ओका रुसमिनी की कहानी पुतु ने ईश्वर की मदद की, हिंदी अनुवाद : श्रीविलास सिंह
ईश्वर मानव के लिए एक ऐसी पहेली है जिसका ठीक ठीक जवाब किसी के पास नहीं। अदृश्य शक्ति के प्रति दुनिया भर में एक अजीब सा आकर्षण है। लेकिन एक वर्ग ऐसा भी है जो ईश्वर के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लगाता है। ओका रुसमिनी की कहानी 'पुतु ने ईश्वर की मदद की' एक बेजोड़ कहानी है। छोटी बच्ची पुतु के मन में ईश्वर को ले कर कई सवाल हैं। इन सवालों के ठीक ठीक जवाब उसे नहीं मिल पाते। ऐसे में वह अपनी दादी के साथ जो व्यवहार करती है वह रोंगटे खड़े कर देने वाला है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं एक इंडोनेशियाई कहानी। ओका रुसमिनी की कहानी 'पुतु ने ईश्वर की मदद की' का हिंदी अनुवाद किया है कवि श्रीविलास सिंह ने।
पुतु
ने ईश्वर की मदद की
ओका
रुसमिनी
(इंडोनेशियाई कहानी) बेन रीडर के अंग्रेजी
अनुवाद से।
हिंदी
अनुवाद : श्रीविलास सिंह
[ओका रुसमिनी का जन्म 11 जुलाई, 1967 को जकार्ता
में हुआ था। वे इंडोनेशिया की सुप्रसिद्ध कवि,
कहानीकार, उपन्यासकार, नाटककार और बाल साहित्य की रचनाकार हैं। उनकी रचनाएँ दुनिया भर में अनेक पात्र पत्रिकाओं
में प्रकाशित हुई हैं और उन्हें अनेक पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। जिनमें थाईलैंड का
दक्षिण-पूर्व एशियाई लेखक पुरस्कार 2012 और कविता का प्रतिष्ठित पुरस्कार खातुलिस्तीवा
पुरस्कार, 2014 सम्मिलित हैं। उनके उपन्यास ‘तरियन भूमि’ (पृथ्वी का नृत्य) का अनुवाद
अंग्रेजी और जर्मन भाषाओँ में हुआ है। प्रस्तुत पुरस्कृत कहानी ‘The Lontar
Anthology of Indonesian Short Stories’ से ली गयी है।]
मेरे
दिमाग में इधर काफी समय से कुछ है, कुछ ऐसा जो मुझे परेशान किये हुए है। मैं अपनी बेटी
से चिढ़ी हुई हूँ, उन प्रश्नों से बहुत अधिक चिढ़ी हुई हूँ जो वह पूछती रहती है। उन प्रश्नों
ने मुझे सोचने हेतु कारण दिया है और अब उन्होंने मेरी नींद में व्यवधान उत्पन्न करना
शुरू कर दिया है।
“तुम
प्रतिदिन प्रसाद क्यों तैयार करती हो?” उसने एक दिन मुझसे पूछा। फर्श पर पालथी मारे बैठे और मेरी ओर ताकते हुए,
वह सारी दुनिया को एक कम उम्र लड़के की भांति
देखती है। और हो सकता है जिस ज्योतिषी से मैंने सलाह ली थी उसकी बात सच हो कि मेरी
बेटी के भीतर दो आत्माएं निवास करती हैं, एक लड़के की आत्मा और एक लड़की की आत्मा। यदा
कदा पुतु किसी अन्य चीज से अधिक, किसी शरारती और मुंहजोर लडके की तरह व्यवहार करती
है। लेकिन फिर, अन्य अवसरों पर -वह एक सामान्य लड़की की तरह संवेदनशील और प्यारी होती
है। व्यक्तिगत रूप से मैं सोचती हूँ कि उसके भीतर उसके दो पूर्वजों ने पुनर्जन्म लिया
है और यही बात मेरी अनमोल बच्ची को कभी कभी उसकी उम्र के बच्चों के मुकाबले बहुत अधिक
महत्वपूर्ण बना देती है।
जब
उसने मुझसे वह प्रश्न किया, मैंने उसकी ओर देखा और कहा, “ईश्वर के लिए।” और ध्यान
से उसे देखा। उसकी आँखों की चमक मेरी आँखों
मौजूद सारा प्रकाश सोखती सी महसूस हो रही थी।
“ईश्वर
के लिए, अच्छा?”
“हाँ,
ईश्वर के लिए।”
वह
अपनी ड्रेस के किनारे से खेल रही थी।
“लेकिन
ईश्वर मनुष्य नहीं हैं, क्या हैं? मैं मनुष्य हूँ, मुझे भोजन करना आवश्यक है, क्या
ईश्वर के लिए भी भोजन करना आवश्यक है?”
मैंने
उत्तर नहीं दिया।
“यदि
ईश्वर को भी भोजन करना जरुरी है तो इसका अर्थ है कि वह मनुष्य है।” उसने, मेरी स्कर्ट
पकड़े हुए गम्भीरता से जोड़ा।
“ईश्वर
मनुष्य नहीं हैं!” मैंने तेज़ी से कहा।
“फिर
वह क्या है?” उसने चुनौती सी दी।
मेरे
समक्ष मेरी इस जिज्ञासु बच्ची के लिए स्पष्टीकरण सोचने का कठिन समय था।
“तुम्हें
खाना खाने की आवश्यकता होती है, क्या नहीं होती?” मैंने उससे पूछा।
“हाँ,
लेकिन ईश्वर का क्या?” उसने एक अनपेक्षित तत्कालिकता से लगभग चिल्लाते हुए पूछा।
“जो
प्रसाद मैं तुम्हारे और तुम्हारे पिता के भोजन करने से पूर्व तैयार करती हूँ, वह धन्यवाद
देने का एक तरीक़ा है।”
उसने
मुझे गम्भीरता से देखा। “तो तुम्हारा मतलब है कि तुम्हें ईश्वर को रिश्वत देनी पड़ती
है ताकि तुम्हें तुम्हारा हिस्सा मिल सके?”
मैंने
अपनी आँखें घुमायीं।
“तब
फिर?” उसने मासूमियत से पूछा।
“ऐसा
नहीं है। यह तुम्हारे पिता को एक अच्छी नौकरी उपलब्ध कराने हेतु ईश्वर की प्रशंसा का
प्रतीक है। जिसके कारण वे तुम्हारे लिए अच्छे कपड़े, कैंडी, खिलौने और गुड़िया ला पाने
में सक्षम हुए हैं।”
“अच्छा
यदि तुम हर दिन प्रसाद नहीं बनाती तो क्या ईश्वर नाराज हो जाते?”
“ईश्वर
कभी नाराज नहीं होते।”
“अच्छा,
फिर हर दिन क्यों ऐसा करना?” पुतु ने थोड़े तर्क के साथ पूछा। उसने मेरा हाथ थपथपाया
और फिर मेरी आँखों में झाँका। “माँ” उसने थोड़ा
फुसफुसाते हुए कहा, “कैसा रहे यदि हम ईश्वर की परीक्षा लें?”
मैंने
फिर अपनी आँखें नचाईं। हे ईश्वर! मेरी अनमोल बच्ची के सिर में क्या घुस गया है?
मैंने
धैर्य रखने का प्रयत्न किया। “तुम क्या बात कर रही हो?”
“ईश्वर
की परीक्षा लेने की। क्या उससे वे नाराज़ हो जाएँगे? मैं उन्हें क्रोधित देखना चाहती
हूँ।” फिर वह मेरे कान में बोली, एक और फुसफुसाहट। “लेकिन माँ, तुम्हें सावधान रहना
होगा…..” उसने आँख दबाई; उसकी गोल आँखों में असामान्य सी सावधानी झलक रही थी।
“पुतु
के सवालों से होने वाली मेरी चिड़चिड़ाहट एकाएक उत्सुकता में परिवर्तित हो गयी। “क्यों?”
“हम
ओदाह (दादी) को पता नहीं चलने देंगे।” वह दृढ़ता से फुसफुसाई।
उसकी
दादी को क्यों पता नहीं चलना चाहिए। अब और अधिक उत्सुकता से भरी, मैंने वह प्रसाद जो
मैं बना रही थी किचन में छोड़ दिया और उसके पास वापस आ गयी।
वह
तुम्हारे ऊपर बहुत नाराज़ हो जाएँगी। मैं उनकी आवाज़, जब वे तुम से बात करती हैं, नहीं
पसंद करती।” उसने स्पष्ट किया।” ऐसा लगता है जैसे वे तुम्हें प्यार नहीं करती।”
मैंने उसके स्वर्णाभ गालों पर थपकी दी। मेरा हृदय एकाएक भावातिरेक से आप्लावित हो गया। एक विचित्र प्रकार की प्रसन्नता मेरे अस्तित्व में फैल गयी। मैं जानती हूँ मेरा यह कहना गर्वोक्ति ही लगेगा किंतु एकाएक मैंने महसूस किया कि मैं एक माँ के रूप में सफल हो गयी, ऐसी माँ उसकी कोख से जन्मा हुआ बच्चा उसे इतना प्रेम करता है।
यह
सच था। मुझे माँ होना बहुत प्रिय है, लेकिन मुझे इस स्वप्न तक पहुंचने में कितना समय
लगा, मेरे स्वप्न को मेरी आँखों के समक्ष सच होने में? पुतु के सामान्य से कथन से मैं
गर्व से भर गयी। मैंने आखिर में और सच में अपने को एक माँ महसूस किया। मैं सारी दुनिया
के समक्ष अपनी भावनाएं चीख चीख कर कहना चाहती थी।
मैंने पुतु को कस कर गले लगा लिया और उसके गालों का चुम्बन लिया। मैंने हलके
से उसकी नाक के अग्रभाग पर चुटकी काटी। मैंने कभी कल्पना नहीं की थी कि मेरी कोख से
ऐसा आश्चर्यजनक बच्चा जन्म लेगा; मेरे अस्तित्व को अर्थ प्रदान करने में सक्षम, एक
ऐसा बच्चा जो मुझे इस बात की शक्ति और ज्ञान देगा कि मुझे भी इस दुनिया में एक भूमिका
निभानी है।
“क्या
तुम भी ऐसा ही सोचती हो माँ?” पुतु का प्रश्न मुझे दोबारा वास्तविकता की दुनिया में
ले आया।
मैंने
कुछ नहीं कहा। मैं नहीं समझ सकी कि उसका प्रश्न किस दिशा की ओर इंगित कर रहा है। उसने
आसमान की ओर देखा, अपने नन्हें होठ चबाये और मेरी ओर वापस मुड़ी।
उसने
अनिश्चितता से कहा : “मेरी टीचर ने बताया है कि ईश्वर उन लोगों से प्रेम करता है जो
अच्छे होते हैं और उन लोगों से घृणा करता है जो बुरे होते हैं। ईश्वर होना बड़ा कठिन
होता होगा, हैं न माँ ?”
उसने
अपना सिर खुजाया और मेरी बगल में बैठ गयी। “मैं आश्चर्य कर रही थी कि मैं किस प्रकार
ईश्वर की उनके काम में मदद कर सकती हूँ।” वह इस समय लगभग बुदबुदा रही थी। “इस दुनिया
में कितने बुरे लोग हैं। क्या नहीं, माँ? आप
जानती हैं, यदि ईश्वर ऐसा चाहे, मैं उसकी मदद कर सकती हूँ। तुम क्या सोचती हो, क्या
यह ठीक होगा ?” उसकी ऑंखें उसके प्रश्न के
साथ चमकने लगी।
अभी
भी अपनी बेटी के विचारों की श्रृंखला को न समझते हुए, मैं वहाँ से उठ गयी। उसने मेरी ओर गौर से देखा, फिर मेरा हाथ हिलाया,
और अपने अनुरोध के लिए जबरदस्ती स्वीकृति चाही। बिना जाने कि मेरी स्वीकृति का क्या
परिणाम होगा, मैंने सिर हिलाया। पुतु तब खड़ी हो गयी और प्रसन्नता से चिल्लाई। मैं नहीं समझ पायी कि क्या कहना चाहिए।
मेरी
नींद उस रात सामान्य से भी अधिक बेचैन रही। मेरी बगल में, मेरी ओर पीठ किये वह आदमी गहरी नींद में सो रहा था जिसे मैं प्यार
करती थी। मैंने एक गहरी साँस ली और पढ़ने के लैम्प के बगल में रखी घड़ी पर नजर डाली। एक बज रहा था।
मुझे अपनी ऑंखें बंद कर पाने में कठिनाई हो रही थी।
मेरे
पति ने करवट ली, जब तक कि उनका चेहरा मेरे चहरे के सामने नहीं हो गया। उनकी स्निग्ध
सांसें मेरे गालों को स्पर्श कर रही थीं।
मैंने
उनके चहरे पर हलके से थपकी दी। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि इधर हाल में मेरे साथ
क्या घटित हो रहा था। मैं लगातार अपने को रोने की कगार पर महसूस कर रही थी। कई बार मैंने अपने को गंभीर और पीड़ादायक दुःख की
अनुभूति से अवश पाया, बिना किसी पूर्व चेतावनी के। यह ऐसा था मानों मैं किसी जीवन बदल
डालने वाली स्थिति का सामना करने का अनुभव करने जा रही थी। किन्तु मैं नहीं जानती थी
थी कि क्या घटित होने वाला था। बस इतना जानती
थी कि शीघ्र ही भविष्य में मैं कुछ ऐसा अनुभव करने जा रही हूँ जो मुझे रुला देगा। लेकिन वह क्या था, मैं कह नहीं सकती थी।
मैंने
वापस अपने पति के चहरे की ओर देखा और महसूस किया कि दिन भर के काम के पश्चात् वे कितने
थके हुए लगते हैं। लेकिन वे उन लोगों में थे जो कभी शिकायत नहीं करते।
“उन्होंने
मेरा प्रस्ताव स्वीकार कर लिया है, रति।” वे एकमात्र शब्द थे जो उन्होंने मुझ से कहे
थे, जिसका अर्थ था कि वे अब पूरे दिन घर बिलकुल नहीं रहा करेंगे।
हमें
एक साथ रहते छः वर्ष हो गए थे। जब मैं बच्ची थी तभी से मैंने अपने जीवन की योजना बनायी
थी। हमेशा कोशिश की थी कि मैं वह लक्ष्य प्राप्त कर लूँ जिसे मैं पाना चाहती थी। मैं
हमेशा भविष्य के बारे में सोचा करती थी। जीवन, मेरे लिए, लक्ष्यों से भरा हुआ था।
जब
मैंने उस व्यक्ति का चुनाव किया, जिससे मैं विवाह करना चाहती थी, विश्वविद्यालय में
मेरी एक मित्र और सहपाठी ने मेरे चयन की जोरदार आलोचना की थी। “क्या! तुम उससे विवाह
करना चाहती हो रति ?” वह चीखी थी। “क्या तुम
पागल हो! तुम खाओगी क्या?” उसने मेरी ओर गंभीरता से देखा था। “क्या तुम एक पत्रकार की जीवन शैली के लिए तैयार
हो ?”
मैंने
उत्तर में अपने कंधे उचकाए। मैं नहीं जानती
तब मैं क्या सोच रही थी। जो सब कुछ मैं उस समय जानती थी वह यह था कि वह सबसे बेहतर
व्यक्ति था जिसे मैंने कभी जाना था। वह मेरी समस्याओं, मेरी असुरक्षाओं और मेरे भावनात्मक
उतार चढाव को समझता था। जब मैंने उसे चुना
तब मुझे कोई विचार नहीं आया था कि जो कुछ मैं महसूस कर रही थी वह सच्चा प्यार था। मेरे
पास उस प्रश्न का उत्तर देने का साहस नहीं था। उन सभी पुस्तकों से, जो मैंने पढ़ी थीं,
मैं सिर्फ इतना समझ सकी थी कि सच्चे प्यार जैसी कोई चीज नहीं होती है। प्यार धीरे धीरे
हल्का पड़ कर गायब हो जाता है; जैसे एक हनीमून को समाप्त हो जाता है उसी तरह प्यार भी
बीत जाता है - कम से कम किताबें यही कहती थीं। मैं बस नहीं जानती थी कि तब मेरे मस्तिष्क
में क्या था, जब मैंने उसे चुना।
मैं
जब स्मरण करती कि किस प्रकार उसने मुझे प्रोपोज किया था तो मैं केवल हँस सकती थी।
“मेरे
पास तुम्हारे लिए कोई सुन्दर सी कविता नहीं है, रति। मैं सही शब्दों का चुनाव भी नहीं कर पा रहा। लेकिन तुम क्या कहोगी यदि मैं कहूं कि मैं तुम से
विवाह करना चाहता हूँ ?”
मैं
हँसी थी। “और क्या तुम मुझ से आज ही विवाह
करना चाहते हो?”
वह
भी हँसा था। “मैं तुम्हें इस बारे में सोचने के लिए एक सप्ताह का समय दूंगा और तुम
जो भी निर्णय लोगी, उसे स्वीकार कर लूंगा। कल का दिन व्यस्त होगा क्योंकि तुम्हें मैं अपने परिवार से परिचित कराना चाहता
हूँ।” कोई बनावटी औपचारिकताएं नहीं थी; उसने बस मेरे गालों का चुम्बन लिया और एक समाचार
के सम्बन्ध में काम करने चला गया। कहानी, उसने बताया, अगले दिन की सुर्खी बनेगी। और
यदि ऐसा हुआ, तो वह एजेंसी के बाली प्रतिनिधि कार्यालय का प्रमुख बना दिया जायेगा।
चाहे
जो भी कारण रहे हों, मुझे उसका मुझ से कहने का तरीका और उसकी मेरे प्रति स्पष्टता दोनों
पसंद आये। वह उस तरह का पुरुष था जो मुझे चाहिए था, जो मुझे आदेश देता न घूमता।
अगले
दिन, पूरा दिन मैंने उसके परिवार से परिचय करते बिताया।
विवाह
हुआ और समारोह मेरे जैसे व्यक्ति के लिए, जो राजसी ठाट से पला बढ़ा हो, अत्यधिक सादगी
वाला था। बस एक छोटा सा समारोह। कोई विशाल भोज नहीं जो मेरे परिवार में होते थे, उच्च
कुल की बेटियों के विवाह के उपलक्ष्य में।
अपने
पति के परिवार का सदस्य होना मेरे लिए विचित्र अनुभूति थी। और जिस तरह का व्यवहार मेरी
तीन ननदों ने मेरे साथ किया, मुझे संकेत मिल गया कि किस तरह का जीवन मेरे आगे आने वाला
है।
“मेरी
बहने जरा तेज जुबान की हैं लेकिन मैं सोचता हूँ तुम उन के साथ निभा ले जाओगी।” मेरे
पति ने मुझे चेतावनी दी थी।
मैंने
बस सिर हिलाया था।
उच्च
कुल की बेटी हो कर एक सामान्य परिवार में विवाह करने के कारण, मुझे अपने तौर तरीके
पूरी तरह से परिवर्तित करने पड़े। अतीत में मेरे चारो ओर नौकर चाकर रहते थे, वे मेरा
भोजन तैयार करते थे, मेरा बिस्तर बिछाते थे। मेरा जीवन केवल मेरा कैरियर था। सभी छोटे मोटे काम परिवार के नौकर करते थे।
अब हर चीज परिवर्तित हो गयी थी। मुझे ही कपड़े धोने और प्रेस करने थे, मुझे ही ऐसे किचन
में खाना बनाना था जो मेरे लिए बहुत ही गन्दा था।
मुझे ईंधन के रूप में लकड़ी का प्रयोग करना था, जिसका धुआँ मेरे लिए साँस लेना
मुश्किल कर देता था और मेरा दम घुटने लगता था। लेकिन यह सब मेरी सास की टिप्पणियों के मुकाबले कुछ नहीं था।
“तुम अब मेरे बेटे की पत्नी हो और तुम्हें काम उस तरह से करने पड़ेंगे जैसे हम करते हैं।” वे मेरी ओर शंकालु नज़रों से देखते हुए मुझे याद दिलाती।
मैं
बस सिर हिला देती और इस बारे में अपने पति से कुछ न कहती, हमेशा अपने को यह समझाने
का प्रयत्न करते हुए कि जब कोई स्त्री विवाह करती है तो उसे एक बार फिर से शून्य से
प्रारम्भ करना होता है। मैं अपने को पुनः विश्वास दिलाती कि मैंने सही चुनाव किया है
और मैं उस शून्य को नंबर एक में परिवर्तित कर पाने में सक्षम होउंगी और नंबर एक से
कुछ और आगे जब तक मैं अपने स्वप्नों का शिखर नहीं पा लेती।
मैंने
फिर अपने पति की ओर देखा और अपनी बांहें उनकी दुबली देह से लपेट ली। मुझे मेरे गुप्त बोझ से मुक्त होने का यही एकमात्र
रास्ता पता था।
विवाह
के एक वर्ष के पश्चात् मैंने उनसे पूछा कि अब उनके सपने क्या हैं।
“मैं
सिर्फ तुम्हें खुश देखना चाहता हूँ।” उन्होंने कहा।
“क्या
यही सब कुछ है? और कुछ नहीं?”
“कि
हमारा बच्चा एक लड़की हो।”
मैं
उनके जवाब से थोड़ी उलझन में पड़ गयी। एक लड़की? लड़कियों के कितने कम अधिकार होते हैं। मेरे पति एक लड़का क्यों नहीं चाहते? एक लड़का जो
मेरी वृद्धावस्था का रखवाला बनेगा। लेकिन लड़की? क्या होगा यदि उसकी शादी हो जाएगी और
उसका पति उसे ले कर दूर चला जायेगा? फिर उसकी अपनी दुनिया होगी, अपना अलग परिवार होगा। मेरा क्या होगा? मैंने अपने इस विचार पर बुरा सा
मुंह बनाया।
“क्या
गड़बड़ है?” मेरे पति ने मुझसे पूछा। “क्या तुम्हारा पेट ख़राब है?”
“नहीं,
तुम और क्या चाहते हो?” मैंने फिर पूछा, यह आशा करते हुए कि वे कहेंगे एक घर, सब से
छोटा ही सही, जब वह केवल हमारा होगा। फिर मैं
खुद उसका ध्यान रख सकूंगी।
उस
पारिवारिक घर में जहाँ हम रहते थे, मैं कुछ भी अपनी इच्छा से नहीं कर सकती थी। एक दिन
मैंने गुड़हल के सात पौधे घर के पीछे की ओर मंदिर के पास लगाने के लिए ख़रीदे ताकि देखने
में थोड़ा अच्छा लगे। मैंने चमकदार रंग के फूलों
वाली प्रजातियां पसंद की ताकि उनके फूल बालों में भी सजा सकूँ। बाली के लोग जिन तमाम समारोहों में हिस्सा लेते
हैं उनके लिए वे एकदम सही रहेंगे।
मैंने
उन पौधों को रोपने में पूरा दिन लगा दिया और काम करते हुए मैंने घर की तीन और युवा
लड़कियों के बारे में सोचा जिनमें से किसी का जरा सा भी रुझान उनके पारिवारिक घर को
सुन्दर बनाने की ओर नहीं था। मेरी तीनों ननदें सुन्दर थीं और बहुत अच्छे से कपड़े पहनती
थीं। लेकिन उनका सुंदरता का भाव कहाँ था? मैं
सिर्फ आह भर सकती थी। उस दिन शाम छः बजे मैंने अपना पौधे रोपने का काम समाप्त किया।
लेकिन फिर......
अगली
सुबह बहुत तड़के ही मेरी सास मेरे कानों में चीख रही थीं। उन्हें मेरी फूलों की पसंद से घृणा थी और उन्होंने
कहा की उनका घर कोई जंगल नहीं हैं और निश्चत ही किसी उच्च कुल वाले का घर तो कतई नहीं।
वे लगातार कहती ही गयीं।
एक
बात जो वे मुझे दुखी करने के लिए अक्सर कहती थी वह था मेरा उच्च कुल का होने की बात।
मैंने उन्हें अक्सर अपनी बेटियों, मेरी ननदों, से कहते सुना था, “यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण
होता है कि उच्च कुल की कोई लड़की किसी सामान्य परिवार में विवाह कर ले।”
मुझे
अक्सर अन्य समस्याओं के लिए भी बलि का बकरा बनाया जाता था। उदहारण के लिए मेरी सास
अक्सर मेरी ननदों, मादे, न्योमान और केतु से कहतीं कि उनके योग्य वर मेरे कारण नहीं
मिल पा रहे हैं। “यदि गेदे ने एक उच्च कुल की लड़की से विवाह न किया होता निश्चय ही
अब तक तुम लोगों का विवाह हो गया होता।” मेरी सास ने उन्हें यह भी बताया था कि उच्च
कुल की स्त्रियों में पराभौतिक शक्तियां भी होती हैं इस कारण जब भी मैं कोई चीज रोपना
चाहती एक छोटा मोटा युद्ध प्रारम्भ हो जाता।
अपनी
पराभौतिक शक्तियों द्वारा, वे कहती, मैं पौधों के रूप में वे शक्तियां रोप रही हूँ
ताकि घर पर नियंत्रण कर सकूँ। ईश्वर की सौगंध, मैंने बस दांत पीसे और उसे बर्दास्त
कर लिया जब मैंने उन खूबसूरत पौधों को जमीन से उखाड़े जाते हुए देखा। मैंने अपने उन
सातों गुड़हल के पौधों की पत्तियों की नोक और कलियों से आँसू झरते हुए महसूस किया।
कोई
तार्किक मस्तिष्क इस तरह के कारण नहीं स्वीकार करेगा किन्तु अंत में, इस घटना के कारण
मैंने अपने को कुछ भी रोपने से रोक लिया।
कालांतर
में मैंने एक बच्चे को जन्म दिया और मेरा बच्चा सचमुच में एक लड़की थी। पहले मैं थोड़ी
निराश हुई पर वह अनुभूति शीघ्र ही गायब हो गयी जब मैंने अपने ह्रदय के टुकड़े का स्पर्श
किया।
“बस
प्रतीक्षा करो,” मेरे पति ने कहा, “वह तुम्हारी रक्षक बनेगी। मेरी माँ इसके मुकाबले कुछ नहीं रहेंगी। यह मेरी
बहनों से भी अधिक तुनक मिजाज होगी!” उसकी ऑंखें
चमक रही थी जब वह लगातार मेरे होठ चूम रहा था। मैं इतने अधिक लाड़ से असहज महसूस कर
रही थी लेकिन लग रहा था मेरे पति को किसी की परवाह नहीं थी।
यही
वह क्षण था जब मैंने अपने सद्यजात बच्चे को गले लगाया, और पुत्र के लिए मेरी कामना
समाप्त हो गयी। हो सकता है यह बच्ची मेरी ननदों के तानों से मेरी रक्षा करने सक्षम
हो।
सौभाग्य
से पुतु के जन्म के पश्चात् मेरी ननदों का भी विवाह हो गया। इससे बहुत बड़ी राहत मिली
किन्तु अब मैं अपनी सास, जो दिनों दिन और अधिक खब्ती होती जा रहीं थी और उन्हें और
अधिक शिकायतें रहने लगी थी, के साथ अकेले थी।
“क्या
गड़बड़ है?” मेरे पति ने पूछा। “तुम इतनी दुबली होती जा रही हो। क्या तुम खुश नहीं हो?”
मैं
उन्हें परेशान नहीं करना चाह रही थी, इसलिए मैंने कुछ नहीं कहा किन्तु मैंने उनका दाहिना
हाथ कस कर पकड़ लिया।
“तुम
दुखी हो। मुझे बताओ क्या बात है?”
“कुछ
भी नहीं,” मैंने उन्हें अपनी बाँहों के घेरे में लेते हुए धीरे से कहा।
“मुझे
अगले महीने से यहाँ एक प्रतिनिधि कार्यालय खोलने के लिए कहा गया है,” उन्होंने ऐसे
बताया जैसे यह कोई खास बात न हो।
मैंने
उन्हें घूरा। वे हमेशा से ऐसे ही थे, बहुत संकोची, कभी उन तमाम शानदार उपलब्धियों के
प्रति किसी भावना का प्रदर्शन न करते हुए जो उन्होंने अपने क्षेत्र में प्राप्त की
थी।
यद्यपि
मैं अपनी जाति के पुरुष से विवाह न करने के कारण अपने परिवार से बहिष्कृत कर दी गयी
थी, विवाह के दूसरे वर्ष मुझे विश्वास हो गया कि मेरा चुनाव सही था और मैं वह सब ख़तरे
उठाने को तैयार थी जो मेरे चुनाव के कारण मेरी राह में आने वाले थे।
मेरे पति उसी तरह के व्यक्ति थे जिसकी मुझे आवश्यकता थी, मेरी अपनी भावनाओं को नियंत्रण में रख सकने वाले। जब मैं उन से पहली बार मिली थी, मैं बहुत भावुक व्यक्ति थी और उनमें मेरी बिलकुल रुचि नहीं थी। वे मेरी शर्तें बिलकुल पूरी नहीं करते थे। वे महत्वकांक्षा विहीन और विचित्र से लगते थे। यद्यपि, सच यह है कि, जब मैंने उन्हें जाना तब मुझे पता चला कि वे आश्चर्यजनक थे। उनका मेरी आलोचना करने का तरीक़ा कभी भी निर्णयात्मक नहीं होता था। उनके प्रश्न सदैव तार्किक होते थे। वे मेरे मस्तिष्क को छेड़ते थे और मुझे विमर्श हेतु प्रेरित करते थे। उनके साथ मैं कुछ भी कहने को स्वतंत्र महसूस करती थी।
मुझे
एक बार की याद है जब हम कैरियर के चुनाव के सम्बंध में बात कर रहे थे। मैं इंडोनेशिया
विश्वविद्यालय से अपनी शिक्षा जारी रखने हेतु जकार्ता जाने की सोच रही थी। मैंने तर्क
दिया कि विश्वविद्यालय का शिक्षक होने के नाते यह मेरा कर्तव्य था कि मैं अध्ययन करती
रहूँ।
“निश्चय
ही, तुम्हारे जीवन का एक ख़ाका होना चाहिए। जिसे उपलब्ध कराना शिक्षा से अपेक्षित है,
किंतु तुम्हें चीज़ों की वास्तविकता को भी स्वीकार करना चाहिए। ऐसा लगता है कि तुम
बहुत ठीक कर रही हो किंतु फिर भी तुम प्रसन्न नहीं दिखती हो। तुम में क्षमता है, मुझे
पता है और बहुत उत्साह भी है। मुझे पता है कि लक्ष्य महत्वपूर्ण होते हैं किंतु मैं
यह भी जानता हूँ कि किसी को उस लक्ष्य का पीछा नहीं करना चाहिए जिसे प्राप्त करने में
वह सक्षम न हो। जीवन में सफलता के अतिरिक्त भी बहुत कुछ है।”
उनके
उत्तर से मुझे स्मरण हुआ कि जीवन में शिक्षा और कैरियर के अतिरिक्त भी चीज़ें हैं।
उनके शब्दों ने मेरी आँखें खोल दीं और साथ ही मुझे उनके और क़रीब ला दिया। मैंने देखा
कि ईश्वर ने मेरे लिए एक राजकुमार भेज दिया है। शायद वे ग़लत जाति के थे, शायद उनकी
धमनियों में कुलीन रक्त नहीं था, फिर भी, मुझे पता था कि वे मेरे बच्चों के लिए सब
तरह से पूर्ण पिता होंगे। और उस निर्णय का अनुगमन करते हुए मेरी कोई भी स्वतंत्र और
एकाकी जीवन की कामना तिरोहित हो गयी।
मैंने
अपनी बच्ची का एक प्रेरणादायी नाम रखा, पुतु परमेश्वरी देवी। और जब वह शिशु ही थी,
तभी से मैं उसकी सावधानीपूर्ण बुद्धिमत्ता को नोटिस करने लगी थी। मैं चाहती थी वह
मेरी श्रीखंडी बने, एक स्त्री योद्धा, जो मेरे जीवन के सभी भयों को जीत ले ।
मेरी
बेटी की आवाज़ ने मुझे मेरी विचारमग्नता से बाहर निकाल कर भौचक्का कर दिया। "माँ
तुम कभी मुझे मेरी दूसरी ओदाह से मिलवाने क्यों नहीं ले जाती?”
“ओदाह?
कौन सी ओदाह? “ओदाह” एक शब्द था जो केवल दादी और एक ही पृष्ठभूमि की बुज़ुर्ग महिलाओं
के लिए प्रयुक्त होता था। “क्या तुम मेरी माँ के बारे में बात कर रही हो? यदि ऐसा है
तो तुम्हें उन्हें ‘नियाँग’ बुलाना चाहिए, क्योंकि मेरी माँ एक उच्च कुल की महिला हैं
और तुम उन्हें ओदाह नहीं कहना चाहिए। और जब तुम उन से बात करो, नियाँग के पहले ‘रातु’
लगाओ जो कि सम्मान का सही शीर्षक हैं।
मैं
अपने उच्च कुल के परिवार की वितृष्णा, जो उन्हें मेरी माँ के लिए ‘ओदाह’ सम्बोधन को
सुन कर होगी, की कल्पना नहीं कर सकती थी। उनकी आँखें उनके सिरों से बाहर निकल आएँगी।
मैं इस विचार मात्र से सिहर गयी ।
“मैं
अपनी दूसरी ओदाह से, तुम्हारी माँ से, मिलना चाहती हूँ।” पुतु ने ज़िद की। “मुझे यहाँ
वाली ओदाह पसंद नहीं है। हम कब जा सकते हैं। मेरी पाँच साल की बेटी ने ज़िद की और मेरे
वस्त्र पकड़ लिए।
अपने
माता-पिता के जाना? पुतु का अनुरोध सुन कर मुझे अपने चेहरे से रक्त सूख गया सा महसूस
हुआ। क्या मैंने अपने आप को जानबूझ कर उस घर से अजनबी नहीं बना लिया है जहाँ मेरा लालन
पालन हुआ था? मैंने समान जाति के व्यक्ति से
विवाह न कर के अपने उच्च कुल के परिवार का नाम डुबोया था।
“माँ….”
पुतु ने मेरी ओर देखा और मेरी गोद में बैठ गयी।
“अब
तुम क्या चाहती हो?” मैंने उसके लम्बे बालों पर थपकी दी। वह कितनी सुंदर थी। मैं चाहती
थी वह एक नृत्यांगना बने, बाली की प्रसिद्ध नृत्यांगना जिसमें देवताओं की नृत्य कला
हो। मैं चाहती थी कि वह एक ऐसी स्त्री हो जो अपने पूर्वजों की परम्पराओं और संस्कृति
को जानती हो। मैं चाहती थी वह ऐसी स्त्री हो जो अपनी उपलब्धियों, अपनी क्षमताओं के
लिए जानी जाए, बस इसलिए नहीं कि उसके पिता एक प्रसिद्ध पत्रकार थे अथवा उसकी माँ उच्च
कुल की थी……”
पुरु
का मुँह मेरे कान के पास था। “जब मैं बड़ी हो जाऊँगी, मैं महल में अपनी ओदाह से मिलने
जाऊँगी। वह बुरी नहीं है, क्या है, जो यहाँ उन की तरह है?”
मैंने
एक लम्बी साँस ली और उसके कान चूम लिए। उस की मासूमियत फैल कर मेरी देह और मेरी हड्डियों
में प्रवेश कर गयी। मैं फिर से वही प्रसन्नता की अनुभूति करने लगी। मैंने महसूस किया
कि मैं शब्द के पूर्ण अर्थ में स्त्री हो गयी हूँ।
जब
मैं अपने बीस के दशक में थी, विवाह का विचार कभी मेरे मस्तिष्क में नहीं आया। एक आदमी
से सदैव के लिए बँध जाना? मैं इसकी कल्पना भी नहीं कर सकती थी। वर्षों साथ रहने के पश्चात मेरे पास
उस से कहने को क्या होता? नहीं, विवाह की मेरी कल्पना बहुत सुखद नहीं थी। मैं एक आदमी
के साथ कैसे इतने सारे साल रह सकती थी?
मैंने
कभी सोचा नहीं था कि एक दिन मैं ‘महिलाओं के मसले’ निपटा रही होऊँगी— एक रोते हुए बच्चे
को चुप कराती हुई जब कि मेरी इच्छा एक नयी किताब में डूब जाने की या किसी सेमिनार के
लिए निबंध तैयार करने की या बस बाग़ीचे में टहलने की अथवा दिन भर पढ़ने पढ़ाने के पश्चात
पूल में पाँव ठंडे करने की होती।
हाँ, मैं स्वीकार करती हूँ, वे मधुर स्मृतियाँ थी, किंतु
अब मेरे पास कुछ उससे भी मधुर था और मैं अपने को पूर्णतः आपूरित महसूस करती थी।
एक
दिन मेरी सास ग़ायब हो गयीं। पहले मैंने और मेरे पति ने सोचा कि वे अपनी बेटियों के
घर मिलने गयी होंगी और हमें अपनी योजना बताना भूल गयी होंगी। जो कि उनके लिए असामान्य
नहीं था। फिर, जब एक सप्ताह का समय बीत गया और उनका कोई समाचार नहीं आया तब मेरे पति
को संदेह होने लगा कि उनकी बहनें जानबूझ कर उन्हें हमसे दूर रखना चाह रही थी।
“कौन
जाने वे हमारे ख़िलाफ़ साज़िश भी कर रही हो,” उन्होंने कहा। “तुम जानती ही हो वे तुम्हारे
लिए क्या क्या करती हैं।”
यह
सच था। अपने विवाह के बाद से ही मैं अच्छी बहू बनने हेतु प्रयत्नशील थी, समय के साथ
मेरी सास का रूख मेरे प्रति परिवर्तित भी होने लगा था। किंतु ठीक उसी बिंदु पर, जब
वे मेरे साथ अच्छा व्यवहार करने लगतीं, मेरी ननदें पानी को गंदा कर जातीं।
“माँ
तुम्हें दायू रती का विश्वास नहीं करना चाहिए,” एक दिन मैंने अपने कान से उन्हें कहते
हुए सुना। "तुम्हीं ने कहा था न कि उसके पास जादुई शक्तियाँ हैं। क्या तुम ने
नहीं कहा था कि दायू रती इस घर पर नियंत्रण करना चाहती है?”
“मैं
नहीं समझती कि यह सच है,” मेरी सास ने मेरे बचाव में कहा। उनके मुँह से वे शब्द सुन
कर, मैंने अपने घर में पहली बार ख़ुशी महसूस की थी।
“उदाहरण
देख लो, कैसे उसने नन्ही पुतु को तुम्हारे विरुद्ध बहका दिया है।”
वह
निश्चय ही मज़बूत तर्क था, क्योंकि उसके पश्चात मेरी सास ने मेरा पकाया हुआ खाना खाना
बंद कर दिया। हमारे सम्बंध, जिनमें कुछ गर्माहट आनी शुरू हो गयी थी, फिर ठंडे पड़ने
लगे और जल्दी ही पूर्णतः समाप्त हो गए।
“मैं
उन्हें उनके घर खोजने जा रहा हूँ,” मेरे पति ने घोषणा की।
लेकिन
स्थिति की वास्तविकता? अपनी बहनों के घर ढूँढ कर और उन पर उनकी माँ को छिपाने का आरोप
लगाने के पश्चात उन्हें पता चला कि वे उन सब के यहाँ भी नहीं थी। मेरी सास सचमुच में
खो गयी थी। बुजुर्ग लोगों ने सलाह दी कि हमें एक मध्यस्थ से पूछताछ क़रनी चाहिए फलस्वरूप
मैं सभी तरफ ऐसे लोगों से मिलने गयी, जो कि मेरे लिए, बस कुछ बहुत वृद्ध लोग मात्र थे। यद्यपि मैं उन लोगों की तथाकथित पराशक्तियों के
प्रति पूरी तरह शंकाग्रस्त थी, फिर भी जब मैं उनमें से किसी एक से मिलती, मेरा हृदय मेरी दुश्चिंताओं और भय के कारण जोर से धड़कने लगता था।
मेरी
सास का गायब होना बड़ी खबर बन गया। आखिर कोई व्यक्ति किस प्रकार एकदम से ऐसे बस गायब
हो सकता है? फिर एक दिन, उनके गायब होने के एक महीने बाद, मुझे मकान के पार्श्व से
किसी चीज के सड़ने की दुर्गन्ध महसूस होने लगी। मेरे पड़ोसी भी ऐसा महसूस करने लगे और
यह पूछने के लिए मेरे पास आए कि कहीं मैंने हमारे किसी मरे हुए कुत्ते को कूड़े के लिए
आरक्षित जगह पर तो नहीं फेंक रखा था।
उस
दिन मेरे पति अपने काम से जब वापस घर आए, मैंने उनसे इस सम्बन्ध में पूछा। “उस कुत्ते
को जो मर गया था, आप ने कहाँ ले जा कर फेंका था?” भावनावश मेरी आवाज़ भर्रा गयी।
“नदी
के पास,” उन्होंने कहा।
“आप
झूठ बोल रहे हैं!” मैंने आरोप लगाया लेकिन वे बस मुस्कराते रहे और मेर ठुड्ढी को अपनी
उंगली से थपथपाया।
फिर
उन्होंने मुझे अपनी बांहों में ले कर मेरा दृढ आलिंगन किया। “तुम ठीक तो हो?” उन्होंने पूछा।
“कोई
बात नहीं, मैं बस उस भयानक दुर्गन्ध के कारण पूछ रही थी,” मैंने अपना सिर हिलाया।
“मुझे
पता है, लेकिन बाथरूम का रुका हुआ पानी भी सड़ी गंध देता है।”
वे
ठीक कह रहे थे, लेकिन मैंने ऐसा पहले से ही मान लिया था क्योंकि लम्बे समय से बारिश
न होने के कारण कुंआ भी सूख गया था। फिर कोई बात मुझे एकाएक सूझी। मैंने अपने को उनके
आलिंगन से मुक्त किया और कुएं की ओर भागी।
“यह
दुर्गन्ध यहीं से आ रही है!” मैं कुएं के किनारे पंहुचते ही चिल्लाई। मेरे पति ने
कुएं में झाँका फिर अपनी नाक बंद कर ली।
मैं
जा कर 'कोब्योर', कुआँ साफ़ करने वाले को बुला कर लाता हूँ।”
मैंने
उनके सुझाव पर सिर हिलाया और फिर मैंने अपना ध्यान अगले दिन के एक नाट्य शास्त्र सम्बन्धी
व्याख्यान हेतु नोट्स की तैयारी में लगा दिया।
फिर
मेरे पति 'कोब्योर' को ले कर आये जो एक भयानक सा दिखने वाला व्यक्ति था और उसके चहरे
पर झुर्रियां पड़ी थी और उसकी त्वचा काले रंग की थी। उसने आते ही अपना कार्य प्रारम्भ
कर दिया और कुएं की गहराई में उतर गया। मैं ऐसे किसी स्थान में प्रवेश करने के विचार
मात्र से ही कांप गयी।
लगभग
पाँच मिनट के पश्चात् ही वह मेरे पति का नाम पुकारने लगा। उस दुर्गन्ध का स्रोत, जैसा
कि पता चला, वही महिला थी जिसे मैंने बस अभी कुछ समय पहले ही प्रेम करना शुरू किया
था, मेरी सास का सड़ती हुई लाश।
अन्त्येष्टि क्रिया, जितना संभव था उतनी तेजी से की गयी। हमने मकान की तमाम जमीन के शुद्धीकरण का
अनुष्ठान भी कराया। फिर हम ने पुराने कुएं को बंद करवा कर एक नया कुआँ खुदवाया।
उस
महीने में जब मैंने अपनी सास के मृत शरीर का पता लगाया था, मैं इन्हीं मामलों में इतना
व्यस्त रही कि मुझे पुतु के साथ बिताने के लिए लगभग बिलकुल भी समय नहीं मिला और न ऊर्जा
ही। अंततः जब काम कम हो गया, मैंने अपनी बेटी के बारे में सोचा और यह भी कि मैं किस
तरह उसकी उपेक्षा करती रही थी। मुझे उससे बात करने और उसे कहानियां सुनाने हेतु पुनः
उत्कंठा होने लगी।
उस
सुबह वह मंदिर के पास पेड़ों से गिरी पत्तिया उठाते हुए खेल रही थी। मुझे देख कर वह जोर से मुस्करायी।
मेरा
हाथ अपने हाथ में ले कर उसने शांति से मेरी ओर ऊपर देखा। “तुम्हें पता है, ओडाह के
साथ क्या हुआ था, नहीं पता है न माँ? यह मैंने किया था, माँ। मैंने ईश्वर की मदद की
थी और मैंने उन्हें कुएं में धकेला था।”
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(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्व विजेंद्र जी की हैं।)
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