प्रेमकुमार मणि 'गांधी : हिन्द स्वराज से ग्राम स्वराज तक'

 


 

गांधी जी निर्विवाद रूप उपनिवेशवाद से  राष्ट्रीय संघर्ष के सब से बड़े नेता थे। लगभग सभी नेताओं ने उन्हें अपना नेता स्वीकार किया। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का यह युग गांधी युग के नाम से भी जाना जाता है। गांधी जी की सबसे बड़ी मजबूती यह थी कि वे जनता के मनोभावों को बेहतर तरीके से समझते थे। उनकी जड़ें जनता के बीच थी। और शायद यही कारण था कि वह अपने जीवन काल में ही अपने राजनीतिक उद्देश्य को हासिल कर सके। अनहद का हालिया प्रकाशित विशेषांक गांधी जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर ही केंद्रित है इस अंक में प्रेम कुमार मणि का एक आलेख प्रकाशित है। आज गांधी जयंती के अवसर पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं प्रेम कुमार मणि का आलेख 'गांधी : हिन्द स्वराज से ग्राम स्वराज तक'।




गांधी : हिन्द स्वराज से ग्राम स्वराज तक

 

प्रेमकुमार मणि

 

 

 

कार्ल मार्क्स कहा करते थे मैं मार्क्सवादी नहीं हूँ, और मोहनदास गांधी ने कभी गांधीवाद जैसी किसी चीज को स्वीकार नहीं किया। वह कहते थे मेरा जीवन ही मेरे विचार हैं। जीवन से मतलब उनकी जीवन-शैली यानि कर्म थे। वह कर्म पर विश्वास करते थे और उस वायवी विचार या विचारों की सरणी का उनके लिए कोई महत्व नहीं था, जिन्हें कभी जमीन पर उतारा जा सके। लेकिन यह मानना कि उनके कोई विचार नहीं हैं, एक भूल होगी। लिखित रूप में भी, जहाँ तक मेरी जानकारी है, उनका विपुल साहित्य कोई नब्बे खण्डों में प्रकाशित है। यह सही है कि गाँधी के अनुयायियों ने उन्हें उनके जीवन काल में ही पूजा का पात्र बना दिया था, इसलिए उनके प्रकाशित नब्बे खंडों में विपुल मात्रा में सामान्य चीजें ही होंगी। लिखी गई या प्रकाशित हुई हर चीज महत्वपूर्ण ही नहीं होती। उनकी चुनी हुई रचनाओं का एक विशद संकलन नवजीवन पब्लिशिंग हाउस (अहमदाबाद) ने अंग्रेजी में किया है, जो पांच खण्डों में है। उनकी आत्मकथा और पत्राचार-संकलन के अलावे उसके तीसरे वॉल्यूम में उनकी आधार रचनाएं हैं। इसमें निम्नलिखित सात पुस्तकें हैं, जिन्हें पुस्तिकाएं कहना अधिक सही होगा।

 

 

1 . Ethical Religion

2 . Unto This last : A Paraphrase

3 . Hind Swaraj

4 . From Yervada Mandir

5 . Discourses on the Geeta

6 . Key to health

7 . Constructive Programme

 

 

गांधी के मौलिक विचार इन्हीं पुस्तिकाओं में सन्निहित हैं। उपरोक्त सातों किताबें कुल मिला कर तीन सौ सात पृष्ठों में हैं और आप देख सकते हैं कि इनमें से दो, अन्टू दिस लास्ट (जॉन रस्किन) और गीता (हिन्दू धर्मशास्त्र मद्भगवत्गीता) पर उनकी व्याख्या है। स्वास्थ्य और कार्यक्रम पर दो किताबें हैं। एक किताब नैतिकता पर है। शेष एक किताब है 'हिन्द -स्वराज' जिसे उनकी वैचारिक थाती माना जाना चाहिए। प्रतिष्ठित गांधीवादियों का भी यही कहना है कि गांधी के मूल विचार इसी पुस्तिका में हैं। उनके कार्यक्रम और उनकी जीवन शैली तो बस इसकी व्याख्या-विस्तार है। जैसे-जैसे समय बीत रहा है, गांधीवादी इस पुस्तक का महत्व अधिक गहरा होते अनुभव कर रहे हैं। उनके समस्त विचारों की यह कुंजी है, इस पर लगभग सर्वानुमति है।

 

 

यह किताब 1909 ईस्वी में लिखी गई थी।  गाँधी तब जल- जहाज द्वारा लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौट रहे थे।  भारत और दक्षिण अफ्रीका में हिंसावादी पंथ के लोग अपने-अपने तरीके से मुक्तिसंग्राम कर रहे थे।  गाँधी अनुभव कर रहे थे कि हिंसक और अराजक विचारों से लड़ी जाने वाली लड़ाई कोई बड़े अर्थ नहीं दे सकती। वैष्णव संस्कारों में विकसित उनका दिल-दिमाग इस रास्ते का समर्थन नहीं कर पा रहा था।  हिंदुस्तान के आम आदमी, जो मुख्य रूप से किसान के रूप में थे, को वह देख रहे थे।  उन्हें महसूस होता था, यह तबका हिंसक आंदोलनों में बहुत समय तक नहीं टिक पाएगा। तत्कालीन हुकूमतों को इन्हे कुचलने का एक बहाना भी मिल जाएगा। उनकी सोच यह भी थी कि हिंसा से वास्तविक जनतंत्र संभव नहीं है, क्योंकि इस रास्ते ताकतवर लोगों का समाज और राजनीति पर प्रत्यक्ष या परोक्ष वर्चस्व स्थापित होने की संभावना बनी रहेगी। लेकिन इन चीजों के अलावे भी वह कुछ देख रहे थे। वह इंग्लैंड और भारत के बीच दो सभ्यताओं का संघर्ष देख रहे थे। इस मनःस्थिति में उन हिंसावादी क्रांतिकारियों से संवाद के रूप में ही इस पुस्तक की रचना हुई है। इसीलिए इसकी शैली प्रश्नोत्तरी अथवा सवाल-जवाब की है। इसकी मौलिकता के बारे में गांधी कोई दावा नहीं करते। वह विनम्रता-पूर्वक उन सभी विचारकों का दाय स्वीकार करते हैं, जिनकी किताबों और विचारों से वह प्रभावित हुए हैं। गांधी के ही शब्दों में "जो विचार यहाँ रखे गए हैं, वे मेरे हैं और मेरे नहीं भी हैं। वे मेरे हैं, क्योंकि उनके मुताबिक बरतने की मैं उम्मीद करता हूँ; वे मेरी आत्मा में गढ़े -जड़े हुए जैसे हैं। वे मेरे नहीं हैं, क्योंकि सिर्फ मैंने ही उन्हें सोचा हो सो बात नहीं। कुछ किताबें पढ़ने के बाद वे बने हैं। दिल के भीतर ही भीतर मैं जो महसूस करता था,उसका इन किताबों ने समर्थन किया।" (1)

 

 

दिलचस्प बात यह है कि गांधी के राजनीतिक गुरु गोपालकृष्ण गोखले(2) ने 'हिन्द- स्वराज' के विचारों को प्रथमद्रष्टया ही ख़ारिज कर दिया था। उनके मजबूत और प्रभावशाली अनुयायी जवाहर लाल नेहरू ने भी इन विचारों को कतई गंभीर नहीं माना। स्वयं गांधी ने अनेक वर्षों बाद इसके नए संस्करण की भूमिका लिखते हुए कहा कि इन विचारों पर मेरा वैसा जोर अब नहीं है, हालांकि व्यक्तिगत रूप से मैं इन विचारों का अब भी कायल हूँ।(3)

 

 

भारत में इस किताब की बहुत चर्चा उस वक़्त शायद नहीं हुई। गांधी जब बाद में कांग्रेस के सर्वमान्य नेता बने और 1920 से भारतीय राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन का गाँधीयुग आरम्भ हुआ तब धीरे-धीरे इस किताब की भी चर्चा होने लगी। 1921 में इसका दूसरा संस्करण आया, जिसमे महादेव देसाई(4) की एक भूमिका भी है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय तक भारतीय जन-मन की दिलचस्पी गांधी के साथ उनके विचारों को जानने में भी हो गई थी।  महादेव देसाई की भूमिका से इसका आभास मिलता है।

 

 

इस किताब में गांधी यूरोपीय तकनीक, खास कर औद्योगिक क्रांति से उपजी मशीनी संस्कृति, इंग्लैंड के संसदीय लोकतंत्र और मॉडर्न साइंस की समीक्षा करते हैं और उन्हें पूरी तरह ख़ारिज करते हैं। अपने आकार और ओज में हिन्द स्वराज की तुलना कार्ल मार्क्स के कम्युनिस्ट घोषणा पत्र से की जा सकती है, जो इस से कोई इकसठ साल पहले 1848 में लंदन में जारी किया गया था।  मार्क्स और गांधी, पश्चिम और पूरब के दो विचारक, औद्योगिक-पूंजीवादी सभ्यता के आलोचक हैं। दोनों ने अपने-अपने तरीके से पूंजीवादी सभ्यता की आलोचना की है। मार्क्स का जीवन काल 1818-1883 रहा है और गांधी का 1869-1948. मार्क्स ने पूंजीवादी संकट के आरंभिक रूप को अपने यूरोप में देखा था।  इतिहासकारों ने औद्योगिक क्रांति को 1760 से 1850 यानि कुल नब्बे वर्षों तक फैला हुआ स्वीकार किया है। कम्युनिस्ट घोषणा पत्र इसकी अवधि में ही आया। मार्क्स ने पूंजीवाद के भावी नतीजों और उससे उपजे संकट की एक परिकल्पना प्रस्तुत की और आश्चर्यजनक रूप से बहुत अंशों में यह सही साबित हुआ। मार्क्स ने दर्शनशास्त्र की विधिवत शिक्षा पाई थी और इस विषय में उनकी दिलचस्पी इस बात में दिखलाई देती है कि मात्र छब्बीस साल की उम्र में उन्होंने 'जर्मन दर्शन शास्त्र' पर एक सारगर्भित लेख लिखा। कम्युनिस्ट घोषणा पत्र प्रस्तुत करते समय भी वह तीस साल के युवा थे।  हिन्द स्वराज लिखते समय गांधी भी चालीस साल के युवा थे, मगर मार्क्स से उनकी एक भिन्नता थी कि वह दर्शन शास्त्र के नहीं कानून के विद्यार्थी थे। वह पेशेवर वकील थे और तर्क पर अधिक जोर देना उनकी फितरत थी। दर्शन शास्त्र और कानून में एक अंतर्संबंध होता है, लेकिन अपने चरित्र में दर्शन जहाँ विवेक को केंद्र में रखता है, कानून तर्क को। तर्क और विवेक में अंतर्विरोध की संभावनाएं बनी रहती हैं। वकील का पेशा प्रथमद्रष्टया विचार विरोधी होता है, क्योंकि वहां विवेक -विमर्श नहीं, तर्क-शक्ति के जोर से दूसरों से अपनी बात मनवाने की जिद होती है। हिन्द -स्वराज में बार-बार यह जिद और जोर हम पाते हैं।

 


 

 

मैंने पहले ही बतलाया है कि दोनों विचारक औद्योगिक क्रांति से व्युत्पन्न पूंजीवाद से क्षुब्ध हैं। बावजूद इसके मार्क्स और गांधी में बुनियादी अंतर है। मार्क्स औद्योगिक सभ्यता के विरोधी नहीं हैं। वह एक इतिहास चक्र बतलाते हैं जिसमें यह औद्योगिक पूंजीवादी जमाना आना ही है। उनका सारा जोर पूंजीवाद को जननियन्त्रण अथवा श्रमिक वर्ग के नियंत्रण में लेने पर है। उत्पादन के साधनों पर समाज के नियंत्रण से पूंजीवाद का निषेध होता है। यही समाजवाद है,जो मार्क्सवाद का मूल है। मार्क्स समाजवादी व्यवस्था को मानवता के लिए अपरिहार्य मानते हैं। गांधी इतिहास चक्र की कोई व्याख्या नहीं करते। वह औद्योगिक सभ्यता की कटु आलोचना तो करते हैं, लेकिन उससे उद्भूत पूंजीवादी व्यवस्था की आलोचना पर चुप रहते हैं। उनका मानना है कि औद्योगिक सभ्यता के विकसित होते ही, जो सामाजिक संबंधों के संकट आएँगे उन्हें रोकने का एक ही उपाय है कि हम औद्योगिक सभ्यता को ही विकसित नहीं होने दें। पश्चिम में रह कर गांधी औद्योगिक सभ्यता के कोलाहल को देख चुके थे। उनके जीवन काल में ही इससे जनित दो विश्वयुद्धों को भी उन्होंने देखा -समझा था। विकास की अंधी दौड़ में युद्ध और हिंसा को रोकना मुश्किल होगा और हिंसा के बीच किसी सुखद भविष्य की बात सोची भी नहीं जा सकती। जहाँ तक मेरी समझ है, गांधी की नीयत और सोच यही थी। 'हिन्द स्वराज' लिखते समय तक वह दक्षिण अफ्रीका में रह रहे थे और वहां से ही उन्होंने उस भारतीय स्वराज की कल्पना की, जो उनके स्वरुप में पश्चिम के रास्ते पर नहीं थी। इन सब के मूल में थी जॉन रस्किन की किताब 'अनटु दिस लास्ट'(5), जिसे गांधी को उनके मित्र एस. एल. पोलक ने दी थी।  पश्चिम के एक मित्र द्वारा प्रदत्त पश्चिम के ही एक विचारक की किताब पढ़ कर गांधी पश्चिम के सांस्कृतिक वर्चस्व पर हमला करने के लिए सन्नद्ध होते हैं।

 

 

लेकिन, पश्चिमी सभ्यता पर उनका आक्रमण एक विचारक के रूप में कम, वकील के रूप में अधिक है। वह वैचारिक धरातल पर नहीं, तार्किक धरातल पर पश्चिमी सभ्यता का विरोध करते हैं। 'हिन्द स्वराज' पढ़ते हुए हम वैचारिक आवेग से नहीं भरते, जैसा कि 'कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो' पढ़ते समय होते हैं। यह बहुश्रुत है कि गाँधी वकालत के पेशे में बहुत ज्यादा सफल नहीं रहे थे, करिश्मा तो बिलकुल ही नहीं दिखाया था।  लेकिन, 'हिन्द स्वराज' पढ़ते हुए हमें प्रतीत होता है कि एक वकील की अच्छी बहस सुन रहे हैं। किताब से गुजरते हुए उनकी तर्क शक्ति पर थोड़ी हँसी भी सकती है, लेकिन अंततः हासिल होता है एक वैचारिक क्षोभ। शायद इसी आधार पर गोखले और नेहरू ने इन विचारों को सिरे से नकार दिया था। हाँ, यह अलग बात है कि इन दिनों भारत की सामाजिक प्रतिगामी शक्तियाँ , 'हिन्द-स्वराज' में दिलचस्पी ले रही हैं और कुछ लोगों के इस कथन में वैचारिक दम है कि 'हिन्द-स्वराज' और सावरकर प्रणीत 'हिंदुत्व' के बीच अनजाने एक अन्तर्सम्बन्ध विकसित हुआ दिखता है।

 

 

गाँधी पश्चिमी सभ्यता का विरोध करते हैं तो आंशिक रूप से नहीं, सम्पूर्ण रूप में। वह केवल वहां की उस औद्योगिक सभ्यता का ही विरोध नहीं करते, जो पूंजीवाद का जनक है; उससे कहीं अधिक उस सामाजिक व्यवस्था का विरोध करते हैं, जिस ने पार्लियामेंट और सामाजिक न्याय के आदर्श को जन्म दिया है। वह विज्ञान, तकनीक और तर्क का भी विरोध करते हैं। आक्रामक रूप से वह रेल, अस्पताल और जज-वकील वाली न्याय व्यवस्था का विरोध करते हैं। पार्लियामेंट को 'बाँझ वेश्या' तक कहते हैं। इसे सम्पूर्णता से नकारते हैं। नेहरू की तरह वह फ्रांसीसी-क्रांति और इंग्लैंड के वैचारिक आंदोलनों की बात कभी नहीं करते। सम्पूर्ण पश्चिम से उनकी चिढ अथवा वितृष्णा है और शायद उनकी यही चिढ आधुनिक हिन्दुत्ववादियों को प्रिय है। हमारी वैचारिक ईमानदारी का तकाजा होना चाहिए कि गाँधी के प्रति अपने रूढ़ पारम्परिक नजरिए से अलग हट कर एक अभिनव संतुलित विमर्श प्रस्तुत करें कि क्या सचमुच सावरकर के 'हिंदुत्व' और 'हिन्द स्वराज' के बीच कोई संबंध दिखता है? गाँधी पश्चिम की ईसाई सभ्यता के प्रोटेस्टेंट पक्ष भाव की अपेक्षा कैथोलिक पक्ष से संबंध बनाने की कोशिश करते हैं, क्योंकि वहाँ उनके हिंदुत्व का दकियानूसी पक्ष वर्ण धर्म - सुरक्षित रहता है। वह बाह्य के केवल एक पक्ष से संघर्ष करते दिखते हैं, क्योंकि वह भारतीय राष्ट्रवाद के आग्रही हैं। मुसलमानों से हर हाल में, उन के प्रतिगामी विचारों के साथ तो और भी, एक समझौता रखना है, क्योंकि उनके प्रतिगामी विचारों के साथ हिंदुत्व के प्रतिगामी विचारों की एक संगत बनती दिखती है। सावरकरवाद इस्लामी सभ्यता से पहले और ईसाइयत से द्वितीयक स्तर पर संघर्ष करता है, इसलिए कि वह हिन्द नहीं हिन्दू राष्ट्र की बात करता है। गाँधी का हमला निकट बाह्य पर है, तो सावरकर का सुदूर बाह्य पर। ऐसी स्थिति में दोनों को अपने हिंदुत्व के गुणगान का पूरा अवसर उपलब्ध होता है।

 

 

 

औद्योगिक और संसदीय सभ्यता के विकल्प रूप में गाँधी ग्राम-उद्योग और ग्राम-स्वराज को प्रस्तुत करते हैं। ग्रामोद्योग के माध्यम से वह मशीनी सभ्यता को चुनौती देते हैं, तो ग्राम -स्वराज के माध्यम से संसदीय सभ्यता को। अभी हाल में एक राजनीतिक प्रयोगकर्ता अरविन्द केजरीवाल ने 'स्वराज ' (6) नाम से एक पुस्तक लिखी है और लगभग गांधीवादी विचारों को नए अंदाज़ में सूत्रबद्ध किया है। उनके गुरु, गांधीवादी कहे जाने वाले अण्णा हजारे (7), जिन्होंने शायद अपने गाँव रालेगण में इस स्वराज को साकार किया हुआ है, ने इस किताब को व्यवस्था परिवर्तन का घोषणापत्र कहा है। अण्णा हजारे के रालेगण में संभवतः यह ग्रामस्वराज फल फूल रहा है। लेकिन जो सूचनाएं हैं वह यह कि इस स्वराज के साथ सामाजिक प्रतिक्रियावाद की लगभग वैसी संगत है जैसी हरियाणा के खाप पंचायतों में होती है। गाँधी, हजारे, केजरीवाल अथवा कोई अन्य यदि यह सोचते हैं कि यही हिंदुत्व है तो भी वह गलती पर है। यह हिंदुत्व का केवल एक पक्ष हो सकता है। लेकिन इस पर विस्तार में जाना विषयांतर होना हो सकता है। इसलिए हम पुनः ग्राम स्वराज विषयक विमर्श पर लौटते हैं।

 

 

स्थानीय स्वशासन अच्छी बात है और यह पश्चिम में भी उतना ही लोकप्रिय और स्वीकृत है। भारतीय नगरों में स्थानीय स्वशासन की नींव तो अंग्रेजों ने ही रखी। लेकिन गांवों का स्वराज क्या हो, इस पर उन्होंने ध्यान नहीं दिया। बंगाल ,बिहार ,उत्तरप्रदेश में तो जमीन के स्थायी बंदोबस्त द्वारा उसे ज़मींदारों के हवाले कर दिया, जिस से भविष्य में भयानक सामाजिक विसंगतियां पैदा हुईं। पुराने भोथरे उत्पादन के औजारों और बाढ़-सूखा जैसे प्राकृतिक आपदाओं के बीच से गाँवों में जो सीमित उत्पादन हो रहा था,उसमें ही ज़मींदारों ने शोषण का ऐसा कुचक्र बनाया था कि किसान त्राहि-त्राहि कर कर रहे थे। किसानों के शोषण से कोलकाता जैसे नगरों का विकास हो रहा था।  ज़मींदारों की सारी विलासिता इन किसानों के कमजोर कंधों पर हो रही थी। गाँव नरक के पर्याय बन रहे थे। ऐसे ही वातावरण में जब राष्ट्रीय आंदोलन विकसित हुआ तब हमारे नेताओं को लगा की गांवों पर ध्यान दिए बगैर हम कोई देश-राष्ट्र नहीं बना सकते। गांधी का जोर इस पर अधिक था।  उन्होंने गांवों को ही अपनी उस विचारधारा की प्रयोगस्थली बना दिया, जिसे उन्होंने 'हिन्द स्वराज' में व्यक्त किया था। औद्योगिक और संसदीय सभ्यता के विकल्प देने की प्रयोगस्थली। इसी में ग्राम स्वराज की वैचारिकी का विकास हुआ। उन्होंने भारत को गाँवों का देश माना। गाँधी ने इस विचार का एक मॉडल प्रस्तुत किया।

 

 

 

गाँधी का यह ग्राम-प्रेम केवल राष्ट्र के नजरिए से ही था, यह अर्द्ध सत्य होगा। अवचेतन में जमी रूढ़ मान्यताएं भी सक्रिय थीं, जिनका विज्ञान और प्रगति से मौलिक स्तर पर विरोध था। गाँधी आखिर तक हिन्दू वर्ण व्यवस्था के पक्षधर रहे और इस व्यवस्था को उन्होंने भारत की विश्वसंस्कृति को देन के रूप में स्वीकार किया, जैसा कि 'बंच ऑफ़ थॉट' (8) में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघसंचालक गोलवलकर भी स्वीकार करते हैं। गाँधी के अनेक उदगार इतने रूढ़िवादी प्रतीत होते हैं कि कोई भी आश्चर्यचकित हो सकता है। ये उनके ऐसे अंतर्विरोध हैं जिस पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। वर्णव्यवस्था का समर्थन करने वाले गाँधी अपने व्यवहार में हर जगह वर्णवादी-जातिवादी मान्यताओं की सक्रिय अवहेलना भी करते दिखते हैं। लेकिन उनके चतुर अनुयायियों का आग्रह होता है कि उनके अंतर्विरोधों को नजरअंदाज किया जाय और विमर्श से एक ऐसे गाँधी को विकसित किया जाय जिस से उनके निहित सामाजिक स्वार्थों की रक्षा हो सके। सामाजिक दकियानूसी ताकतें गाँधी को अपने स्वार्थों के पक्ष में रखने के लिए तत्पर दिखती हैं।

 

 

 

गाँव गाँधी के लिए अनेक कारणों से महत्वपूर्ण है। ये गाँव ही हैं, जिस ने मोहनदास को संत -महात्मा बनाया। उन्हें देवत्व दिया। हिन्द स्वराज का विचारक अनायास बिहार के किसान आंदोलन (चम्पारण, 1917) में नहीं उतरता। कांग्रेस अधिवेशन में गाँधी की धज देख कर एक मामूली पढ़ा-लिखा किसान राजकुमार शुक्ल (9) प्रभावित होता है और उसे अनुभव होता है कि यह व्यक्ति हमारे संघर्ष का नेतृत्व कर सकता है। शुक्ल के आग्रह को गाँधी ने स्वीकार भी किया और एक अनजाने इलाके में निलहे ज़मींदारों और ब्रिटिश ताकत से संघर्ष करने के लिए उतर गए। चम्पारण के अनुभवों ने गाँधी को गहरे प्रभावित किया। धीरे -धीरे उनका हिन्द स्वराज कहीं गुम हो गया और ग्राम स्वराज सामने गया। जिन लोगों ने हिन्द-स्वराज की आलोचना की थी, वे भी ग्राम स्वराज के या तो समर्थन में गए या फिर इस मुद्दे पर चुप हो गए। कुछ लोगों ने यदि इस पर प्रश्न भी खड़े किए तो लिखने के स्तर पर ही। जैसे नेहरू ने खादी आंदोलन को वैचारिक स्तर पर समर्थन नहीं दिया, लेकिन बेहतर खादी बुनने के लिए ख्यात रहे। आजीवन उन्होंने खादी वस्त्र ही धारण भी किया।

 

 

 

गाँवों के बारे में अन्य विचारकों की राय अलग है। विकास का आधुनिक अर्थ केवल शहरीकरण है और इसका अर्थ है उन आधारभूत तत्वों की समाप्ति, जो किसी बसावट को गाँव बनाते हैं। इन गाँवों के बारे में कार्ल मार्क्स की राय बिलकुल भिन्न प्रकार की थी।  भारत पर 1850 के दशक में मार्क्स ने कुछ लेख लिखे थे, जो न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून (10) में छपे थे।  इन लेखों में भारत की सामाजिक -आर्थिक स्थितियों पर विचार करते हुए मार्क्स ने इन गाँवों को भारत के पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार माना है। उनकी राय में भारत की ये काव्यमयी ग्रामीण बसावटें पूरब की निरंकुशता (ओरिएण्टल डेस्पोटिस्म) के लिए जिम्मेदार हैं और ये भारतीय सामाजिक जीवन में एक गतिहीनता उत्पन्न कर रही हैं, जिस के कारण वहाँ जातपात पर आधारित एक जटिल सामाजिक जीवन बन गया है। इसीलिए मार्क्स जब यह पाते हैं कि अंग्रेजों ने भारत की पारम्परिक उत्पादन प्रणाली को किन्ही अंशों में ध्वस्त कर दिया है, तब वह आश्वस्ति महसूस करते हैं। मार्क्स ने जर्मन कवि गेटे (11) की कुछ पंक्तियों को उद्धृत किया है,जिसका अर्थ है वह दुःख महत्वपूर्ण है, जो एक महान सुख को जन्म देने जा रहा है। यह भी सही है कि मार्क्स ने पारम्परिक अर्थव्यवस्था को तोड़ कर उसका विकल्प नहीं विकसित करने के लिए अंग्रेजी राज की तीखी आलोचना की है।

 

 


 

मार्क्स गाँवों के आर्थिक स्वावलंबन को खतरनाक मानते हैं, क्योंकि इस से एक स्थानीयता विकसित होती है। रूढ़िवादी विचारों के लिए ऐसी स्वतंत्र स्वावलम्बी और छोटी-छोटी इकाइयाँ अनुकूल होती हैं। स्वावलंबन एक गतिहीनता भी देता है। गाँव में क्या होता था? काम भर अनाज पैदा हो गया, कपड़ा बन गया, सब्जियां दूध पैदा हो गए, तेल-घी हो गया, गाँव के वैद्य जी ने काम भर उपचार कर दिया और पुरोहितों-ओझों ने आध्यात्मिक सवालों को अपने वाग्जाल से संतुष्ट कर दिया। गाँव से बाहर जाने की कोई जरुरत नहीं। शादी-विवाह भी अगल-बगल के गाँवों तक सीमित होती थी। उत्पादन के पारम्परिक पुराने औजारों से सीमित उत्पादन ही संभव था, जिसके फलस्वरूप किसानों और दस्तकारों की क्रय शक्ति नगण्य थी। ऐसे में बाजार और मंडियां गाँव वालों के लिए थीं ही नहीं। नगर जीवन के अभाव में ज्ञान-विज्ञान, विमर्श और कला का विकास कम हुआ। ऐसे में किसी मजबूत राष्ट्र का विकास संभव नहीं था।

 

 

गाँधी की कल्पना में एक विकसित गाँव था। वह इसे यूँ रखते हैं - "ग्राम स्वराज की मेरी कल्पना यह है कि ग्राम एक ऐसा पूर्ण गणतंत्र हो, जो अपनी मुख्य जरूरतों के लिए अपने पड़ोसियों पर निर्भर हो, और फिर भी दूसरी बहुतेरी जरूरतों के लिए एक-दूसरे पर निर्भर हो, जिसमें दूसरों पर निर्भरता जरुरी है। इस तरह हर एक गाँव का पहला काम यह होगा कि वह अपनी जरूरत का अनाज और कपडे के लिए कपास खुद पैदा कर ले। उसके पास अपने पशुओं के लिए चारागाह और गाँव के वयस्क व्यक्तियों और बच्चों के लिए मन-बहलाव और खेल-कूद के मैदान होने चाहिए। ...हर एक गाँव में अपना एक नाटक घर, एक पाठशाला और एक सभा भवन होगा। पानी के लिए अपना इंतजाम होगा - पानी कल होंगे - जिस से गाँव के सभी लोगों को पीने का शुद्ध पानी मिलेगा। गाँव का शासन चलने के लिए हर साल गाँव के पांच आदमियों की एक पंचायत चुनी जाएगी। बालिग स्त्री -पुरुषों को इस पंचायत को चुनने का अधिकार होगा।" (12)

 

 

 

यह ब्यौरा सुदीर्घ है,लेकिन मुख्य बातें यहां गई हैं। ध्यान देने की बात है कि जातपात पर टिके हुए गाँव के लिए गांधी एक पाठशाला, एक सभा भवन की बात करते हैं। अर्थात उनका ग्राम-स्वराज अलग-अलग जाति-पंचायतों का निषेध करता है। शिक्षा, कला और आधुनिक सुविधाओं, जैसे शुद्ध पेय जल के लिए पानी कल की बात कर के वह एक विकसित, समृद्ध गाँव की बात करते हैं। एक ऐसा गाँव जो शहर की भीड़ भाड़ और कोलाहल से मुक्त हो और जहाँ विकास ऐसा बेलगाम हो, जिससे विलासितापूर्ण जीवन को बल मिले। जैसा कि मैंने पहले ही बतलाया अपने उत्तरकाल में गांधी ने हिन्द स्वराज की कभी चर्चा भी नहीं की, लेकिन ग्राम स्वराज की वकालत वह आखिरी दिनों तक करते रहे। हिन्द स्वराज से ग्राम स्वराज तक की उनकी यात्रा दिलचस्प है। इसमें उनकी वैचारिकता का एक रैखिक विकास भी है। 1930 के पूर्व के गाँधी और 1940 के बाद के गाँधी में थोड़ा अंतर भी है। सामान्यतया गांधीवादियों ने इस अंतर की संतोषजनक व्याख्या कभी नहीं की। 1940 के बाद वाले गाँधी पर भीमराव आम्बेडकर और समाजवादियों से उनकी वैचारिक मुठभेड़ के प्रभाव परिलक्षित होते हैं।

 

 

 

सवाल उठता है कि कृषि पर आधारित अर्थ-व्यवस्था से यह सब ,यानि गाँधी का प्रस्तावित ग्राम-स्वराज, संभव है? और यदि नहीं, तब फिर बाहरी पूँजी गाँव में किस कीमत पर आएगी? क्यों आएगी? गाँधी का ग्राम स्वराज संसदीय लोकतंत्र से पृथक नहीं है और वह खाप पंचायतों से भी अपनी प्रकृति में भिन्न है। निश्चित ही वह आदर्श बनने लायक है। लेकिन जैसा कि हर आदर्श के साथ होता है,इसमें परिकल्पना के तत्व अधिक और यथार्थ के कम है। गाँधी और मार्क्स में अंतर यह है कि समाज के स्वाभाविक विकास से मार्क्स इंकार नहीं करते और इसी रूप में इसे नियंत्रित करने के उपाय बतलाते है। गाँधी समाज विकास की धारा को ही बाधित कर देना चाहते हैं। कम से कम सुस्त कर देना तो जरूर चाहते हैं। एक ऐसी संस्था जो पहले से ही सुस्त हो, को और सुस्त बना देने का प्रस्ताव समझ के बाहर है। वृद्धावस्था में कठिनाइयां हैं तो उसका हमें मुकाबला करना होगा, हम युवावस्था या बाल्यावस्था को रोक कर उसका निदान नहीं कर सकते। एक युवा हर हाल में वृद्ध होगा। हमें इस चुनौती को स्वीकार करना होगा। गाँव या किसी भी बसावट को स्थिर गतिहीन रखना असंभव होगा। बीसवीं सदी के आरम्भ में जो गाँव थे, वह आज नहीं हैं। जो स्थितियां आज हैं,वे कल नहीं रहेंगी। स्थितियां तेजी से बदल रही हैं। कृषि क्षेत्र में उत्पादन के पारम्परिक उपकरण नए उपकरणों द्वारा विस्थापित हो रहे हैं। खेतों की हल- बैल से जुताई लगभग ख़त्म हो चुकी है। इसका स्थान ट्रेक्टर ने ले लिया है। हल के खात्मे ने हलवाहों को भी ख़त्म कर दिया। अब तो ट्रेक्टर से सामान्य तौर पर कोई पढ़ा-लिखा आदमी ही खेतों की जुताई करता है। कटाई से ले कर अनाजों के परिसंस्करण तक के लिए मशीनों के इस्तेमाल होने लगे हैं। इससे उत्पादन बढ़ा है। अनाज के लिए जो हाहाकार था,वह अब नहीं है। ऐसे में आवश्यक यह है कि कृषि क्षेत्र को पूंजीपतियों के हाथ में जाने की जगह उसे किसानों के सहकार के आधार पर चलाया जाय और बाजार पर भी पूंजीपतियों का नहीं, समाज का अंकुश हो। लेकिन हम किसी भी तरह गाँवों के विकास को रोक नहीं सकते। गाँवों का स्वाभाविक रूप से शहरीकरण हो रहा है। औद्योगिक उत्पादन और कृषि उत्पादन में एक जुड़ाव भी स्वाभाविक स्तर पर विकसित होगा। लेकिन सामाजिक नियंत्रण हर हाल में जरुरी होगा। अन्यथा लाभ और लोभ की अर्थव्यवस्था अभिशाप बन कर पूरी मानव सभ्यता को तबाह कर देगी।

 

 


 

स्थानीय स्वशासन जरुरी है और इलाकाई बजट के फलसफे से भी सहमत हुआ जा सकता है। लेकिन हमें यह याद रखना होगा कि लोकल और ग्लोबल में एक तालमेल आवश्यक होगा। हर गाँव, हर स्तर पर पूरी दुनिया से जुड़ा होना चाहिए। एक विश्वग्राम - ग्लोबल गाँव। क्या ऐसा गाँव गाँधी के सपनों में था? शायद नहीं। और कुछ यही कारण था कि गाँधी के जीवन में ही उनके ख्यात और विश्वसनीय सहयोगी जवाहर लाल नेहरू ने दृढ़ता से अपने मतभेद स्पष्ट कर दिए थे। मैं सीधे नेहरू को उद्धृत करना जरूरी समझता हूँ -- "गाँधी जी की बहुत -सी प्रवृत्तियों से यह मालूम होता है कि उनका ध्येय अत्यंत संकुचित स्वावलम्बी व्यवस्था को फिर से ले आना है। वह केवल राष्ट्र बल्कि गाँव तक को स्वावलम्बी बना देना चाहते हैं। प्राचीन काल के समाजों में गाँव लगभग स्वावलम्बी थे। वे अपने खाने केलिए अनाज, पहनने के लिए वस्त्र और जरूरतों के दूसरे सामान स्वयं पैदा कर लेते थे। निश्चय ही इसके मानी यह है कि लोग बहुत ही गरीबाना ढंग से रहते होंगे। मैं यह नहीं समझता कि गांधी जी हमेशा के लिए यही लक्ष्य बनाए रखना चाहते हैं,क्योंकि यह तो असंभव लक्ष्य है। ...हम लोग शेष दुनिया से उसी तरह बँधे हैं, जैसे दूसरे बँधे हुए हैं। मुझे यह बात बिलकुल अनहोनी मालूम होती है कि हम दुनिया से अलग हो कर रह सकेंगे। इसलिए हमें सब बातों को तमाम दुनिया की निगाह से देखना होगा और इस द्रिष्टी से देखने पर संकुचित स्वावलम्बी व्यवस्था की कल्पना नहीं हो सकती। व्यक्तिगत रूप से मैं तो उसे सब तरह से अवांछनीय समझता हूँ।" (13)

 

 

 

गाँधी पर विचार करते समय हमें इस बात पर अवश्य ध्यान रखना होगा कि वह उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रीय संघर्ष के सब से बड़े नेता थे।  उनकी जड़ें जनता के बीच थी।  और शायद यही कारण था कि वह अपने जीवन काल में ही अपने राजनीतिक उद्देश्य को हासिल कर सके। राष्ट्रीय नेता की कुछ विशेषता होती है,जो उनमे थीं। ये नेता अंतर्विरोधों को सुलझाते नहीं, नजरअंदाज करते हैं और कभी-कभार जनता की रूढ़िवादी मान्यताओं का भी अपने संघर्ष में इस्तेमाल करते हैं। प्रार्थना, उपवास और अन्य धार्मिक भावनाओं का गाँधी ने इसी रूप में इस्तेमाल किया। रामराज और खिलाफत का समर्थन भी इसी कारण किया। संभव है यह राष्ट्रीय आंदोलन की जरुरत हो . लेकिन एक विचारक के स्तर पर वह कमजोर दिखने लगते हैं। लेकिन उनके अनुयायी उन्हें एक महान विचारक के रूप में भी रखना चाहते हैं। यह उनके अनुयायियों का स्वार्थ है। गाँधी को अपनी सीमा का ज्ञान था और शायद यही कारण था कि उन्होंने अपना उत्तराधिकारी उस जवाहर लाल नेहरू को घोषित किया, जो स्पष्ट तौर से तथाकथित गांधीवाद से असहमत थे।

 

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1.     हिन्द-स्वराज, सर्व सेवा संघ प्रकाशन ,राजघाट वाराणसी, 1982 संस्करण की प्रस्तावना से उद्धृत।

2.     गोपालकृष्ण गोखले (1866 - 1915) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नरमदली (मॉडरेट) नेता, सर्वेंट्स ऑफ़ इंडिया सोसाइटी के संस्थापक। गाँधी ने इन्हे अपना राजनीतिक गुरु माना।

3.     हिन्द -स्वराज के 1921 वाले संस्करण में गाँधी जी की प्रस्तावना।

4.     महादेव देसाई (1892 -1942), 1917 से अपनी मृत्यु (1942) तक गाँधी जी के आप्त सचिव।

5.     Unto This Last - ब्रिटिश लेखक जॉन रस्किन (1819-1900) की अर्थशास्त्र विषयक प्रसिद्ध किताब, जो 1860 में एक मासिक पत्र -कोर्निहिल मैगज़ीन- में क्रमशः प्रकाशित हुई और 1862 में एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुई।

6.     स्वराज - आम आदमी पार्टी नेता अरविन्द केजरीवाल की जून 2012 में प्रकाशित एक किताब, जिसे अण्णा हज़ारे ने व्यवस्था परिवर्तन के नए आंदोलन का घोषणापत्र कहा है।

7.     अण्णा हजारे - 1937 में जन्मे गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्त्ता किसन बाबूराव हजारे को लोग अण्णा हजारे के नाम से जानते हैं। इंडिया अगेंस्ट करप्शन संस्था के माध्यम से भ्रष्टाचार के विरुद्ध इन्होने कई आंदोलन किए। महाराष्ट्र के अहमद नगर जिले के सिद्धि रालेगण गाँव के लगभग एक हज़ार हेक्टर भूभाग को इन्होंने प्रदूषण - मुक्त रखा हुआ है। वह गाँव ही इनकी प्रयोगस्थली है।

8.     बंच ऑफ़ थॉट्स आर.एस.एस. के दूसरे सर संघ संचालक माधव सदाशिव गोलवरकरकर के फुटकर विचारों का उनके एक अनुयायी वेंकट राव द्वारा 1960 में किया गया संकलन और अंग्रेजी अनुवाद . साहित्य सिंधु प्रकाशन ,संस्करण 1966

9.     राजकुमार शुक्ल (1875-1929) बिहार के चम्पारण जिले के एक किसान नेता, जिन्होंने गाँधी को चम्पारण आने का न्योता दिया और अंततः उन्हें वहाँ बुला लाए।

10.                         कार्ल मार्क्स का न्यूयॉर्क डेली ट्रिब्यून में 25 जून 1853 को प्रकाशित - ब्रिटिश रूल इन इंडिया - शीर्षक एक लेख, जो उनकी किताब कार्ल मार्क्स ऑन इंडिया में संकलित है, के आधार पर।

11.                         जॉन वोल्फगांग गेटे (1749 - 1832) जर्मन कवि -लेखक। उनकी चार पंक्तियों को कार्ल मार्क्स ने अपने लेख ब्रिटिश रूल इन इंडिया में उद्धृत किया है, जिसका आशय है कि वह दुःख महान है,जो एक महान सुख को जन्म देता है।

 

12.                         महात्मा गाँधी का सन्देश, संपादन यू. एस. मोहन राव, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, पृष्ठ 89

 

13.                         नेहरू की आत्मकथा का हरिभाऊ उपाध्याय द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद - मेरी कहानी - सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन, 1993 संस्करण, पृष्ठ 728.

 

 


 

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