यादवेन्द्र का आलेख आप पैसे गिनिए, जनता लाशें गिनने को मजबूर 

 

एनी एर्नॉक्स

 

2022 का साहित्‍य का प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्‍कार फ्रांस की लेखिका एनी अर्नाक्स को दिया गया है। 01 सितम्बर 1940 को जन्मी लेखिका एनी एर्नॉक्स ने फ्रेंच के साथ-साथ इंग्लिश में भी कई उपन्यास, लेख, नाटक और फिल्में लिखी हैं। वह फ्रांस के नॉर्मंडी के छोटे से शहर यवेटोट में पली-बढ़ी हैं।

लेखन के बारे में एनी अर्नाक्स का कहना है कि यह एक राजनीतिक काम है, जो सामाजिक असमानता के प्रति हमारी आंखें खोलता है। एर्नॉक्स ने क्लिनिकल एक्यूटी पर कई लेख लिखे हैं। नोबेल कमेटी का कहना है कि उनका लेखन मुक्ति शक्ति में विश्वास करता है। उनका काम तुलना से परे है जो सादी भाषा में लिखा साफ-सुथरा साहित्‍य है।

नोबेल पुरस्कार के पुरस्कार की घोषणा के बाद, एनी अर्नाक्स ने ईरान में अपनी सरकार के खिलाफ लोगों के विद्रोह के साथ एकजुटता दिखाई। गाइडेंस पेट्रोल (नैतिक पुलिस) की हिरासत में एक युवती की मौत के बाद ईरान में अनिवार्य हिजाब कानून के खिलाफ प्रदर्शन हो रहे हैं। ये प्रदर्शन एक तरह से उस स्त्री स्वतन्त्रता के पक्ष में हैं, जिसे उन्हें प्रदान ही नहीं किया गया। एर्नॉक्स ने हाल ही में दिए गए अपने एक साक्षात्कार में कहा है कि वह "इस हिजाब कानून के खिलाफ विद्रोह करने वाली महिलाओं के पक्ष में हैं"। 

उनकी चर्चित कृतियों में जर्नल डू डेहोर्स, ला वी एक्सटीरियर जैसी किताबें शामिल हैं। इन किताबों में उन्होंने अपने बचपन के लेखों को शामिल किया है।

यादवेन्द्र जी ने एनी अर्नाक्स के उस पत्र के हवाले से उनकी प्रतिबद्धता और लेखन को रेखांकित करने का प्रयास किया है, जो उन्होंने तब फ़्रांस के राष्ट्रपति मैक्रो को एक खुली चिट्ठी के रूप में लिखी थी। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं यादवेन्द्र का आलेख 'आप पैसे गिनिए, जनता लाशें गिनने को मजबूर।'

 


 


आप पैसे गिनिए, जनता लाशें गिनने को मजबूर 


यादवेन्द्र 



पिछले दिनों 2022 के लिए साहित्य का नोबेल पुरस्कार वरिष्ठ फ्रांसीसी लेखक एनी अर्नाक्स को (कहीं कहीं हिंदी में उनका नाम एनी अर्नो भी लिखा गया है) को "साहस और नैदानिक तीक्ष्णता के लिए दिया गया जिसके साथ वह व्यक्तिगत स्मृति की जड़ों, व्यवस्थाओं और सामूहिक प्रतिबंधों को उजागर करती हैं"।, नोबेल समिति का आधिकारिक वक्तव्य कहता है।


उनकी लगभग दो दर्जन साहित्यिक कृतियां प्रकाशित हैं और पैंतीस से ज्यादा भाषाओं में अनुवाद हुए हैं। फ्रांस और अन्य देशों के कई बड़े पुरस्कार और सम्मान उन्हें प्रदान किए गए हैं।


वे ज्यादातर अपनी आत्मकथात्मक कृतियों के लिए जानी जाती हैं। 'ए वूमन स्टोरी', 'ए मैन्स प्लेस', 'सिंपल पैशन स्टोरी', 'हैपेनिंग और द ईयर्स'  इत्यादि उनकी चर्चित किताबें है।


एनी अर्नाक्स स्त्री केन्द्रित रही है उनकी रचनाशीलता और उनकी कृतियों में मुख्य तौर पर सेक्सुअलिटी और अंतरंगता, सामाजिक विषमता, विषाद और शर्मिंदगी, काल और स्मृति के बीच का संघर्ष केन्द्रीय विषय के रूप में आता है।


उनके बारे में पढ़ते हुए इन सामान्य सूचनाओं से इतर जो महत्वपूर्ण पक्ष मेरे सामने आया वह है उनकी राजनीतिक पक्षधरता और उसे बेवाकी से व्यक्त कर पाने का दुर्लभ साहस। कोरोना के शुरुआती दौर में फ़्रांस में जिस तरह से लॉक डाउन लगाया गया उससे एनी समेत अनेक बुद्धिजीवियों की गंभीर असहमति रही। उन्होंने तब फ़्रांस के राष्ट्रपति मैक्रो को एक खुली चिट्ठी लिखी थी जो उनके अपने निजी वेब साइट पर देखा जा सकता है। यहाँ उसका एक तुरंता हिंदी प्रारूप प्रस्तुत है :







मिस्टर प्रेसिडेंट

"मैं आपको यह चिट्ठी लिख रही हूं। आप इसे पढ़ सकते हैं  शर्त है कि आपके पास समय हो।"


आप साहित्य प्रेमी हैं इसलिए आपको यह शुरुआती भूमिका पढ़कर अटपटा नहीं लगेगा। बोरिस बियां (Boris Vian) के 1954 में लिखा मशहूर गीत Le Déserteur* इन्हीं पंक्तियों से शुरू होता है - यह वियतनाम युद्ध और अल्जीरिया के युद्ध के दरम्यान लिखा गया था।


आज आप चाहे जो भी घोषणा करो हम किसी युद्ध में शामिल नहीं है। इस मामले में हमारा दुश्मन साथ रहने वाला कोई नहीं, न ही कोई अन्य इंसान। इसके मन में न तो हमें किसी तरह का नुकसान पहुंचाने की सोच है और न ही हमें नष्ट कर डालने का इरादा। इसके सामने न तो भेदभाव बरतने के लिए कोई सरहद है, न यह एक इंसान और दूसरे इंसान के बीच किसी तरह का सामाजिक फ़र्क करता है। इसमें जो हथियार काम में लिए जा रहे हैं - आप ही इस तरह की फ़ौजी (मार्शल) शब्दावली के प्रयोग पर जोर देते हैं- वे हैं अस्पताल में मरीजों के बेड, श्वास यंत्र (रेस्पिरेटर), मास्क और मेडिकल जांच .... इनके साथ डॉक्टरों, वैज्ञानिकों और देखभाल करने वालों की टोलियां भी।


आप फ्रांस पर शासन करते हुए स्वास्थ्य विशेषज्ञों की चेतावनियों को लगातार अनदेखा करते रहे। पिछले नवंबर में  हमने एक प्रदर्शन के दौरान एक बैनर पर लिखा यह नारा पढ़ा: "सरकार सिर्फ अपने पैसों की गिनती करने में लगी हुई है, और जनता है कि लाशों की गिनती करते रहने को मजबूर है।" आज की त्रासदी यह है कि ये शब्द वास्तव में चारों ओर गूंज रहे हैं। इस देश की बदकिस्मती यह है कि आपने उन लोगों की बात सुनी और मानी जो कोरोना वायरस महामारी के दौरान सरकार को अपने हाथ खींच लेने की वकालत कर रहे थे, वे सरकारी संसाधनों के ऑप्टिमाइजेशन और खज़ाने की बर्बादी पर अंकुश लगाने  का हल्ला मचा रहे थे। ये सब ऐसे तकनीकी शब्द-जाल (जार्गन) थे जिनके पीछे कोई  तार्किक आधार नहीं था और इन बातों ने ऐसी धूल गर्द उड़ाई कि आपको ज़मीनी हकीकत दिखाई ही नहीं पड़ी। आप यह भी भूल गए कि ये ऐसी आधारभूत और अनिवार्य  सार्वजनिक सेवाएं हैं जिन्होंने देश के अस्पतालों, शिक्षा तंत्र और बेहद कम वेतन पर काम करने वाले हजारों शिक्षकों, बिजली सेवाओं, पोस्ट ऑफिस, मेट्रो और राष्ट्रीय रेल सेवाओं को संकट में भी चालू रखा। याद करिए अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब आपने ऐसे लोगों को नगण्य और महत्वहीन (नथिंग) कहा था, और आज यही नगण्य लोग देश के सब कुछ साबित हुए। यह लोग उन मुश्किल दिनों में भी कूड़े करकट के डिब्बे साफ करते रहे, शॉपिंग मॉल के काउंटर पर सामानों को स्कैन करते रहे, घर घर में पिज़्ज़ा पहुंचाते रहे जिससे जीवन के भौतिक पक्ष की गारंटी सुनिश्चित की जा सके... वैसे ही जैसे जनता के बौद्धिक पक्ष को सक्रिय बनाए रखना जरूरी था।



लचीलापन (रिजिलिएंस) यानी चोट के बाद पुनर्निर्माण - यह शब्दों का अजीबोगरीब चुनाव है। हम अभी उस चरण में नहीं पहुंचे हैं। लॉक डाउन के प्रभाव और उथल-पुथल के इस दौर पर गौर करिए मिस्टर प्रेसिडेंट। सवाल उठाने का इससे ज्यादा उपयुक्त समय फिर नहीं मिलेगा...  यही मौका है जिसमें एक नई दुनिया के निर्माण का स्वप्न देखा जाए। ध्यान रखिए, यह दुनिया लेकिन आपकी दुनिया नहीं होगी। यह दुनिया निश्चय ही वह नहीं होगी जिसमें फैसले लेने वाले लोग और पूंजीपति बड़ी बेशर्मी के साथ यह नारा बुलंद करें कि "और ज्यादा काम करो" ... हफ्ते में काम की अवधि बढ़ा कर 60 घंटे तक करने की मांग करें। हमारी तरह ऐसे लोगों की संख्या अच्छी खासी है जो भविष्य में बनने वाली दुनिया में गैर बराबरी बिल्कुल नहीं देखना चाहते- इस महामारी ने हमारी आंखों में उंगली डाल कर यह सब तो दिखा ही दिया है। यह लोग ऐसी दुनिया चाहते हैं जिसमें बुनियादी जरूरतें, स्वास्थ्य वर्धक भोजन, चिकित्सा सुविधाएं, आवास, शिक्षा, संस्कृति का हिस्सा सबके लिए बगैर भेदभाव सुनिश्चित किया जा सके... और इस संकट के दौर में हमारी एकजुटता ने यह दिखा दिया है कि ऐसी दुनिया बना पाना हमारे लिए नामुमकिन नहीं बल्कि पूरी तरह से मुमकिन है।


आप इस बात के लिए तैयार रहिए मिस्टर प्रेसिडेंट कि हम अब अपना जीवन पहले की तरह किसी के हाथ में खेलने के लिए नहीं सौंप नहीं देंगे - हमारे पास इस जीवन के सिवा है ही क्या। और "दुनिया की कोई भी चीज जीवन से बड़ी नहीं बन सकती" - यह दूसरा गीत है, अलैं सूचों (Alain Souchon) का जिसका मैं जिक्र कर रही हूं।


हम अपनी लोकतांत्रिक आज़ादी को हमेशा हमेशा के लिए स्थगित नहीं करने जा रहे हैं (जिसे कोरोना के नाम पर फ़िलहाल आपने स्थगित कर रखा है) - यही वह आज़ादी है जिसके होने से मैं आपको यह चिठ्ठी लिख पा रही हूं। बोरिस वियां से यह आज़ादी छीन ली गई थी... उन्हें रेडियो पर अपना गाना नहीं गाने दिया गया था। मैंने एक नेशनल रेडियो चैनल से आज सुबह आपको लिखी यह चिठ्ठी पढ़ कर जनता को सुनाई है।
 

* मिस्टर प्रेसिडेंट,
मैं आपको यह चिट्ठी लिख रहा हूं।
आप इसे पढ़ सकते हैं 
शर्त है कि आपके पास समय हो।
पिछले बुधवार शाम की बात है 
मुझे फौज़ ने कागज़ात भेजे हैं 
जिसमें मुझे हुक्म दिया गया है कि 
फ़ौरन लाम पर जाऊं


मिस्टर प्रेसिडेंट
पर मैं यह काम करना चाहता नहीं
मैं इस धरती पर इसलिए नहीं आया 
कि गरीब लोगों का कत्ल करूं 
मैं ऐसा आपको गुस्सा दिलाने के लिए 
नहीं कह रहा हूं 
मैं आपसे तो बस यह बतलाना चाहता हूं
कि  फैसला मैंने कर लिया है 
मैं फौज में भर्ती नहीं होने वाला
हरगिज नहीं


जब मैं छोटा था 
अपने पिता को मरते देखा 
अपने भाइयों को विदा होते हुए देखा 
और बच्चों को वियोग में कलपते हुए देखा 
मेरी मां को इतना सदमा लगा 
कि वे जल्दी ही कब्र के अंदर जा बैठीं
वहां बैठे बैठे वे बमों को मुंह चिढ़ाती हैं 
और जब देखती हैं उन्हें सामने से आते 
खुद टारगेट बनने का स्वांग करती हैं
जब मैं कैद में था 
उन्होने मेरी पत्नी को अगवा कर लिया 
मेरी आत्मा चुपके से उड़ा ली
कोई नहीं बचा एक-एक कर 
मेरे अपने सारे छोड़ कर चले गए
कल सुबह होने दीजिए 
मैं अपने घर का दरवाज़ा
पिछले सारे सालों को ठेंगा दिखाते हुए
इतनी जोर से बंद कर लूंगा कि
खोलने की कोशिश करने वाले की नाक 
उससे टकरा कर टूट जाए 
और उसी रास्ते पर चलूंगा 
जो मुझे सही लगेगा


मैं फ्रांस की सड़कों पर 
ब्रिटेनी और प्रोवेंस की सड़कों पर 
चलते हुए
अपनी जिंदगी भीख मांग कर भी गुजार लूंगा 
और लोगों से कहता रहूंगा 
कि किसी का हुकुम मत मानो 
मना कर दो वे जो भी कह रहे हैं 
लाम पर किसी भी कीमत पर 
मत जाओ
धरती पर पांव गड़ा कर खड़े हो जाओ
यदि अपना खून देना ही पड़े 
तो युद्ध के लिए नहीं अपनों की सेहत के लिए दो



आपको ईश्वर ने अपना नेक दूत बना कर भेजा है 
मिस्टर प्रेसिडेंट
फिर भी यदि आप मुझ पर साधते हैं निशाना
तो पुलिस वालों को बतला दीजिए
वे जब जहां चाहें मुझे मार सकते हैं गोली
मैं निहत्था हूं
कोई हथियार नहीं है मेरे पास।



यह कहा जाता है कि 1954 में लिखी मूल कविता में अंतिम पंक्तियां इस प्रकार हैं जो बाद में सुधार दी गईं :


पुलिस वालों को बतला दीजिए
मैं हथियार ले कर चलूंगा
और मुझे उसे चलाना भी आता है।


फ्रेंच से अंग्रेज़ी अनुवाद एलिसन स्ट्रेयर 

(www.annie-ernaux.org से साभार)
 
 
 


यादवेन्द्र



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मोबाइल  9411100294








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