प्रणय कृष्ण
(भ्रष्टाचार-विरोधी आन्दोलन पर प्रणय कृष्ण की लेखमाला की आख़िरी किस्त)
प्रणय कृष्ण
यह जनता की जीत है
It is not enough to be electors only. It is necessary to be law-makers; otherwise those who can be law-makers will be the masters of those who can only be electors." -Dr.Ambedkar
( "महज मतदाता होना पर्याप्त नहीं है. कानून-निर्माता होना ज़रूरी है, अन्यथा जो लोग कानून-निर्माता हो सकते हैं, वे उन लोगों के मालिक बन बैठेंगें जो कि महज चुननेवाले हो सकते हैं." -डा. अम्बेडकर)
अन्ना ने आज अनशन तोड़ दिया... चुनने वालों ने कानून-निर्माताओं को बता दिया कि न तो वे सदा के लिए महज चुनने वाले बने रहेंगे और न ही कानून-निर्माताओं को अपना मालिक बनने देंगे. सिटिज़न चार्टर, प्रदेशों में लोकायुक्त की नियुक्ति का प्रावधान और निचली ब्यूरोक्रेसी की जांच, निरीक्षण और सज़ा को लोकपाल के दायरे में लाने की बात सिद्धांत रूप में संसद ने मानकर एक हद तक अपनी इज़्ज़त बचाई है. वोट अगर 184 के तहत होता, तो इनके लिए इज़्ज़त बचाना और भी मुश्किल होता. साफ़ पता चल जाता कि कौन कहां है. क्रास-वोटिंग भी होती. शायद खरीद-फ़रोख्त भी. यह जीत सबसे ज़्यादा देश भर में कस्बों और गली-मोहल्लों में आबाद उन निम्नमध्यवर्ग और गरीब लोगों की है, अन्ना जिन सबकी आवाज़ बन गए, जिनके जुलूसों और नारों तक मीडिया की पहुंच नहीं थी और जिन्हें इसकी रत्ती भर परवाह भी नहीं थी, जिन्हें जाति-धर्म के नाम पर बरगलाया न जा सका. शासकों को जनता ने मजबूर किया है कि सिर्फ़ विश्व-बैंक और अमेरिका के निर्देश में यहां कानून नहीं बनेंगे, बल्कि जनादेश से भी बन कर रहेंगे.
ये निश्चय ही जनता की जीत हॆ. आंदोलन जब सांसदों को घेरने तक पहुंचा ऒर जेल भरो की तैय्यारी हो गई तो सारी ही पार्टियों को यह समझ में आया कि उनकी समवेत हार हो सकती है. इस आंदोलन का फ़ायदा न भाजपा उठा सकती थी, न कांग्रेस. कांग्रेस-भाजपा नूरा-कुश्ती तक नहीं कर पाए संसद में, जैसा कि वे न्यूक्लियर डील के सवाल पर कर ले गए थे. आगे हर किसी के सामने अनिश्चय की दीवार खडी थी, खुद आंदोलन के नेताओं के सामने भी. अभी भी संसदीय समिति के सामने संसद की भावना रखी जाने के बाद वह क्या करेगी, कहा नहीं जा सकता. ये बडॆ घाघ लोग हॆं. फ़िर भी धमकी, चरित्र-हनन, दमन, छल-छंद, आंदोलन को तोडने का हर संभव प्रयास कर लेने के बाद ये हार गए. अन्ना भी कह रहे हैं कि लडाई में अभी पूरी जीत नहीं हुई है. यही सही बात है. आंदोलन का एक चरण पूरा हुआ.
आन्दोलन के कुछ दृश्य
1. 22 अगस्त, मानस विहार कालोनी, लखनऊ
हर दिन इस नई बस रही कलोनी में काम पर आए मज़दूरों के यहां से अन्ना के समर्थन में जुलूस निकलता है. सर पर गांधी टोपी पहने 5 साल का एक नन्हा हज़ारे अपनी मां से ज़िद कर रहा है, मैं जुलूस के साथ जाऊंगा.
2. 24 अगस्त, भावनगर, गुजरात
भावनगर के स्कूल कालेजों के 700 छात्र आइसा- इंकलाबी नौजवान सभा के आह्वान पर भ्र्ष्टाचार- विरोधी मार्च निकालते हैं. बडी तादाद में लडकियां भी हैं. लाठी चार्ज ही नहीं, पुलिस बदसलूकी भी करती है. गिरफ़्तार किए गए चार छात्र नेता (दो लडके और दो लडकियां) जमानत लेने की जगह जेल जाना पसंद करते हैं. वे जेल से ही अपना वक्तव्य जारी करते हैं- "जब मोदी फ़र्ज़ी एनकाउन्टर और साम्प्रदायिक हिंसा में अपनी सरकार की भूमिका पर पर्दा डालने के लिए ईमानदार पुलिस अधिकारियों को दण्डित करता है, तो क्या यह भ्रष्टाचार नहीं?". अगले दिन पूरे शहर के छात्र- छात्राएं थाना घेर लेते हैं. थानेदार माफ़ी मांगता है, छात्र बिना शर्त रिहा किए जाते हैं. मोदी द्वारा अन्ना के समर्थन का स्वांग तार-तार हो जाता है.
3. 24 अगस्त, द्वारका, सेक्टर-10, नई दिल्ली
एक अध्यापिका 17-18 साल के एक रिक्शाचालक के रिक्शे पर सवार होती हैं. बातचीत चल पडती है. रिक्शाचालक हरदोई का नौजवान है. कानपुर में स्कूल में पढ रहा था कि पिता की मौत हो गई. नाम है मुख्तार सिंह. (नाम से कहा नहीं जा सकता कि जाति क्या है) . मरते वक्त पिता ने पढाई जारी रखने के लिए कहा था. चाचा ने पैसे देने से मना कर दिया. अब वह दिल्ली में रिक्शा खींचता है. मुख्तार सिंह इंटर के बाद बी. एड. करके स्कूल टीचर बनना चाहता है क्योंकि उसके मुताबिक यह पेशा सबसे अच्छा है जिसमें ज्ञान लिया ऒर दिया जाता है. अब मुख्तार ने प्राइवेट में दाखिला लिया है. अध्यापिका पूछती है, "तुम दिन भर रिक्शा खींचते हो, तो पढते कब हो?" मुख्तार कहता है, " मैडम, हर दिन शाम घर पहुंच कर मैं रोता हूं . लेकिन सोचता हूं कि अकेले मॆं ही तो कष्ट नहीं उठा रहा हूं. अब देखिए, अन्ना हज़ारे को, इस उम्र में भी कितना लड रहे हैं." अध्यापिका का अगला सवाल है, "क्या रामलीला मॆदान गए थे?" "नहीं. हमें तो रोज़ कमाना है, रोज़ खाना है. चाह कर भी जा नही जा सके," मुख्तार ने कहा.
4. 25 अगस्त, सलोरी, इलाहाबाद
यह इलाहाबाद का वह इलाका हॆ जहां सबसे ज़्यादा छात्र रहते है. छोटे-छोटे कमरों में 2-2, 3-3 और कभी कभी 4-4 छात्र. यहां रहना अपेक्षाकृत सस्ता है. ज़्यादातर छात्र अपना खाना खुद बनाते हॆं ,उन्हीं छोटे कमरों में. कई तो अपना राशन भी गांव से ही लाते है. समझा जा सकता है कि ये किस तबके के छात्र हैं. जिस दिन अन्ना गिरफ़्तार हुए, इसी इलाके से लगभग 01 हजार का जुलूस निकला. यह इस आन्दोलन का इलाहाबाद में आयोजित पहला जुलूस था. यों तो इलाहाबाद बहुत बडा शहर नहीं है, लेकिन सिविल लाइंस, हाई-कोर्ट में फ़ंसी मीडिया की आंखें सलोरी तक नहीं पहुंच पाईं, तब भी नहीं जब यह जुलूस पांच किलोमीटर चलकर विश्वविद्यालय परिसर में 1942 के शहीद लाल पद्मधर की मूर्ति तक पहुंच गया.
यही आज भी होना तय था. मुझे भी सम्बोधित करना था. रामायन राम, सुनील मौर्य आदि छात्र नेता दिनभर से इलाके में थे. वरिष्ठ छात्र राजेंद्र यादव सभा का संचालन कर रहे थे ऒर बता रहे थे कि माध्यमिक शिक्षा परिषद, उच्चतर शिक्षा आयोग आदि में अध्यापक के पदों पर सामान्य, ओ.बी.सी. ऒर अनु. जाति/जनजाति के अभ्यर्थियों के लिए अलग-अलग घूस के रेट्स क्या-क्या हैं. ये हर छात्र को यों भी मालूम है, जनरल नालेज की तरह. जे.एन.यू. छात्रसंघ के निवर्तमान अध्यक्ष संदीप सिंह ने भ्रष्टाचार और नई आर्थिक नीतियों के अंतर्संबंध पर सारगर्भित भाषण दिया. मेरे बोलने के बाद 'इंकलाब ज़िंदाबाद' का एक गगनभेदी नारा किसी ने उठाया और आंधी-तूफ़ान की तरह लगभग एक हज़ार की संख्या में नौजवान बढ चले परिसर की ओर, लाल पद्मधर के शहादत स्थल की ओर.
ऎसे हज़ारहां दष्य इस आन्दोलन के हैं, होंगे. हमें अपनी ओर से इनकी व्याख्या नहीं करनी. मत भूलिए कि चाहे कारपोरेट लूट हो या मंत्रियों, अफ़सरों द्वारा सरकारी खज़ानों में जमा जनता की गाढी कमाई की लूट हो, यह पूंजी का आदिम संचय है. भ्रष्टाचार के स्रोतों पर रोक लगाना पूंजी के आदिम संचय पर चोट करना है. इसी से इस पूंजीवादी लोकतंत्र के साझीदार सभी अपनी अपनी जाति-धर्म की जनता को इस आंदोलन से विरत करने में जुट चले. अगडा-पिछडा-दलित- अल्पसंख्यक की शासक जमातों के नुमाइंदे संसद में एक साथ थे. उनकी वर्गीय एकजुटता देखने लायक थी. दूसरी ओर इन सभी तबकों के निम्नमध्यवर्गीय ऒर गरीब लोग लगातार आंदोलन से आकर्षित हो रहे थे. लम्बे समय बाद जातिगत ऒर धर्मगत सामुदायिक चेतना में वर्गीय आधार पर दरारें दिखाई पडीं. अनेक दलों की गति सांप- छछूंदर की हुई. कभी समर्थन, कभी विरोध का नाटक चलता रहा. उन्हें यह समझ नहीं आ रहा था कि वे अपने जनाधार को इस आंदोलन में जाने से रोकने की ताकत रखते हैं या नहीं. हर दिन कैलकुलेशन बदल रहे थे. जब उन्हें लगा कि वे उन्हें नहीं रोक पा रहे तो समर्थन का नाटक करते और जैसे ही थोडा आत्मविश्वास आता कि रोक सकते हैं, तो पलटी मार जाते. लेकिन जहां चुनाव महज गणित से जीते जा सकते हैं, वहीं आंदोलन जिस तरह का रसायन तैयार करते हैं, उनमें गणित करनेवालों को अक्सर ही हतप्रभ रह जाना पडता है. एक उदाहरण देखें. मनरेगा, बी. पी. एल. कार्ड और गरीबों के लिए दूसरी तमाम योजनाओं में भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन में गरीब लोग उतरेंगे ही, चाहे वे दलित हों, अति पिछडे हों, अल्पसंख्यक हों या अन्य. कोई मायावती, कोई लालू इसे नहीं रोक सकते, भले ही इस तबके का वोट वे विकल्प के अभाव में पा जाते हों या आगे भी पाते रहें.
प्रतीकों की राजनीति में भी इस आंदोलन को फ़ंसाने की कई कोशिशें हुईं. झण्डे, बैनर, नारों के विद्वतापूर्ण विश्लेषणों से निष्कर्ष निकाले गए. अब आंदोलन के नेताओं को भी इस आंदोलन की कमज़ोरियों, सीमाओं और ताकत का विश्लेषण करना होगा ऒर ऎसी राजनीतिक तकतों को भी जो देश में आमूल बदलाव चाहती हैं. उम्मीद यह भी जगी है कि रोज़गार का मौलिक अधिकार, महिला आरक्षण बिल, चुने हुए प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार, नकारात्मक वोट देने का अधिकार, खास सेक्टरों के राष्ट्रीयकरण के कानून बनवाने तथा सेज़, न्यूक्लियर-डील, ए.एफ़.एस. पी.ए. जैसे दमनकारी कानूनों को रद्द कराने के बडे आंदोलन यह देश आगामी समय में देखेगा.
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