तेल मिलाया जाता या लालटेन की कालिख घट जाने पर अख़बार जला कर उसे मसला जाता और फिर तेल के साथ मिला कर पेस्ट बनाया जाता। सिंदूर के पेड़ की डली से बीज निकाल कर हम रंग बनाते। बारीक मिट्टी-गोबर का भी बढ़िया मिश्रण तैयार होता। सरसों तेल के खाली कनस्तर ड्रम बन जाते। फटी चप्पलों की माला बनती। गुब्बारों में रंग के गोले बना कर पूरा थैला भर दिया जाता। भांग की ख़रीद उस उम्र में भी होती और इन सब तैयारियों के बीच होली आ जाती। वैसी ही होली आठवीं कक्षा की परीक्षा के बाद आयी थी। मुझे सबसे पहले प्रशांत को रंग लगाना था, हालांकि यह भी उसके इम्तिहान का ही हिस्सा था। मैं सुबह ही घर से निकल गया ताकि कोई और मुझे रंग न लगा दे, पर होली में क़ायदे क़ानून और सलीक़े से कुछ नहीं होता। मुझे रास्ते में ही दस घरों में रंगा गया, पूरे शरीर पर कालिख पोती गयी, कीचड़ के चहबच्चों में डुबकी लगानी नहीं लोटनी पड़ी और न चाहते हुए भी अपने घर के एक छोर से प्रशांत के घर के दूसरे छोर तक जाने में तीन घंटे लग गए।


पहुंच कर देखा कि वो अपने आप को सबसे बचाए दुबक कर बैठा था, ताकि सिर्फ़ और सिर्फ़ मैं ही उसे पहले रंग सकूँ। मैं जब पहुँचा तो मेरे साथ मेरी मंडली रास्ते में जुड़ती चली गयी थी। उस मंडली को मेरे साथ देखते ही वो जड़ हो गया। वह स्तब्ध था और मूर्तिवत जड़ हो कर मुझे ताकता रहा। हमें और मंडली को इस बात की न परवाह थी, न ही उसकी मनोस्थिति से हम अवगत थे, सो हमने मिल कर उसे रंग में सराबोर कर दिया। हम सब पर होली का रंग पूरी तरह चढ़ चुका था। प्रशांत ने कटी पतंग की तरह अपने शरीर को ढीला कर दिया था। जैसे उसका शरीर पानी का हो जिधर ढाल है उस तरफ़ बह जाने जैसा, लगभग निष्प्राण बेजान।

 

हम सब ने प्रशांत को उठा कर पानी के चहबच्चे में डाल दिया। होली का रंग ऊपर से भांग का असर सभी इन्द्रियों को अपनी गिरफ्त में ले चुका था। अब मैं अपने झुंड के असली नेता की भूमिका में आ चुका था । चहबच्चे की दीवार पर मैं उछल कर बैठ गया और दूसरे किनारे पर प्रशांत बुझी आँखों से बस निहारता जा रहा था। नशे में धुत मेरी आँखें आज उसकी बुझती आँखों को समझने से इंकार कर रही थी। पहले तो उचक कर मैंने उसके गाल को चूमा। वो स्तब्ध आश्चर्यचकित आँखें फाड़े मेरी ओर देख रहा था कि मुझे आज क्या हुआ है!!
 
 

 


मैंने माइक पकड़ने के अन्दाज़ में बोलना शुरू किया- आई लव यू प्रशांत, पर मैं तुम्हारी आदतों से तंग आ चुका हूँ, तुम जितनी बार मेरा इम्तिहान लेते हो, मेरी दोस्ती की एक डोर टूट जाती है। हालांकि हमारी दोस्ती डोर से नहीं, रस्सी से बंधी है पर वो रस्सी तो कई डोर को जोड़ कर बनी है। धीरे-धीरे डोर टूट रही है और हमारा बंधन कमज़ोर हो चला है। मैं थक चुका हूँ, मेरी हिम्मत अब जवाब दे चुकी है। हर रिश्ते की अपनी एक सीमा है पर इसका ये मतलब नहीं कि मैं तुमसे प्यार नहीं करता। मरते दम तक करूँगा। जब तक इस शरीर में प्राण है पर ये तुम्हारे द्वारा लिए गए इम्तिहान मेरा गला घोंट रहे हैं और मैं इस घुटन में आखिरी साँसे ले रहा हूँ।
 

मैं एक सुर में धारा प्रवाह बस बोले जा रहा था। मुझे ख़ुद भी नहीं याद कि इसके आगे मैंने क्या-क्या और कहा होगा। मुझे उस वक़्त भांग की खुमारी में कुछ भी नहीं दिख रहा था। न पास बैठी मंडली, न पानी की मोटी धार और न ही प्रशांत के काले रंगे चेहरे पर टंगी अब तक सूज गयी अपलक नयनों से लगातार बहते अश्रुधार। मेरी भी उम्र उस समय मनः स्थिति समझने लायक नहीं थी। अपने एक सांस में कहे लम्बे भाषण के बाद मुझ पर बेहोशी छा गयी और मैं उसी पानी के छोटे से टैंक में लेट गया। शरीर पानी में स्थिर हो गया और आँखों के सामने सिर्फ़ अंधकार प्रतीत हो रहा था।
 

कभी-कभी अंधकार में भी काली चीजें दिखती हैं और ठीक उसी तरह मुझे दिखी पानी के भीतर प्रशांत की काली शक्ल और उस काली शक्ल के ऊपरी मध्य में टिमटिमाती चमकती आँखें जिनसे अविरल धार बह रही थी। मेरा भारी मन अपना सिर पानी के बाहर निकालने का भरसक प्रयत्न करता है और देखता है सारे दोस्त मुझ पर हँस रहे हैं और प्रशांत कहीं नहीं दिखता। मेरा सिर भारी हो चला था लेकिन मेरी निगाहें चारों दिशा में घूमना चाहती थीं।आँख और शरीर के बीच अनैतिक द्वन्द, एक दूसरे को ठीक से समझा नहीं पा रहे थे तभी बेहोशी ने मुझे डुबो दिया। मेरी जिंदगी का वह पल ब्लैकआउट में खो गया।

 

पानी की बूंदें मेरे पूरे शरीर से टपकती जा रही थीं। उन बूँदों में कुछ बूंदें मेरी आँखों के भी हों, पर उन आँखों को अपना मित्र प्रशांत कहीं दिख नहीं रहा था। मुझे मेरे घर पर बाहर धूप में खटिए पर पटक दिया गया। नींबू का रस और आचार वगैरह से मुझे होश में लाने की कोशिश की गई जिसका असर जिह्वा तक सीमित रहा, शरीर तक नहीं पहुंच सका। मैं अगले दिन दस बजे उठ पाया । उठते ही बिना किसी से कुछ भी पूछे प्रशांत के घर की तरफ भागा

 

प्रशांत के घर का दरवाज़ा ज़ोर से खटखटाया। दरवाजा खुला पर प्रशांत वहाँ नहीं था। उसके परिवार वालों ने बताया कि सुबह स्टेशन छोड़ कर आए हैं। भागलपुर गया है। यहाँ पढ़ नहीं पा रहा था। एक अजीब सी ज़िद पकड़ कर रात भर जगाए बैठा था कि दसवीं का बोर्ड भागलपुर से करूँगा और मुझे आज ही जाना है । उसकी दीदी गई है साथ में।

 

सही क्या था और गलत क्या, मैं आज तक निर्णय नहीं कर पाया। संबंध तभी पनप पाते हैं जब तक वह मुक्त हो। प्रेम हो या दोस्ती अगर हम एक-दूसरे के श्वास नली को अवरूद्ध करेंगे तो वह दम तोड़ देगा। आज भी होली के दिन प्रशांत का ख्याल आता है। ज़िंदगी में न उत्तर मिलने वाले प्रश्नों में एक प्रश्न टंका हुआ अब भी फड़फड़ा रहा है, जिसका जवाब ढूँढने में आज भी डर लगता है। अब मैं बस दुआ करता हूँ एक अंतहीन दुआ...

 

 

सम्पर्क


मोबाइल : 8420637209




टिप्पणियाँ

  1. यह सत्य है कि स्थान के अभाव में किसी भी रिश्ते का वृक्ष ठीक से पनप नहीं पाता है, जबकि संभावनाएं निहित होती हैं ....
    सच यह भी है कि बचपन के ऐसे अनुभव तमाम प्रश्नों के साथ मस्तिष्क में बने भी रहते हैं और आपकी सोच,व्यवहार और व्यक्तित्व को प्रभावित भी करते हैं ।
    यतीश जी के पास जज़्बातों से लबरेज़ अनुभवों का ज़ख़ीरा है जिन्हें उनकी सशक्त लेखनी ऐसे उकेरती है कि पाठक भी उन्हें घटित होता देखता है, महसूस भी कर लेता है ।

    -- रचना सरन

    जवाब देंहटाएं
  2. भाई, कमाल का संस्मरण ... जीवन हमारी पुरानी और नई, सारी यादों को सहेजे रखने से ही पूर्ण होता है ...

    ऐसे ही लिखते रहिए। मेरी शुभकामनाएं।

    ◆ शहंशाह आलम


    जवाब देंहटाएं
  3. को गयी..
    कई दफा पलकें भींगी.. कई जगहों पर झपकना भूल गयीं..
    रिश्ता कोई भी हों उसे आज़ाद रहना चाहिए।।
    दोस्ती वाकई ख़ून के रिश्तों से बढ़कर हो जाती है क्योंकि इसे हम चुनते हैं।

    बहुत अच्छा संस्मरण.. बधाई.. ��

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत ही उम्दा संस्मरण पढ़ कर मजा आ गया। संस्मरण को पढ़ते-पढ़ते जिस प्रकार से बिंब बना ,कुछ देर में लगने लगा जैसे प्रशांत के रूप में मेरे कई दोस्त हो और मैं भी होली मना रहा हूं ।वाकई में यह संस्मरण और उसका बिंब बनाना आपको प्रेमचंद की श्रेणी वाले कहानीकार के रूप में पदस्थापित करता है ।आप ऐसे ही लिखते रहें और लेखनी को धार देते रहें.....

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं