बलभद्र का स्मृति आलेख 'अलविदा शेखर दा'!

 




नई कहानी आन्दोलन की त्रयी के अन्तिम स्तम्भ शेखर जोशी का कल 4 अक्टूबर 2022 को दोपहर 3.20 पर वैशाली, गाज़ियाबाद के पारस हॉस्पिटल में निधन हो गया। शेखर जी के निधन के साथ ही एक युग का अन्त हो गया। प्रख्यात कथाकार शेखर जोशी ने फैक्टरियों, कामगार और मध्यम निम्न वर्ग का संघर्ष तथा उनके अंतर्विरोध को अपने लेखन में खास स्थान दिया। अमर उजाला के शब्द सम्मान की घोषणा के मौके पर उन्होंने कहा था, एक लेखक को यह पता होना चाहिए कि वह क्या लिख रहा है, क्योंकि लेखन सामाजिक जिम्मेदारी से बंधा हुआ कर्म है। शेखर जोशी कथा लेखन को दायित्वपूर्ण कर्म मानने वाले सुपरिचित कथाकार थे। शेखर जोशी की कहानियों का अंगरेजी, चेक, पोलिश, रुसी और जापानी भाषाओं में अनुवाद हुआ है। उनकी कहानी दाज्यू पर बाल-फिल्म सोसायटी द्वारा फिल्म का निर्माण किया गया है।


शेखर जोशी का जन्म 10 सितम्बर 1932 को अल्मोड़ा जनपद के सोमेश्वर ओलिया गांव के एक निर्धन परिवार में हुआ था। शेखर जोशी ने अपनी प्राथमिक शिक्षा अजमेर और देहरादून से प्राप्त की थी। 12वीं कक्षा की पढ़ाई के दौरान ही उनका चयन ईएमई सुरक्षा विभाग में हो गया। वह 1986 तक विभाग में कार्यरत रहे। उन्होंने नौकरी से स्वैछिक रूप से त्याग पत्र दे दिया।


पहाड़ी इलाकों की गरीबी, कठिन जीवन संघर्ष, उत्पीड़न, यातना, प्रतिरोध, उम्मीद और नाउम्मीदी से भरे औद्योगिक मजदूरों के हालात, शहरी-कस्बाई और निम्नवर्ग के सामाजिक-नैतिक संकट, धर्म और जाति में जुड़ी रुढ़ियां - ये सभी उनकी कहानियों के विषय रहे हैं। शेखर जोशी की प्रमुख प्रकाशित रचनाएं हैं:


कोशी का घटवार  (1958), साथ के लोग (1978), हलवाहा (1981), नौरंगी बीमार है (1990), मेरा पहाड़ (1989), डागरी वाला (1994), बच्चे का सपना (2004), आदमी का डर (2011), एक पेड़ की याद, प्रतिनिधि कहानियां

कविता संग्रह : न रोको उन्हें शुभा, पार्वती

संस्मरण : मेरा ओलियागांव


हमारे अनुरोध को स्वीकार करते हुए कवि आलोचक बलभद्र ने शेखर जोशी को श्रद्धांजलि देते हुए एक आलेख लिखा है 'अलविदा, शेखर दा'। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं बलभद्र का स्मृति आलेख 'अलविदा, शेखर दा'।



अलविदा शेखर दा!



बलभद्र



यह एक कटु सत्य है कि जैसे अमरकांत, मार्कण्डेय, रेणु, भीष्म साहनी, कृष्णा सोबती जैसे अनेक नामचीन कथाकार हमारे बीच नहीं हैं, उसी तरह शेखर जोशी भी अब हमारे बीच नहीं रहे। उनका कल ही यानी 04 अक्टूबर 2022 को निधन हो गया। अभी कुछ ही दिन पहले उनका नब्बे वाँ जन्म दिन मनाया गया था। 10 सितम्बर 2022 को वे नब्बे वर्ष पार कर इक्यानबे वें वर्ष में प्रवेश कर चुके थे। संभवतः अपनी पीढ़ी के कथाकारों में वे अंतिम जीवित थे। हाल ही में उनको 'भैंस का कट्या' और 'फट जा पंचधार' जैसी अविस्मरणीय कहानियों के लेखक, पर्वतीय जीवन के विशिष्ट कथाकार विद्यासागर नौटियाल की स्मृति में 'द्वितीय विद्यासागर नौटियाल स्मृति सम्मान' से नवाजा गया था। अस्वस्थता के चलते वे इस आयोजन में शिरकत नहीं कर पाए थे। उनके बड़े बेटे प्रतुल जोशी ने पिता की जगह यह सम्मान ग्रहण किया। अपने स्वधर्मा कथाकार के नाम पर मिला यह सम्मान शेखर जोशी जी के लिए बहुत ही सम्मान का विषय है। यहां यह भी कहना जरूरी है कि जैसे अमरकांत, मार्कण्डेय, रेणु, भीष्म साहनी, कृष्णा सोबती आदि की कथाकृतियाँ पढ़ी जाती हैं, पढ़ी जाती रहेंगी, वैसे ही शेखर जोशी की भी रचनाएँ पढ़ी जाएंगी, पढ़ी जाती रहेंगी। वे यहां (अपनी रचनाओं में) हमेशा जिंदा रहेंगे। सदैव संवादरत रहेंगे। आप सब समझ रहे हैं, यह बात किसी भावातिरेक में नहीं कह रहा। शेखर जोशी से संवाद का मतलब उनकी कहानियों, शब्द-चित्रों, कविताओं और संस्मरणों से संवाद है। पूरी एक सदी से संवाद है। हिंदी कथा-साहित्य के इतिहास और परंपराओं और कई कई धाराओं से संवाद है। पर्वतीय और मैदानी जीवन से संवाद है। ग्रामीण जीवन, वहां के किसानों, मजदूरों के साथ-साथ आजादी के बाद विकसित हो रहे औद्योगिक जगत और कामगारों की जीवन-स्थितियों, मनोदशाओं और उनकी क्रिया-प्रतिक्रियाओं से संवाद है। उनके कथा-साहित्य में आजादी के बाद की परिस्थितियों में अनेक 'प्रश्नवाचक आकृतियां' उभरती मिलेंगी। पर्वतीय ग्रामीण जीवन, शहरी मध्य वर्ग और नवविकसित उद्योग जगत को उसकी अनेक सहजताओं, विद्रूपताओं और जटिलताओं में यदि किसी को एक साथ, किसी एक रचनाकार की रचनाओं में देखना समझना हो तो, बेशक शेखर जोशी की रचनाओं को पढ़ना होगा। यह वहीं संभव है। पर्वतीय जीवन, लोक-संस्कृति, लोक-गीत, श्रम और उसके बूते रचा जाता अदभुत जीवंत संसार कहानियों के साथ-साथ कविताओं में भी उपस्थित है। साथ ही, उसके अंतर्विरोध भी। कि 'कोसी का घटवार' में लछमा और गोसाईं के प्रेम के लिए कोई स्पेस नहीं रह जाता। दोनों की शादी इसलिए भी नहीं हो पाती कि गोसाईं फौज की नौकरी में चला जाता है और लछमा के घर वाले किसी फौजी से अपनी बेटी ब्याहने को राजी नहीं हैं। इस नौकरी को वे पसंद नहीं करते। कहानी में अकाल (सूखा) का भी वर्णन है। इस कहानी को इस अकाल को नजरंदाज कर नहीं पढ़ा जा सकता। यह सूखा सामंती मूल्यों की सूखाग्रस्तता को प्रतिबिंबित करता है। यही तो है मार्कण्डेय की कहानी 'हंसा जाई अकेला' और रेणु की 'तीसरी कसम' का का अपना अप्रोच।





शेखर जोशी को कहानीकार के रूप में जाना जाता है। बिलकुल वाजिब है। बेशक वे कहानीकार थे। 'कोसी का घटवार', 'साथ के लोग', 'हलवाहा', 'मेरा पहाड़', 'डांगरीवाले', 'नौरंगी बीमार है', 'आदमी का डर' उनके कहानी संग्रह हैं। कहानी ही उनके लेखन की केंद्रीय विधा रही है। यहीं से उनकी पहचान कायम होती है। यह अपने आप में कोई सामान्य बात नहीं है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि दूसरी विधाओं में उनकी कोई गति या सक्रियता नहीं रही। यहां उनके शब्द-चित्र संग्रह एक 'पेड़ की याद' का भी जिक्र होना चाहिए। यह बहुत दिलचस्प संग्रह है। इसमें उन्होंने जनकवि गिरीश तिवारी 'गिर्दा' को भी याद किया है। उल्लेखनीय है कि शेखर जी कहानियों के साथ-साथ कविताएं भी लिखा करते थे। उनके दो काव्य-संग्रह भी प्रकाशित हैं। एक है 'न रोको उन्हें शुभा' और दूसरा है 'पार्वती'। समय-समय पर उनकी कविताएं भी प्रकाशित होती रही हैं और उनकी नोटिस भी ली जाती रही है। यह जानना कम दिलचस्प नहीं होगा कि कहानी और कविता में उनकी आवाजाही निरंतर रही है। कहानियों और कविताओं के पाठकों के लिए मुश्किल नहीं है यह समझना कि हमारे समय का एक विशिष्ट कहानीकार कहानी के विषय को कविता में और कविता के विषय को कहानी में किस खूबसूरती के साथ बरतता है। पढ़ते हुए कमाल का अनुभव होता है। यह बात लिखते हुए मेरे सामने उनकी एक कहानी 'सिनारियो' है और एक कविता, जिसका शीर्षक मुझे याद नहीं आ रहा है, पर, यह जरूर याद है कि वह कविता 'समकालीन जनमत' के 1992 के बाद के किसी अंक में कवर पेज दो पर छपी थी। उस कविता में बगल के घर से रसोई के चूल्हे के लिए आग मांग लाने का जिक्र है। तब घरों में आग जिला के रखी जाती थी। 'सिनारियो' के अंत में वह कविता पूरापूरी दिख जाती है और तब लगता है कि शेखर जोशी के कहानीकार में एक कवि शामिल था और कवि में एक कहानीकार। और दोनों मिल कर एकमुश्त अपने समय को पढ़ते और रचते हैं। 'सिनारियो' उनकी कम क्या, लगभग अचर्चित कहानी है। पहाड़ के जीवन की तकलीफदेह वास्तविकताओं का खूबसूरत बिम्बांकन हुआ है। पहाड़ का पूरा प्राकृतिक दृश्य बहुत खूबसूरत, पर जिंदगियां तकलीफों में। यही तो शेखर जी की खासियत है। 





इस जगह पर शेखर जोशी को लिखे उपेंद्र नाथ अश्क के एक पत्र का जिक्र करना चाहूंगा। अश्क जी का वह पत्र 06 जनवरी 1989 का है। उस पत्र में उन्होंने शेखर जी की एक कविता जो उस समय 'वर्तमान साहित्य' के एक अंक में छपी थी, 'धान रोपाई' का जिक्र किया है। अश्क जी ने जो  पंक्तियाँ उद्धृत की हैं वे हैं - 


"आषाढ़ी बादल से बैलों के जोड़े

उतरे खेतों में।"


अश्क जी ने लिखा है- "क्या उपमा बांधी है। सारे कविता- सारे के सारे दृश्य- मन पर अमिट छाप छोड़ देने वाले हैं।"यह पत्र 'अनहद' (सम्पादक - संतोष कुमार चतुर्वेदी) के 'शेखर जोशी विशेषांक' में संकलित है। शेखर जी कवि के साथ-साथ कविताओं के पाठक भी थे। इस आशय का उनका एक पोस्टकार्ड मेरे पास भी आया था जिसमें एक पत्रिका में प्रकाशित मेरी एक कविता का जिक्र है।




शेखर जी के संस्मरणों की एक किताब है 'स्मृति में रहे वे।' इसमें उन्होंने अपने अनेक लेखक व संस्कृतिकर्मी मित्रों के साथ-साथ अपने पहाड़ी अंचल की स्मृतियों को भी संजोया है। सुमित्रा नंदन पंत, यशपाल, नागार्जुन, कमलेश्वर, अमरकांत, मार्कण्डेय, शैलेश मटियानी, विद्यासागर नौटियाल सरीखे साहित्यकार इस संग्रह में उपस्थित हैं। महादेवी वर्मा की किताब 'पथ के साथी' की तरह शेखर जी ने भी अपने साथियों की स्मृतियों को आत्मीयता के साथ संजोया है। यहां हाल-हाल में प्रकाशित 'मेरा ओलिया गाँव' की चर्चा भी होनी चाहिए जिसमें उनके गांव और आसपास की स्मृतियां हैं।





शेखर जी की जब भी बात चलती है 'कोसी का घटवार', 'बदबू' और 'गलता लोहा' का जिक्र लोग तुरत करते हैं। बेशक ये बहुपठित-बहुचर्चित कहानियां हैं। यह किसी भी कहानीकार के लिए बड़ी बात है। लेकिन बात ऐसी है कि शेखर जी ने एक ही मूड, एक ही मिजाज अथवा एक ही विषय पर नहीं लिखा है। हैरानी होती है यह देख कर कि उनके पास अनेक तरह के जीवन, प्रसंग और परिवेश की कहानियां हैं, जिसका जिक्र इस आलेख के आरंभ में ही किया जा चुका है। पहाड़ के जीवन के साथ-साथ औद्योगिक श्रमिकों को जिस तरीके से शेखर जी ने प्रस्तुत किया है, वह बहुत प्रभावशाली है, मर्मस्पर्शी है। औद्योगिक श्रमिकों पर कहानियां लिखने वाले संभवतः वे पहले कहानीकार हैं। ऐसी कहानियों की पूरी एक श्रृंखला है। वैसे ही जैसे पर्वतीय जीवन की कहानियों की एक श्रृंखला है। पर्वतीय जीवन की कहानियों का एक संग्रह भी है 'मेरा पहाड़'। शेखर जी ने कोई उपन्यास नहीं लिखा है। जरूरी भी नहीं है। इस तरह से उनके बारे में सोचा भी नहीं जाना चाहिए। लेकिन, अगर सोचा भी जाए तो यह कहते कोई गुरेज नहीं कि उपन्यास नहीं लिखते हुए भी उपन्यास लेखन जैसा कार्य हो गया है। पर्वतीय जीवन की कहानियों को एक सिलसिला में कोई पढ़े तो अवश्य समझ में आता है कि एक समग्र जीवन अपने अंतर्विरोधों के साथ उपस्थित है। पहाड़ की प्रकृति, संस्कृति, पहाड़ के दुःख-दर्द, गरीबी, हारी-बीमारी, खेती-पाती, बेबसी, पहाड़ी क्षेत्रों से पलायन और छूटते हुए संदर्भों के प्रति अपार करुणा बहुत ही सुचिंतित ढंग से अभिव्यक्त हैं। लगता है कि अलग-अलग खंडों में, अलग-अलग शीर्षकों में लिखा गया पहाड़ की एकमुश्त महागाथा है, व्यथ-कथा है। 





शेखर जी की एक कहानी 'तर्पण' की चर्चा अवश्य करना चाहता हूं। पढ़ते समय हिल गया था अंदर से। बहुत देर तक चुप रहा। वह चुप्पी आज भी बज रही है। क्या ही सघन संवेदनात्मक बुनावट है। इस कहानी के साथ उनकी किताब 'मेरा ओलिया गाँव' के अंतिम चैप्टर 'अलविदा ओलिया गाँव' को भी पढ़ना ठीक रहेगा। यहां 'तर्पण' के मुख्य किरदार 'तारी' की याद आ ही जाती है। शहर में बस गया 'तारी', गांव की सारी जायदाद, जगह-जमीन और यहां तक की आखिरी एक अदद मकान तक बेंच देने वाला 'तारी' जब अपनी विधवा भाभी के श्राद्ध में गांव आता है और उनके तर्पण में जल देता है तब फूट-फूट कर रोने लगता है। उसको लगता है जैसे वह स्वयं अपना तर्पण कर रहा है। शहर का 'तारी' गांव के 'तारी' का तर्पण कर रहा है। ऐसा लगने लगता है जैसे हम सब 'तारी' के किरदार में हैं। 



समय की निहाई पर गर्म लोहे पर चोट करना और उसे एक मन माफिक आकार देना शेखर जोशी की कहानी (गलता लोहा) में ही संभव हुआ है।मोहन पहले तो अपने खेत की ओर जाता है और खेत में फैले झाड़- झंखाड़ को साफ करने की कोशिश करता है। फिर, अपने सहपाठी शिल्पकार धनराम के यहां जाता है। गर्म लोहे को पीटना और आकार देना शुरू करता है। मोहन का ब्रह्मण टोली से निकल शिल्पकार टोली की तरफ जाना अनेक अर्थ संकेतों से भरा है।




शेखर जी के जीवन का एक सुदीर्घ कालखंड इलाहाबाद में व्यतीत हुआ है। ई. एम. ई., इलाहाबाद में अप्रेंटिस की नौकरी की शुरूआत के साथ ही साथ लेखकीय सक्रियता का साक्षी रहा है इलाहाबाद। उपेंद्र नाथ अश्क, अमरकांत, मार्कण्डेय, भैरव प्रसाद गुप्त, दुय्यंत कुमार, दूधनाथ सिंह के साथ तो इनका घनिष्ठ रिश्ता रहा ही है, शेखर जी नई पीढ़ी के लेखकों को भी भरपूर अपनापन देते रहे हैं, भरपूर स्नेह। आपके स्नेह भरे शब्दों को संभाले सहेजे भरे मन से कहना पड़ रहा है - 'अलविदा शेखर दा'!

 

 


बलभद्र



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टिप्पणियाँ

  1. शेखर जोशी जी के सृजन पर संक्षेप में समग्रता से विचार हुआ है।पहाड़ से इलाहाबाद तक के उनके लेखन में गहरी रचनात्मक स्थानीयता है।वे लेखन में जिन जीवन-मूल्यों को समर्पित रहे उनकी अच्छी पड़ताल इस आलेख में हुई है।शेखर जोशी जैसे मनस्वी लेखक पर हिन्दी का हर जागरूक पाठक शोक नहीं, हमेशा गर्व करेगा।
    -वाचस्पति, वाराणसी

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  2. बहत विस्तार से चित्रण है लैख में
    जानकारी भरा लेख

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