कपिलदेव त्रिपाठी का आलेख 'राहुल राजेश की कविताएँ : जैसे स्वच्छ नदी की शांत धारा में नौकायन'
राहुल राजेश |
राहुल राजेश की
कविताएँ :
जैसे स्वच्छ नदी की शांत
धारा में नौकायन
कपिलदेव त्रिपाठी
इक्कीसवीं सदी में
प्रकाश में आये हिंदी के युवा कवियों में राहुल राजेश सर्वथा नयी ऊष्मा से संपन्न
एक प्रतिभाशाली कवि हैं। बीते आठ सालों में उनके तीन संग्रह आ चुके हैं। पहला, ‘सिर्फ़ घास नहीं’ सन् 2013 में साहित्य अकादेमी
से प्रकाशित हुआ था। ‘क्या हुआ जो’ और ‘मुस्कान क्षण भर’ क्रमशः 2016 ओैर 2021 में, ज्योतिपर्व प्रकाशन, गाजियाबाद और सूर्य प्रकाशन
मंदिर,
बीकानेर
से प्रकाशित हुए हैं।
राहुल राजेश के
संग्रहों को पढ़ने का अपना अलग ही आनंद है। विमर्शवादी कविताओं के कोलाहल से भरे आज
के समय में इन्हें पढ़ते हुए, किसी स्वच्छ नदी की शांत धारा में नौकायन करने जैसा अनुभव
होता है। यह भी समझ में आता है कि कविता लिखने के लिए, किसी उपकरण की नहीं, सिर्फ़ अपनी
अंतःप्रकृति को उपलब्ध कर लेने की जरूरत होती है। कविता की दिव्यता और भव्यता असल
में तो निरलंकृत और साधारण होने में है। कवि कोई कीमियागर या जादूगर नहीं, वह भी साधारण जीव
होता है और कविता के पास उसे साधारण जीव की तरह ही जाना चाहिए।
कितना अजीब है कि
तमाम कवि ‘जहाँ न जाय रवि, वहाँ जाय कवि’ वाली रीतिकालीन
उक्ति को आज भी अपना आदर्श मानते हैं और अपनी कविताओं में पाठकों को कला के नाम पर
मायावी लोक की निरर्थक यात्रायें कराते रहते हैं। ऐसे मायावी कवियों से चिढ़ कर ही
चिली के प्रसिद्ध कवि निकानोर पार्रा ने कहा होगा-
परियों और समुद्री
देवों में हमें यकीन नहीं
कविता ऐसी होनी चाहिए-
जैसे गेहूँ के खेत
में खड़ी एक लड़की
वर्ना कुछ भी
नहीं।
(निकानोर पार्रा की कविता ‘घोषणा पत्र‘, अनुवादः उज्ज्वल
भट्टाचार्य)
थोड़े में कहें तो, राहुल राजेश ‘गेहूँ के खेत में खड़ी
लड़की’
जितनी
ही साधारण और नितांत आसपास के जीवन में बरती जाने वाली निरलंकृत भाषा के कवि हैं।
भव्यता की जगह सौम्यता और शोर की जगह शांति का वातावरण रचना ही उनकी कविता का
प्रेय है। इसके लिए वे जिन काव्य-तत्वों का उपयोग करते हैं, उसे उनकी एक कविता
की इन पंक्तियों से समझा जा सकता है-
निश्छल हृदय में
संचित
थोड़ी-सी प्रेमराशि
थोड़ा-सा नमक
थोड़ी-सी मिठास
थोड़ा-सा पानी
थोड़ी-सी आग
(‘सिर्फ़ घास नहीं’ संग्रह सेः ‘अब गैर-जरूरी तो
नहीं’, पृष्ठ 15)
देखना दिलचस्प है कि
राहुल राजेश की कविता जिन तत्वों (प्रेम, मिठास, नमक, पानी और आग) से निर्मित है, वे बहुत साधारण, प्राकृतिक और
न्यूनतम हैं। पंच तत्वों से निर्मित संसार का अस्तित्व जिस तरह परमात्मन् के बिना
संभव नहीं,
उसी
तरह निश्छल हृदय के बिना कविता का होना भी असंभव है। काव्य-सृजन के संदर्भ में
निश्छल हृदय परमात्मन् का ही दूसरा नाम है। निश्छलता के अभाव में कविता, कविता न हो कर
भाषा-विलास का माध्यम बन कर रह जाती है।
हम सब जानते ही हैं
कि हार्दिक-निश्छलता का स्वाभाविक वास परिवार और पारिवारिकता का अवबोध कराने वाले
विषय-प्रसंगों में सबसे ज्यादा होता है। परिवार ही वह जगह है जहाँ मनुष्य अपनी जड़ों, अपने अनुभवों, अपनी माटी और अपनी
भाषा के साथ सर्वाधिक स्वाभाविक संबंध में जी रहा होता है। कविता में सहजता और
स्वाभाविकता बनाए रखने के लिए कवि को अपने पारिवारिक अनुभवों से सजीव रूप से जुड़े
रहना होता है। यह सजीवता बनी रहे, इसके लिए राहुल राजेश का कवि वैदिक ऋचाओं जैसे शिल्प
में कामना करता है कि-
लौटें हम अपनी जड़ों
की ओर
तलाशें बिसराए संबंध
जिएँ अपना ही लोक, अपनी ही माटी
अपनी ही भाषा
(‘सिर्फ़ घास नहीं’ संग्रह से, ‘प्रार्थना-2’, पृष्ठ 54)
निश्छल होना एक अर्थ में निरूद्देश्य होना भी है। राहुल राजेश अपनी कविता को किसी उद्देश्य की बंदी नहीं बनाते। सोद्देश्यपरकता अपने आप में कोई मूल्य नहीं है। काव्य-मूल्य तो बिल्कुल नहीं। गहराई से विचार करें तो समझ में आता है कि उद्देश्यपरकता एक विभाजनकारी विचार है। ऐसे समय में, जब हर कवि के पास कविता लिखने के पर्याप्त और स्पष्ट उद्देश्य हैं, राहुल राजेश साफ शब्दों में कहते हैं कि उन्हें नहीं पता कि वे कविता किनके लिए अथवा किसलिए लिखते हैं। यह कथन फ्रेंच कवि ज्यां काक्टो के उस कथन से मिलता है जिसमें वह कहता है कि ‘‘उसे नहीं मालूम कि कविता का क्या काम है। लेकिन यह जरूर मालूम है कि कविता के बिना मुनष्य का काम नहीं चल सकता!”
राहुल राजेश वस्तुत:
कविता किसी पक्ष का प्रतिपादन या प्रतिकार के लिए नहीं, बल्कि इसलिए लिखते हैं कि
कविता के बिना आदमी का काम नहीं चल सकता। कविता आदमी की सहचरी है। जीवन जीने का वह
सबसे कोमल तरीका है। कविता अपने आप में एक प्रकार की गहरी सुखानुभूति है- अंतःकरण
के शुद्धिकरण और समृद्धिकरण का साधन। राहुल राजेश कविता क्यों लिखते हैं, इसका उत्तर उनकी इस
छोटी-सी कविता में खोजा जा सकता है-
अभी-अभी कुछ कविताएँ
पढ़ कर उठा हूँ
और कुछ और अधिक
मनुष्यता से भर गया हूँ
बच्चों को चूमने और
पत्नी को गले लगाने की
बेचैनी बढ़ गयी है
दुनिया जीने के लिए
कुछ और बेहतर हो गयी है।
(अभी-अभी, ‘मुस्कान क्षण भर‘ संग्रह से)
राहुल राजेश की नजर में कविता वही है जो कवि और पाठक दोनों को मनुष्यता से भर दे, दुनिया को बेहतर बनाने के लिए प्रेरित करे और सबसे बड़ी बात कि पारिवारिकता की संवेदना जाग्रत करे। परिवार ही वह प्राथमिक इकाई है जहाँ कोई मनुष्य प्रेम और आत्मीयता के संस्कार अर्जित करता है, स्वप्न देखना सीखता है और अपने भीतर की मनुष्यता के प्रति सचेत होता है। मनुष्यता से भर कर पत्नी और बच्चों को गले लगाने की बेचैनी ही राहुल राजेश के कवि को अपनी माटी, अपने लोक और अपनी भाषा से जुड़े रहने के लिए प्रेरित करती रहती है।
राहुल राजेश पारिवारिक
जीवन के आत्मीय दायरों के उदात्त अनुभवों के कवि हैं। उनकी कविताओं में माँ, पिता, बहन, दादा, दादी के अनुभवों और
संदेशों की धड़कनें सुनी जा सकती हैं। परिन्दे, चूड़ीहारिन, अन्न, तकिया, गन्ना, बाँस, बेर, पानी, नींद, जाड़े की धूप और
बारिश की शाम आदि उनकी कविता के ऐसे काव्य-विषय हैं जो हमें हमारी पारिवारिक जड़ों
से जोड़ते हैं और अपनी परंपरा से सीखने की प्रेरणा देते हैं। परंपरा, जो सिखाती है कि-
पेड़ को ही मानो
देवता
धरती को ही माँ
पहाड़ को ही पिता
***
मत लेना कभी किसी की
आह
कुछ माँगना ही हो तो
बस माँगना थोड़ा-सा
आर्शीवाद
(‘पिता का वसीयतनामा’, ‘सिर्फ़ घास नहीं’ संग्रह से)
राहुल राजेश उस परंपरा
के कवि हैं जो मूलतः किसानी जीवन की परंपरा है; खेत, खलिहान, हल, बैल और अन्न की परंपरा
है। राहुल राजेश का कवि अन्न को महज भूख मिटाने का सामान नहीं, ‘‘हल में जुते बैल/ बैलों
की पूँछ थामे किसान” के श्रम-स्वेद का नवावतार मानता है-
हल में जुते बैल
बैलों की पूँछ थामे
किसान
पूरी की पूरी पृथ्वी
की परिक्रमा करते
किसी गहन प्रार्थना
में तल्लीन
फाल से उगती लकीरें
प्रार्थना के शब्द
जो पक कर बनेंगे
अन्न!
(अन्न : एक, ‘सिर्फ़ घास नहीं’ संग्रह से)
बात कुछ ज्यादा बड़ी
न लगे तो कहना चाहूँगा कि राहुल राजेश का कवि निकानोर पार्रा से काफी प्रभावित
लगता है। अपनी ऊपर संदर्भित कविता में निकानोर पार्रा कहते हैं- ‘‘हमारा पैगाम हैः
/कविता की रोशनी/ सबके लिए है/ कविता हम सब का खयाल रखती है।” निकानोर पार्रा की
कविताओं की तरह राहुल राजेश की कविता भी सबका खयाल रखने को प्रतिश्रुत है और
प्रकृति द्वारा सृजित छोटे-बड़े, निर्जीव-सजीव सभी अस्तित्वों का सम भाव से स्वागत
करती है-
सिर्फ़ चीते की चाल
पर मुग्ध होना
घोंघे की मंथरता की
बेकद्री है!
(बेकद्री, ‘मुस्कान क्षण भर’ संग्रह से)
साधारण-सी दिखने वाली इन दो पंक्तियों में कवि ने भारतीय मनीषा का निचोड़ रख दिया है। इसके तार रहीम के दोहे –
“रहिमन देखि बड़ेन को लघु न दीजिए डारि
जहाँ काम आवै सुई, कहा करे तरवारि”
से तो जुड़ते ही हैं, समत्व का सनातन
विचार भी इसमें चरितार्थ होते देखा जा सकता है। प्रसिद्ध आलोचक नन्द किशोर आचार्य
ने राहुल राजेश की कविताओं में समत्व के इस विचार को लक्ष्य करके ही कहा होगा कि- ‘‘नैतिक अर्थ में
मनुष्य होने का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि हम मानव के साथ-साथ मानवेतर
अस्तित्व के साथ भी आत्मीय भाव महसूस करें।”
अलग से कहने की
आवश्यकता नहीं कि राहुल राजेश ने समत्व का यह विचार अपनी परंपरा, अपने परिवार और अपनी
माटी से अर्जित किया है। कविता से क्रांति कर देने के उन्माद से भरे ऊर्ध्वबाहु
नगरीय कवियों से अपनी तुलना करते हुए एक कविता में कवि कहता है-
उनमें चमकीला ठंढापन
मुझमें ठेठ गँवईपन
है
उनमें शहरी वैभव
मुझमें माटी का यौवन
है
(‘सिर्फ़ घास नहीं’ संग्रह से, ‘बाँस’, पृष्ठ 89)
यह गँवईपन और माटी
का यौवन कविता में बना रहे, इसके लिए राहुल राजेश का कवि कभी माँ तो कभी पिता, तो कभी बहन के पास
बार-बार लौटता है। ‘पिता
का वसीयतनामा’
शीर्षक
कविता का पिता कवि को आगाह करता है-
नए कपड़े पहनो जरूर
लेकिन पुराने कपड़ों
से भी रक्खो मोह
कि इसी में बसता
बीते दिनों का स्वाद
(‘सिर्फ़ घास नहीं’ संग्रह से)
पाठक गौर कर सकते हैं कि राहुल राजेश की कविताएँ नवता और पुरातनता में से, किसी को किसी की अपेक्षा कमतर या श्रेष्ठतर साबित करने की हिमायत नहीं करतीं। पुरातनता की कोख से उद्भूत नवता ही हमारे नागरिक जीवन को समुन्नत बनाने की योग्यता रखती है। आयातित नवता हमें पराधीन बनाती है जबकि जातीय नवता में स्वस्थ भविष्य का विकास होता है।
राहुल राजेश की द्वंद्वात्मक
यथार्थवादी दृष्टि उनकी कविताओं में हर समय सक्रिय और सजग रहती है। रोमानीपन उनकी
कविता में उतना ही होता है, जितना कि जीवन में सुकोमलता और सौंदर्य बनाए रखने के
लिए उसका होना आवश्यक है। यहाँ तक कि प्रेम के चरम क्षणों में भी, जब रोमानी क्रांतिकारिता
में गर्क हो जाने का खतरा सबसे अधिक होता है, कवि का नैरेटर पूरी तरह सजग
और नैतिक बना रहता है। प्रेमिका से जुदाई के कठिन क्षणों को याद करते हुए एक कविता
में कवि स्वीकार करता है-
कवि हो कर भी
क्रांतिकारिता न दिखा पाने पर
कोई रंज नहीं करना
था
इसपर भी विचार नहीं
करना था कि
जिसके रक्त-मज्जे
में बसी चुरूलिया की माटी
जिसने खुद अपने कंठ
से गाए
विद्रोही कवि काजी
नजरूल इस्लाम के गीत
वह क्यूं कर न कर
पाई रूढ़ियों के खिलाफ विद्रोह
क्यूं कर हुई उसकी आँखें
इस कदर नम...
(मुझे अब भी, ‘सिर्फ़ घास नहीं’ संग्रह से)
कविता में जब सब तरफ
रोमानी क्रांतिकारिता कुलाँचें मार रही हो, एक कवि का अपने बारे में यह
कहना कि ‘‘कवि हो कर भी
क्रांतिकारिता न दिखा पाने पर/ कोई रंज नहीं करना था” चकित करता है। आत्म-स्वीकार
का यह साहस ही असल में क्रांतिकारिता है, जिसका लगातार क्षरण होते देखा जा रहा है। एक
अन्य कविता में कवि स्वीकार करता है कि-
कई बार गिरा ईर्ष्या
और क्षोभ के गर्त में
कई-कई बार चाहा
अंदर से बन जाऊँ
बहुत बुरा आदमी
और बाहर से दिखूँ
बहुत भला आदमी
पर हर बार बचता रहा
बुरा बनने से
कि इस बुरे वक्त में
बुरा बनने के सारे
साधन मौजूद होने के बावजूद
बुरा बनने की हिम्मत
न जुटा सका
स्वीकारता हूँ मैं!
(स्वीकारता हूँ मैं, ‘सिर्फ़ घास नहीं’ संग्रह से)
बुरा बनने के हजार
आकर्षणों से भरे आज के समाज में बुरा बन पाने की हिम्मत न जुटा सकना साबित करता है
कि कवि सुखों के साजो-सामान से भरपूर किंतु कलाहीन जीवन की जगह एक ऐसा जीवन चाहता
है जहाँ-
सुबह-सुबह जागें तो
बाहर नीम की झूलती
डाल को निहारें
उसपर कूकती कोयल को
सुनें
खिड़की-रोशनदानों से आती
ताजी हवा
और मुलायम धूप का स्वागत
करें!
(मॉर्निंग
रागा,
‘सिर्फ़
घास नहीं’ संग्रह से)
नीम की झूलती डाल, कूकती कोयल, ताजी हवा और मुलायम
धूप जिसका अभीष्ट होगा, स्वाभाविक है वह सुखोपभोग की थोथी सुविधाओं के
संग्रहण के लिए बुरा बनना नहीं चाहेगा। इस कविता में वस्तुवादी सुखों के नकार का
स्वर छिपा हुआ है। वस्तुवादी सुखेषणा ही समाज में व्याप्त सारी दुविधाओं, सभी तरह के विभाजनों, वंचनाओं और तज्जनित
दुखों का मूल है। यही तरह-तरह की राजनीतिक दार्शनिकताओं का रूप धारण करके हमारी
प्राकृतिक सामाजिक समरसता को नष्ट करता रहता है। कवि इस कविता में नीम की झूलती
डालों,
कोयल
की कूक,
ताजी
हवा और मुलायम धूप की तरफ लौटने का आह्वान करने के बहाने सभी दु:खों के मूल- वस्तुवादी
दार्शनिकताओं द्वारा पैदा किये गये संकटों से पार पाने की जरूरतों की तरफ भी संकेत
कर देता है।
ऊपर उद्धृत कविताओं
से यह नहीं समझना चाहिए कि राहुल राजेश केवल घर-परिवार और परिवेशगत परिधियों के
भीतर सक्रिय रहने वाले, कोमल किस्म की आत्मगत संवेदनाओं के कवि हैं। वैसे, यह बात किसी हद तक
सही भी है और जैसा कि स्वाभाविक है, हर कवि सबसे पहले आत्मगत सरोकारों को ही अपनी
अभिव्यक्ति का माध्यम बनाता है। इसलिए कोई चाहे तो इन संग्रहों को आत्म की
निर्मिति और संवेदनात्मक अवस्थिति की पहचान कराने वाले संग्रह के रूप में पढ़ सकता
है।
आत्मगतता और
प्रेमास्पदता की नाभिकीय उपस्थिति हालांकि राहुल राजेश के सभी संग्रहों की कविताओं
में देखी जा सकती है, फिर भी उनकी कविताओं, खास कर दूसरे और तीसरे संग्रहों की कविताओं
में कवि के परिपक्व अनुभवात्मक विस्तार को आकार लेते भी देखा जा सकता है। तीसरे
संग्रह तक आते-आते कवि के प्रेम-संवेग को अपने परिपाक तक पहुँचते देखा जा सकता है।
एक कविता में कवि कहता भी है कि-
‘‘प्रेम में जितना रहा
जा सकता था, रहा
अब और नहीं
यह प्रेम के पकने का
समय है
प्रेम के मिट्टी में
धँसने का समय है”
(निर्वासन, ‘मुस्कान क्षण भर’ संग्रह से)
‘क्या हुआ जो‘ और ‘मुस्कान क्षण भर’ संग्रहों में राहुल
राजेश को समय की विद्रूपताओं और विडंबनाओं पर ध्यान केंद्रित करते देखा जा सकता
है। ‘शहर’, ‘खिलाफ’, ‘तस्वीर’, ‘यह शहर’ (सभी कविताएँ ‘क्या हुआ जो’ संग्रह से); ‘आजादी’, ‘त्रिधारा’, ‘दोनों ही’, ‘जरूरत’, ‘झूठे लोगों से भरी पड़ी
है दुनिया’,
‘खेल’, ‘आधुनिक’, ‘न होगा’, ‘दुनियादारी’ (सभी ‘मुस्कान क्षण भर’ संग्रह से) आदि
कविताओं में सामाजिक विदूपताओं के अक्स संकेतित होते देखे जा सकते हैं। इन कविताओं
की मारकता से समझा जा सकता है कि कवि अपने सामाजिक परिदृश्य से अनजान या उदासीन
नहीं है। ‘यह शहर’ शीर्षक कविता अपने
आप में हमारे उदास और हताश समय का एक विराट बिंब रचती है। प्रश्नवाचक शिल्प में लिखी गयी इस कविता में
सवालों के माध्यम से, पंक्ति दर पंक्ति कवि अपने समय और समाज का जो संकेत-चित्र गढ़ता है, उसकी बानगी इन
पंक्तियों में देखी जा सकती है-
यह शहर
इतना डरा क्यों हैं
यह शहर इतना मरा
क्यों है
इस शहर की आँखों में
इतनी राख क्यों है
इस शहर की आत्मा में
इतना धुआँ क्यों है?
(यह शहर, ‘क्या हुआ जो’ संग्रह से)
इसी तरह, ‘चेहरा‘ शीर्षक एक अन्य
कविता में हमारे समय का विद्रूप कुछ इस तरह व्यक्त हुआ है-
बेढब
बेअदब चेहरा
बेसबब
बेलब चेहरा
इस मतलब
उस मतलब का चेहरा
इस रब
उस रब का चेहरा
माफ करना दोस्तो,
यह नहीं मेरे मजहब
का चेहरा!
(चेहरा, ‘क्या हुआ जो’ संग्रह से)
देश की दशा और
दुर्दशा के चित्र इन संग्रहों की कविताओं में बिखरे पड़े हैं। राहुल राजेश इन
कविताओं में बड़ी नामालूम-सी सहजता से देश-काल के सघन दृश्यारेख खींच देते हैं। छोटे
और मामूली शब्दारेखों में बड़े और जटिल परिप्रेक्ष्यों को अंकित कर लेने का
सामर्थ्य इन कविताओं में देखा जा सकता है। ‘चित्रपट’ कविता वैसे तो नगर पालिका
की टोंटी पर रोजमर्रा के दृश्य का बेहद मामूली-सा वर्णन है, लेकिन पाठक को समझते
देर नहीं लगती कि वस्तुतः यह देश की एक बड़ी आबादी के जीवन का सांद्र रूपक है-
‘‘नगर पालिका की टोंटी
पर
नागरिकों का जमघट है
बूँद-बूँद के लिए
हाहाकार है
ओैर लंबी कतार है
खाली डब्बा, खाली बाल्टी
खाली कनस्तर, खाली घट है
और बस जीने का हठ है”
कवि ने इसमें भारतीय
जनता की कठिन जिजीविषा का जो हाहाकारी चित्र उकेर दिया है, उसे उकेरने के लिए ‘क्रांति के सूत्रधार’ कथित कवियों को भारी
भरकम शब्दों का घटाटोप खड़ा करने में हलकान
होते देखा जा सकता है।
राहुल राजेश को पढ़ते
हुए बराबर यह समझ पक्की होती चलती है कि उनकी कविताओं का कोई एक केन्द्रक नहीं है।
‘इंडिया इंटरनेशनल’, ‘दिल्ली’, ‘अहमदाबाद’, ‘कोलकाता’, ‘गड़ियाहाट’, ‘कुटिल आदमी’, ‘अमरूद का पेड़’, ‘मेरा शहर’, ‘ग्रेटा थनबर्ग’, ‘बाँसुरी’, ‘गोश्त’, ‘पानी’, ‘नमक’, ‘पृथ्वी-गाथा’, ‘पानी पुल्लिंग है’, ‘फोटोग्राफर’, ‘दरवाजे’, ‘नत हूँ मैं’ आदि स्थान-विषयक, व्यक्ति-विषयक तथा
वस्तु-विषयक कविताओं से लेकर ‘गंतव्य’, ‘लौटना’, ‘जाना तब’, ‘आजादी’, ‘नींद’, ‘खुशी’, ‘ग्लानि’, ‘संशय’, ‘अधूरा पता’, ‘डूबना’, ‘भरोसा’, ‘आखेट’, ‘घर वापसी’, ‘प्यास’, ‘घास पर पाँव’ और ‘मुस्कान क्षण भर’ जैसी भाव-विषयक अनेक
कविताओं से निर्मित उनका काव्य-वृत्त अनुभव-वैविध्य से भरे वास्तविक संसार की प्रतीति
कराता है।
राहुल राजेश का कवि
अभी अपने काव्य-जीवन के किशोर वय में है, मगर उसके काव्यानुभव का विस्तार उसके वयस्क
होने का आभास कराता है। कितना सुखद है कि विचारधाराओं में दीक्षित कवियों में पायी
जाने वाली,
‘सर्वज्ञ’ और ‘दिव्य-द्रष्टा’ होने के मिथ्या-बोध
से ग्रसित युवा कवियों की तरह वे अपने देश-काल के विरूद्ध मिथ्या असंतोष अथवा रोमानी
उम्मीद की यूटोपियायी कविताएँ लिखने में अपना समय जाया नहीं करते। वे अपने हृदय के
आयतन और अपनी संवेदनशीलता को लेकर हमेशा एक विनम्र संकोच से भरे एक ऐसे कवि हैं
जिसे यह मानने में कोई संकोच नहीं कि वह एक साधारण मनुष्य है और उसकी अपनी मानवीय
सीमा है-
समुद्र का हाहाकार
महसूस कर सकूँ
इतना विशाल हृदय
नहीं मेरा
हाँ, लहरें उठती हैं
व्याकुल मन में
और पछाड़ खाकर
लौट-लौट जाती हैं
तट को तोड़ नहीं
पातीं...
क्या करूँ
बुद्ध नहीं
जीवन से जूझता
मनुष्य हूँ मैं!
(मैं, ‘मुस्कान क्षण भर’ संग्रह से)
उनके सद्यप्रकाशित
तीसरे संग्रह ‘मुस्कान क्षण भर’ तक आते-आते यह पूरी
तरह स्पष्ट हो जाता है कि राहुल राजेश मूलत: आत्म-परिष्कार के कवि हैं। कविता उनके
लिए अपनी और अपने समय की आनुभूतिक गहराई में उतरने का एक जरूरी माध्यम है। उनकी
कविताओं में राजनीति और विचारधारा का हस्तक्षेप लगभग अनुपस्थित रहता है। यही कारण
है कि उनकी वैचारिकता से असहमत पाठक भी उन्हें पढ़ना पसंद करते हैं। इस संग्रह की
कविताओं में राहुल राजेश को अपनी काव्यात्मक चिंता और बोधगत आयतन में नया विस्तार
करते देखा जा सकता है।
उदाहरण के लिए ‘अस्वीकार’ शीर्षक कविता उनके
परिचित मिजाज से अलग किस्म की होने का भान कराती है। काव्य-कौशल के नाम पर लंबे
समय से हिंदी कविता में जड़ें जमाकर बैठी ‘वक्रता’ के औचित्य पर इस
कविता में जो सवाल उठाया गया है, वह बेहद महत्वपूर्ण है। इस जरूरी बहस का इतने
काव्यात्मक ढंग से सूत्रपात करने के लिए राहुल राजेश बधाई के पात्र हैं। कुल
मिलाकर,
राहुल
राजेश की कविताओं में भारतीय भावभूमि से लगातार दूर होती गयी हिंदी कविता को, फिर से अपनी विस्मृत
जातीय संवेदना में लौटते देखा जा सकता है। और, ‘अस्वीकार’ शीर्षक कविता की ये
अंतिम पंक्तियाँ कवि की यह जातीय प्रतिबद्धता स्वमेव स्पष्ट कर देती हैं-
“वक्रता का कौतुक करना मेरा ध्येय नहीं
मैं
सत्य का लिपिक हूँ
और
जिसे तुम सपाट कहते फिरते हो
वह
सत्य का सरल-सहज पाठ है
इसे
तुम स्वीकार कर पाओगे भला?”
***
कपिलदेव त्रिपाठी |
संपर्क:-
कपिलदेव त्रिपाठी,
11-ई, सिद्धार्थ नगर कॉलोनी
(सेंट्रल एकाडेमी स्कूल के पीछे),
पोस्ट- सिद्धार्थ
एनक्लेव,
तारा
मंडल रोड,
गोरखपुर - 273017
(उत्तर प्रदेश)
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