मार्कण्डेय की कहानी 'सहज और शुभ'


 

नई कहानी के प्रतिनिधि कहानीकार मार्कण्डेय की आज 12 वीं पुण्यतिथि है। उनकी कहानियों में कथा की एक रवानगी तो रहती ही है, प्रकृति का अद्भुत चित्रण भी मिलता है। उनकी एक बेजोड़ कहानी है 'सहज और शुभ'। कहानी ‘सहज और शुभ’ में वाचक अपने बचपन और अपनी चचेरी बहिन सविता के बचपन के दौरान की मासूमियत को अपनी स्मृति में जीता है। वाचक और सविता एक चिडि़या पकड़ते हैं और उसी के बहाने अपनी मासूमियत की अंतर्कथा पेश करते हैं। एक ओर रमोला दादी हैं जो पिंजड़ों में पक्षियों को कैद किये हुए हैं, दूसरी ओर वह ‘मासूम’ चिडि़या है जो मासूम सविता के कंधे पर बैठती है और उसकी हो जाती है। रिबन से बंध जाने पर भी वह नीबू की एक टहनी से दूसरी टहनी पर फुदकती रही है। यहां पिंजरा नहीं है, नीबू की टहनी पर ही तो है, अपने जैसे मासूम बच्चों के साथ। वाचक इस चिडि़या के लिए ‘मासूम जान’ शब्द का इस्तेमाल करता है। मार्कण्डेय जी को नमन करते हुए आज हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी उम्दा कहानी 'सहज और शुभ'।



सहज और शुभ


मार्कण्डेय


उन नन्हीं चिड़िया को मैं अच्छी तरह देख रहा हूँ। अक्सर मैं उसे देखता हूँ। वह चुपके से आ कर सविता के कन्धे पर बैठ जाती है। यों सविता और उस चिड़िया दोनों में से किसी का नामो निशान यहाँ नहीं है, फिर भी सविता के कन्धे पर बैठी उस फुदकती चिड़िया की एक-एक हरकत देख कर मेरे मन में अजीब तरह के भाव उठ रहे हैं। आज से बीस साल पहले हम दोनों इस घटना के कारण खुशी के मारे पागल हो गये थे। माँ के डर से कि, कहीं वह इस नन्ही-सी जान को हम लोगों के लापरवाह हाथों में देख कर नाराज न होने लगे; हम चुपचाप बाहर कुएँ के पीछे वाली बाड़ लाँघ कर, शरबती नींबू की गाछ में छिप गये थे।


सविता ने घर जा कर एक रस्सी का टुकड़ा या सूत लाने को कहा था और मैं डर गया था कि कहीं इस तरह बाँधने से चिड़िया मर गयी और यह बात माँ को मालूम हो गयी तो बहुत डाँट पड़ेगी। साथ ही उस रमीला नामी बुढ़िया के रोने और चिल्लाने का भी डर मेरे मन में समाया हुआ था, जो भूल कर भी हम लोगों को चिड़िया के पिंजरे के पास फटकने नहीं देती थी। इसलिए जब मैंने घर जा कर सूत लाने से सविता को मना किया तो उसने चिड़िया मेरे हाथ में दे कर अपने सिर का रिबन खोल डाला और उसे फाड़ कर एक लम्बी रस्सी-सी बना ली। फिर चिड़िया के नन्हें पैर में बाँध कर उसे नींबू की एक पतली डाल से उलझा दिया और हम दोनों बहुत देर तक अवाक् हो कर उसे इस टहनी पर से उस टहनी पर फुदकते देखते रहे। मुझे खूब अच्छी तरह याद है कि सविता निश्चल खड़ी थी और मैं अपने उस हाथ को जिसमें अभी-अभी वह मासूम जान सिमटी हुई कसमसा रही थी, दूसरे हाथ से मलता जा रहा था।


असल में घटना बहुत छोटी-सी थी और ऐसी घटना का कोई विशेष महत्व एक लम्बे जीवन में नहीं होता। पर उसे ज्यों-का-त्यों, बिना किसी रंचमात्र परिवर्तन के अक्सर देखता हूँ। शरबती नींबू की चिकनी डालें और घनी छाया के नीचे साफ सुथरी जमीन, झुरमुट से फिसलती हुई हवा की सुरसुरी और रिबन के लाल डोरे में बँधी हुई उस बेचैन चिड़िया का फुर फुर, इस डाल पर से उस डाल पर उड़ना, सब कुछ जैसा-का-तैसा मेरी आँखों में आज भी उतर आता है। किसी चीज की स्मृति दिन-पर-दिन मद्धिम पड़ती है, पर इस बात पर जाने रोज कहाँ से रोशनी की एक परत चढ़ जाती है


पता नहीं क्यों, लेकिन सविता में मुझसे ज्यादा साहस था। वह मेरे दूर के चाचा की लड़की थी, जो खेतिहर कम, रोजगारी ज्यादा थे। बाजार से बैल खरीद कर लाना, उन्हें खिला-पिला कर मोटा करना, फिर बेचना और बैलों की तलाश में इधर-उधर घूमना या मेले जा कर बैल लाना, यही उनका काम था। सविता की माँ खाना बनाती और रो-धो कर किसी तरह घर चलाती थी। इतना भी कभी नहीं देखा गया कि पल-भर वह सविता के बालों की सफाई में लगा दे, या अन्य भाइयों को नहला-धुला कर उन्हें साफ-सुथरे कपड़े पहना दे और उन्हें देख कर खुश हो ।


करीब-करीब यही बात मेरे साथ भी थी। जो थोड़ा-सा अन्तर हमारे बीच था, वह इतना ही कि किन्हीं पूर्व कारणों से हमारे घर के लोग अपने को बहुत सम्मानित और इज्जतदार समझते थे। इसलिए, 'यह करो! यह न करो !' की चर्चा घर में हरदम होती रहती थी। पल-भर को घर से हटने पर हमारी खोज होती थी और कभी-कभी इस बात पर डाँट पड़ने लगती थी कि अमुक के घर क्यों गये अमुक के साथ क्यों खेला।


इसलिए उस नन्हीं चिड़िया को बाँधते समय मारे डर के मेरे माथे पर पसीना आ रहा था, लेकिन मन उसे देखने को ललक रहा था। इसलिए मैं चुपचाप खड़ा रहा और सोचता रहा कि काश, मेरी बूढ़ी दादी भी रमीला मौसी की तरह एक बड़ा पिंजरा बाजार से मँगवाती और उसमें इसी तरह की दर्जनों रंग-बिरंगी चिड़ियाँ पालतीं।


मगर यह होने से रहा था। कोई भी ऐसी चीज जो काम की न हो, उसे पालना कैसा? वह तो हमारे लिए त्याज्य थी, उन दिनों। कोई लड़का सिर पर बाल रखा लेता और उसमें तेल डाल कर कंघी कर लेता तो सारे गाँव में हल्ला मच जाता, 'बुलबुली झाड़ता है, शोहदा है, शोहदा !' इसलिए पालने के लिए बकरे थे, जो दो रुपयों में आते, मोटे हो कर आठ-दस रुपये का मांस दे जाते। टूटे कान, मोटी गरदन और सफाचट सिर वाले मर्दों की तारीफ हुआ करती थी।


असल में ये लोग बहुत गरीब थे, इसलिए अपनी जरूरतों के आगे शौक की बात जानते ही न थे। रुचि की चीजों में समय और शक्ति का खर्च एकदम न हो, इसी के लिए जरूरतमन्दों ने अपने लिए कुछ नैतिक नियम बना रखे थे। मसलन वे पत्थर पर पानी चढ़ा कर अपनी विपत्ति टल जाने की आशा कर लिया करते थे। हर दुख के लिए दैवी दवा उनके पास थी, इसलिए वे भीरू थे और कोई काम करते हुए ईश्वर द्वारा उसे देखे जाने की बात किया करते थे। एक ओर बकरे को काट कर देवी को चढ़ाते थे, दूसरी ओर चींटी को सत्तू बाँटा करते थे। ऐसी हालत में अगर कोई नन्हीं चिड़िया एक लड़के के हाथ से मर जाए तो कितना बड़ा पाप हो ! यह सोच-सोच कर मैं उस दिन मरा जा रहा था और सविता की आँखों की खुशी और शरारत की हरकतें मुझे और भी डरा रही थीं।

 


 


इसके पहले जब भी मैं घर के पीछे जा कर उस बूढ़ी रमीला को चिड़ियों को खाना-पानी देते देखता, तो मन-ही-मन सोचता कि कभी वह मुझे पास बुला लेगी और कहेगी कि तुम जरा बेसन की नन्हीं-नन्हीं गोलियाँ बना दो। पर वह बूढ़ी चाहे कैसे बोलती, प्यार दिखाती, लेकिन चिड़ियों का पिंजरा जमीन पर उतारते ही हमें पास न फटकने देती थी। सविता ने कई बार अपनी सेवाएँ अर्पित करने की कोशिश की, पर वह खुश होने के बजाय बेहद नाराज हो जाती और उसकी माँ के घर उलाहना देने पहुँच जाती थी।


सविता पर जब भी मार पड़ती थी तो वह रोती थी, पर उसी समय तक, जब तक उसके शरीर में दर्द रहता था। उसके मन पर इस मार का कोई असर नहीं पड़ता था। इसलिए मैंने जब कहा, 'सविता, अब खेल लिया, छोड़ दो इसे । बूढ़ी के पास यह उड़ती चली जाएगी, तो उसने कहा, 'क्यों छोड़ दूँ? कोई मैंने उसके पिंजरे में से निकाला है ? उड़ती हुई आ कर मेरे कंधे पर बैठ गयी तो मेरी चीज है कि उसकी? कोई उसका नाम लिखा है इस पर ? हो सकता है यह चिड़िया उसकी हो

ही न! मै छोड़ दूँ, और यह उड़ जाए तो तुम पकड़ कर लाओगे ?' मैं सविता का मुँह देखता रह गया था।

बात यह सच थी कि बुढ़िया के पिंजड़ें से चिड़िया पकड़ कर लाना मुश्किल बात थी। वह सुबह से ले कर शाम तक दसियों बार उस पिंजरे की जाँच करती थी। रोज पिंजरे की नन्हीं कटोरियाँ बदलती थी। चिड़ियों को पानी हमेशा छना हुआ पिलाती थी। खाने की चीजें खूब जाँच-पड़ताल करके देती थी। वैसी ही चिड़ियाँ भी थीं उसकी -हल्के, भूरे रंग के पंख और गहरी पीली चोंच वाली। पल-भर को भी उन्हें एक जगह स्थिर नहीं देखा जा सकता था। कभी पिंजरे की छत से अटक कर, तीलियों में पंजे फँसा-कर रुक जातीं, तो कभी पानी की नन्हीं कटोरियों की बाट पर बैठ जातीं। हम सबको दूर से देख कर ऐसा लगता कि बस देखते ही रहें। लेकिन उस बुढ़िया के चेहरे पर कभी खुशी की एक रेखा भी न फूटती, न पगली कभी भूल कर भी उनके बारे में किसी से दो बात करती। ढीला-ढाला कुरता पहन कर जब वह हाथ में छड़ी लिये चलती तो हम लोग उसके चेहरे को देख कर डर जाते। बेशुमार तो झुर्रियाँ थीं उसके मुँह पर-पीपल की पत्तियों की नसों की तरह आँखों के पास से उभर कर चारों ओर को चली गयी थीं।


सारा गाँव उस बुढ़िया से डरता था। कोई एक स्वर भी उसका नहीं छूता था। सविता बताती थी कि इसका आदमी रेल का इंजन चलाता था; इसी गाँव का रहने वाला था, बचपन में भाग कर घर से चला गया था। कहीं इंजन लड़ गया, उसी में उसकी टाँग टूट गयी और अस्पताल में वह मर गया था। लोग कहते, बुढ़िया जब गाँव आयी थी तो जवान थी और रंगीन छाता लिये, ऊँची एड़ी का जूता पहने हर पहली तारीख को तहसील में जाया करती थी। अंग्रेजी हुकूमत का जमाना था, तब। एक बार किसी ने उसे कुछ कह दिया था तो पुलिस के बड़े-बड़े अफसर गाँव आ पहुँचे थे। उस समय दूर से लाल पगड़ी देख कर लोग डरा करते थे। भेलू सिंह पहलवान, जो सारे जवार में सबसे बलवान थे, अनाज के कोठिला में सारे दिन छिपे रह गये थे ।


सविता बताती थी कि वह जाति की ईसाई है। इसलिए सरकार इसकी बात इतना सुनती है। मुझे डर लग रहा था, कहीं वह थाने में जा कर चिड़िया की चोरी की बात न कह दे। मेरे ही नींबू के पेड़ में तो बँधी है। बापू को पुलिस पकड़ ले जाएगी। मैंने साहस कर के कहा, "तुम इसे अपने घर ले जाओ! वहीं बाँधो, चाहे पालो! मेरे नींबू की डाल से हटा लो! कोई देख लेगा तो"


सविता ने आँखें चढ़ा कर कहा, "माँ की बात है न! वह बिगड़ेगी, नहीं तो घर ले जाने में क्या था! मैं खुलेआम इसे पिंजरे में पालती। इसमें डरने की क्या बात थी! मुझसे वह बुढ़िया बोलती तो मैं उसे बताती। इतनी सुन्दर चिड़ियों से उस खूसट का क्या मतलब? कोई लड़का-बच्चा भी तो खेलने वाला नहीं है!"


बात सिर्फ रंग और उड़ने की थी। बच्चे इसीलिए उन चिड़ियों का पीछा करते थे। शायद चिड़ियों का पिंजरे में बन्द रहना भी एक कारण हो, लेकिन तोता तो काकी ने भी पाल रखा है। कहती हैं, 'सुबह उठते ही सीताराम-सीताराम पढ़ता है।' उसके हरे रंग और लाल ठोर की तारीफ कभी भी मैंने उनसे नहीं सुनी। भुचेंग सबेरे ठाकुरजी-ठाकुरजी पढ़ती है, इसलिए उसकी भी चर्चा मैंने लोगों से सुनी है, पर बुलबुल, श्यामा, कोयल, मैना और दहियल की बोलियों से भी तो हमारा बाग गूंजता रहता है। कबूतर की गुटुरगूँ और हारिल के तृण थामे नन्हें पैरों की बात करने यहाँ कौन बैठेगा! सारस कभी-कभी रात को बहुत चीखता है। खासा बड़ा पक्षी है और आवाज भी काफी तेज होती है। साधो भाई कभी-कभी उदास हो कर कहते हैं कि लगता है, मादा कहीं फँस गयी है। बगुले, टिटहरी और पनडुब्बी की तरफ तो ध्यान मछलियों के कारण ही जाता है। नीलकण्ठ को देख कर प्रणाम इसलिए किया जाता है कि वह शंकर की याद दिलाता है महोप बेचारी अपनी गलती को पूत-पूत के नारे दे कर दोहराती है और ररोइया की आवाज भी सुनना पाप है; लोग अशुभ मानते हैं, कोई दुखद घटता होने वाली है। मोर तो इसलिए पाल रखा है बाबा ने कि वह साँप को मार कर खा जाता है। आसमान में चील्ह को ऊँचे-ऊँचे उड़ते देख कर बूढ़े सागर दादा कहते हैं, "कही पास में कोई जानवर मरा है। बरसात में आने वाले चपल खंजन से शरदागमन की बात तुलसीदास जैसा बेकाम का आदमी ही सोच सकता था। हमारे यहाँ तो उसे पहले-पहल देखने के शुभाशुभ निश्चित है। किस दिशा में देखने पर क्या भविष्य होगा, इसकी एक लम्बी सूची है। बुलबुल जाड़ों में कुछ लोग पालते पर उसके मधुर गानों के लिए नहीं, उसे लड़ाने के लिए। गवई शौकीनों के हाथ में तीतर का पिंजरा देख कर आप सहज ही जान लेंगे कि यह कोई दंगल जीतने का अभिलाषी जवान है।

 


 

मतलब यह कि हम लोग ऐसे लोगों के बीच में रहते थे, जिन्हें वे बातें भूल चुकी थीं, जो हम चाहते थे। कोई हमें गोद में ले कर चिड़ियों के रंग और बोलियों की बात कभी नहीं कर सका था। ऐसा नहीं कि हम अपने घर वालों को प्यारे नहीं थे, बल्कि उनकी नस में उपयोगिता और संसारी संस्कार का खून बहता था। हम मोर के पंखों को बालों में खोसते थे और बादलों के घिरने पर उनका थिरक-थिरक कर नाचना भी देखते थे, पर बहुत दूर खड़े हो कर, सिमटे-सिमटे-से। हमें खुश होने का नैतिक सहारा नहीं था। लेकिन अगर होता भी तो क्या रमीला की चिड़िया हम नीबू की गाछ में छिपा कर लोगों के प्रसन्न कर सकते? मैं सोचता हूँ, नहीं। यह काम तो बुरा था ही। न जाने कैसे बहक कर बेचारी नन्ही चिड़िया बाहर आ पड़ी। मेरे घर आ कर सविता के कन्धे पर वह बैठ गयी तो क्या यह उसकी हो गयी? रमीला की आँखें भी तो खराब हो गयी हैं। खाना-पानी देते समय यह खिसक गयी। होगी और अब यहाँ रस्सी में बँधी फुदक रही है। लेकिन इतना तो मन मानता है कि अगर बचपन में ऐसे प्यारे रंगों के खिलौने खेलने को मिले होते, किसी ने तितली की शोभा का बयान करते हुए दो बातें कही होतीं, धान की लहराती खेती की सुन्दरता का बखान किया होता तो हम इतने पागल न होते। तब चिड़िया चुराते नहीं, देखते, खुश होते और रमीला को वापस कर देते। लेकिन यह बात आज की है, जब मैं यह लिख रहा हूँ। उस समय तो हम कुछ फुसफुसाते, चिड़िया का खाना पानी पहुँचाने की सोचते हुए सविता के घर की ओर चले जा रहे थे। बात इतनी-सी थी कि हमें अपने नीबू की गाछ पर यह भरोसा हो गया था कि चिड़िया का पता किसी को मालूम ही नहीं हो सकता। कुछ दूर आगे बढ़ने पर देखा, ज्ञानी बाबा लँगोट मारे चले आ रहे थे और उनकी जवान बेटी पीछे-पीछे हाथ में रस्सी और लोहे का गगरा लिये हुए थी; नहाना था, उनको कुएँ पर। मैं डरा नहीं। सविता ने कहा था कि जरा भी नहीं डरना। कोई कहेगा कि चिड़िया यहाँ कैसे, तो हम दोनों कह देंगे, हम क्या जानें! बात ठीक भी थी, किसी ने हमें वहाँ बाँधते तो देखा नहीं था।


सामने ही पकड़ी का एक पुराना पेड़ था। रमीला उसी के नीचे खड़ी ऊपर को निगाह लगाए थी। पतली कमानियों वाला उसका चश्मा ढीला होने के कारण सरक-सरक आता था। उसने चश्मा हाथ से उतार कर अपने फ्रॉक से पोंछा तो सविता ने.धीरे से मुझे चिकोटी काटी। मैं पहले ही समझ रहा था और अब और भी समझ गया। सविता ने दूर से पूछा, "दादी, क्या देख रही हो ?”


रमीला चुप रही। ज्ञानी बाबा दूर से चिल्लाए, “पागल है, पागल! कल से बस यही नशा है इसके ऊपर। घूम-घूम कर पेड़ों की पत्तियाँ गिन रही है। आँख-कान तो चले ही गये थे, अब खोपड़ी भी फिर गयी!”


सविता के चेहरे पर धपू से उदासी उतर कर बैठ गयी, पर मैं मुस्कराने लगा। ज्ञानी दादू इतना भी नहीं समझ पाते कि वह पत्तियों की तरफ क्यों देख रही है। सच भी यही है, ये लोग भीतर से बहुत कम सोचते हैं। जानने के लिए, मन की क्रिया वाली सारी गति बचपन से एक जगह खड़ी-खड़ी टप हो जाती है। जितना सुना, उतना ही जानना और उस पर आचरण करना इन्हें मालूम है। जो कुछ पीछे होता रहा है, वही इनके लिए मुख्य है, जो होना चाहिए वह नहीं, और 'क्यों' का इस्तेमाल तो ये बहुत कम करते हैं। इसलिए जो इनका काम है, वह भी इनका नहीं है, इनके पूर्वजों का था। हल वही चलाते थे जो इनके दादा ने चलाया था। खुरपी का नाम वही रखते थे और उसी के लिए बहस भी करते थे। काम ये काम के लिए करते थे। जहाँ सोते, वहीं थूकते और वहीं चिलम पी कर राख गिरा देते। ऐसा नहीं कि ये सुस्त थे, बल्कि यह कि ये जीवन के बारे में सोच ही नहीं पाते थे। रमीला की बात सोचना तो मुश्किल ही था।


लेकिन उस समय मैं ज्ञानी दादू से अपने को होशियार समझ कर या यों कहें कि उम्र की सीमा तोड़ कर सिर्फ जानकारी के आधार पर बड़ा बन गया था। पर सविता ने सहसा मुझे रोक कर कहा, 'चलो चिड़िया ला कर रमीला दादी को दे देंगे।"


मुझे 'क्यों' कहने के बाद भी पल-भर को अचम्भा हुआ। फिर उसकी आँखों में देखा तो पल-भर में ही उस बँधी चिड़िया के प्यारे रंग और उड़ान की एक रेखा मेरे मन में खिंच गयी। सविता ने उलट कर चलते हुए बेरुख हो कर कहा, "वैसे ही! तुमसे क्या मतलब है? मेरे कंधे पर बैठी थी, इसलिए चिड़िया मेरी है। मैंने बाँधा है, मैं ही खोल कर रमीला को दे दूँगी ।"


उधर बूढ़ी रमीला चश्मा आँखों पर चढ़ा कर फिर पत्तियों में झाँकने लगी थी।


कुएँ पर से नहा कर, नन्हा-सा गमछा लपेटे, लौटते हुए ज्ञानी दादा धीरे से एक मोटी-सी गाली देते हुए अपने घर में घुस गये थे और मुझे अकेला छोड़ कर सविता उस नन्ही चिड़िया को छोड़ने के लिए भागती चली गयी थी।

 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्व. विजेंद्र जी की हैं।)  

टिप्पणियाँ

  1. Markendey sir ji is kahani ko pad kar mujhe achha laga aur is kahani ke shandrabh mai ye aspast hota hai ki ak maa apni bachho ke liye kya nahi kar sakti ydi wakt aaye to khuda se bhi lad jaye isliye to god ka dusra rup maa ko bola gaya thanks 🙏 aapko markendey sir ji

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