अवन्तिका राय की कविताएं

 

अवन्तिका राय 



हाल ही में नीति आयोग के सीईओ बी. वी. आर. सुब्रह्मण्यम ने एक बयान जारी कर भारत को जापान से आगे निकलते हुए दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने का दावा किया। अप्रैल 2025 में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) ने वर्ल्ड इकोनॉमिक आउटलुक रिपोर्ट में भी अनुमान लगाया था कि 2025 तक भारत 4.187 ट्रिलियन डॉलर के साथ दुनिया की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकता है। इन आंकड़ों से भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास की झलक मिलती है। लेकिन आंकड़े हमेशा सच नहीं बोलते। वे अपने आप में कुछ न कुछ छुपा ही लेते हैं। विकास के बावजूद आबादी का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो जीवन की आधारभूत सुविधाओं के लिए आज भी संघर्ष करता दिखाई पड़ता है। इस विकास ने प्रायः समृद्ध वर्ग को ही और समृद्ध बनाया है। लेकिन किसी भी देश की तस्वीर वहां के आम लोगों से बनाती है न कि मुट्ठी भर के समृद्ध वर्ग से। जीवन की बढ़ती प्रत्याशा, खुशहाली, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, शिक्षा, चिकित्सा जैसे कई क्षेत्र हैं जहां हमारा प्रदर्शन वैश्विक रूप से दयनीय है। कवि अवन्तिका राय की नजर विकास के इस तिलिस्म की तरफ है। अपनी एक कविता में वे लिखते हैं 'चांद को धुंधुआते/ आदमी को मशीनों के साथ बोलते-बतियाते/ रामू, श्यामू को धुंआ पीते और पिलाते/ दहशत और वहशत में फजीहत कराते/ शोर, धुकधुकी में लपिटाते/ साढों को सड़क पर धूनी रमाते/ ----पूछता हूं 'आखिर यह किसका जोर है ?'/ नेता कहता है, 'विकास चहुंओर है।' इस कविता को पढ़ते हुए धूमिल की विख्यात कविता 'रोटी और संसद' की याद आती है। कविता कुछ इस प्रकार है : "एक आदमी/ रोटी बेलता है/   एक आदमी रोटी खाता है/ एक तीसरा आदमी भी है/ जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है/ वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है/ मैं पूछता हूँ—/ ‘यह तीसरा आदमी कौन है?’/ मेरे देश की संसद मौन है।" जाहिर सी बात है रोटी से खेलने वाले ही विकास की बातें अधिक करते हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं अवन्तिका राय की कविताएं।



अवन्तिका राय की कविताएं



गड़ेरिया


भेड़ें चर रही हैं सूखी घास

वहीं लाठी टेके खड़े हैं विनोद

चल निकलती है बात भरे पेट आदमी से विनोद की

होश सम्हाला तो रेवड़ के बीच ही पाया ख़ुद को

भेड़ों की तरह ही

ढर्रे की जिंदगी जीते

बिना किसी शिकायत के

चलते चराते भेड़ों को


आगे दिखती है लाठी

पीछे चलती हैं भेड़ें अंखमुद्दा

अपनी सर्दी दूर करने के लिए दिए गए उपहार को गड़रिए के हवाले करते


सपाट है वह चेहरा

जीवन संघर्ष की आग में तपा

गंजी और पैंट डाटे हैं विनोद

'विनोद! कहां से चल कर यहां पहुंचे?'

'सैकड़ों मील की यात्राएँ कर लेते हैं पेट की आग से बरी होने के लिए '

कहते हैं विनोद

'भेड़ हांकना हमारी नियति है

शहराती लोगों की तरह और हुनर नहीं है जो,

जहां रात होती डाल लेते हैं पड़ाव

पका लेते हैं खाना

जिस मालिक ने दिया दाना

उसी के खेत में हो जाता है भेड़ों का आशियाना

ऊन ही नहीँ इनके मल पर भी टिका है हमारा यह उजड़ता जमाना

उजड़ता इसलिए कह रहा कि अब आदमी है सिंथेटिक का दीवाना

और तिस पर खेतों पर बिल्डरों का होता जा रहा मालिकाना '


सोचता हूँ 

जब तक धरती रहेगी

चलती रहेंगी भेड़ें अनन्त पथ पर सूर्योदय से सूर्यास्त तक

हांकते रहेंगे गड़रिए नए नए चोले में 

दूर होती रहेगी लाभार्थियों  की ठंढ

यह अनन्त काल से होता आया है

यह अनन्त काल तक होता रहेगा।



मजदूर और लोहा


आग झूम रही होती

लोहा तप रहा होता

भट्ठी के क्या कहने

आज फिर महसूस कर रही होती अपनी सार्थकता

हथौड़ा मचल रहा होता


आयोजन तब तक रहता अपूर्ण

जब तक मजदूर दृश्य में न आता

बंडी और चरखाना पैंट पहने


आग मतवाली हो उठती

लोहा रक्तिम

मचलते हथौड़े की बेंट मजदूर के सधे हाथों में आ जाती

हौले हौले बतियाता मजदूर लोहे से

सांसें धीरे धीरे ऊर्ध्वगामी होती जातीं


ठाक!!

ठाक!!!


तलुआ झन्न!

माथे पर स्वेद कण


और इस तरह चोटों को हंसते हुए स्वीकारता लोहा

बन जाता जो मजदूर बनाना चाहता


अब यह न पूछिएगा इस बनाने में  

मजदूर के चाहत की स्वतंत्रता कितनी है


एक दिन मजदूर जरूर बनाएगा लोहे और इस दुनिया को

जैसा वह बनाना चाहता!

 


मोबाइल-प्रसंग


यह ट्रिन-ट्रिन की आवाज

उनकी छोटी सुन्दर मोबाइल से आती थी

जब वे अपनी कुर्सी से लग चाय की चुस्कियां लेते थे

उस वक्त देश की धरती ही थी उनके साथ

जो मोबाइल थी.


यह ट्रिन-ट्रिन की आवाज

मैं सुनता था अक्सर उनकी गाडी के भीतर से

जब मेरा स्कूटर उसके बगलगीर होता था

चौतरफा जाम में फंस कर,

एक कालिख मिला धुंआ ही था

जो उनके फेफडे में मोबाइल था.


कार्यालय-कक्ष में बैठ कर

जब मैं काम कर रहा होता

अक्सर मेरा ध्यान खींचती यह ट्रिन की आवाज,

वे मोटे ताजे दलाल

ऊलजलूल कामों को ले कर कितने मोबाइल थे.


प्रधानमंत्री की प्राथमिकताओं की सूची में

सबसे ऊपर की चीजों में

क्या था जो मोबाइल था?

यह 'डाउ' में छाया सियापा था जिसे तोडना था

साम्राज्य के पहियों को निष्कंटक कर छोडना था

और प्रतिरोध में उठे हाथों को कसकर मरोडना था.


कितनी जरूरी थी यह मोबाइल

मेरे समूचे देश के लिये

जब कि किसी भी चीज की उन्मुक्त गति के लिये

नहीं थी कोई जगह


(यह रचना तब की है जब देश के महानगरों में मोबाइल का प्रचलन शुरु हुआ था।)






विकास चहुंओर है


अरे! यह कैसा जीवन!!

गोधूली बेला कारखाने में बिताते

अस्ताचल के सूर्य को 

- नहीं लख पाते-

पक्षियों को नीड़ में लौट कर जाते

सुबह का सूरज-

जटाधारी को योग करते

पहलवानों को अखाड़े में मिट्टी लगाते

काका को नहा कर सूर्यनमस्कार करते

पक्षियों को अरूणोदय में चहचहाते, दाना चुगने जाते

गायों को रम्भाते

बच्चों को होरहा भूनते-खाते

गंगा के छल छल को सिन्दूरी बन जाते.


शहर की बस्ती में कमाते-कमाते

देखता हूं रात की भागम-भाग

सडकों पर देशी कुत्तों को लाश बन जाते

हैरी का विदेशी कुत्तों को टहलाते और हगाते

चांद को धुंधुआते

आदमी को मशीनों के साथ बोलते-बतियाते

रामू, श्यामू को धुंआ पीते और पिलाते

दहशत और वहशत में फजिहत कराते

शोर, धुकधुकी में लपिटाते

साढों को सड़क पर धूनी रमाते

----पूछता हूं 'आखिर यह किसका जोर है ?'

नेता कहता है, 'विकास चहुंओर है।'


(रचना वर्ष- 2012)



छपे शब्द


मेरे देशवासियों!

तुम्हीं से सीखा मैंने शब्दों से प्रेम करना

और तुम्हारा प्रेम ले गया

मुझे शब्दों की तरफ


आज वह सम्पादक कहता मिला

प्रिंट से प्रेम नहीं रहा देश के लोगों को,

यक़ीनन यह हम अभागों की वजह से है

हमने नहीं गुजारी सबसे काली रातें उस सपनीली लड़की की कामना में

जो भोर हुए दस्तक देती गुलाबी स्कार्फ़ में सजे दुनिया के सबसे प्यारे मुन्ने के साथ

और सम्भव होती नई भाषा

जिसमें छप सकते हिरन की तरह उछलते शब्द


पर मुझे यकीन है

ऐसी रातों में लेखकों की कल्पना में वह सब कुछ होगा

जिससे आगे संपादकों को कोई अफ़सोस नहीं करना होगा


ऐसे छपे हुए शब्द ही दीर्घजीवी होंगे 

उन्हीं को छू सकेंगी सुंदर अंगुलियां

और उन्हीं के बीच रखा जा सकेगा लाल गुलाब।




प्रतिरोध


प्रतिरोध शाश्वत है

जैसे सांस लेना भी तो प्रतिरोध है

क्या तुमने बीज को अँखुआते नहीं देखा  

क्या वह नहीं करता अपने आवरण का प्रतिरोध


क्या तुम सृष्टि को समाप्त करोगे


क्या यह सच नहीं कि

बिना प्रतिरोध

सृष्टि

असम्भव है।






मध्य वर्ग


यह लपलपाता मध्यवर्ग है

इसे जिन्दा रहने के लिये

रेसेपी है, एक ठो पीओपी वाला मकान है, गाड़ी है और क्रिकेट है

आइडेन्टीटी पालिटिक्स है, विज्ञापन हैं, बाबा हैं, और ढेर सारे फेट हैं

खाली समय में भंवरी देवी है और टीवी का पेट है

तिस पर मन ना बहले तो शेयर के रेट हैं

मरते घिसटते लोगों पर मन डमरू नही होता कोमलता इसका आखेट है


यह लपलपाता..............



माइकल जैक्सन


माइकल नाचता था

तुम नाचे उसके साथ?

वह तोड़ता था

फोड़ता था

कहां का कहां जोड़ता था

माइकल फिरकी था

धुनिया की खिरकी था

थिर-थिर-थिर-थिर

थिरकता था

फिर-फिर-फिर-फिर

फिरकता था

माइकल हन-हन-हन-हन

पटकता था

गति में उसके

जड़

चेतन सा चटकता था

भूत ना फटकता था

सांस लेता था

और विगत धूल झड़ती थी

लय में लपेटे

कड़-कड़-कड़-कड़

दामिनी कड़कती थी

माइकल परम्परा से छुट्टा था

गति से पुरकुट्टा था

चिलम का सुट्टा था

भुन रहा भुट्टा था

माइकल नाचता था

तुम नाचे उसके साथ?




चार्ली चैप्लिन


कितनी यात्राओं के बाद

वह बना होगा

दुनिया का जोकर!



अमलतास के बहाने


उम्र के इस दौर में

क्या कहूँ कि तुम सा होता जा रहा, अमलतास!

जानते हो, बचपन में बाबा की बहन जिन्हें हम फूआ कहते

जब गंगा नहाने नैहर आतीं

हम चिढ़ाते, 'ए फुआ तू त पकलसी आम नियर हो गइल बाड़ू!'

और फुआ अपना पोपला मुँह खोल मुस्कराते हुए आशीषतीं,

 'जुग जुग जियअ स! कब्बो न झरअ स! फूलत रहअ स!


आज, इस मोड़ पर, आम के इस मौसम में, तस्वीर में अमलतास देख याद आयीं फूआ

याद आया पकलसी आम 

और दीख पड़ी वह मंजिल

जिधर हम जा रहे!



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



परिचय

वर्तमान में उ प्र सचिवालय में उपसचिव के पद पर सेवारत। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं तथा डिजिटल माध्यमों में कविताएं प्रकाशित।

शेरपुर, जनपद गाज़ीपुर के रहवासी।



सम्पर्क 


अवन्तिका प्रसाद राय

10 B/748

वृन्दावन योजना

लखनऊ, उ. प्र.

मोबाइल - 9454411777


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