भरत प्रसाद की लम्बी कविता 'अपनी मृत्यु का घोषणापत्र' 

भरत प्रसाद

                                    


मृत्यु हमेशा से मनुष्य के लिए एक जिज्ञासा का विषय रही है। मौत को ले कर तमाम तरह के चिंतन मनन किए गए हैं। कई कवियों ने मृत्यु को ले कर कविताएं लिखी हैं। कवि आलोचक भरत प्रसाद ने मौत पर केंद्रित लंबी कविता लिखी है 'अपनी मृत्यु का घोषणा पत्र'। इस कविता में कवि मृत्यु को नए, कह लें दार्शनिक नजरिए से देखता है और उसे अपनी कविता का विषय बनाता है। कवि ने कविता में कवित्त्व का निर्वाह किया है। इसीलिए इस कविता को पढ़ते हुए हम कविता के साथ साथ प्रवहमान रहते हैं। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं भरत प्रसाद की लंबी कविता 'अपनी मौत का घोषणा पत्र'।


     

अपनी मृत्यु का घोषणापत्र                  

{जीवन व्यथा की कहानी मृत्यु की ज़ुबानी}


भरत प्रसाद 



मृत्युरंग-01


मौन की एकांत गहराई में 

रोज-रोज भेंट होती है मृत्यु से 

वह कहीं नहीं जाती 

दबी रहती है भीतर कहीं 

आशा-निराशा, भय-अभय के बीच 

पाने-खोने के अंतराल में 

अक्सर बहस करता हूँ मृत्यु से 

देखता हूँ उसका निराकार चेहरा 

जिसका कोई पता नहीं 

प्रतिदिन बदलती है चाल 

भांप लेता हूँ आहट 

डूबते सूर्य की विदाई में 

रात के सन्नाटे में सोते हुए 

विरक्ति भर देने वाली 

संध्या के विस्तार में भी।

अपने नाम में छिपा लेती है 

अपनी दर हकीकत 

केवल मनुष्य पर धावा नहीं बोलती 

केवल शरीर को शिकार नहीं बनाती 

हर अस्तित्व का पीछा करना उसकी प्रकृति है 

हर जन्म के पीछे घात लगाए रहना 

उसकी आदत 

मौत की विश्वव्यापी चाल 

सबसे अदृश्य, सबसे रहस्यमय 

जीवन के प्रति अबूझ आह से भर देने वाली 

मृत्यु से बढ़ कर कौन माया है?



मृत्युरंग-02


देखा है मृत्यु का चेहरा 

दरख्तों की विदाई में 

जड़ों की गहराई में 

फूलों के झुके मुरझाव में 

पतझड़ के आने-जाने में 

नवजात पत्तियों की रुलाई में 

जो असमय ही मिट गईं 

शाखाओं से टूट कर।

कौन जीता है एक बीज की अंतरपीड़ा

जो जन्म के साथ उठती है 

कौन सुनता है अपनी ऊँचाई से फूटती 

बीज की आकुलता 

किसने सुना है हरियाली का हाहाकार 

जो दिन होते ही शुरू होता है।

आर-पार नाच रही है मृत्यु 

हमारी हंसी में, उत्सव में 

उत्थान और पतन में 

महानता-मामूलीपन में 

अमरता की हर कोशिश में 

समय भी मात खाता है मृत्यु के आगे 

वक्त को साथी बना लेती है मौत 

छेड़ तो महामारी है 

भागना चाहो तो भयानक स्वप्न 

आँखें मिलाओ तो 

खुद को खो देने का साक्षात्कार 

अधूरी पड़ी पूर्णता की 

तड़प है मृत्यु।





मृत्युरंग – 03


पत्थरों को क्या पता 

मृत्यु उन्हें भी खा जाती है 

चट्टानें टिक नहीं पातीं 

पानी का पानीपन पी जाती है 

सभ्यताएं जन्म देने वाली नदियाँ 

रह जाती हैं मारी हुईं माएं 

जीवन बांटने वाली हवाएं 

बेजुबान दासियाँ हैं।

हिंसा आदत है मौत की 

घात लगा कर बैठी रहती है 

नफरत के पीछे 

ईर्ष्या से मानो जन्म-जन्मान्तर का रिश्ता हो 

क्रोध से बढ़ कर उसका कोई अपना नहीं 

ताकतवर के लिए देवी है 

पूजता रहता है जिसे जीवन भर 

सांस-दर-सांस।

एहसास में आते ही 

जुबान खा जाती है 

देखना खो बैठती हैं आँखें 

बुद्धि-विवेक को जैसे लकवा मार जाय 

रुलाई इतनी कि फूट नहीं पाती 

मोह का दरिया बहता है, अंग-अंग से 

धूल-मिट्टी, आकाश के प्रति 

अपनों से अलविदा होते हुए 

जीवन भर के दुश्मनों के लिए भी।



मृत्युरंग – 04


जानवरों की निगाहों में 

लबालब चुप्पी की तरह है 

जो जन्म के साथ जन्म लेती है 

विदा लेती है मृत्यु के बाद 

कांपते हैं पक्षी-ऊँचाईयाँ छूने के बावजूद 

हार जाते हैं 

अपने मामूलीपन के आगे 

पुकारते हैं दिशाओं में 

आकाश की शिराओं में 

दरख्तों की भुजाओं में 

पृथ्वी के प्रातःकाल से ही 

क्या पता, पलकें उठने-गिरने जैसा जीवन 

कब बीत जाय 

बूँद की तरह बंद जान 

कब धुल में मिल जाय 

मौत बनकर मौसम 

आशियाने पर कब बरस पड़े।

कौन देखता है?

जीव-जंतुओं के अन्दर भरे हुए 

मौन के आंसू 

कौन उतरता है गहरे 

उनकी लाचारी की जड़ों में 

जैसे वे मरने की प्रतीक्षा में जीते हैं 

एकांत के छिपाव में 

भय में डूबी नीदों में 

पलायन की आदत में भी 

हवा की तरह पीछा करती है मृत्यु।



मृत्युरंग – 05


मृत्यु के चंगुल में है 

दृश्य का रूप-रंग, जादू 

अदृश्य का छिप जाना 

मृत्यु की पकड़ से बाहर कहाँ?

मौत पर कोई नियम लागू नहीं होता 

मौत खुद एक नियम है 

कहीं भी, कभी भी 

जीवन के किसी भी मोड़ पर 

दरवाजा खटखटा देती है।

आकर्षण गिर जाता है 

स्वाद रह जाते हैं बेस्वाद 

सुन्दरता झूठ सिद्ध होती है 

उमंगों की बेहिसाब उछाल 

मिट जाती है निराशा में 

छाया की चलने वाली कामनाएं 

मृत्यु की आहट पर 

अहक बन कर विदा होने लगती हैं।

शेष रह जाती हैं वस्तुएं 

मिट जाने के बाद भी 

यादों में बसे उपकार की तरह 

गुमनाम रीढ़ की भांति 

छोटी-छोटी महानता के मानिंद 

सिर से पाँव तक कृतज्ञता में डुबोती 

मोह का समुद्र हैं वस्तुएं 

मिट-मिट कर भी 

मिट्टी में दबे बीज जैसी।





मृत्युरंग-06


सुनने की सीमा से परे 

हर तरफ बज रही है 

अहर्निश झंकार जैसी 

मस्तिष्क में रिसता घाव है 

कौन है जो ढूंढ पाया मृत्यु का पता?

खोज लिया जिसने मृत्यु का बीज? 

पा लिया अंतिम रहस्य?

रच पाया मृत्यु का व्याकरण 

थाह ले लिया जीते जी।

नहीं है वाणी के वश में 

मृत्यु की व्याख्या 

जीवन सीमित है – मृत्यु से साक्षात्कार के लिए 

परिणाम में प्रकट होती है 

घटनाएँ गवाह बनती हैं 

रोज बदलती हैं मौत का पता 

भेजती रहती हैं गुप्त सन्देश 

समूची दुनिया में।

घटने से पहले आहट देती है 

सावधान करती है, प्रकट होने से पूर्व 

कायर सुनना नहीं चाहते 

बहरापन कितना सुख देता है 

साहसी सुन लेते हैं पदचाप 

आँखें मिलाते हैं मौत से 

मृत्यु के पार जाने का कमाल 

सिर्फ दुस्साहसी कर पाते हैं 

जिसे मौत से बतियाना आ जाय 

उसे कभी नहीं डराती मौत।



मृत्युरंग – 07


जितना ही बचाया खुद को 

उतना खोता चला गया 

जीने की अवसरवादी प्यास ने 

कितना कायर बना दिया हमें 

असीम हो चली है 

खुद को खर्च करने की दीवानगी 

जान ही गया आखिर, बचने के लिए 

मिटा देने का कोई विकल्प नहीं 

गला देना अपना वजूद 

खुद को पाने की शर्त है।

डरती है उनसे मौत 

जो मिटना सीख जाता है 

हार भी जाती है 

जिसने मृत्यु से हारना नहीं जाना  

इज्जत बख्शती है उसे 

जिसे जीवन बांटना आ गया।

हमें जीवित रखने में 

कितनों का वजूद मिट गया, हमें क्या पता?

हमारी खुशियों की नींव में 

कितनों के सुख दफ्न हैं, हमने कब जाना?

अवैध है हमारे चेहरे की चमक 

जिसमें मायूस चेहरे की उदासियाँ 

रक्त बन कर शामिल नहीं।





 मृत्युरंग - 08 


मृत्यु का न जन्म होता है न मृत्यु 

लहरों के उठने-गिरने के बीच 

जीवित हो उठती है 

परिवर्तन की आड़ में लेती है करवट 

देह से विदा होती है उम्मीद 

विलुप्त हो जाती है ताकत-स्वप्न देखने की 

चेहरे की झुर्रियां, वक्त की मार रह जाती हैं 

सूखती नदी की तरह, 

देह की धारियों में  

शेष दिखते हैं जीवन के निशान

यकीनन तब साकार होती है मौत।

हिसाब से ज्यादा हृदय का धड़कना 

आत्मा में गड़ी हुई हताशा के कारण 

साँसों की अटपट चाल 

यूँ ही बस आंसुओं में टूटते रहना 

आदतन भरे रहना प्यार के अभाव से 

हिसाब से बहुत ज्यादा 

सीमा से बहुत आगे 

जीने की प्यास लग जाना 

लहर है मृत्यु की।

सबसे कठिन चुनौती 

सबसे विकट कसौटी 

सबसे मौलिक सवाल है,

मृत्यु वैसी ही है – जैसे 

आग में छिपी है राख 

उठने में छिपा है गिरना 

बियावान में मौजूद है पतझड़।



मृत्युरंग – 09


मृत्यु एक पुल है – समय के आरपार 

मिला देती है शरीर को 

शरीर की हकीकत,

पहुंचा देती वही वहां 

जहाँ से हम उठे थे 

गुरू है मृत्यु 

अदम्य चेतावनी से भर देती है भीतर 

अजीब चौंक मच जाती है 

झटका देती है चालाकियों को 

स्वार्थों का करती है पोस्टमार्टम 

हमारी चमक को तार-तार करती है 

सिखाती है पाठ – शरीर एक अवसर है 

कैलेंडर में टांक दी गयी 

घटना की तारीख।

मृत्यु से बढ़ कर कौन है मेरा आलोचक?

कौन है अचूक दवा?

तौलती है कर्मों की कीमत 

फैसला करती है –

हम जिन्दा रहे भी या नहीं?

प्रश्न करती है, कितना कामयाब हुए 

खुद से लड़ने की कोशिश में?

आईना है मृत्यु 

पहचान के बाहर एक विरामचिह्न 

कोई सीमारेखा 

हमारी अर्थवत्ता और निरर्थकता को 

विभाजित करती हुई।



मृत्युरंग – 10


उतरना ही होगा मुझे 

अनाम दरख्तों की आत्मा में 

उनकी अदृश्य जड़ों के अतल में 

मृत्यु के मर्सिया जैसे 

सन्नाटे की शिराओं में 

राख के दफ्न रहस्य में 

अपने अंत की अटल नियति में भी।

पढ़ जाना चाहता हूँ 

चुप्पी के सारे अर्थ 

मिटी हुई लिपियाँ 

बेजुबानियत की भाषा 

बुझती निगाहों का व्याकरण 

बेरंग होते फूलों का दर्द।

सुन लेना चाहता हूँ 

रोज-रोज की पराजय से उठती 

अंतर की चीत्कार।

देखना है मुझे भी 

अदृश्य रहने की कीमत 

निःशब्द रहने की ताकत 

कैसी होती है- टूट जाने की सम्पन्नता-

जानना है मुझे।

इनकार जिए बगैर जीवन भी क्या?

नाउम्मीदी से भर जाना 

नए जन्म का आगाज भी है 

कई बार मजबूती की पटकथा 

जमीदोज होने की जमीन पर लिखी जाती है।।

 

 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्वर्गीय कवि विजेंद्र जी की हैं।)

 

 

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मोबाइल : 9774125265                                                          

                                                                        

भरत प्रसाद                                                

शिलांग – मेघालय 



   

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