सुधीर सुमन की कविताएं

 

सुधीर सुमन


परिचय 

सुधीर सुमन मूल रूप से साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं।

'समकालीन जनमत' का लगभग 16 वर्षों तक संपादन, पत्रिका 'इस बार' में संपादन सहयोग, जनपथ के नागार्जुन अंक का अतिथि संपादन। कुबेर दत्त की पुस्तक 'एक पाठक के नोट्स ' और 'समय-जुलाहा' का संपादन। कुछ पुस्तकों की भूमिकाओं का लेखन। प्रभात खबर में 'ये फस्ल उमीदों की हमदम' नाम से साप्ताहिक काॅलम का लेखन। 'नई दुनिया' के स्तंभ 'आईना' और जनसत्ता के 'दुनिया मेरे आगे' में लेखन।

युवा नीति, हिरावल और भूमिका के लगभग 20 मंचीय और नुक्कड़ नाटकों में अभिनय। नुक्कड़ नाटकों और बाल नाटकों का लेखन। लगभग अस्सी समीक्षाएं, आलोचनात्मक लेख और समसामयिक विषयों पर आलेख और टिप्पणियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। कविताएं प्रभात खबर, समकालीन कविता और संप्रति पथ में प्रकाशित तथा आकाशवाणी दिल्ली, रेडियो जापान और दूरदर्शन पटना से प्रसारित। सांस्कृतिक रिपोर्ट लेखन में विशेष रूचि, एक पुस्तक का प्रकाशन संभावित। लंबे समय तक जन संस्कृति मंच, बिहार के सचिव की जिम्मेदारी निभायी। दूरदर्शन के सेंट्रल आर्काइव में पाँच साल से अधिक समय तक भाषा विशेषज्ञ और ट्रांस्क्राइबर का काम किया। सिनेमा, डाक्यूमेंट्री और चित्रकला से संबंधित छिटपुट लेखन। संजीव की कहानियों पर पी-एच. डी.। यशपाल की कहानियों में नैतिकता बोध विषय पर डिसर्टेशन। 

फिलहाल झारखंड के एक काॅलेज में अतिथि शिक्षक के बतौर हिन्दी साहित्य का अध्यापन।



इस दुनिया में कौन ऐसा होगा जो अपने लिए उजाला न चाहता हो। लेकिन जब चकाचौंध फैलाने वाला उजाला हर वक्त आपके सामने हो तो वह उजाला कष्टकारक बन जाता है। अंधेरे की भी एक महत्त्वपूर्ण रचनात्मक भूमिका हुआ करती है। सपनों के लिए नींद जरूरी है और नींद के लिए सामान्यतया अंधेरा चाहिए। लेकिन दुखद यह है कि अंधेरे को समाप्त करने की एक साजिश सी रची जा रही है। ऐसे में कोई कवि जब कामना करता है कि उसे उसके हिस्से का अंधेरा भी चाहिए, तो उनके लिए सुकून की बात है, जिनका हको हुकूक बेरहमी से छीन लिया जा रहा है। सुधीर सुमन की छवि आमतौर पर एक आलोचक सम्पादक की है। लेकिन जब हम उनकी कविताओं से दो चार होते हैं तो विस्मित हुए बिना नहीं रह पाते। अपनी एक कविता में सुधीर लिखते हैं - 'मैं जरा सुकून भरा/ अंधेरा चाहता हूं/ नर्म- मुलायम- सुरक्षित/ मां के गर्भ-सा/धरती के उस अंधेरे-सा)/ जहां अनगिनत वनस्पतियां/अंकुरित होती हैं;/ वह अंधेरा जो/नींद की जरूरत होता है/ मेरी नींद, जिसमें/ तुम्हारे उजालों के दिए दुःस्वप्न/उत्पात मचाए रहते हैं/मुझे मेरा उजाला ही नहीं/मुझे जरूरी अंधेरा भी चाहिए।' आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं कवि सुधीर सुमन की कविताएं।


 

सुधीर सुमन की कविताएं



 

निजता


आपको ही

हाले-दिल बता दूं

तो क्या होगा?

क्या आप जानते हैं

मेरे निज को

उसी रूप में

जैसा वह है?

मेरा निज कोई मायाजाल नहीं

फिर भी,

आप देखते हैं उसी रूप में

जैसा आप देखना चाहते हैं

आप कहां कोशिश करते हैं

जानने की मेरे निज को?

आपसे ज्यादा तो

बाजार जानता है मुझे

जो हर जगह घुसा चला आता है

आपसे ज्यादा खबर तो

सरकार रखती है जो

किसी और के इशारे पर

हमारी निजता का करती है कारोबार

वह थाहती है

हमारे भीतर कितना है नमक

हमारे भीतर कितना है बारूद

 

 

आप जो अपने हैं

चाहते हैं आपके नंबर पर करूं कॉल

सुनाऊँ दिल का हाल

सुना भी दूं तो

क्या जान पाएंगे उसे

जो मेरे भीतर चलता रहता है

जो तबाह किये रहता है?

आप अपनी धारणाओं में हैं कैद

वहीं से देखते हैं मेरे निज को

सारे पारदर्शी पर्दे उतार भी दूं तो

आप किसी पर्दे को रखके ही देखेंगे

हमारी निजताएं घुलकर

समुंदर कहां बन पाती हैं

जिसकी हलचल बढ़ा दे

सरकार की घड़कनों को

जिसका आवेग फाड़ दे

बाजार मालिकों के कानों के पर्दे

सारे राडार ध्वस्त हो जाएं पूंजी के?

हम एक-दूसरे को

ठीक से सुनते कहां हैं

एक दूसरे को ठीक से

देखते कहां हैं

कहां जानते हैं हम

गहराई से किसी को?

 

 

रहीमन निज मन की बिथा,

मन ही राखो गोय

क्यों भाई रहीम, क्यों

यहां तो सब कुछ खुला है

निज निज है कहां!


(जनवरी 2022)


 

जिन्हें गढ़कर तुम भूल गये हो


अब तीर-धनुष वाले

राम हैं तुम्हारे पास

जिनकी जन्मभूमि बता कर

भव्य मंदिर स्थापित कर दी गयी है

तुम्हारे लिए

 

 

सीता नजर नहीं आतीं

हनुमान हैं असंख्य तुम्हारे

ताकत और वर्चस्व के इजहार की तरह

बेटों खातिर, पतियों खातिर, भाइयों खातिर

पर्व-त्योहार लदे हैं तुम्हारी औरतों के उपर

कहीं कृष्ण हैं

गोवर्धन धारण किये हुए

कहीं तुम्हारा ही वधिक

पुत्र प्रह्लाद है

कहीं तुम बना दिये गये हो महिषासुर

और दुर्गा और नौ देवियों की पूजा कर

जीवन के संकटों का हल ढूंढते हो

 

 

पढ़ल पंडितवा दामाद और

रूनकी-झुनकी बेटीमांगती हैं

तुम्हारी औरतें

 

 

अनेक देवी-देवता हैं

जिन्हें गढ़ कर तुम भूल गये हो

कि तुम्हीं ने उन्हें गढ़ा था

जिन्हें किसी और ने

अपना सेवक बना रखा है।


(जनवरी 2022)

 


 


 

फांसहै कैसी?


फांसहै कैसी कि

लाखों किसान जान गंवा चुके

और लाखों कतार में हैं

एक लेखक मुक्ति के तरीकों की तलाश में

बेचैन कुछ लिखता है

दूसरा उस लिखे पर लिखता है

कि उसे पढ़ें ज्यादा से ज्यादा लोग

कि कुछ तो करें...

ठीक उसी वक्त

बाहर गूंजता है उन्मादी स्वर

जय श्री राम! जय श्री राम!

और तत्क्षण सुनायी पडती है

किसी की चीख

एक क्रूर कर्कश मादा-स्वर

खतरनाक नरभक्षी प्राणी कोई

जिसे मानसिक अंधेरों से

निकाला गया है

धर्मग्रंथों के खोह से

वह बना दी गयी है पाकिस्तान

-हिंदुस्तान जिंदाबाद! हिंदुस्तान जिंदाबाद!

घंटे, घड़ि़याल, शंख की आवाजों का मिला-जुला शोर है

शहर की दलित-बस्ती में भी

ब्राह्मणवाद की माया पसरी हुई है

क्या करें किसान, क्या करें मजदूर

क्या करें बेरोजगार नौजवान

राम तुम्हारे लिए सरयू थी

जहां तुमने मुक्ति पा ली

यहां सारी नदियां सूख चली हैं

यह नहर जो अंगरेजों ने बनवाई थी

जिससे सिंचित होता था यह इलाका

उसमें क्या कोई जल-समाधि लेगा

 

 

जय श्री राम! जय श्री राम!-

युद्ध का भारी शोर हो जैसे

जो मेरे कानों को बेध रहा है

कर्कश कांय, कांय, कांय

मानो किसी ने इनके पिछवाड़े

कोई गर्म छड़ छुआ दी हो

खूनी नफरत के परनालों में

डूब रहा है भक्ति का सारा सार

अचानक कहीं से आती है

आवाज डीवी पलुस्कर की-

ठुमक चलत रामचंद्र

बाजत पैजनियां...

नहीं राम, मैं भक्त नहीं तुम्हारा

मुझे बस यह आवाज सुकून दे रही है

ठुमक ठुमक चलता यह बच्चा

मुझे बचा रहा है

सुन रहा हूं उसे

यह जानते हुए भी कि

उस बच्चे की कब की हत्या हो चुकी है

और लाखों-करोड़ों बच्चों की ओर

कातिल बढ़ रहे हैं

जिनकी जुबान पर है तुम्हारा नाम-

       जय श्री राम!

              जय श्री राम!

 

(अगस्त-सितंबर 2017)

 

 

 

उजाले-अंधेरे

 

तुम्हारे उजाले

जला रहे जिस्म

खून को सोख रहे

आर्द्रता कम हो रही

आखों पर मानो

बरस रही हों

अनगिनत तीखी कीलें

ओह! मैं जरा सुकून भरा

अंधेरा चाहता हूं

नर्म-मुलायम-सुरक्षित

मां के गर्भ-सा

धरती के उस अंधेरे-सा

जहां अनगिनत बनस्पतियां

अंकुरित होती हैं;

वह अंधेरा जो

नींद की जरूरत होता है

मेरी नींद, जिसमें

तुम्हारे उजालों के दिए दुःस्वप्न

उत्पात मचाए रहते हैं

मुझे मेरा उजाला ही नहीं

मुझे जरूरी अंधेरा भी चाहिए

तुमने उजालों के मुहावरों को हथिया कर

भरमाया है हमें

हम जानते हैं

तुमने हमारे अंधेरों को भी लूटा है

हम दोनों को छीनेंगे तुमसे।

 

(अगस्त-सितंबर 2017)

 

 


 

बच्चा और ईश्वर

 

मैं बच्चा था

और मेरे पास ईश्वर था

जो अक्सर जरूरत के अनुसार

मुझे सिक्के उपलब्ध कराता था

कथा यूं  है कि

गांव के पश्चिम एक बागीचा था

जहां कभी बाढ़ आती थी

पुरनिया कहते थे कि

सोन खेतों को पटाने आता है रात में

और सुबह चला जाता है

उसी की छोड़ी हुई रेत थी

बागीचे से नहर तक।

वह छोटा-सा रेतीला इलाका था

जो झमाझम बारिशों में

नूह के नाव की तरह हो जाता था

रेत पर मछलियां जाती थीं

हम कहते- आकाश से गिरी हैं

कुकुरमुत्तों, तितलियों की भरमार

और घास के कितने ही रंग

और कितने ही रंगों के फूल थे

तब बालू माफिया नहीं थे

ट्रैक्टर लेके बालू चुराने

नहीं आता था कोई।

उस बालू को पैरों से उछालते चलने पर

मिल जाती थीं अट्ठनियां-चवन्नियां

एक बार तो

एक रुपये का सिक्का भी मिला था

उतना ही मिलता था

जितना उस जमाने में चाहिए था

कंचों के लिए, लेमनचूस के लिए

हालांकि कभी किसी मूर्ति के आगे

मैंने हाथ नहीं जोड़े

 

 

वक्त बदल रहा था

पेड़ बूढ़े हो रहे थे

छोटा-सा वह रेतीला इलाका

धीरे-धीरे खत्म हो रहा था

ईश्वर के नए-नए दूत बढ़ रहे थे

असमय मौतें हो रही थीं बच्चों की

जवानों की, बेहद प्यारे बूढ़े-बूढ़ियों की

अब देख रहा था मैं

बच्चे स्कूल जा रहे हैं

रास्ते में काली मंदिर की दीवार पर

शंकर की तस्वीर के पैरों का स्पर्श कर रहे हैं

मैंने तो ऐसा कभी नहीं किया था

मुझे यह दिखावा किसी ने नहीं सिखाया

टीवी का जाल भी कहां था तब!

ईश्वर तो मेरे लिए हर ओर मौजूद था

खेतों की हरियाली में, मटर के फूलों में

आम में, बेल में, अमरूद में

तरह-तरह की पंछियों में

सुबह और शाम में

कुदरत के हर रंग में

मैं बच्चा था और मेरे पास ईश्वर था

जिसे मुझसे कुछ चाहिए था

कोई जप-तप, पूजा-प्रार्थना

वह मेरी जरूरतों, मेरी खुशियों और

उदासियों में, अभावों में

हर जगह मौजूद रहता था।

(2017)

 

 

 

मेरी बच्ची

 

 

मेरी बच्ची, यह चार सितंबर की रात है

कुछ खरीदने में सब्जी-मंडी आया हूं

वहीं कुछ उदास, खिसियाई हुई-सी

मिलती हो तुम

सड़क किनारे,

स्कूल से बाहर क्यों हो?

उदासी को तो तुम्हारा नाम जान कर ही

दूर भागना चाहिए

तुम हो हंसी का पर्याय

क्यों तुम्हारी सूरत हो गई है तब्दील

करोड़ों वंचित बच्चों की सूरत में?

तुम्हें जो लाए इस दुनिया में

किस जोरोआजमाइश में

किस जिंदगी के जंग में मुब्तिला हैं?

कहां हैं वे?

आओ मेरी बाजुओं में

है इतना दम अभी भी कि

सात समुंदर की गहराइयों से भी

खींचकर ला दूं सुकून।

 

 

मैं बहुत दूर हूं

पास आकर भी

मेरे रास्ते पता नहीं क्यों

कहीं और मुड़ जाते हैं!

मगर इस रात में मेरी थकान और पीड़ा से

भरी नींद में क्यों दाखिल हुई हो तुम?

चलो मैं तुम्हें घर छोड़ दूं

दो गाल बतिया लूगा बड़े-बूढ़ों से भी।

इस नींद की अछोर दुनिया में तुम आई हो

और सुन रहा हूं

एक नरभक्षी तुम्हारे स्कूल की ओर

बडी सज-धज से जा रहा है

अपनी जवानी, चेहरे की चमक के लिए

उसे बच्चे चाहिए

सिर्फ बड़ों के रक्त से अब

नहीं बुझती उसकी प्यास।

ज्ञान-विज्ञान को नचा रहा

गुलामों सा वह

नाच रहे हैं अंधभक्त

नाच रहे अनेक बौद्धिक

खूंखार नृत्य है जारी

हत्याएं-आत्महत्याएं आम हो चली हैं

हर ओर उन्मादी जश्न है

पूंजी ने एक सूरत अख्तियार कर ली है

तुम स्कूल से निकलो

इस बार मैं जागते हुए मिलूंगा।

 

 (2016)

 

 


 

 

 

बासंती हवा की तरह

 

-रोको-रोको

-चलेंगे?

-चलेंगे, तभी तो हाथ दिया।

आवाज देने वाले से पहले

चार नन्हीं आंखें

सवार हो चुकी थीं

टोटो पर।

टोटो, जो बैट्री से चलती है

शोर नहीं करती,

धुआं नहीं छोड़ती

आंखें नहीं जलाती

पर धूल का क्या है

इस इलाके में

कपड़ों पर बहुत चिपकती है

जैसे नए सवारी की सर्ट

बहुत मटमैली है।

वैसे टोटो भी है तो मशीन ही

ब्रेक ज्यादा कस दिया है-

ड्राईवर देता है हिदायत-

पकड़ के रखिए,

उसे जो छोटा है

भोला-भाला मासूम

जो मेरी सीट के बगल

खाली जगह में बैठा है,

उससे जो बड़ी है

वह मेरे ठीक सामने बैठ गई है

पर जरा भी स्थिर नहीं है

उसकी आंखें हैं चंचल

होठों पर है शरारती मुस्कान

उंगलियां जादू दिखाने को हैं बेताब

दोनों की उंगलियों पर

अच्छा खासा गुलाबी अबीर चिपका है

कपड़े भी जगह-जगह गुलाबी हो गए हैं

सरस और सोनल की याद आती है

जो साथी सुनील की संतानें हैं

मानो वही भोलापन

वही शरारत

पांच सौ मील दूर

सफर करके अचानक सामने गई हो

बहन की उंगलियां

ड्राईवर की पीठ से

जा सटती है अचानक

और एक दिलचस्प खेल शुरू हो जाता है

जिसमें आंखों-आंखों में

अपने पिता के साथ

मुझे भी साझीदार बनाती है वह

धीरे-धीरे

ड्राईवर की सर्ट

पीठ पर होती जाती है गुलाबी

एक अजीब से आनंद में

मस्त है वह बच्ची

आखिर में अपनी नन्हीं हथेलियों की

गुलाबी छाप चिपका देती है

और उतरते ही दोनों फुर्र हो जाते हैं

जैसे किसी बासंती हवा का झोंका

गुजर गया हो अभी-अभी।

 

 

फिर अचानक उतरती है

गहरी उदासी

बच्चे बेखबर हैं

कि इस दुनिया में

उनका रक्त पीने से

बाज नहीं रहे

साम्राज्य के नशे में उन्मत्त शैतान

वह मासूमियत और शरारत

जिनसे जिंदगी जीने लायक बनती है

जिसकी जुबान मुल्कों-समाजों की

बाड़ाबंदियों को तोड़कर

हमारे दिलों में मौजूद

नैसर्गिक इंसानी तारों को छेड़ देती है

किस कदर हैं खतरे में

सीरिया, गोरखपुर, धर्मपुर अपवाद नहीं हैं

पर बच्चे उग रहे हैं

मिट्टी से अंकुर की तरह

बसंत की तरह, फूल की तरह, रंग की तरह

तपती गरमियों में बारिश की तरह

हमारी उम्मीद की तरह।

 

(फरवरी 2018)

 

 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्वर्गीय कवि विजेंद्र जी की हैं।)




संपर्क

 

मोबाईल - 09868990959

टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 28.10.22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4594 में दिया जाएगा
    धन्यवाद
    दिलबाग

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  2. कवि परिचय के साथ सुंदर सार्थक कविताएं।

    जवाब देंहटाएं
  3. सुधीर सुमन सिर्फ अच्छे कवि नहीं हैं बल्कि अच्छे रंगकर्मी, नाटककार, सामाजिक राजनीतिक ऐक्टिविस्ट, अच्छे शिक्षक और अच्छे दोस्त हैं।पहलीबार ब्लॉग पर उनकी कविताएँ बहुत सार्थक लगीं।बधाई।

    जवाब देंहटाएं

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