प्रणय कृष्ण

प्रणय  कृष्ण  


आज की आलोचना के मुख्य स्वर प्रणय कृष्ण का 
जन्म  इलाहाबाद में २० नवंबर 1965 को हुआ था. 
इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम ए करने के पश्चात् इन्होंने जे  एन यू से  एम फिल किया. १९९३-१९९४ में जे  एन यू छात्र संघ के अध्यक्ष बने. २००७ में प्रणय  ने अपना शोध  कार्य पूरा किया जो 'उत्तर औपनिवेशिकता  के श्रोत' नाम से  प्रकाशित और  चर्चित हो चुकी है. इनकी एक और  पुस्तक 'अज्ञेय का काव्य: प्रेम और मृत्यु'  २००५ में प्रकाशित हो चुकी है. आजकल इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में एसोसिएट
 प्रोफ़ेसर के रूप में कार्यरत  हैं साथ ही वैचारिक पत्रिका 
समकालीन जनमत का संपादन और लेखक संगठन जसम के राष्ट्रीय महासचिव के महत्त्वपूर्ण दायित्व का निर्वहन भी कर रहे है.  

संपर्क- टी-१०, पंचपुश्पा अपार्टमेंट, अशोक नगर, इलाहाबाद   २११००१.

अन्ना और संसद

'जिसे आप पारलियामेंटों की माता कहते हैं वह पारलियामेंट तो बाँझ और बेसवा है. ये दोनो शब्द
बहुत कड़े हैं,तो भी उसे अच्छी तरह लागू होते हैं. मैंने उसे बाँझ कहा. क्योंकि अब तक उस पारलियामेंट ने अपने आप एक भी अच्छा काम नहीं किया. अगर उस पर जोर दबाव डालने वाला कोई न हो तो वह कुछ भी न करे ऐसे उसकी कुदरती हालत हैं. और वह बेसवा है क्योंकि जो मंत्री मंडल उसे रखे, उसके पास वह रहती हैं, आज उसका मालिक अस्क्विथ है तो कल वाल्फ़र होगा परसों कोई तीसरा.'


गाँधी के उपरोक्त उद्धरण को यहाँ रखते हुए इसे न तो मैं सर्वकालिक सत्य के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ, न अपनी ओर से कुछ कहने के लिए, बल्कि इंग्लैंड की तब की बुर्जूआ पारलियामेंट के बारे में गाँधी के विचारों को ही आज के, बिलकुल अभी के हालात को समझने के लिए रख रहा हूँ.

अभी भी प्रधानमंत्री  इस  बात पर डंटे हुए हैं कि अन्ना का आन्दोलन संसद की अवमानना करता 
है और इसलिए अलोकतांत्रिक है. दरअसल लोकरहित संसद महज तंत्र है और इस तंत्र को चलाने वाले मंत्रिमंडल के सदस्य तब से लोक को गाली दे रहे हैं, जब से अन्ना का पहला अनशन जंतर-मंतर पर शुरू हुआ. लोकतंत्र और संविधान की चिंता में लगातार दुबले हो रहे कुछ अन्य दल जैसे राजद और सपा ने भी अपने सांसदों रघुबंश प्रसाद और मोहन सिंह के जरिये तब यही रुख अख्तियार कर रखा था. संसद की रक्षा में तब कुछ वाम नेताओ के लेख भी आये थे . जबकि संसद को जन आंदोलनों से ऊपर रखने को मार्क्सवादी शब्दावली में 'संसदीय बौनापन' कहा जाता है. यदि भाकपा(माले) और उससे जुड़े संगठनो को छोड़ दे, जिन्होंने जंतर-मंतर वाले अन्ना के अनशन के साथ ही इस मुद्दे पर आन्दोलन का रुख अख्तियार कर लिया तो अन्य वाम दलों ने जिनकी संख्या संसद में अभी भी अच्छी है 'वेट एंड वाच' का रुख अपनाया. कर्नाटक और अन्यत्र केंद्र में अपने पिछले कार्यकाल में भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों में फंसी भाजपा ने अन्ना के आन्दोलन के समानांतर रामदेव को खड़ा कर जनाक्रोश को अपने फायदे में भुनाने की भरपूर कोशिश की, संघ का नेटवर्क रामदेव के लिए लगा, लेकिन कांग्रेसियों ने खेले-खाए रामदेव को उन्हीं के जाल में फंसा दिया. योग के नाम पर हर सत्ताधारी दल से जमीन और तमाम दूसरे फायदे उठाने वाले रामदेव का हश्र यही होना भी था.

बहरहाल आज स्थिति बदली हुई थी. लोकपाल बिल पर सिविल सोसाइटी से किये गए हर वादे से मुकरने के बाद सरकार ने पूरी मुहिम चलाई कि अन्ना हठधर्मी हैं, संविधान और संसद को नहीं मानते. टी आर पी केन्द्रित मीडिया भले ही इस उभार को परिलक्षित कर रहा हो, लेकिन अगर बड़े अंग्रेजी अख़बारों के हाल-हाल तक के सम्पादकीय पढ़िए, तो लगभग सभी ने इसी कांग्रेसी लाइन को अपना समर्थन दिया. किसी ने पलट कर यह पूछना गंवारा न किया कि क्या जनता का एकमात्र अधिकार वोट देना है? जनता के अंतर  विरोधों  को साध कर तमाम करोडपती, भ्रष्ट और कार्पोरेट दलाल मनमोहन सिंह, चिदम्बरम, सिब्बल, शौरी, मानटेक आदि विश्व बैंक और अमेरिका निर्देशित विश्व व्यवस्था के हिमायती अगर संसद को छा लें, तो जनता को क्या करना चाहिए? क्या वोट पाने के बाद सांसदों को कुछ भी करने का अधिकार है? संसद में उनके कारनामो पर जनता का कोई नियंत्रण होना चाहिए अथवा नहीं? यदि होना चाहिए तो उसका तरीका क्या हो? क्यों न जनादेश की अवहेलना करने वाले को वापस बुलाने का अधिकार भी जनता के पास हो. यदि यह अधिकार कम्युनिस्ट शासन द्वारा वेनेजूएला की जनता के लिए लाये गए संवैधानिक सुधारों में शामिल है तो भारत जैसे कथित रूप से दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में जनता को यही अधिकार क्यों नहीं मिलना चाहिए? क्यों 'किसी को भी वोट न देने' या 'विरोध में वोट देने' का विकल्प मत पत्र में नहीं दिया जा सकता. लेकिन मीडिया बैरनों को ये सारे सवाल सत्ताधारियों से पूछना गंवारा न था.

एक मोर्चा यह खोला गया कि जैसे जे पी आन्दोलन से संघ को फायदा हुआ वैसे ही अन्ना के आन्दोलन से भी होगा. अब मुश्किल यह है  कि जिस बौधिक वर्ग में यह सब ग्राह्य हो सकता था, उसके पास नेहरू, पन्त, राजीव गाँधी तक कांग्रेस और संघ परिवार के बीच तमाम आपसी दूरभि-संधियों का डाकुमेंटेड इतिहास है.
जे पी आन्दोलन से संघ को जो वैधता मिली हो, समय-समय पर जितनी मजबूती प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से कांग्रेस ने पहुचाई है उतना किसी और ने नहीं. उसके पूरे इतिहास के खुलासे की न यहाँ जगह है न जरूरत. बहरहाल शबनम हाशमी और अरुणा राय जैसे सिविल सोसाइटीबाज  जिनका
एक्टिविज्म कोंग्रेसी सहायता के बगैर एक कदम नहीं चल सकता, 'संघ के हौवे' पर खेल गए. मुंहफट कांग्रेसियों ने अन्ना के आन्दोलन को संघ से ले कर माओवाद तक से जोड़ा, लेकिन उन्हें इतनी बड़ी जनता नहीं दिखी जो इतनी सारी वैचारिक बाते नहीं जानती. लेकिन एक बात जानती है कि सरकार पूरी तरह भ्रष्ट है और अन्ना पूरी तरह उससे मुक्त. अभी कल तक कुछ  चैनलों के संवाददाता अन्ना के समर्थन में आये सामान्य लोगों से पूछ रहे थे कि वे जन लोकपाल बिल और सरकारी बिल में क्या अंतर जानते हैं, बहुत लोगों को पता नहीं था, लेकिन उन्हें इतना ही पता था कि अन्ना सही हैं और सरकार भ्रष्ट. जनता का जनरल नालेज टेस्ट कर रहे इन संवाददाताओं के जनरल नालेज की हालत यह थी कि वे यहाँ तक कह रहे थे कि आन्दोलन अभी भी मेट्रो शहरों तक सीमित है. उन्हें सिर्फ प्रादेशिक राजधानियों में ही अन्ना का आन्दोलन दिख रहा था. देवरिया, बलिया, आरा, गोरखपुर, ग्वालियर, बस्ती, सिवान, हजारीबाग, मदूराई, वर्दवान, गिरीडीह से लेकर लेह, लद्दाख और हजारों छोटे शहरों, कस्बों में, निम्न माध्यम वर्ग के बहुलांस में इनको परिवर्तन की तड़प नहीं दिख रही.

जब से नयी आर्थिक नीतियाँ शुरू हुई तब से भारत की सत्ताधारी पार्टियों ने विभाजनकारी, भावनात्मक और उन्मादी मुद्दों को सामने ला कर बुनियादी सवालों को दबा दिया. इस आन्दोलन में भी जाति और धर्मं के आधार पर लोगो को आन्दोलन से दूर रखने की कोशिशें तेज हैं. बहुतेरी जातियों के नेता और बुद्धिजीवी चैनलों में बिठाये जा रहे हैं ताकि वे अपने जाति और समुदाय को इस आन्दोलन से अलग कर सकें. राशिद अल्वी जो कभी बसपा में थे और जाती तौर पर बुरे आदमी नहीं समझे जाते, उन्हें कांग्रेसियों ने यह समझा कर रणभूमि में भेजा कि अमेरिका से अगर किसी तरह इस आन्दोलन का सम्बन्ध जोड दिया जाय तो मुसलमान तो जरूर ही भड़क जायेंगे, अमेरिका जो हर मुल्क के अन्दरूनी हालात पर टिप्पणी कर के अपने हितों की हिफाजत करता है. उसने अन्ना के आन्दोलन पर सकारात्मक टिप्पणी कर के इसका आधार भी मुहैया करा दिया जबकि अमेरिका से बेहतर कोई नहीं जानता कि यह आन्दोलन महज लोकतंत्र के किसी बाहरी आवरण तक सीमित नहीं, बल्कि इसमें एक साम्राज्य विरोधी संभावना है. आइडेंटीटी पालीटिक्स के कई अलमबरदार इस आन्दोलन को खास जाति समूहों का आन्दोलन बता रहे हैं. पहले अनशन के समय रघुबंश प्रसाद सिंह के करीबी  कुछ पत्रकार इसे हवा दे रहे थे . हमारे मित्र चंद्रभान प्रसाद इसे सवर्ण आन्दोलन बता रहे  थे एक चैनल पर. ये वही चंद्रभान जी हैं जिन्होंने आज की  बसपाई राजनीती की सोसल इंजीनियरिंग यानी ब्राहमन-दलीत गठजोड़ का सैधांतिक आधार प्रस्तुत करते हुए काफी पहले ही यह प्रतिपादित किया था कि पिछड़ा वर्ग आक्रामक है, लिहाजा रक्षात्मक हो रहे सवर्णों के साथ दलितों कि एकता स्वाभाविक है. ये वही चंद्रभान हैं जिन्होंने गुजरात जनसंहार में पिछड़ों को प्रमुख रूप से जिम्मेदार बताते हुए पिछड़ों को हूणों का बंशज बताया था. अब सवर्णों के साथ दलित एकता के इस महान  प्रवर्तक को यह आन्दोलन कैसे नकारात्मक अर्थों में महज सवर्ण दिख रहा है. चंद्रभान जी वफ़ादारी जरूर निभाए, लेकिन वे इस विडम्बना का क्या करेंगे कि अब मायावती ने भी इस आन्दोलन का समर्थन कर दिया है. अगर किसी दलित को भ्रमित ही होना होगा तो वह मायावती से भ्रमित होगा या चंद्रभान से. आज का मध्य वर्ग और खासकर निम्न मध्य वर्ग आजादी के पहले वाला महज सवर्ण मध्य वर्ग नहीं रह गया हैं? अगर यह आन्दोलन आशीष नंदी जैसे उत्तरवादियों की निगाह में महज मध्यवर्गीय है तो इसमें पिछड़े और दलित वर्ग का मध्यवर्गीय हिस्सा भी अवश्य शामिल है. पिछले आन्दोलन में मुझे इसीलिए रिपब्लिकन पार्टी, वाल्मिकी समाज आदि के  बैनर और  मंच  जंतर-मंतर पर देख कर जरा भी अचरज नहीं हुआ था. अब जबकि लालू, मुलायम और मायावती भी अन्ना की
गिरफ्तारी के बाद लोकतांत्रिक हो उठे हैं, तो इस आन्दोलन को तोड़ने के जातीय कार्ड की सीमायें भी स्पष्ट हो चुकी हैं.

बेअंदाज कांग्रेसियों ने अन्ना को अपशब्द तक कहा. हत्या का मंसूबा रखने वाले जब देख लेते हैं कि वे ह्त्या नहीं कर पा रहे तो चरित्र हत्या पर उतर आते हैं. शैला मसूद की भाजपाई सरकार के अधीन हत्या की जा सकती थी तो उनकी हत्या कर दी गयी. अन्ना की हत्या नहीं की जा सकती तो उनकी चरित्र हत्या की कोशिश की गयी. अब रशीद अल्वी जैसे कांग्रेसियों को अन्ना के आन्दोलन के पीछे अमेरिका का हाथ दिखाई पड़ रहा है. कभी इंदिरा गाँधी के समय कांग्रेस को अपना हर विरोधी सी आई ए का एजेन्ट नजर आता था. अल्वी भूल गए हैं कि अमेरिकी नुस्खा पुराना है. और अब दुनिया ही नहीं बदल गयी है  बल्कि उनकी पूरी सरकार ही देश में अमेरिकी हितों की सबसे बड़ी रक्षक है. तवलीन सिंह जैसी दक्षिणपंथी इसलिए परेशान हैं कि  अन्ना और उनके सहयोगी भ्रष्टाचार को क्यों साम्राज्यवादी आर्थिक नीतियों से जोड़ रहे हैं.

गांधीजी ने 'हिंद स्वराज' में लिखा था अगर पारलियामेंट बाँझ न हो तो इस तरह होना चाहिए कि लोग उसमें अच्छे से अच्छा मेंबर चुन कर भेजते हैं.....ऐसी पारलियामेंन्ट को अरजी की जरुरत नहीं होनी चाहिए. न दबाव की. उस पारलियामेंन्ट का काम इतना सरल होना चाहिए कि दिन-ब-दिन उसका तेज बढ़ता जाये और लोगों पर उसका असर होता जाये लेकिन इससे उलटे इतना तो सब कबूल करते हैं की पारलियामेंट के मेंबर दिखावटी और स्वार्थी पाए जाते हैं. सब अपना मतलब साधने की सोचते हैं. सिर्फ डर के कारण ही पारलियामेन्ट कुछ काम करती है. जो काम आज किया उसे कल रद्द करना पड़ता है. आज तक एक भी चीज को पारलियामेंन्ट ने ठिकाने लगाया हो ऐसी कोई मिसाल देखने में नहीं आती. बड़े सवालों की चर्चा जब पारलियामेन्ट में चलती है  तो उसके मेंबर पैर फैला कर लेटते हैं या बैठे-बैठे झपकियाँ लेते हैं. उस पार के मेंबर इतने जोर से चिल्लाते हैं कि सुनने वाले हैरान-परेशान  रह जाते हैं. उसके एक महान लेखक ने उसे दुनिया की बातूनी जैसा नाम दिया है. अगर कोई मेंबर इसमें अपवादस्वरुप निकल आये तो उसकी कमबख्ती ही समझिये. जितना समय और पैसा पारलियामेंन्ट खर्च करती है  उतना अगर अच्छे लोगों को मिल जाय तो प्रजा का उद्धार हो जाये. ब्रिटिश पारलियामेंन्ट महज प्रजा का खिलौना है  और वह खिलौना प्रजा को भारी खर्च में डालता है. यह विचार मेरे खुद के हैं. ऐसा आप न माने..... एक मेंबर ने तो यहाँ तक कहा है  की पारलियामेंन्ट धर्मिष्ठ आदमी के लायक नहीं रही. आज 700 वर्ष के बाद भी पारलियामेंन्ट बच्चा ही हो तो वह बड़ी कब होगी?'



जारी....

टिप्पणियाँ

  1. भाई आपका हर कार्य काबिलेतारीफ होता है |यह पोस्ट भी अच्छी और बहस के काबिल है |बधाई

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  2. प्रणय जी के विश्लेषण से पूरी तरह सहमत .शुद्धतावाद एक ऐसी बीमारी है जो जनता और जन- आन्दोलन की प्रकृति को समय-सापेक्ष रूप में समझे जाने में हमेशा बाधक बनती है यदि बुद्धिजीवी समझे जाने वाले व्यक्ति में यह हो तो खतरा और बढ़ जाता है बहरहाल ,अन्ना के आन्दोलन ने जो जन-समर्थन हासिल किया है उसके पीछे जनता के वे गहरे दुःख-दर्द हैं जिनको फूट पड़ने का एक सुनहरा अवसर मिला है अब यह मीडिया से प्रेरित जन- आन्दोलन न होकर स्वयं मीडिया जन- शक्ति और जन- आन्दोलन के पीछे- पीछे चल रहा है इससे उसकी टी आर पी बढ़ रही है वह पूंजीवादी व्यवसाय करने वाला ऐसा उपक्रम है जिसे मीडिया कहा जाता है यही कारण है कि पूंजीवा दी व्यवस्था के विरुद्ध चलने वाले आन्दोलनों की वह अनदेखी करता है यह पूरी तरह जन- आन्दोलन है

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  3. वाह... खरी-खरी किंतु पूरी तरह तार्किक और आंखें खोलने वाली बातें।

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  4. आपके विचार विद्यार्थियों के लिए बहुत ही लाभप्रद व् ज्ञानप्रद है ।

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  5. आपके विचार विद्यार्थियों के लिए बहुत ही लाभप्रद व् ज्ञानप्रद है ।

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