परांस -2 : कुमार कृष्ण शर्मा की कविताएं

 

कमल जीत चौधरी 


बोलने की कला मनुष्य को सारे जीवधारियों में अलग खड़ा कर देती है। अभिव्यक्ति के इस माध्यम ने मनुष्य को सशक्त बनाया। सामूहिकता की भावना के विकास में बोलने की इस कला का महत्त्वपूर्ण अवदान है। लेकिन अभिव्यक्ति का यह सशक्त माध्यम तब खतरे में पड़ जाता है जब दुनिया का कोई शासक अपनी गद्दी के बारे में सोचने लगता है। जर्मन कवि फादर पास्टर निमोलर की मशहूर कविता First they came... की याद आ रही है। निमोलर जर्मनी में नाजी शासन के विरोधी और खासकर अपनी तीखी कविता के लिए जाने जाते हैं। कविता इस तरह है : 'पहले वे आये कम्युनिस्टों के लिए/ और मैं कुछ नहीं बोला/ क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था।/ फिर वे आये ट्रेड यूनियन वालों के लिए/ और मैं कुछ नहीं बोला/ क्योंकि मैं ट्रेड यूनियन में नहीं था।/ फिर वे आये यहूदियों के लिए/ और मैं कुछ नहीं बोला/ क्योंकि मैं यहूदी नहीं था।/ फिर वे मेरे लिए आये/ और तब तक कोई नहीं बचा था/ जो मेरे लिए बोलता।' कुमार कृष्ण शर्मा की कविता 'क्या करना था क्या किया' इसी अंदाज की बेहतरीन कविता है। युद्ध और युद्ध की इन स्थितियों के इस भयावह दौर में भी कवि का विश्वास प्रेम पर है। प्रेम जिस पर पहरे भी तमाम हैं और खतरे अनगिनत, तब भी एक उम्मीद की तरह दिखाई पड़ता है। कुमार कृष्ण प्रेम और उम्मीद के कवि हैं जो हमारे समय की एक बड़ी नियामत है।

पिछले दिनों हमने जम्मू के कवि कमल जीत चौधरी से आग्रह किया कि वे जम्मू कश्मीर के कवियों को सामने लाने का दायित्व संभालें। हमारे अनुरोध को कमलजीत ने विनम्रतापूर्वक न केवल स्वीकार किया बल्कि इस पर जिम्मेदारी से काम करते हुए एक नयी शृंखला की तत्काल शुरुआत कर दी जिसे उन्होंने जम्मू अंचल का एक प्यारा सा नाम दिया है 'परांस'। परांस को हम हर महीने के तीसरे रविवार को प्रस्तुत कर रहे हैं। इस कॉलम के अन्तर्गत दूसरे कवि जिनकी कविताएं हम प्रस्तुत कर रहे हैं, वह हैं कुमार कृष्ण शर्मा। कॉलम के अन्तर्गत कुमार कृष्ण शर्मा की कविताओं पर कमल जीत चौधरी की एक सारगर्भित टिप्पणी भी आप पढ़ेंगे।



परांस -2 

सवाल का रंग लाल होता है 


कमल जीत चौधरी



यह दौर; त्वरित, अधैर्य और उन्मादी निर्णायक मण्डल का दौर है। हमारी दुनिया में संपादक दुर्लभ हैं। संकलनकर्ता अनेक हैं। अखण्ड की बात करने वाले; वास्तव में खण्डित के प्रबल पक्षधर हैं। ऐसे समय में कुमार कृष्ण शर्मा की कविताएँ नागरिक-कर्त्तव्य, ठहराव, विवेक, संवेदना और सहिष्णु की अभिव्यक्ति हैं। इनकी कविताएँ घर से देश और देश से पूरी दुनिया तक ले जाती हैं। 


इधर सोशल नेटवर्किंग पर आने वाली पोस्ट्स, स्टोरीज़, रील्स, स्टेट्स और टिप्पणियाँ ज़रूर पढ़नी-देखनी चाहिए। इन सभी से क्या प्रकट होता है? मेरा मत है कि हम अपने शोषकों को ताकतवर बनाने में जुटे हैं। अपने समाज का पतन कर रहे हैं। देश-दुनिया को आघात पहुँचा रहे हैं। इस सन्दर्भ में अधिकतर हिन्दी कवि-लेखक, संपादक, आलोचक, पत्रकार, प्रोफेसर और दृश्य में रहने वाले अन्य आदमी कर्तव्यच्युत प्रतीत होते हैं। कुमार कृष्ण की कविताएँ इस अधिकतर की ज़िम्मेदारी तय करती हैं। पूंजीपति दलाल मीडिया, क्रूर सत्ताओं और मीडियोकरों की भूमिका को प्रश्नांकित करती हैं। कुमार एक पत्रकार रह चुके हैं। इनकी कविताएँ वैकल्पिक पत्रकारिता का कार्य भी करती हैं। इनकी भाषा, कहन, सपाटबयानी, प्रतिरोध, राजनीतिक चेतना, साहस, लोक सौन्दर्य, मिशन व विज़न इसका प्रमाण हैं। अपने भाव पक्ष से भी यह कविताएँ; स्नेहसिक्त करती हैं।


इधर इन्होंने कश्मीर पर बीसेक कविताएँ लिखी हैं। यह इनके पच्चीस साल पहले के जीवनानुभवों से सृजित हुई हैं। यह सुखद है कि यह कविताएँ; सघन, मार्मिक और सच्ची हैं और यह दुखद है कि यह आज भी प्रासंगिक हैं। इन कविताओं में प्रवेश के लिए इनकी 'पहला सबक' शीर्षक कविता एकदम सही है। इसमें काव्य-नायिका अपने प्रेमी को कश्मीर में मिलने के लिए बुलाती है, वह जब कहती है- 'जब घर से निकलोगे तो अपना आई.डी.कार्ड/ ज़रूर-ज़रूर रख लेना अपने साथ', तो भरसक ही आलोच्य कवि की एक अन्य कविता, 'मुझे आई. डी. कार्ड. दिलाओ' की याद आती है। यह कविता इस प्रदेश में पहचान के संकट और भयावह मंजर को रेखांकित करती है। प्रसंगवश बता दूँ कि इस शीर्षक से जम्मू-कश्मीर की समकालीन कविता का एक प्रतिनिधि कविता-संग्रह भी प्रकाशित हुआ था। जम्मू-कश्मीर को कविताओं के माध्यम से समझने के लिए यह एक आवश्यक किताब मानी जाती है। टिप्पणी पर वापस आता हूँ। 'सबसे आसान और सबसे मुश्किल', शीर्षक कविता; दुनिया भर की ऐसी जगहों का प्रतिनिधित्व करती है, जहाँ सच-झूठ का पता करना आसान नहीं है। ऐसी जगहों और स्थितियों में प्यार-प्राप्त स्त्री की मुलाकातों में इस तरह के कवितांश देखे जा सकते हैं:


'मेरी दोस्त मेरा हाथ थाम बताती है: 

मेरे शहर में सबसे आसान है 

किसी भी युवक को ग़ायब कर देना।'

  ××



'मेरी दोस्त ठंडी सांस छोड़ कहती है: 

तुम फिर चूक गए,

मेरे शहर में सबसे मुश्किल है 

लापता हुए युवक की क़ब्र ढूँढ़ना।'

  ××


'सबसे खुशनसीब चिनार', 'सबसे बदनसीब चिनार' जैसी कविताएँ; कश्मीर के बहाने पूरी दुनिया के उस सच को बताती हैं, जो हृदयविदारक है, और जिसे कम लोग सुनना चाहते हैं। 


'घर के आँगन में खड़े

चिनार के पेड़ से 

टूटे सूखे पत्ते को 

ज़मीन से उठा 

ध्यान से देखते हुए

मेरी दोस्त बार-बार दोहरा रही है...

जिस पेड़ पर उगे

उसी पर पीले हुए

और इसी आंगन में गिरे

तुम दुनिया के सबसे खुशनसीब चिनार हो।'

  ××


'पेड़ से एक हरा पत्ता तोड़ 

मेरी दोस्त उदास मन से कहती है-

तुम्हारी छाया में मारा गया तुम्हारा बेकसूर पड़ोसी

तुम दुनिया के सबसे बदनसीब चिनार हो ...'

  ××


उपरोक्त दोनों कविता-अंशों का मर्म 'टूटे सूखे पत्ते को उठाने' और 'पेड़ से हरे पत्ते को तोड़ कर' कहने में छुपा है। 'और इसी आँगन में गिरे' और 'तुम्हारी छाया में मारा गया तुम्हारा बेकसूर पड़ोसी' जैसी काव्यपंक्तियों में 'आँगन' और 'छाया' बहुअर्थ व्यक्त करते हैं। इनकी व्यंजना दूर ले जाती है। कुमार की ऐसी कविताओं में आतंकवाद के कारण कश्मीर से निर्वासित हुए लोगों की पीड़ा के साथ-साथ आम निरीह जन पर होने वाली क्रूरता को भी स्पष्ट देखा जा सकता है। संवेदना के स्तर पर कुमार की ऐसी कविताएँ; बहादुर शाह ज़फ़र के शेर, 'दो गज ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में' तक ले जाती हैं। हालांकि इनकी एक कविता, 'अग्निशेखर (कवि) के लिए' के हवाले से कहें तो कश्मीरी विस्थापितों के पुनर्वास का सपना अभी मरा नहीं है। इनकी अनेक कविताएँ 'परकाया प्रवेश' की प्रामाणिक दस्तावेज़ कही जा सकती हैं। 


'ऑपरेशन सिन्दूर' के समय साम्बा-जम्मू के अर्बन क्षेत्र में रहने वाले जम्मू-कश्मीर के अनेक लोग और यहाँ अच्छा काम-धंधा करने वाले बाहरी राज्यों के ज़्यादातर लोग यहाँ से दूर चले गए। यह वही वीर हैं, जो युद्ध समर्थक हैं (थे), आर-पार की लड़ाई की बातें करते हैं। हमारा गाँव भारत-पाक सीमा से मात्र छह किलोमीटर की दूरी पर है। हम फेसबुक पर रक्षा-विशेषज्ञ और टिप्पणी-वीर नहीं बने। न ही सीमावर्ती क्षेत्र में रहने की सहानुभूति बटोरी। मेरे परिवार और छम्ब के लोगों ने 1947, 1965 और 1971 में घर छोड़े हैं, एक दशक से ज़्यादा समय तक विस्थापित कैम्पों में रहे हैं। हमारा मन नहीं करता कि किसी का भी घर छूटे। हम अपने घर में थे। जो ड्रोन्स/मिसाइल्स हमले हुए, उन्हें हमने अपनी आँखों से देखा। इन्हें हमारी सेना के एयर डिफेंस ने नाकाम किया। युद्ध की विभीषिका क्या होती है, यह भुक्तभोगी से पूछना चाहिए। कुमार कृष्ण जानते हैं कि 'तोपों, टैंकों और हवाई जहाज़ों की बात होते ही/ मुरझा जाते हैं सारे फूल/ कांपने लगते हैं खूंटें से बंधे जानवर/और बीमार पड़ जाते हैं तमाम बच्‍चे।'

 

एक बात और; हमले तो और तरह के भी हैं, अदृश्य हमले। सीधे-सीधे हमले। जो शोषित बनाए रखने के लिए होते रहे हैं, हो रहे हैं, अभी और होंगे, इन्हें कोई एयर डिफेंस सिस्टम नहीं, बल्कि हमारी ज़मीनी पकड़ और सुन्दर आत्माओं की जड़ें असफल कर सकती हैं। इस सन्दर्भ में कुमार कृष्ण शर्मा जैसे कवियों की कविताएँ; भारतीयता की अवधारणा को पुष्ट करते हुए; इसके उदात्त सांस्कृतिक धरातल पर ले जाती हैं। अखण्डता, अनेकता में एकता, विश्व बंधुत्व, वसुधैव कुटुम्बकम, समता के विरुद्ध खड़े हर विचार और कुतर्क को, कुमार की कविताई; ज़मीनी सच्चाई, हवा सी आर्द्र संवेदना और माँ सी करुणा से काट देती है। इस पर कोई खर्चा भी नहीं आता।


कुमार कृष्ण के पास 'दरगाह की दीवारों में इतनी नमी क्यों है पापा', 'पीर दस्तगीर की कसम' जैसी कविताएँ हैं, जो हिन्दू-मुस्लिम से ऊपर उठने की प्रेरणा देती हैं। जीवन मूल्यों की पैरवी करती हैं। इनकी कविताएँ जम्मू-कश्मीर के उन खित्तों को आपस में जोड़ने का कार्य करती हैं, जिसे देशविरोधी लोग आमने-सामने रख कर लड़वाना चाहते हैं। जम्मू-कश्मीर की कविताई पर समग्र बात करने के लिए चार तरह के कवियों पर बात करनी ज़रूरी है: 

1- कश्मीर से विस्थापित/ निर्वासित कवि

2- डुग्गर प्रांत के कवि

3- कश्मीर में रह कर लिखने वाले कवि 

4- उपरोक्त तीनों तरह के कवियों और जम्मू-कश्मीर के तीनों खित्तों (जम्मू, कश्मीर, लद्याख) के साझे दुख-सुख का साक्षी हो कर लिखने वाले कवि


हालांकि इन्होंने लद्दाख पर कुछ नहीं लिखा है। लेकिन इनकी कविताओं में ऊपर बताए गए तीन तरह के कवियों की संवेदना व सरोकार; इन्हें चौथे प्रकार का कवि सिद्ध करते हैं। वे साझे दुख-सुख के कवि ठहरते हैं। वे लिखते हैं: 


'मैं आरिफ के दुख में भी शामिल हुआ

मैं अविनाश के दुख में भी शामिल हुआ

मुझे आरिफ का दुख भी सालता है

मुझे अविनाश का दुख भी सालता है

मेरा यह साझा दुख कब सालेगा दोनों को...'

  ××


किसी भी परीक्षा की उत्तर-पुस्तिका में लाल रंग से नहीं लिख सकते, सवाल भी नहीं। पिछली सदी में फेयर कॉपी बनाते हुए अधिकतर विद्यार्थी प्रश्नों को लाल स्याही से लिखते थे। आज यह भी दुर्लभ होता जा रहा है। आज सिर्फ़ उत्तर-पुस्तिका जाँचने के लिए लाल स्याही इस्तेमाल होती है, और विडम्बना यह कि अधिकतर मूल्यांकन करने वाले इस रंग की क़ीमत व ताकत नहीं जानते। मगर यह जनकवि जानता है कि रंग तो बहुत हैं, मगर सवाल का रंग लाल है। बच्चे द्वारा पिता से लाल स्याही वाली कलम की माँग करना सुखद है, और कवि द्वारा इस माँग को सुन्दर कविता में बदल देना उससे भी ज़्यादा सुखद। कुमार अपनी कविताओं में ऐसे 'हम और मैं' को अभिव्यक्त करते हैं, जो आत्म मंथन करते हैं। स्वयं को कटघरे में खड़ा करते हैं। इनकी स्वीकार-उक्तियों में समाज की बदलती प्राथमिकताएँ, दुर्बलताएँ, विरोधाभास और सच देखे जा सकते हैं, जैसे:


'दर्शकों की तालियों की गड़गड़ाहट की आवाज़ सुन

ख्वाबों की दुनिया से बाहर आता हूँ

देखता हूँ

लड़की सिर पर घड़ा उठाए

रस्सी पर सीधी चल रही है

एक मैं हूँ

सपनों में भी गिर-गिर जाता हूँ।'

  ××


'उम्रों के दुख', 'मैं बोल रही हूँ,' और 'यहाँ से नहीं दिख रहा' जैसी कविताएँ; इन्हें दुर्लभ जीवन अनुभवों का कवि सिद्ध करती हैं। 'उम्रों के दुख' की करुणा, 'मैं बोल रही हूँ' का प्रेम और 'यहाँ से नहीं दिख रहा' का अपनत्व अनमोल है। तीनों में जो अनकहा और छूट गया रह गया है, वह हमेशा साथ रहने वाला है। ऐसी कविताएँ किसी विशेष विचारधारा-कालखण्ड, वाद की कविताएँ नहीं होतीं। कुमार के पास ऐसी कविताएँ भी हैं, जो उन्हें किसी विशेष टैग या सीमा में बंधने नहीं देतीं। कवि जब यह लिखता है: 'यहाँ से नहीं दिख रहा।' तो वे कविता-कला के सूर्य की नहीं; बल्कि हमारे देखने की उस सीमा को बता रहे हैं, जिसके आगे विस्तार ही विस्तार है। 


कितना छोटा कर दिया' शीर्षक कविता हमारे समय-समाज में एक मार्मिक कविता है। यहाँ एक पिता की पीड़ा छुपी है। मगर यही कविता किसी खुले समाज के लिए अप्रासंगिक हो सकती है। फिर भी इसका एक महत्व है। यह कविता हमारे देश काल-वातावरण में पिता-बेटी के सम्बन्धों की पड़ताल करती है। 'मैं बोल रही हूँ।' एक मार्मिक व अलहदा कविता है। अट्ठारह साल बाद भी इतने स्वाभविक यक़ीन के साथ, 'मैं बोल रही हूँ',  एक स्त्री ही कह सकती है। वह अट्ठारह साल से वही बैठी है। यह कालावधि तो कविता में चित्रित नायक के लिए है। भला जो अपने प्यार से कभी दूर गई ही नहीं, वह कैसे बोलती कि फलां बोल रही हूँ। वे मैं शैली में समाज की मैं पर प्रहार भी करते हैं। समय का यथासमय न रहना/ होना, दरअसल हमारे कर्तव्यच्युत होते जाने का प्रमाण है: 


'मैं उस समय

चिल्लाया

जब मुझे खामोश रहना था

मैं अब खामोश हूँ

जब बोलना सबसे ज़रूरी है।'

  ××


समय स्वयं में कुछ नहीं होता, उसमें हमारा चलना और घटित होना उसे प्रभावित-अप्रभावित करता है। इस सन्दर्भ में कुमार की कविताएँ सही दिशा-सूचक हैं। 


दोस्तो, कुमार कृष्ण शर्मा उन्नीस साल से क्या कर रहे हैं? कविता लिख रहे हैं, प्यार कर रहे हैं, हमारा समय दर्ज़ कर रहे हैं, नौकरी कर रहे हैं, सवाल पूछ रहे हैं, शिनाख़्त व तस्दीक़ कर रहे हैं? इसका एक ही उत्तर हो सकता है, वे देश-दुनिया के जन से प्यार करते हुए कविता लिख रहे हैं। हाँ जी, कविता ही लिख रहे हैं। जम्मू-कश्मीर की काव्य यात्रा में जिन कवियों ने नया मोड़ लाया, उनमें कुमार कृष्ण शर्मा पहली पंक्ति के कवि हैं। उनकी कविताई हिन्दी कविता की उस काव्य-परम्परा में नया जोड़ रही है, जो प्यार, करुणा, मानवता, समता और न्याय के लिए प्रतिरोध रचती है। उन्हें समग्र पढ़ने से बार-बार रघुवीर सहाय याद आते हैं। बच्चे, पेड़, पहाड़, हाशिए, खेत और माँ इनकी कविताओं के मुख्य लैंडमार्क हैं। आपको 'लहू में लोहा' के इस अनुपम कवि के काव्य-संसार में ले आया हूँ। यक़ीनन आगे आप स्वयं इस पते पर आते-जाते रहेंगे। अपने इस प्यारे साथी को खूब स्नेह व सलाम!



कुमार कृष्ण शर्मा



कुमार कृष्ण शर्मा की कविताएं



लाल रंग


पीछे से आवाज़ दे कर

मेरा दस साल का बेटा कहता है:

पापा जब ऑफिस से लौटोगे

लाल रंग की स्‍याही वाला पेन ज़रूर लेते आना


पूछता हूँ क्‍यों

क्‍या करना है उस पेन का


बेटा राज खोलता है

पापा... सवाल लाल रंग की स्‍याही से लिखने होते हैं


खुश हो रहा हूँ मन ही मन

आखिर इस दौर में भी

बचा है कोई रंग

जो पूछ रहा है सवाल।



सड़क किनारे तमाशा देखते हुए


आसमान में घिर आए बादलों को

देख सोचता हूँ

आ सकती है बारिश

बारिश हुई तो

बेटे के फूलों की क्‍यारी

बन्‍नी समेत बह जाएगी

अगर होती रही बारिश

बह सकती है मेरे खेत की मेड़

बह सकते हैं खेत भी

समझाता हूँ अपने आप को

हल्‍के हैं बादल

नहीं होगी बारिश

सोचता हूँ

सच में अगर नहीं हुई बारिश

मुरझा जाएगी मेरे बेटे के फूलों की क्‍यारी

पीली पड़ जाएगी मेरे खेतों की हरियाली

सूख सकता है नदियों का पानी

दर्शकों की तालियों की गड़गड़ाहट की आवाज़ सुन

ख्‍वाबों की दुनिया से बाहर आता हूँ

देखता हूँ

लड़की सिर पर घड़ा उठाए

रस्‍सी पर सीधी चल रही है

एक मैं हूँ

सपनों में भी गिर-गिर जाता हूँ।

 


यहाँ से नहीं दिख रहा


पहाड़ी की ढ़लान पर बना कच्‍चा मकान

तीन कमरे, बरामदा और बड़ा सा आंगन

एक तरफ टोआला^

आंगन के बीचों बीच उगा नाशपाती का पेड़

पेड़ के साथ बंधा कुत्‍ता

साथ में चारपाई पर बैठी नवविवाहिता


शाम के बज रहे होंगे पाँच

उठी है युवती

सूखी लकड़ियों को टोआले के पास रख

चली गई है कमरे में

क्‍या कर रही होगी कमरे में

यहाँ से... नहीं दिख रहा


दस मिनट बाद

हाथ में लिफाफा लिए

बाहर आई है युवती

बैठी है चारपाई पर

कुत्‍ता भौंकने लगा है ज़ोर-ज़ोर से

उठी है युवती

तेज़-तेज़ गई है आँगन के एक तरफ


कहाँ गई होगी

शायद कोई जानवर घुस आया होगा

यहाँ से... नहीं दिख रहा


युवती आ गई है वापस

चारपाई पर बैठ

लिफाफा खोल कंघी निकाल

संवार लिए हैं अपने बाल

आँखों में लगाने लगी है काजल

होठों पर लिपस्टिक


दुम हिला हिला गोल गोल घूमने लगा है कुत्‍ता

आँगन में पहुँच चुका है उसका मालिक

हाथों में पकड़े लिफाफे युवती को पकड़ा युवक

फेरने लगा है कुत्‍ते के सिर पर हाथ

युवती ने टोआले के चूल्‍हे पर चढ़ा दी है पतीली

युवक ने हाथ मुँह धो पोंछ लिया है तोलिए से


पहाड़ी के साथ बने होटल के

दूसरे छत्‍त के एक कमरे की खिड़की से

हनीमून मनाने आया जोड़ा देख रहा है यह सब...


पतीली में कुछ बना उसे उड़ेल दिया है गिलास में

गिलास हाथों में ले कर युवती चली गई है कमरे के भीतर

कंधे पर तोलिया रख युवक भी चला गया भीतर

दोनों क्‍या कर रहे होंगे भीतर

यहाँ से...नहीं दिख रहा।



टोआला^ - घर के बाहर, आंगन में छोटी कच्ची दीवारों और बिना छत की रसोई।



उम्रों का दुख


वह भाई

जिसकी बारात में

मैं नहीं जा पाया था

बहुत रोया, पैर पटके

पिता जी नहीं माने

तीन दिनों तक

माँ के बिना

कैसे रहता चार साल का बेटा


ठीक छियालिस साल बाद

जब हो चुका हूँ पचास साल का

चलने से लाचार

बूढे माता-पिता को बाँह से पकड़

जा रहा हूँ आज

उसी भाई के मोड़मीकान^ में।

  


मोड़मीकान^- मृत्यु के बाद मृतक के ससुराल पक्ष में जाने की एक रीत


 




हाय, मैं प्रेम में कितना कच्चा निकला


उससे बिछड़े

अट्ठारह साल हो गए

सूरत देखना तो दूर

आवाज़ तक नहीं सुनी

एकांत में बैठा

यह सब सोच ही रहा था...


मोबाइल पर आई

अननोन नंबर की कॉल उठाता हूँ

और आवाज़ सुन कर

कहता हूँ- हाँ जी, कौन?


उधर से

आवाज़ आती है-

मैं बोल रही हूँ...



क्या करना था क्या किया

 

मैंने उस समय

भीड़ की सुनी

जब अकेले में कोई

कुछ सुनना चाहता था


मैं उस समय

अकेले की सुनने पहुँचा

जब भीड़ उसे

सब कुछ सुना चुकी थी


मैंने उस समय

तालियां थालियां पीटीं

जब छाती पीटने का समय था

मैंने उस समय

छाती पीटी

जब छाती

चौड़ी करनी थी


मैं उस समय

चिल्लाया

जब मुझे खामोश रहना था

मैं अब खामोश हूँ

जब बोलना सबसे ज़्यादा ज़रूरी है।



कितना छोटा कर दिया

 

स्कूल में

आज कितनी बार पानी पिया तक

बताने वाली 

मेरी बारह साल की बेटी

नहीं बता पाती मुझे

कि उसे डेट आई है


माँ को इशारे से कोने में बुला 

धीरे-धीरे से फुसफुसाती है

सैनिटरी पैड को इस तरह से छुपा के गुजरती है

कि मेरी नज़र न पड़ जाए उस पर


नम आँखों से सोचता हूँ

इक मर्द ने

कितना छोटा कर दिया है इक पिता को।






दरगाह की दीवारों में इतनी नमी क्यों है पापा 


अपने मकान और गंदुम^ के कोल^

मेरे भाई को सुपर्द कर

राईंओं का सरदार कहता है...

पंडित जी सब आपके हवाले 

कभी वापसी हुई तो हिसाब होगा

...मेरी नानी बताती है

राइयों के घर छोड़ने की देर थी कि 

लुटते-पिटते पहुँचने लगे 

उस पार के हिन्दू परिवार गाँव में

भाई से देखा नहीं गया उनका दुख 

लुटा दिए राईंओं के कोल

भूखे पेटों ने कई दिनों बाद चखा गंदुम का स्वाद 

कई दिनों बाद 

माताओं की छाती में उतरा दूध 


बात को आगे बढ़ाती नानी कहती है...

कुछ महीनो बाद 

वापस आ गए राईं 

भाई हाथ जोड़ गुनहगार की तरह पेश हो बोला... 

अमानत में खयानत हो गई

सुनाओ क्या सज़ा है ?

राईंओं का सरदार 

भाई को गले से लगा

बोलता है...

पंडित जी आपने बचा लिया हमें गुनहगार होने से

दे दिया इतना कपड़ा 

कि हश्र के दिन 

ढक पाऊँगा अपना सिर


नानी रुआंसे गले से कहती है 

दोनों गले मिल रोते रहे देर तक...


पहली बार मेरी नानी के गाँव आए दस साल के बेटे को बताता हूँ...


कहते हैं 

इस गाँव की दरगाह की

दीवारें 

तभी से 

भर गई हैं नमी से।

  ××


गंदुम - गेहूँ

कोल - अनाज भंडार करने के बड़े पात्र



कश्मीर में सबसे आसान और सबसे मुश्किल 


डल के ऊपर तैरते शिकारे में मुझे सामने बैठा;

मेरी दोस्त पूछती है:

बताओ न

मेरे शहर में सबसे आसान क्या है?


मैं कहता हूँ:

ताज़ी ठंडी हवा अन्दर खींचना 

पहाड़ों से सिमक रहे पानी को जीभ से चाटना 

और शिकारे में लेटे-लेटे तुम्हें चूम लेना


मेरी दोस्त मेरा हाथ थाम बताती है: 

मेरे शहर में सबसे आसान है 

किसी भी युवक को ग़ायब कर देना।


मेरी दोस्त दूसरा सवाल पूछती है:

मेरे शहर में सबसे मुश्किल क्या है?


मैं कहता हूँ: बिना आई. डी  कार्ड लिए सफर करना 

रात को दरवाज़े पर होने वाली दस्तक का जवाब देना 

और हाँ, एनकाउंटर में फँस जाना। 


मेरी दोस्त ठंडी सांस छोड़ कहती है: 

तुम फिर चूक गए,

मेरे शहर में सबसे मुश्किल है 

लापता हुए युवक की कब्र ढूँढ़ना।



मेरी दोस्त, कश्मीर और खुशनसीब चिनार 


हब्बा कदल इलाके में 

एक विशाल जर्जर मकान के बाहर 

गाड़ी रोक 

मेरी दोस्त कहती है:

यह एक विस्थापित कश्मीरी पंडित का मकान है

तीन मंज़िला इमारत के 

अब अवशेष ही बचे हैं बस


घर के आंगन में खड़े

चिनार के पेड़ से 

टूटे सूखे पत्ते को 

ज़मीन से उठा 

ध्यान से देखते हुए

मेरी दोस्त बार-बार दोहरा रही है...

जिस पेड़ पर उगे

उसी पर पीले हुए

और इसी आंगन में गिरे

तुम दुनिया के सबसे खुशनसीब चिनार हो ...

  


कश्मीर, मेरी दोस्त और बदनसीब चिनार 


पंपोर के लड्डू गाँव में 

एक गुफा को दिखाती 

मेरी दोस्त कहती है:

इसी गुफा में नन्द ऋषि ने की थी इबादत 

गुफा की चट्टान पर 

जिस पंजे के निशान देख रहे हो

वो उन्हीं के हाथ का है


वापसी पर

रास्ते में कोनीबल के 

बस स्टॉप के पास 

गाड़ी रोक मेरी दोस्त बताती है:

बाईं तरफ जो चिनार का पेड़ देख रहे हो

यह अहम गवाह है

एक कश्मीरी पंडित की हत्या का

जो विस्थापन के बाद

कुछ दिनों के लिए 

आया था अपने गाँव


मेरी दोस्त राज खोलती है:

जब जा रहा था जम्मू वापस

इसी स्थान पर मुजाहिदों ने बस रोक

मार दी थी उसे गोली

डर इतना कि दो दिन 

इसी पेड़ के नीचे

पड़ी रही थी लाश


पेड़ से एक हरा पत्ता तोड़ 

मेरी दोस्त उदास मन से कहती है 

तुम्हारी छाया में मारा गया तुम्हारा बेकसूर पड़ोसी

तुम दुनिया के सबसे बदनसीब चिनार हो ...





मेरी दोस्त, कश्मीर और पहला सबक 


श्रीनगर से मेरी दोस्त 

फोन पर बात करते 

भावुक हो कहती है: 

कितने दिन हो गए  

तुम्हारी सूरत देखे

ऐसा करो 

अगले हफ्ते 

कुछ दिनों के लिए आ जाओ मेरे पास 


बोलता हूँ: 

मैं तो कश्मीर गया ही नहीं कभी 


दोस्त बीच में बात काट बोलती है:

‘कीन छू ना परवाह’

बस तुम आ जाओ...

मैं हामी भरता हूँ


खुशी से फोन काटने से पहले 

मेरी दोस्त ज़ोर दे कर कहती है... 

जब घर से निकलोगे तो अपना आई. डी. कार्ड  

ज़रूर-ज़रूर रख लेना अपने साथ


मेरे वहाँ पहुँचने से पहले ही 

मुझे सिखा दिया गया

कश्मीर का पहला सबक।



सेनाध्‍यक्ष यह कभी नहीं जान पाएँगे


मिलिट्री परेड में

सलामी लेने वाले सेनाध्‍यक्ष

यह कभी नहीं जान पाएँगे

तोपों, टैंकों और हवाई जहाज़ों की बात होते ही

मुरझा जाते हैं सारे फूल

कांपने लगते हैं खूंटें से बंधे जानवर

और बीमार पड़ जाते हैं तमाम बच्‍चे।

 


साझा दुख


जुम्मे की नमाज़ पढ़ आया मेरा दोस्त आरिफ़

मेरी बोतल से पी रहा है पानी

पीते पीते भरे गले से कहता है कितना खुशनसीब हूँ मैं

फिलिस्तीन के बच्चे

बिना पानी के कैसे रह रहे होंगे इस गर्मी में...

मैं उसके दुख में शामिल होता हूँ


शाम को भारी बारिश में

चाय पकौड़े खा रहा मेरा दोस्त अविनाश

रुआंसे गले से बोलता है

कितना खुश किस्मत हूँ मैं

बरसात में चाय पकौड़े खा रहा हूँ

बांग्लादेश में जिनके जलाए गए घर

कहां जाएँगे मानसून की ऐसी बारिश में

मैं उसके दुख में भी शामिल होता हूँ


मैं आरिफ के दुख में भी शामिल हुआ

मैं अविनाश के दुख में भी शामिल हुआ

मुझे आरिफ का दुख भी सालता है

मुझे अविनाश का दुख भी सालता है

मेरा यह साझा दुख कब सालेगा दोनों को...

  



कुमार कृष्ण शर्म का परिचय:


कुमार कृष्ण शर्मा ने 2007 में हिन्दी कविता लिखना शुरू की। इनकी कविताएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। 'हिन्दवी' जैसी वेबसाइट के अलावा कुछ और ऑनलाइन मंचों पर भी कविताएँ लाइव हैं। 


2022 में दख़ल प्रकाशन से 'लहू में लोहा' शीर्षक से पहला कविता संग्रह प्रकाशित हुआ।


इसके अलावा कमल जीत चौधरी द्वारा संपादित जम्मू-कश्मीर की समकालीन कविता के प्रतिनिधि संकलन, 'मुझे आई डी कार्ड दिलाओ' में भी कुमार कृष्ण प्रमुखता से प्रकाशित हुए हैं।


अनेक मंचों से कविता पाठ किया है। इसके अलावा इन्होंने कुछ हिन्दी कवियों की कविताओं का अंग्रेज़ी में अनुवाद भी किया है। इन अनूदित कविताओं का संग्रह प्रकाशन अधीन है। 'खुलते किवाड़' नामक एक साहित्यिक ब्लॉग का संचालन भी करते हैं। 


डेढ़ दशक तक हिन्दी और अंग्रेज़ी में पत्रकारिता की। इन दिनों कृषि विभाग में नौकरी कर रहे हैं। 

  


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



संपर्क- 

कुमार कृष्ण शर्मा,

पुरखू (गढ़ी मोड़), पोस्‍ट आफिस दोमाना, 

तहसील व जिला-जम्‍मू, जम्‍मू व कश्‍मीर-181206


ई मेल- kumarbadyal@gmail.com



टिप्पणियाँ

  1. प्रिय 'पहलीबार', इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक धन्यवाद!
    अपने प्यारे पाठकों और कवि मित्र को भी शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूँ। ज़िंदाबाद!
    ~ कमल जीत चौधरी

    ~

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  2. बहुत ही अद्भुत, बहुत ही अद्भुत। कुमार कृष्ण शर्मा जी की कविताएं एक अलग अंदाज़ के साथ जन्म लेती हैं। अद्भुत भाव व विचार , अलग मुहावरा, सटीक भाषा की अभिव्यक्ति उनकी कविता पाठक के सीधे हृदय में उतरती हैं। कमल जीत जी सूक्ष्म दृष्टि भी उनके आंतरिक भाव और विचार की धार को प्रकट करती है। बहुत बधाई और शुभकामनाएं।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. डॉक्टर भगवती जी, हार्दिक धन्यवाद! आपको भी शुभकामनाएँ!

      हटाएं
    2. भगवती जी...आपका आभार

      हटाएं
  3. पीयूष भाई, प्रणाम! आप एकदम सही कह रहे हैं। इस दृष्टिसम्पन्न, अनमोल व आत्मीय टिप्पणी के लिए आभार!

    जवाब देंहटाएं
  4. ‘पहली बार’, संतोष जी और कमल जीत...आप सभी का बहुत बहुत आभार। सिलसिला चलता रहे...

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  5. पीयूष भाई आपका आभार। आपका स्नेह बना रहे

    जवाब देंहटाएं

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