संतोष कुमार चतुर्वेदी
मित्रो, अपनी एक तरोताजी रचना के साथ मैं आपसे मुखातिब हूँ. कविता कैसी बन पडी है इस पर आप के बेबाक सुझावों की हमें उत्सुकता से प्रतीक्षा रहेगी.
संतोष कुमार चतुर्वेदी
घड़ी
बहुत जिद्दी है मेरी घड़ी
चाहे जितनी बार मिलाओ इसे
किसी दूसरी घड़ी
आकाशवाणी या दूरदर्शन के समय से
हर बार यह अपना रूतबा दिखलाएगी
अपना ही राग अलापेगी
जिसके मुताबिक खुलते और बंद हुआ करते हैं
दफ्तर देश भर के
उस सरकारी राष्ट्रीय मानक समय को
मुंह बिराती है
कुछ मिनट आगे रह कर
महत्वाकांक्षाओं से कुछ फर्लांग पीछे
अपनी आकांक्षाओं में
मस्त-व्यस्त रहती है
यह जिद्दी घडी
कल जिस समय सूर्य ने अंगड़ाई ली
कल जिस समय आसमान की छत पर
चाँद चहलकदमी कर रहा था
और सितारों के दिए जलने शुरू हुए
आज ठीक उसी वक्त पर ऐसा नहीं होगा
गोया हर वक्त दुनिया का निखालिस अनोखा वक्त
एक-एक आदमी के चेहरे और स्वभाव की ही तरह
अपने आप में अनूठा अमूल्य
मुनादी करती फिरती है यह जिद्दी घडी
इसकी जिद का आलम ऐसा
कि बिलकुल अपना ही
घंटा... मिनट.. सेकेण्ड.. ईजाद करते.
बताते इतराती फिरती है
मेरी घडी जिद्दी
अपना ही बही खाता है इसका अलबेला
फिर भी तुमसे मेल खा सकता है इसका
बशर्ते तुम्हारे पास भी अपनी जिद हो
अपना पसीने वाला रूतबा हो
या फिर कोई जूनून पाल रखा हो तुमने
अपनी दिलकश चाल में चलती
प्यार में अपने जीती-मरती
न बहुत अधिक न बहुत कम
अहंकारों के घेरे को लांघती-फलांगती
चलती चली जाती टिक-टिक-टिक
बहुत जिद्दी है हमारी यह घडी
Ghari is an embodied revolt against the so called standard nature having quiet similarity to a tamed pet.
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