राकेश बिहारी की कहानी फाँसी

 

राकेश बिहारी


महात्मा गांधी का एक कथन अक्सर मुझे याद आता है 'पाप से घृणा करो पापी से नहीं'। राकेश बिहारी की 'फांसी' कहानी पढ़ते हुए मुझे महात्मा गांधी के इस कथन की शिद्दत से याद आई। वैसे मनुष्य चाहे जो भी हो, वह राजनेता हो या नौकरशाह, ठेकेदार हो या जल्लाद, सबके अंदर एक संवेदना होती है। यही संवेदना उसे सही अर्थों में मनुष्य बनाती है। हालांकि हमारे तथाकथित उदारवादी समाज में अहिंसक और राष्ट्र प्रेमी देखने वाले तमाम ऐसे हिंसक और मनुष्यद्रोही लोग भी हैं जो अपना सितारा चमकाने के लिए कुछ भी करने को उद्यत रहते हैं। आज के टी वी न्यूज चैनलों के एंकरों की भूमिका लगभग वैसी ही है। चीखते चिल्लाते न्यूज़ टीवी के ये एंकर जल्लादों से भी कहीं अधिक खौफनाक नजर आते हैं। जबकि जमीन से जुड़ा एक जल्लाद कहीं अधिक मानवीय लगता है। व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के जरिए आधारहीन एवम झूठे संदेशों को फैलाने वाले लोग, जिस आधिकारिक तरीके से किसी भी मुद्दे पर अपने संदेश फैलाते हैं, वे अत्यंत हास्यास्पद होते हैं। लेकिन यह भी सच है कि वास्तविक शिक्षा से दूर आम जनता को बहकाने में इनकी भूमिका आज काफी डरावनी है। राकेश बिहारी ने अपनी कहानी 'फांसी' के जरिए कई एक महत्वपूर्ण मुद्दों को बेहतर अंदाज में प्रस्तुत किया है।

आज कहानीकार आलोचक राकेश बिहारी का जन्मदिन है। पहली बार की तरफ से उन्हें जन्मदिन की बधाई एवम शुभकामनाएं। इस अवसर पर आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं राकेश बिहारी की कहानी 'फांसी'। यह कहानी हंस के अगस्त 2022 अंक से साभार ली गई है।




फाँसी


-  राकेश बिहारी 



 

देशी घी में भिंगो कर रखे गये रस्से पर पके केले का लेप चढ़ाते हुए शंकर की पुतलियों में सहसा संजीत का चेहरा कौंधा और उसके कानों में सात वर्ष पुरानी उसकी मर्मभेदी चीख एक बार फिर से हरी  हो गई... उसने सोचा रस्से को वह चाहे जितना मुलायम कर ले, फंदा तो इससे फांसी का ही बनेगा... उसके हाथ खुद-ब-खुद गरदन की तरफ बढ़ चले जैसे अपने गिर्द कस रहे फंदे को वह नोच फेंकना चाहता हो...। उसके रोम-रोम में काँटों की तेज चुभन-सी उठी और वह बेइंतहाँ तकलीफ से भर उठा।



कल रात देश के सबसे तेज चैनल को इंटरव्यू दे कर घर लौटते हुए कितना खुश था वह। स्टूडियो से निकल कर जेब में हाथ डाल नोट गिनते हए उसने खुद को आश्वस्त करने की कोशिश की थी। दो हजार के कुल पाँच नोट थे। यानी उसके दो महीने की पगार। तीन चैनल वालों ने अपने प्राइम टाइम शो के लिए उससे संपर्क किया था। पर उसने सरकारी संविदाओं के ‘एल वन’ यानी लोएस्ट वन की नीति के विपरीत ‘एच वन’ यानी हाइएस्ट वन के फार्मूले में विश्वास किया था। न्यूज एंकर के निर्देशों का पालन करते हुए उसने अपने आत्मविश्वास और निर्भीकता का भरसक प्रदर्शन किया था। पर आज सुबह, जब से मोबाइल पर उसने उस कार्यक्रम का वीडियो देखा है, उसकी धमनियों में दौड़ता रक्त पिघले हुए लोहे की तरह उबलता हुआ उसे आपादमस्तक बेचैन किये हुये है। अपनी जुबान से निकले शब्द और अपनी देह-मन की भाषा के बीच उग आई फांकों को भला उससे ज्यादा और कौन पहचान सकता है?अपने मुंह में किसी और की जुबान होने का यह अहसास बेहद डरावना और तकलीफदेह था। उसे लगा उसका दम घुटा जा रहा है।उसके भीतर बिजली की गति से भी तेज रफ्तार में कुछ घटा और देखते ही देखते ई रिक्शा लेकर कुछ ही देर में वह शहर के इकलौते वाटर पार्क के भीतर दाखिल हो गया।



बाढ़ प्रभावित इलाके से होने के कारण उसकी परवरिश जलचरों की तरह हुई थी। इसलिए छोटे से पूल में ट्यूब ले कर तैरते लोगों की भीड़ देख कर उसे पहले तो हैरत हुई, लेकिन अगले ही पल बिना कुछ सोचे समझे अपने भीतर लगी आग को बुझाने वह भी उसमें कूद गया। पूल में आए अभी दस मिनट भी नहीं हुए थे कि पब्लिक एड्रैस सिस्टम पर एक तीखी सी आवाज गूंजी- ‘रेन डांस का समय हो चुका है। सारे राइड्स बंद किए जा रहे हैं। आप सभी डांस फ्लोर की तरफ प्रस्थान करें।’ शंकर को न राइड्स का पता था, न रेन डांस का, वह पार्क के एक कोने से दूसरे कोने जाती भीड़ का हिस्सा हो गया। पानी की तेज और महीन बौछारों के बीच मटकते-थिरकते स्त्री-पुरुषों के साथ भीतर घुसते हुए एक अजीब सा संकोच उसके ऊपर तारी था, लेकिन पलक झपकते ही भीड़ के रेले ने उसे धकेल कर डांस फ्लोर के बीचों बीच पहुंचा दिया। तपती जेठ में सावन का यह आलम उसके लिए किसी आश्चर्यलोक से कम नहीं था। संगीत के शोर और पानी की बौछारों ने पूरे माहौल पर जैसे अनाधिकार कब्जा कर लिया था। जाने उस हाल में भी कैसे किसी ने उसे पहचान लिया या यह सिर्फ उसका भ्रम था, कब उसके इर्द गिर्द लोगों ने घेरे लगा कर नाचना शुरू कर दिया उसे पता ही नहीं चला। तभी उसे पिछली रात स्टूडियो में आत्मविश्वास की सीख देते न्यूज एंकर की छवि याद हो आई और वह तमाम संकोचों से बाहर निकल भीड़ के बीच बेहिसाब नाचने लगा। डीजे की कानफाड़ू आवाज और तेज हो गई थी... ‘मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए, मैं झंडू बाम हुई डार्लिंग तेरे लिए...’



वाटर पार्क से लौटते हुए बदनाम और झंडू बाम की बेमेल तुकबंदी लगातार उसके भीतर किसी हथौड़े की तरह चलती रही थी...। कमरे में प्रवेश करने के बाद जैसे ही उसने लाईट ऑन किया, संजीत फिर से उसके सामने आ खड़ा हुआ...। वह उसके दादा से लगातार अपने निर्दोष होने की दुहाई दे रहा था और दादा बिना उसके चेहरे की तरफ देखे यंत्रवत अपने काम में लगे हुये थे। हाथ-पैर बांधे जाने के पहले संजीत की आवाज में गिड़गिड़ाहट थी, आँखों में आँसुओं का सैलाब था...। वह अपनी बूढ़ी माँ और बिना माँ की अपनी दो बेटियों के जीवन का वास्ता दे रहा था...। मौत को ठीक सामने कुछ कदम की दूरी पर खड़ा देख, वह अपने होशोहवास इस तरह खो बैठा था कि उसे यह भी इल्म नहीं रहा कि सामने खड़ा शख्स महज हुक्म का गुलाम है...। शंकर से उसकी विकलता देखी नहीं जा रही थी, उसने सायास अपना चेहरा दूसरी तरफ कर लिया...। संजीत को जब अपनी सारी कोशिशें नाकाम-सी होती दिखीं, अचानक ही वह शांत हो गया...। उस वक्त उसकी पथराई आँखों में खौफ की जो चुप्पी ठहर आई थी, वह शंकर की पीठ में बेतरह चुभ रही थी...। दीवारों से टकरा कर शब्द किस तरह गूँजते हैं, वह खूब समझता था, पर चुप्पियों की टकराहट से गूँजने वाली आवाज इतनी भयावह होती है, वह पहली बार महसूस कर रहा था। दादा जब संजीत के पास पहुंचे, उसने लड़खड़ाती हुई सी आवाज में उनसे कहा था- “बिस्मिल... और अशफाक जैसे... देशभक्तों की जान... तुम्हारे परदादा ने ही... ली थी न...?” जाने उस वक्त संजीत की आवाज में उलाहना था या तंज...। दादा ने जैसे कुछ सुना ही नहीं था, लेकिन ऊंची दीवारों के बीच पसरा वह खौफनाक मौन इतना घना था कि संजीत की वह मरियल-सी आवाज भी शंकर के अंदरखाने में दर्ज हो गई थी...। सहमते-सहमते उसने एक बार फिर अपना रुख सामने की तरफ किया था...। उस वक्त संजीत की आँखों में नाउम्मीदी का जो अंधेरा खौल रहा था, शंकर के कमरे में लगे एल ई डी बल्ब की रोशनी में आज एक बार फिर से रौशन हो उठा था...। 



उस दिन घर लौट कर शंकर ने दादा से पूछा था, “संजीत...  सही कहा रहा था क्या? क्या राम प्रसाद बिस्मिल...और अशफाकउल्लाह खान को फांसी हमारे...?”



“नहीं। कुछ लोग हमें और हमारे पेशे को बदनाम करने के लिए ऐसी बात करते हैं।”



दादा की आवाज में एक खास तरह की तटस्थता या उससे भी ज्यादा कठोरता-सी थी। उन्होंने कुछ और नहीं कहा, पर शंकर के नाजुक मन से वह बात गई नहीं। बहुत बाद में किसी किताब में यह पढ़ने पर कि उन दोनों को एक ही दिन, लेकिन अलग-अलग जेलों में फांसी दी गई थी, उसका मन थोड़ा हल्का हुआ था। पर आज संजीत की स्मृति के साथ ही उसका कहा हर शब्द किसी घाव की तरह उसके गस्से-गस्से में फिर से टभकने लगा है...। आज देश के किसी भी जेल में फांसी देनी हो, हमारे ही परिवार को बुलाया जाता है। मेरे परदादा तीन भाई थे, यह भी तो संभव है कि एक भाई गोरखपुर... और दूसरे भाई फैजाबाद गए हों। संजीत ने तो दो के ही नाम लिए थे। शंकर ने सोचा, उस दिन नैनी जेल में... ठाकुर रोशन सिंह को... कहीं उसके परदादा के तीसरे भाई ने...। अगले ही पल शंकर ने खुद को झटकने की कोशिश की थी। जावेद आतंकवादी है, उसने कितने बेगुनाहों की जान ली है। और तो और, उसने खुद भी अपना गुनाह कुबूल कर लिया है। दादा ने बिलकुल ठीक कहा था...। उसे इन बेवजह की बातों में एकदम नहीं उलझना चाहिये। बल्कि जावेद को फांसी के फंदे पर लटका कर वह अपने खानदान पर लगे बदनामी के दागों को भी धुल सकता है। उसे न्यूज चैनलों पर चलने वाली पट्टियों में दिन रात दिखाए जाने वाले उन सैकड़ों-हजारों संदेशों की याद भी हो आई जिनमें देश के कोने कोने से जावेद की फांसी की मांगें दिखाई जाती हैं।उसने मन ही मन फांसी देने के अभ्यास और अन्य तैयारियों की योजना बनाना शुरू कर दिया। पूरे दिन की यंत्रणादायक उदासी के बाद जब शंकर बिस्तर पर गया उसके पोर-पोर में समाए दर्द पर देशभक्ति का जज्बा किसी झंडू बाम की तरह असर कर रहा था।



फांसी देना शंकर का खानदानी पेशा है। कहते हैं सात पुश्तों से भी पहले से उसके खानदान के लोग ही देश के अलग-अलग जेलों में फांसी का फंदा खींचते आ रहे हैं। पहले शंकर को बिस्तर पर जाते ही नींद आ जाती थी, पर जब से जावेद की फांसी का दिन तय हुआ है, कभी उत्साह से तो कभी भय से उसकी आँखें जलने लगती हैं, सर भारी हो जाता है और नींद आँखों से रूठ कर मीलों दूर किसी अज्ञातवास पर निकल जाती है। घंटों की मशक्कत के बाद मुश्किल से तीन-चार घंटे ही सो पाता है वह...।



शंकर के पप्पा दशरथ पासवान नहीं चाहते थे कि वह भी इसी खानदानी पेशे में आये। वे पढ़ा-लिखा कर उसे जज बनाना चाहते थे। उन्होंने अपने जीवन की तीसरी और आखिरी फांसी सामूहिक हत्या के एक अपराधी को दी थी। क्या संयोग था कि उस अपराधी का नाम भी दशरथ ही था। जाने यह नाम की समानता से उपजा कोई सहज मैत्री भाव था या कुछ और, उन दिनों उसके पप्पा अक्सर उदास रहते। किसी को नहीं बताने की हिदायत के साथ एक दिन उन्होंने शंकर से कहा था कि वे हर रोज भगवान से यह प्रार्थना करते हैं कि दशरथ की दया याचिका मंजूर हो जाये।



दशरथ को काल कोठरी में रखा गया था। पूरे दिन में सिर्फ बीस मिनटों के लिए उसे सूरज की रोशनी में लाया जाता। उसकी आँखों ने अंधेरे से ऐसी दोस्ती कर ली थी कि रोशनी में आने के बाद पाँच-सात मिनट तक बेतरह मिचमीचाती रहतीं। किसी तरह वह रोशनी से नजरें मिलाने लायक हो ही पाता कि उसका वक्त समाप्त हो जाता और वह फिर से उसी काल-कोठरी में बंद कर दिया जाता।



दशरथ के जीवन में अंधरे और रोशनी का यह तकलीफदेह खेल पूरे सात साल तीन महीने और छब्बीस दिनों तक चलता रहा और एक दिन शंकर के पप्पा की सारी प्रार्थनाएं बेअसर हो गईं।



उस रात उन्होंने खाना भी नहीं खाया था। स्टील की चादर से बने घर की छत को घंटों निहारते शंकर के पप्पा के दिलोदिमाग पर उस दिन दशरथ की आँखों में सालों से ठहरी हुई सूनी उदासी छाई हुई थी। जब उससे उसकी अंतिम इच्छा पूछी गई, उसने अपनी डायरी को जेल के पुस्तकालय में रखने की ख्वाहिश जाहिर की थी...। जेलर के निजी सहायक ने उन लोगों से बाद में बताया था कि डायरी में दशरथ ने लिखा है कि उसे क्षणिक उत्तेजना में किए गए अपने अपराध का बहुत पछतावा था। यदि उसकी दया याचिका मंजूर हो जाती तो वह आजीवन किसी अनाथाश्रम को अपनी सेवा देकर अपने किये का प्रायश्चित करना चाहता था। उस रात दशरथ के भीषण अपराध और उसके पछतावे की बातें किसी झूले की पेंग की तरह उनके भीतर उठती-गिरती रहीं। शंकर के पप्पा तर्क-वितर्क के किसी भीषण बीहड़ में जा फंसे थे...। सजा आखिर क्यों दी जाती है- अपराधी से बदला लेने के लिए या उसके अंतस को बदलने के लिए? यदि उसने अपनी डायरी में सचमुच कुछ वैसा ही लिखा था जैसा जेल वाले साहब बता रहे थे तो वह दशरथ और इंसानियत दोनों का अपराधी है...। शंकर के पप्पा कुछ दिनों से घर के बाहर बने कमरे में अकेले ही सोया करते थे। उस दिन देर रात या भोर में उन्होंने कीटनाशक पी कर आत्महत्या करने की कोशिश की थी। वो तो सुबह-सुबह घर में झाड़ू लगाने गई माँ ने उन्हें बिस्तर पर छटपटाते देख लिया, वरना...। माँ की वह हृदयबेधी चीख जो उस दिन घर के दरोदीवार में अटकी सो आज भी उसी तरह अटकी हुई है।



पप्पा उस दिन तो किसी तरह बच गये, पर कोई तीन साल बाद एक रात डुब्बा घाट पर टूटे हुए लकड़ी का पुल पार करते समय, अचानक ही नदी में आई तेज बाढ़ उन्हें अपने साथ जाने कहाँ बहा ले गई...।






पप्पा क्या गये, उनके साथ उनके वे सारे सपने भी चले गये..। उनकी तेरहवीं के ठीक सत्रहवें दिन, यानी उनके बाढ़ में बह जाने के ठीक एक महीने बाद उन्हें संजीत को फांसी देनी थी। इतने कम समय में उनका वारिस खोजना बहुत कठिन था। नतीजतन शासन ने एक बार फिर से कोई दस साल पहले अवकाश ग्रहण कर चुके उसके दादा चरित्तर पासवान पर भरोसा जताया था। उस दिन परदादा गनेशी पासवान और लकड़दादा लच्छू पासवान की पीली पड़ चुकी धुंधली-सी तस्वीर के आगे हाथ जोड़ कर दादा उसे भी अपने साथ जेल ले गये थे। पीढ़ी-दर-पीढ़ी फांसी देने की ट्रेनिंग का यह सिलसिला यूं ही चला आ रहा था...। जाने वह पप्पा के असमय चले जाने के शोक से उपजी उदासी थी या बुढ़ापे में दादा के कंधे पर आ पड़ी परिवार की जिम्मेवारी का अहसास, किसी अनाम विवशता से बंधा शंकर बिना किसी प्रतिरोध के उनके साथ हो लिया था...।



उस दिन की याद आते ही संजीत के कातर चेहरे की कई-कई प्रतिछवियाँ कमरे में फैले अंधेरे में अचानक ही चमक उठीं। शंकर ने सोचा, बाढ़ में बहते पिता को क्या बारिश वाली वह आखिरी रात इतनी ही भयानक लगी होगी? डुब्बा पुल वर्षों से टूटा हुआ था। शहर से आने वाली बसें उसी पार रह जाया करती थीं और लोग बांस की चचरी के सहारे पैदल या फिर पानी बढ़ जाने पर नाव से नदी पार किया करते थे...। वह उस दिन की आखिरी बस थी। वे अकेले नहीं थे। उनके साथ तेईस और लोग थे। लेकिन अचनाक आई उस बाढ़ में... कोई और नहीं डूबा...। सिर्फ और सिर्फ उसके पप्पा ही...। शंकर की कनपटी की नसें तेजी से चटकने लगीं...। क्या सचमुच वह एक दुर्घटना भर थी? या पप्पा ने खुद ही...। अंधेरे कमरे में चमकती संजीत की प्रतिछवियों के बीच शंकर को पप्पा के चेहरे जैसा मुखौटा लगाई कई-कई आकृतियाँ दिखाई पड़ने लगीं। वह इस अंधेरे को चीर कर बाहर निकल आने की कोशिश कर रहा था...। उसने लड़खड़ाते कदमों से उठ कर लाइट ऑन करने की कोशिश की, पर अंधेरा इतना गहरा था कि स्वीच बोर्ड ढूंढती उसकी उँगलियाँ बार-बार दीवारों से टकराती रहीं...। संजीत की आखिरी चीख जैसे अब भी दीवारों से टकरा कर उस तक लौट रही थी...। भीतर से लहूलुहान शंकर ने सोचा, अंधेरा दुनिया का सबसे बड़ा अभिशाप है...। कुछ घंटे पूर्व उसके चेहरे पर आ चिपके देशप्रेम का नूर जाने कहाँ हवा हो चुका था...। भय, संशय और दुविधा की स्याह जर्द परछाइयों ने फिलहाल उसके पूरे वजूद पर डेरा डाल दिया था...।



मीडिया द्वारा सूत्रों के हवाले से प्रसारित खबरों के अनुसार उसकी शिनाख्त राष्ट्रपति भवन पर हमला करने की योजना बनाने वाले गिरोह के मास्टरमाइंड की तरह हुई थी। शंकर को जब पता चला कि जावेद ने कोर्ट में अपना गुनाह कुबूल कर लिया है, वाली जो खबर व्हाट्सएप पर चल रही थी, झूठी है, तो उसका बचा-खुचा उत्साह भी जाता रहा। लेकिन यह सच अब भी मौजूद था कि तमाम सबूत और गवाहों के बयान के आधार पर ही माननीय उच्च न्यायालय ने उसे फांसी की सजा सुनाई थी। कुछ प्रगतिशील संगठन संयुक्त रूप से उसकी रिहाई के लिए हस्ताक्षर अभियान चला रहे थे। उनके अनुसार जावेद बेकसूर था...। उसका कश्मीरी होना और परसियन पढ़ाना ही उसका असली गुनाह था। सत्याग्रह चौक पर कुछ लोग पिछले तीन-चार वर्षों से उसकी रिहाई के लिए बारी-बारी से शांतिपूर्ण धरना-प्रदर्शन भी कर रहे थे। गाहे बगाहे कुछ लेखक संगठनों की तरफ से संयुक्त बयान भी जारी किया जाता था। लेकिन कुल मिला कर यह सब किसी रस्मअदायगी से ज्यादा की हैसियत नहीं रखता था।



हत्या, बलात्कार जैसे संगीन मामलों में कैद अपराधी भी खुद को जावेद की तुलना में विशिष्ट और बेहतर मानते थे। उन्होंने चाहे जो भी किया हो उसकी तरह देश से गद्दारी तो नहीं की थी। जब भी मौका मिलता वे जेल में उसे देशद्रोही कहना नहीं भूलते थे। जावेद खुद को अपराधी के बजाय एक राजनैतिक कैदी मानता था, इस आधार पर उसने खुद को अन्य कैदियों से अलग रखे जाने की मांग जेल प्रशासन से की थी, पर उसकी यह मांग खारिज कर दी गई। कुछ दिनों बाद जब भोजन वितरण के दौरान सामूहिक बलात्कार के आरोप में नामजद किसी कैदी ने फर्श पर लगे टाइल्स के टुकड़े से जावेद पर हमला किया, उसे एक अलग कक्ष में शिफ्ट कर दिया गया था। नई कोठरी का अकेलापन जावेद के लिए एक नई समस्या थी। पूरा-पूरा दिन बिना किसी हमजुबान को देखे बिता देना कितना तकलीफदेह हो सकता है, उसका स्वाद जावेद से बेहतर कोई और नहीं जान सकता था। लोहे के बड़े दरवाजे के बीच एक छोटी-सी खिड़की नियत समय पर खुलती और दास्ताना पहने एक जोड़ा हाथ उसका खाना अंदर सरका देता। खिड़की का ताला फिर बंद हो जाता। जावेद बड़ी शिद्दत से चाहता था कि कभी उन हाथों का चेहरा भी देख सके, लेकिन खिड़की की संरचना में मौजूद लौह-पट्टिका उसे इसका इजाजत नहीं देती थी। अलबत्ता खिड़की खुलने और बंद होने के दौरान होने वाली आवाज उसके जीवन में व्याप्त सन्नाटे को हर रोज उस नियत समय पर एक खास अंदाज में जरूर तोड़ती थी। खिड़की खुलने और बंद होने की वह आवाज किसी परिचित करूण संगीत की तरह जावेद के जीवन का स्थाई हिस्सा हो गई थी। मेडिकल जांच या किसी अन्य प्रशासनिक कार्रवाई के लिए जब कभी उस कोठारी में लगा लोहे का दरवाजा खुलता, जावेद के भीतर दुबकी आशा और उम्मीद की गौरैया सहमी सी अपने पंख खोलती- शायद उसकी दया याचिका मंजूर कर ली गई हो...। पर ऐसी कोई सुगबुगाहट नहीं देख, उम्मीद की वह गौरैया पुनः निराशा और उदासी के उसी खोल में दुबक जाती।



दया याचिका की मंजूरी के इंतजार में बीत रहे उन दिनों का लमहा-लमहा किसी फांसी से कम भयावह और खतरनाक नहीं था जावेद के लिए। हर सांस के साथ अंदर-बाहर जाती हवा में जैसे जहर का तीखापन घुला होता। गहन अवसाद और गहरी पीड़ा के उन तकलीफ़देह लमहों से ऊब कर कई बार वह सोचता हर घड़ी की इस मौत से ज्यादा अच्छा तो यह होता कि उसे बिना किसी देरी के तुरंत फांसी पर लटका दिया जाता। उन्हीं दिनों उसकी दोस्ती लंबी पूंछ वाली एक जंगली छिपकली से हो गई थी। घरों में पाई जाने वाली आम छिपकलियों की तुलना में उसकी लंबाई दो से तीन गुणा अधिक थी। पहली बार जब जावेद ने उसे देखा, पल भर को डर-सा गया था। अपनी पूंछ खड़ी किये वह छिपकली किसी कीड़े को अपना ग्रास बनाने के लिए एक चौकन्ने आक्रमण की मुद्रा में थी। नीले और हरे रंगों के सहमेल से बने एक खास रंग की उसकी आँखों में एक अजीब सी बनैली चमक थी। शायद उसे पता चल गया था कि जावेद उसकी तरफ देख रहा है...। एक सेकेंड के सौवें हिस्से भर के लिए उसका ध्यान बँटा होगा कि उसका शिकार उसकी पहुँच से छिटक कर दूर चला गया। जावेद उस वक्त भोजन कर रहा था। जाने उसे क्या सूझी उसने बिना किसी देरी के रोटी का एक टुकड़ा उस दीवार की तरफ उछाल दिया। जितनी जल्दी से जावेद ने रोटी का टुकड़ा उछाला था, उससे भी ज्यादा फुर्ती से छिपकली ने उसे लपक लिया। जाने क्या घटा था उस पल कि कुछ ही मिनट पहले किसी भयानक अजनबी की तरह दिखी वह छिपकली पलक झपकते ही जावेद की दोस्त हो गई। उसके बाद से बिना नागा, खाने के वक्त दोनों शाम वह समय से जावेद के कक्ष में आती, जावेद अपने हिस्से की आधी रोटी उसकी तरफ बढ़ा देता और वह बड़े मजे से उसे खा लेने के बाद एक खास तरह की आवाज निकालते हुए कोठरी से बाहर चली जाती। खिड़की से निकलने वाले उस नियमित करुण संगीत के बाद यह दूसरी आवाज थी जो अनायास ही उसके जीवन में शामिल हो गई थी। हर दिन जावेद चुपचाप अपनी उस इकलौती दोस्त को खाते हुए देखता और उसकी खास आवाज का इंतजार करता। उस आवाज को सुन उसे यह अहसास होता था मानो वह भोजन देने के लिए उसका शुक्रिया अदा कर रही है। देखते ही देखते छिपकली की आँखों की बनैली चमक में जावेद को अपने लिए एक खास तरह की आत्मीयता महसूस होने लगी थी। उन विशेष पलों में जावेद सबसे ज्यादा उम्मीदों से भरा होता और उसे लगता उसकी दया याचिका जरूर मंजूर कर ली जाएगी।



ऐसी ही किसी एक रात खिड़की से अपनी थाली ले कर वह वापस मुड़ा ही था कि उसके कानों में एक सख्त-सी आवाज़ गूंजी थी- “यह तुम्हारा आखिरी खाना है। कल सुबह सात बज कर पच्चीस मिनट पर तुम्हें फांसी दी जाएगी।” जावेद को लगा, अचनाक ही किसी ने उसके नीचे से धरती और ऊपर से आसमान खींच लिया है। उसे दुख से ज्यादा आश्चर्य हुआ था कि किसी ने आज तक उसकी याचिका के खारिज होने की खबर भी नहीं दी। अगले ही पल मौत को इतना करीब देख वह दहशत से भर उठा। उसे लगा, कई सालों से उसके कमरे में दिन रात जलने वाला वह बल्ब जैसे अचानक से फ्यूज हो गया हो।उसे कहीं इस बात का अंदेशा तो था कि उसकी दया याचिका खारिज हो सकती है, पर यह इस तरह बिना आवाज होगा उसने सपने में भी नहीं सोचा था...। भय और दहशत के उस गाढ़े क्षणों में जावेद ने सोचा, ऊपर से क्रूर दिखने वाली यह व्यवस्था दरअसल भीतर से कायर और डरी हुई है। छिपकली हमेशा की तरह उस रात भी हाजिर हुई थी...। जावेद की भूख अचानक मर-सी गई, लेकिन वह अपनी इकलौती दोस्त को कैसे भूखी रखता? उसने एक फीकी सी मुस्कुराहट में लपेट आधी रोटी का एक टुकड़ा उसकी तरफ सरका दिया...। छिपकली ने कोई फुर्ती नहीं दिखाई...। रोटी का वह टुकड़ा बारी-बारी से कभी छिपकली तो कभी जावेद को निहारता रहा...। कोठरी की बेरौनक दीवारों ने महसूस किया कि छिपकली की गरदन का रंग जो कल तक गहरा लाल हुआ करता था आज स्याह हो गया है, आँखों में चमक की जगह एक विरल-सी उदासी तैर रही है और उनकी जड़ों से कोई गाढ़ा-सा द्रव्य निकल रहा है...। जब से जावेद इस कक्ष में आया है, यह यहाँ की सबसे सघन चुप्पी का पल था...। उस रात न जावेद ने खाया न छिपकली ने...। दोनों बेआवाज एक दूसरे को देर तक देखते रहे...।






शंकर को दिन में ही बुला लिया गया था। रात के खाने के बाद उसने ठीक से फंदे की जांच की...। जेल अधिकारियों के साथ जावेद की कोठरी से ले कर फांसी की तख्त तक जाने वाले गलियारे का बारीक मुआयना किया...। जब वह बिस्तर पर आया इंडिपेंडेंट इंडिया का स्टार ऐंकर प्रणव भूस्वामीकिसी सनके हुए हाथी की तरह चिंघाड़ रहा था...। उसके चैनल ने ही सबसे पहले यह खबर दी थी कि एसोशिएट प्रोफेसर जावेद के तार पाकिस्तान से जुड़े हैं...। इस बात के लिए अपनी और अपने चैनल की पीठ ठोंकता भूस्वामी अपने दर्शकों से शंकर का परिचय कराते हुए उसे देश की भावनाओं का सम्मान करने वाले सबसे बड़े राष्ट्रभक्त की तरह पेश कर रहा था...। टेलीवीजन के परदे पर लहकते आग के एनीमेशन के ठीक नीचे चल रही पट्टी पर अपने लिए शाबासी और शुभकामनाओं के दर्जनों संदेश पढ़ते हुए शंकर के भीतर एक दहशत की बिजली दौड़ गई...। उसकी आँखें आज हमेशा से ज्यादा जल रही थीं, रोज ही भारी रहने वाला सर, बेहिसाब दर्द से फटा जा रहा था, कनपटी की नसें किसी धौंकनी की तरह तेज-तेज चल रही थीं...। तकलीफ और यंत्रणा से भीगे आर्द्र स्वरों में उसने नींद को आवाज देनी चाही...। दूर खड़ा एक सिपाही लगातार उसकी तरफ देख रहा था...। जाने वह उसे देख रहा था या उस पर नजर रख रहा था...। शंकर की आवाज उसके गले में ही घुट कर रह गई...।



देर रात खूब तेज बारिश हुई, शंकर को ठंड लग रही थी...। वह बहुत देर से पेशाब दबाए बिस्तर में सिकुड़ा पड़ा था...। कोई तीन बजे जब उसके बर्दाश्त से बाहर होने लगा, वह बिस्तर से उठा...। तेज कदमों से बाथरूम की तरफ लगभग भागते हुए उसकी नजर एक बार फिर कॉरीडोर में चल रहे टेलीवीजन पर गई...। नींद और खून सनी आंखों वाला प्रणव भूस्वामी अपनी बुझी हुई आवाज़ में एक न्यूज ब्रेक कर रहा था...।



”अभी-अभी खबर मिली है कि सर्वोच्च न्यायालय की एक विशेष बेंच ने खूंखार आतंकवादी जावेद को कल सुबह दी जाने वाली फांसी की सजा स्थगित कर दी है। सूत्रों से पता चला है कि जावेद को उसकी दया याचिका खारिज होने की आधिकारिक जानकारी नहीं दी गई थी। इसी कारण सुप्रीम कोर्ट ने उसकी फांसी पर यह अस्थाई रोक लगाई है। देशभक्त जनता का राष्ट्र के लिए इंसाफ का इंतजार कुछ और लंबा हो गया है...।”



टेलीवीजन की आवाज यूरिनल तक साफ-साफ सुनाई पड़ रही थी...। पेशाब के दबाव से मुक्त होते शंकर की शिराओं में उस वक्त एक खास तरह का सुकून उतर रहा था...। उसे धीमी आवाज़ में कही गई पप्पा की बात याद हो आई– “किसी को बताना मत, मैं हर रोज भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि दशरथ की दया याचिका मंजूर हो जाये।” पप्पा की प्रार्थना तो स्वीकार नहीं हुई थी, पर जाने जावेद के हक में आज किसकी दुआ कुबूल हुई है...। वह इस बात पर अभी बिलकुल नहीं सोचना चाहता था कि जावेद की फांसी अस्थाई रूप से स्थगित की गई है।



जावेद प्रकरण मीडिया में चौबीस घंटे छाया हुआ था। हर चैनल जैसे देशभक्ति का दरिया हुआ जाता था...। राष्ट्रवाद की उत्तेजना में आकंठ भरा हुआ। हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट के वकीलों और सेवानिवृत्त न्यायाधीशों का बाजार तो ऐसे मौकों पर पहले से ही गर्म हुआ करता था, लेकिन इस बार न्यूज चैनलों ने अपनी स्ट्रेटजी बदल डाली थी। शंकर किसी हीरो की तरह खबरिया चैनलों के रास्ते लोगों के ड्राइंग रूम तक उतार दिया गया था। हर टेलीवीजन चैनल वाले उसे अपने प्राइम टाइम शो में बुलाना चाहते। शुरुआत में तो वह खुशी-खुशी किसी भी चैनल के बुलावे पर चला जाता, पर जैसे ही उसे अपने महत्त्व का पता चला, उसने चैनलों पर जाने के लिए फीस लेना शुरू कर दिया। चैनल और कार्यक्रम के समय के अनुसार यह फीस एक हजार रुपये से पाँच हजार रुपये तक की होती। प्राइम टाइम का रेट सबसे ऊंचा था। कहीं वह अपने पुरखों की कहानी सुनाता तो कहीं फांसी की सजा कैसे दी जाती है, उसका वर्णन करता...। कहीं अपनी संविदा वाली नौकरी और मामूली पगार का दुख बयान करता तो कहीं पप्पा और दादा से सुने जेल और फांसी के किस्से सुनाता...। कमाल की बात तो यह थी कि अकेले में अक्सर ही दुविधाओं, आशंकाओं से घिरा रहने वाला शंकर, कैमरे पर बोलते हुए अमूमन अपने ही विरोधी की भूमिका अख्तियार कर लेता। पैनल डिस्कसन के उलट उसका शो एक्सक्लूसिव और सोलो हुआ करता था। जब दादा, परदादा के किस्से कम पड़ने लगे, शंकर ने कहानियाँ गढ़नी भी शुरू कर दी थी...।



स्टूडियो में आत्मविश्वास से लबालब भरा शंकर घर पहुँचने के बाद देर रात तक अपनी टीवी वाली छवि से लड़ता, झगड़ता, जिरहें करता...। फीस के लिफ़ाफ़े उसे लुभाते, लेकिन इस बात पर कहीं उसे कोफ्त भी होती कि दिन प्रति दिन वह सरकस का जोकर हुआ जा रहा है...। खुद की तकलीफों को नकार, खुद को खुद के ही खिलाफ खड़ा कर के दुनिया का यूं मनोरंजन करना कोई आसान खेल नहीं था...। शंकर हर नए दिन कुछ और टूटता...। उसके भीतर हर रात एक दार्शनिक पैदा होता और हर अगले दिन वह दार्शनिक किसी न्यूज चैनल के स्टूडियो में दम तोड़ देता...।



रात के अंधेरे में उसका यह विश्वास हर रोज रौशन होता कि न्यायालयों के फैसले सच के हक  में नहीं, बल्कि सच के पक्ष में दिखने वाले सबूत और गवाहों के बयानों के आधार पर दिये जाते हैं...। बिना सबूत और गवाह के यहाँ बेगुनाह भी कसूरवार है...। ऐसे में किसी फैसले के शत प्रतिशत सही होने की गारंटी भला कौन ले सकता है...। खुद से होने वाली इन जिरहों के बीच अक्सर ही उसे संजीत का सपना आता...। सपने में संजीत से मिलने के बाद उसे पप्पा की याद आती...। उनका डुब्बा पुल में डूबना याद आता और वह अक्सर सोचता, जब फैसले सबूत और बयान से ही तय होते हैं तो उनमें सुधार की गुंजाइश भी होनी चाहिए...। लेकिन फांसी का फंदा तो किसी संशोधन के लिए कोई जगह नहीं देता...। तर्क वितर्क के इन बीहड़ों से गुजरते हुये पप्पा किसी अदृश्य उपस्थिति की तरह लगातार उसके साथ होते...। एक रात सपने में उसने पप्पा से पूछा था- “यदि फांसी की सजा इतनी ही सही और जरूरी है तो क्यों नहीं जज खुद फंदा खीच देते हैं? हम जैसे निरीह और मासूम, जिन्हें सच का लेश मात्र भी पता नहीं, को किसी की हत्या में क्यों शामिल किया जाता है?” इससे पहले कि शंकर के पप्पा कुछ बोलते उसकी नींद खुल गई...। उसे लगा वह प्रश्नों की एक ऐसी शरशय्या पर लेटा है, जहां वह चाह कर भी करवट नहीं बदल सकता...।



शंकर के सारे प्रश्न उसके भीतर उठते और उसके भीतर ही दफ्न हो जाते...। उसमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि अपने भीतर खलबलाते इन सवालों को जुबान तक ला पाता...। वैसे भी जावेद का मामला कुछ ज्यादा ही संवेदनशील था। देश की सुरक्षा, देशप्रेम और राष्ट्रवाद जैसे शब्द लोगों पर किसी अफीम का सा असर करते...। इससे पहले कि सुप्रीम प्रीम कोर्ट उसकी फांसी की अगली तारीख तय करती, हर चौक-चौराहों और टीवी चैनलों पर हर रोज जाने कितनी-कितनी बार उसे फांसी पर चढ़ाया जा चुका था।



पूरे सत्ताईस दिनों बाद अंततः सुप्रीम कोर्ट ने जावेद की फांसी की नई तारीख तय कर दी। उस दिन ‘सी न्यूज’ चैनल, जिसका स्वामी सत्ताधारी पार्टी का एक सांसद था, ने सारी हदें पार कर दी। उसने जावेद की आगामी फांसी पर एक पूरा एनिमेशान शो ही कर डाला। अपने खास कार्यक्रम ’ज़ीरो टॉलरेंस ऑन नेशनल सेक्युरिटी’ को विश्वसनीय बनाने के लिए उन्होंने उस दिन शंकर को खास तौर पर स्टूडियो में बुला रखा था।



तीस जनवरी 2021 की सुबह साढ़े पाँच बजे जब जावेद को फांसी की तख्त तक लाने के लिए, उसकी कोठरी का दरवाजा खोला गया, उसकी इकलौती दोस्त उसी दीवार से चिपकी हुई थी...। दरवाजे के बाहर कदम रखने से पहले उसकी सूनी निगाहों ने छिपकली की तरफ देखा। ...पल भर को छिपकली की देह में एक तेज हरकत हुई और वह गलियारे में सरपट दौड़ गई...।

 

 

शंकर ने पिछली रात जावेद के वजन के बराबर की बोरी को फंदे से लटका कर उसकी मजबूती परख ली थी...।




अपनी आखिरी इच्छा बताने के पहले जावेद ने एक प्याली चीनी वाली चाय और एक टुकड़ा कश्मीरी सेब की फरमाइश की...। पिछले सात वर्षों से वह डायबिटीज का मरीज था, उसे चीनी खाने की सख्त मनाही थी...। उसकी बीवी डॉक्टर के कहे हर्फ़-हर्फ़ का पालन करती थी...। चाय की प्याली होंठों से लगाने के पहले जावेद ने मन ही मन अपने डॉक्टर और बीवी से माफी मांगी.... और सेब का वह ताज़ा कटा टुकड़ा सामने वाली दीवार की तरफ उछाल दिया...। दीवार से चिपकी उसकी इकलौती दोस्त ने पलक झपकते ही कश्मीरी सेब का वह टुकड़ा लपक लिया था...

 

 





जावेद को नहीं मालूम था कि उसके जाने के बाद उसकी अंतिम इच्छा की कौन और कितनी कद्र करेगा...। पर उसने बहुत यकीन के साथ यह रस्म भी निभाया...।” मेरी कब्र पर एक पत्थर लगा कर उस पर मेरे ये आखिरी अल्फ़ाज़ लिखवा सकें तो मेहरबानी होगी- ‘मैं जावेद, बेगुनाह था...।”



जावेद की अंतिम इच्छा सुन कर जेलर की साँसे एक बार को उसक फेफड़े में अटक गईं...। लेकिन अगले ही पल एक खास तरह की कुटिलता के साथ मुस्कुराते हुए उसने शंकर की तरफ इशारा किया था...।



जावेद को फांसी के तख्ते तक लाया गया...। जेल के दो सिपाहियों की मदद से उसके हाथ पैर बांधे गए...।



फांसी देने का शंकर का यह पहला अनुभव था...। उसने खुद को सख्त कर लिया था...। उसके जेहन में उस वक्त देशभक्ति के जज्बे में डूबे प्रणव भूस्वामी चेहरा था...। उसने मन ही मन खुद की पीठ थपथपाई- आज भगवान ने उसे अपने खानदान पर लगे बदनामी के दाग को धोने का बहुत बड़ा मौका दिया है...।



जावेद के चेहरे को काली टोपी से ढकते हुए शंकर उसके कानों में बुद्बुदाया...” मुझे माफ करना...मैं अपनी ड्यूटी से बंधा हूँ. ..।”



घड़ी की सुइयों ने जैसे ही सात बज कर चौबीस मिनट और पचपन सेकेंड का वक्त बताया, जेलर ने एक बार फिर शंकर की तरफ इशारा किया...। शंकर ने आँखें बंद की और जी को कड़ा कर लिया...। उसने उँगलियाँ लीवर की तरफ बढ़ाई ही थी कि उसकी शिराओं में नाउम्मीदी और दहशत से सीझे संजीत की वही भयावह और ठंडी चुप्पी उतर आई...। पल भर को पप्पा और दशरथ का चेहरा भी कौंधा और फिर सब कुछ धुआँ-धुआँ सा हो गया...।



सबकी निगाहें शंकर की ही तरफ देख रही थीं...। उसकी उँगलियाँ अब भी लीवर पर थीं...। जेलर एक अजीब-सी खिसियाहट के साथ उसे लगातार इशारे कर रहा था...। उसने लीवर पर दबाव बनाने की कोशिश की... पर लगा जैसे उसकी उंगलियों की सारी ताकत किसी ने निचोड़ ली है...। सेकेंड वाली सुई बारह से निकल कर तीन... चार... और पांच के निशान तक पहुँच गई... लेकिन  शंकर लीवर नहीं खीच सका...।



जेलर के निर्देश पर, जावेद के हाथ-पैर बाँधने वाले सिपाहियों ने शंकर को अपनी गिरफ्त में ले लिया था।



फांसी के वक्त लीवर नहीं खींच पाने की, देश के इतिहास में यह पहली घटना थी...। जावेद को फिर से उसी कोठरी में भेज दिया गया...। शंकर का क्या होगा, किसी को ठीक-ठीक नहीं पता था...। टीवी चैनलों का बाजार एक बार फिर से रौशन हो उठा था...। कानून के तथाकथित विशेषज्ञ चैनल-चैनल घूम कर अलग-अलग राय दे रहे थे...कुछ राष्ट्रवादी संगठनों ने देश के सभी जिला मुख्यालयों पर शंकर और जावेद के पुतला दहन का आह्वान किया था...।



सुप्रीम कोर्ट ने जावेद की फांसी को एक बार फिर अस्थाई तौर पर स्थगित कर दिया था....। फांसी का फंदा खींचने वाले किसी नए शख्स की तलाश जारी हो गई थी...।



इन सबसे बेखबर जेल के बैरक का नया कैदी शंकर बहुत दिनों के बाद खुद को हल्का महसूस कर रहा था...। कम से कम आज वह यह नहीं सोचना चाहता था कि कल उसके साथ क्या होगा...।



नीले और हरे रंगों के सहमेल से बने खास रंग की आँखों वाली वह छिपकली जेल की धूसर दीवार पर अब भी रेंग रही थी...

***

 

 

राकेश बिहारी


जन्म:11 अक्टूबर 1973, शिवहर, बिहार
 
कहानी तथा कथालोचना दोनों विधाओं में समान रूप से सक्रिय।
 
प्रकाशन : वह सपने बेचता था, गौरतलब कहानियाँ (कहानी संग्रह)

केंद्र में कहानीभूमंडलोत्तर कहानी  (कथालोचना)

 

सम्पादन :  स्वप्न में वसंत (स्त्री यौनिकता की कहानियों का संचयन), ‘खिला है ज्यों बिजली का फूल ,(एनटीपीसी के जीवन-मूल्यों से अनुप्राणित कहानियों का संचयन), ‘पहली कहानी पीढ़ियां साथ-साथ’ (‘निकट’ पत्रिका का विशेषांक) ‘समयसमाज और भूमंडलोत्तर कहानी’ (‘संवेद’ पत्रिका का विशेषांक)’बिहार और झारखंड मूल की स्त्री कथाकारों पर केन्द्रित र्यसंदेशका विशेषांक, ‘अकार 41’ (2014 की महत्वपूर्ण पुस्तकों पर केन्द्रित)दो खंडों में प्रकाशित रचना समयके  कहानी विशेषांक। 

 

वर्ष 2015 के लिए स्पंदनआलोचना सम्मान से सम्मानित।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्वर्गीय कवि विजेंद्र जी की हैं।)

 

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