असंग घोष की कविताएं

 

असंग घोष

 

वक्त की यह खूबी होती है कि वह हर पल परिवर्तित होता रहता है। एक पल के लिए भी वह थमता नहीं। किसी के लिए भी नहीं। यह वक्त का अपना अनुशासन है जिसका पालन वह स्वयं करता है। यह अलग बात है कि वक्त बदलने के साथ साथ दुनिया बदलती रहती है। परिस्थितियां बदलती रहती हैं, लोग बदलते रहते हैं। दुर्भाग्यवश हमारे यहां एक बड़ा तबका ऐसा है जिसके पास जीवन की आधारभूत सुविधाएं नहीं हैं। वह सम्मान चाहता है लेकिन हमारी सामाजिक व्यवस्था उसे वह सम्मान भी नहीं दे पाती, जिसका वह हकदार है। लेकिन उम्मीद वह चीज है जिसका दामन नहीं छोड़ा जा सकता। असंग घोष उम्मीद के कवि हैं। आज उनका जन्मदिन है। असंग जी को जन्मदिन की बधाई और शुभकामनाएं देते हुए आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी कुछ कविताएं।




असंग घोष की कविताएं



क्यों आते हैं सपने


सपनों पर

मेरा वश नहीं

क्यों आते हैं ये

बार-बार

मैं इनसे मुक्त हो

अपने पंख फैलाए

स्वछन्द आकाश में

परिन्दों की मानिंद

उड़ना चाहता हूँ

और

उड़ते हुए अंततः

विलीन हो जाना

चाहता हूँ

क्षितिज में

दृष्टि से परे

दिखाई देते

अनंत में

जहाँ

धरती आकाश के

मिलकर

एक हो जाने का भ्रम है

सपनों की तरह

उईउस भ्रम को

तोड़ते हुए

मैं धरातल पर

अपने पाँवों खड़ा

होना चाहता हूँ।



नीम का फूल


चिड़िया को

पीने रखे थे

माटी के कटोरे

पानी भर

चहारदिवारी पर

लटकाया था

एक कटोरा

नंगे खम्भे से

इन सब पर

रंग-बिरंगी

चिड़ियाएँ आतीं

दो बार

चोंच डुबा

पी जातीं पानी

अपनी अदाओं को

मेरे कैमरे में

कैद कराती इठलाती

उड़ जाती

आज अनायास

कटोरे के कोरों पर

एक छोटा-सा

सफेद फूल व्यूफाइंडर से

दिख गया

उसे पास जा पहचाना

वह था

कड़वाहट से परिपूर्ण

खूबसूरत

नीम का फूल।

 





नींद


नींद

मेरी गुलाम

हुआ करती थी

जब चाहता

जहाँ चाहता

चली आती थी

वक्त बदला

अब मैं

उसका गुलाम हो गया हूँ

...

वक्त

फिर बदलेगा।



जब चाँद गिर पड़ेगा 


चाँद जब कभी गिर पड़ेगा 

आसमान से धरती पर 

हम निहारना बंद कर देंगे 

धरती से चाँद को 

बूढ़ी नानी का चरखा थम जाएगा 

रुँध जाएगा लोरी गाती माँ का गला 

नहीं रहेगा 

बच्चों का चंदामामा 

यह सृष्टि भी नहीं रहेगी 

चलो, 

ऐसे ही सही 

जातियों की झँझटों से 

पिंड तो छूट जाएगा।

 





आखिर क्यों


एक दिया मिट्टी का 

जलता था कभी-कभी 

भगवान के आगे 

उजियारा बिखेरता 

चमकते थे 

अपनी रहस्यमय मुस्कान के साथ 

हाथों में नाना प्रकार के शस्त्रधारित भगवान 

मनुवाद को स्थापित करने 

युद्ध के लिए सदा तैयार दिखते, 

पर किसी भी रोशनी में 

कभी भी दिखाई नहीं दिए 

शिखाधारियों के षड्यंत्रों को रोकते 

दलितों पर होते दमन को थामते 

शस्त्रधारी पत्थरदिल भगवान।



हल्लाड़ी


हल्लाड़ी 

घर में थी 

जिस पर पीसा करती थी 

माँ प्रतिदिन 

काँदा, लहसन, खड़ी मिर्च 

पोस्त के साथ पानी मिला 

ज्वार की रोटी खाने, चटनी 

चटनी जिसमें 

हम पाते थे स्वाद 

लज़ीज़ दाल-सब्ज़ी का एक साथ 

सुबह-शाम, दुपहर। 


भरी दुपहरी में 

जब सूरज आसमान में 

ठीक सिर के ऊपर 

टँगा होता 

फ़सल काटती माँ 

दुपहरी की छुट्टी में 

उसी चटनी से 

खाती ज्वार की एक रोटी 

पानी पी फिर काम में लग जाती 

शाम को मज़दूरी में मिलते 

ज्वार के गिने-चुने फुकड़े 

जिन्हें घर ला माँ झाड़ती डंडे से 

निकालती थी ज्वार रात में 

हम दिखाते दिन भर धूप 


माँ 

कभी रात में 

कभी अलस्सुबह 

अलगनी के नीचे रखी घट्टी में 

पीसती थी ज्वार 

बनाती थी रोटी हम सबके लिए 

कभी-कभी ले आती थी 

दो-एक अलूरे फुकड़े 

जो सेंके जाते चूल्हे की आग में 

और हम एक-एक दाना निकाल खाते थे 


अब हम पोस्त नहीं ख़रीद सकते 

ज्वार भी मँहगी है 

माँ से मजूरी भी नहीं होती 

मेरा बचपन भी चला गया 

हल्लाड़ी घर के पीछे 

बेकार पड़ी है।

 





करते रहो अफसोस


गुरु द्रोण

अपना अंगूठा

तुम्हारी कुटिलता की

वेदी पर चढ़ाने के

बाद भी

मुझे ही लड़ना होगा

युद्ध तुम्हारे खिलाफ

भले ही हारकर

मैं बेमौत मारा जाऊँ

मेरी तर्जनी और मध्यमा में

अभी भी लड़ने की

बहुत शक्ति बची है

और

तुम करते रहो अफसोस

कि

अंगूठे की जगह तुमने

क्यों नहीं माँगा

जड़ से मेरा हाथ...।



गांधी मुझे मिला


गांधी

मुझे मिला

गांधी चौक में

पीपल की छाँव तले

खोमचे के पीछे

ओटले पर खड़ा-खड़ा

अपनी नाक खुजाता

बिना चश्मा लगाए

कभी चाट

कभी फल

कभी चाय

कभी कपड़े

वगैरह बेचता हुआ


वह घिरा था

अपनों से

चेलों से

अनुयायियों से

नेताओं से और

पूंजीपतियों से

इनमें से कोई नहीं चाहता

कि गांधी

दिखाई दे

जनता को और

सार्थक करे चौक का नाम

क्योंकि इसके लिए

किसी न किसी को

करना होता जतन

और यदि कोई जतन होता तो,

घेरा कम होता

धरना अनशन वगैरह के लिए

जगह कम न पड़ती

इसलिए वे नहीं चाहते

कि घेरा कम हो

गांधी जनता को दिखे

भले ही लगाता रहे

गांधी!

खोमचा

रेहड़ी वगैरह वगैरह

और चिल्लाता रहे

”सेब पपड़ी चना चबेना वालाजी“।

 





आंसू खारे क्यों हैं


आँखों से

बहते पानी ने

पलकों से पूछा

मैं खारा क्यों हूँ?


झपकती हुई बोलीं पलकें

सुख-दुख के समन्दर को

खुद में समेट रखा है

हमने


तुम मतवाले हो

मोती बन

हमारी कोर से

लुढ़कते हो ज्योंही

यह सुख-दुःख भी

बारी-बारी

थोड़ा-थोड़ा-सा

उन बूंदों में घुल-मिल

बाहर आ जाता है


यह सुख-दुःख का

समंदर ही

खारा है।




कांच का दरकना 

 

जब

दरकता है काँच

तो

सबको पता चलता है

कि

दरका है

काँच


कुछ टूटा है

छनाक से

जिन्हें दिखता है

वे देखते भी हैं

जो नहीं देख पाते

महसूसते होंगे

शायद!

काँच का दरकना

दरकने की पीड़ा


जो खुद कभी दरका हो

काँच की तरह

दरकने का

दर्द भी जानता होगा

इस दर्द को देखते

महसूसते सब हैं

पर कोई

यह क्यों नहीं पूछता

आखिर काँच!

दरका क्यों?

 

संपर्क

 

मोबाईल - 08224082240

 

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