नेहा अपराजिता की कविताएं
नेहा अपराजिता |
परिचय-
नेहा अपराजिता मूलतः प्रयागराज की निवासी हैं। अभी इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य की शोधार्थी हैं। नेहा का पहला काव्य संग्रह “छाँव” 2018 में प्रकाशित हो चुका है तथा 2022 में पहला नाटक “कथा संग्राम की” का सफल मंचन भी उत्तर मध्य सांस्कृतिक केंद्र, प्रयागराज से सम्पन्न हुआ है। नेहा की कवितायेँ इन्द्रप्रस्थ भारती, सरस्वती, देशज, तथा अन्य प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है।
अपने किसी एक व्यंग्य में हरिशंकर परसाई ने लिखा है कि स्त्री होना एक साथ कई कमजोरियों का होना है। सामान्य तौर पर स्त्रियों के संबंध में परसाई जी के इस कथन से सहमत नहीं हो पा रहा था। लेकिन समय बीतने के साथ ऐसा लगा कि शायद उन्होंने अपने समय का वह क्रूरतम सच ही लिखा था, जो आज हमारे समय की सच्चाई है। जंतर मंतर पर देश के कुछ नामी गिरामी ओलंपियन महिला पहलवान न्याय पाने के लिए प्रदर्शन कर रही हैं, लेकिन सत्ता अपने कंभकर्णी नींद में है। युवा कवयित्री नेहा अपराजिता स्त्रियों की स्थिति से अच्छी तरह वाकिफ हैं। इसीलिए वे उस दर्द को ज्यों का त्यों अंकित कर पाई हैं जिसे आमतौर पर व्यक्त कर पाना कठिन होता। आज भी स्त्रियों को यह पाठ लगातार पढ़ाया जाता है कि उन्हें घर परिवार समाज के दायरे में रह कर काम करना चाहिए। भले ही इसके लिए उन्हें अपने स्वाभिमान को ताक पर रखना पड़े। जिस स्त्री ने भी थोड़े स्वाभिमान साथ जीना चाहा उसे किसी न किसी तरह लांछित किया गया। इसका एक संदेश यह है कि स्त्री को आज भी अपने अनुसार जीने रहने की कोई आजादी नहीं। अगर वह पुरुषों के इशारे पर चलती हैं तब सम्मानित हो सकती हैं लेकिन अगर वे उस तथाकथित सीमा को लांघती हैं तब उन पर लांछन लगाए जा सकते है। विचारों का टटकापन उनके यहां स्पष्ट ही देखा जा सकता है। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं नेहा अपराजिता की कुछ नई कविताएं।
नेहा अपराजिता की कविताएं
सृजनकर्ता
वे जो सृजनकर्ता रहे
संवेदना के
संतुष्टि के
शायद इस सृष्टि के भी
वे इतने बेख़ब रहे
उन्हें अपनी शक्ति की सीमा का ज्ञान नहीं
वे पुरुष
जिनके पुरुषार्थ पर
इस देश का बहुत कुछ टिका है
हथेली पर तम्बाकू ठोक
वे बहुत कुछ दे रहे
इस देश को
वे महिलायें कितनी बेख़बर होंगी
जो बासी रोटी और नैनू खा कर
आठ-दस बच्चे जन गयीं
सारे के सारे उन्होंने
महीने की पहली तारीख़ को जने
मैं नहीं कहती
आकड़ों ने कहा
सन्तुष्ट रहे वे
उन्होंने उतना भी नहीं मांगा
जितने के वे हक़दार रहे
वे जो बेख़बर हैं
उन विद्यार्थियों से
जो आज उन पर बनी योजनायें रट रहे,
अधिकारी बनेंगे
फिर इनके अधिकारों के लिये लड़ेंगे
उनसे भी जो शोधार्थी हैं
गहन शोध में हैं
उनका शोधपत्र कहाँ विरोध दर्ज करता है?
मुझे भी नहीं ज्ञात
उनसे भी जो
बुद्धजीवी हैं, घिस रहे हैं बुद्धि
हल क्या निकल रहा??
मेरे पास आँकड़ों का संकलन नहीं
उन्होंने तो निश्छलता बोई थी
काइयाँपन हमारा
उनके बोये को
बैचैनी में बदल रहा
संवेदना भी बोयी थी
हमारी ही भूख
हमारी वेदना का कारण है
सन्तुष्टि भी बोयी थी
दूसरे का सुख
हमको उनके छप्पर से भी
कमज़ोर बना रहा!!
वे लांछित हुईं
वे लांछित हुईं क्योंकि
नहीं ज्ञान था उनको दुनियादारी का
नहीं पता था कि विश्वास सिर्फ घर-घराने के लोगों पर ही करना है
कर लिया उन्होंने विश्वास अजनबियों पर
उन्होंने अपनों से परे
निभाई ईमानदारी दूसरों से
सज़ा है उनकी कि वे लांछित हो
वे लांछित हुईं क्योंकि
निश्चय था उनका, समाज से ऊपर उठ
अपने किये वायदे पर अटल रहने का
सामाजिक असमानता को ठुकरा उन्होंने चुनी थी अलग राह
उन्होंने रखा अपने प्रेम को सर्वोपरि
हो गयीं मौन हर तानें उलाहनें पर
स्वीकारा उन्होंने कि वे लांछित हों
वे लांछित हुईं क्योंकि
मुंह सिल उन्होंने सहे फिर धोखे
नही की उफ़्फ़, न भरी कराह
ईमानदारी का ईनाम उनका निजी विषय बन गया
नहीं रखा उन्होंने अपना पक्ष, नहीं मांगी मदद
गहन मौन में जा कर अपने ईमान की प्रमाणिकता सिद्ध की
उकसाने पर भी उन्होंने जुबान न खोली
नियति है उनकी वे लांछित हों
वे लांछित हुईं क्योंकि
उन्होंने अपने इतिहास को भुला
अपने भाग्य का नया भूगोल ढूँढने की कोशिश की
इस बार मिलनसार होने की सोची सबसे
फिर की गलती, मानव मस्तिष्क सिर्फ अपना इतिहास भूल सकता है
दूसरे का नहीं, इस बार उनके बदले का शिकार हुईं जो मुंहबोले अपने थे
इतिहास कहता है कि वे लांछित हों
वे लांछित हुईं क्योंकि
उन्होंने तोड़ी मर्यादा, उन्होंने पुरुष मित्र भी उतनी ही संख्या में बनाये
जितनी संख्या महिला मित्रों की थी
जैसे प्रेम की प्रमाणिकता सिन्दूर में है वैसे ही
भाई बहिन की प्रमाणिकता राखी बंधन में है
यूँ ही पुरुष से मित्रता की प्रमाणिकता
उस पुरुष की प्रेयसी की सखी होने में हैं, नियम क़ानून की
अज्ञानता कहती है कि वे लांछित हों
वे लांछित हुईं क्योंकि
उन्होंने नहीं सहे किसी के अश्लील मज़ाक
गलत बातों और इरादों पर वे तिलमिला गयीं
गंदी मादक नज़रों को उन्होंने नज़रंदाज़ किया
धर्म और मर्यादा की बात की उन्होंने
उनको क्यों नहीं ज्ञात कि
वे उस जुमले में शामिल हो चुकीं हैं
जो नहीं उठा सकता है कोई आवाज़
नहीं हैं वे अधिकारिणी किसी भी नैतिकता की
बार-बार भूलती हैं वे अपना इतिहास
नैतिकता कहती है कि
वे लांछित हों
वे लांछित हुईं क्योंकि
अन्दर के गुबार ने अब बाहर निकलने के लिए उत्पात मचा दिया
अब वे बोलने को व्याकुल हो उठीं
सच, कडवा सच, तीखा सच, जटिल सच, सीधा सच, उल्टा सच
वे बोल पड़ीं सब
उनकी बेचैनी ने सिद्ध किया कि वे विक्षिप्त हैं
सहारे, साथ, सहयोग की जगह उनको मिली नयी पहचान पागलपन की
अब फिर हैं वे मौन, उफ़्फ़ तक न करने को बाध्य
एकांत में है वे, अछूत सी
आजीवन रहेंगी वे रजस्वला
उनका मौन उनसे कहता है!!
उलझन
उसने पूछा, ये उलझन क्या होती है?
मुझे तो ना हुई कभी,
मैंने कहा
जब ना रोते बने
ना हँसते
ना खाते-पीते
सोने की कोशिश भी ना काम हो जाये
पसीने से माथा तर हो जाये
तब समझ लेना उलझन में हो।
जब आंखों से आँसू
और सिर से बाल बराबर झरें
गले में भी कुछ अटका रहे
नज़रों में कुछ खटका रहे
हल्की सी आवाज़ से दिल धक्क सा करे
तब समझ लेना उलझन में हो।
कभी मेरी याद आये
और यह अधिकार ना हो कि
तुम मुझ तक अपनी याद पहुँचा सको
मुझ से बातें ना कर सको
माध्यम ना मिले जब मुझ तक पहुँचने का
मोबाइल को उठा-उठा कर फिर रख दो
बार-बार ये लगे कि अभी फ़ोन बीप करेगा
तब समझ लेना उलझन में हो।
बस घबरा कर चाय या कॉफ़ी पीने चल दो
घर में इधर-उधर घूम कर कोई काम करो
कोशिश करो ध्यान कहीं और भटकाने का
पर हर बार हार जाओ
किसी से बात ना करने का मन हो
किसी की बात सुनने का ना मन हो
हर बात पर जब चिड़चिड़ा जाओ
और अंत में रो-धो कर सो जाओ
तब समझ लेना उलझन में हो।
दुःख
(कोरोना काल की कविता)
बीते वक़्त के साथ जाना
दुःख की उतनी ही श्रृंखलाएं हैं
जितनी किसी पुराने बरगद में जटाएँ
एक माँ का दुःख जाना
जो पहले खुद विधवा हुई फिर
अपनी बेटी को विधवा होते देखा
अब वह मौत माँग रही है पर
ऋण शायद अब कोई भारी है
जीने की सज़ा अभी जारी है
एक बेटी का दुःख जाना
जब भी वह सुबह आँखे खोलती है
माँ को टोकने के लिए आगे बढ़ती है कि
उन्होंने बिंदी क्यों नही लगाई?
शब्द पनपे उससे पहले ही वह ठिठक कर रह जाती है
माँ को श्रृंगार बिना देखने से
ईश्वर में उनकी विरक्ति पनप रही है
पिता के जाने से असुरक्षा जागती है
माँ के खामोश हो जाने से बची खुची सुरक्षा मर जाती है
एक बेटे का दुःख जाना
जवान बेटे ने जवान बाप को मुखाग्नि दी
वह जितना चुप है,
उसकी चुप्पी उतना बोलने को विचलित
वह मुस्कुरा रहा है माँ और बहनों को देख कर
माँ और बहनें मुस्कुरा रही हैं उसे देख कर
डर है उन सबको
यह गम उनमें से किसी और को ना निगल जाये
मुस्कुरा कर गम बांटना बीती बात है
वे तो आगे का जीवन बाँट रहे हैं |
ये माँए
पीपल के उन सूखे पत्तों सी हैं
जिन पर स्याह रंग से उकेरे जाती हैं
ब्रह्मांड की सबसे गूढ़ और गंभीर संवेदनायें
और उन्हें रखा जाता है किसी
पौराणिक ग्रंथ के बीच!!
जो कठोर रहे
जो जितने कठोर रहे दूसरों के प्रति
अपने प्रति उससे अधिक कठोर रहे
कठोर देखने वाला कठोरता महसूस कर पाता है
कठोरता करने वाला
कठोरता को जीता है।
जितनी कम बातें उन्होंने की
उनको उतनी बातें सुननी पड़ी
शब्दों की कमी सुनने वाले के
घंटे खराब करती है
और कहने वाले का सारा जीवन।
दूसरों को दुःख देते वक़्त
दुःख सहने वाले को पीड़ा हुई
दुःख देते वक़्त
देने वाले को पीड़ा संग अवसाद हुआ
देने वाले का मन ज़्यादा दुखा।
सही की राह पर चलने वाले
हमेशा गलत साबित होते रहे
सही की राह में गलती करना
गलत से भी ज़्यादा गलत हो जाता है।
न्याय देना चाहते थे वे
अन्याय के भागीदार बने रहे
सबको एक नज़र और एक समानता चाहिए
पर सिर्फ तब तक जब तक वे पंक्ति से बाहर खड़े हों।
दूसरे की टूटन जोड़ने की सोच
उनके मन को खुरचती रही
जीवन भी काँच सा है
टूटन छूने पर लहू बहेगा ही
जीवन लकड़ी की फांस सा है
ज़्यादा सहलाने पर कहीं धंसेगा ही।
सबको माफ़ करने वाले को
कभी माफ़ी नहीं मिलती
अपने कर्तव्य के प्रति अंधभक्ति
आपके हिस्से में उम्मीदें भर देती है
एक उम्मीद पर खरा उतर सकना
आपको माफ़ी के काबिल नहीं रखता।
वे माफ़ी माँगने में शर्म महसूस करते हैं
उनकी शर्म उन्हें घमंडी बनाती है
उम्मीद पूरी करने वालों को
ये अधिकार नहीं कि
वे एक बार बिना माफ़ी माँगे
माफ़ किये जा सकें।
प्रेम बसता है उनके मन में
जो अपमान सहना जानते हैं
दया जानता है वह मन
जो अपमान भूलना जानते हैं
अगर वे कुछ नहीं जानते हैं
तो सिर्फ़ इतना कि
लोगों को पीछे छोड़ आगे बढ़ जाना।
आँखें भीड़ देख नहीं बहती
उनकी स्थिति उस गाय सी होती है
जो अपना बच्चा जनना चाहती है
पर एकांत ढूंढ रही है
पीड़ा में एकांत सबको नसीब नही होता
कुछ आँखे भी एकांत चाहती हैं
आँखों का सबके सामने ना बहना
कम इंसानियत का प्रमाण है।
अपनी नज़र से जो जाते देखता है अपनों को
वे अपने तक कभी नहीं लौट पाता
जाने वाले का मुड़कर ना देखना
उसके मन का एक हिस्सा बांध ले जाता है
आत्मा के टुकड़े होते हैं
दिखते नहीं पर होते हैं
कुछ लोग ऐसे भी मरते हैं
कुछ लोग ऐसे भी मरते हैं!!
टूटने का क्रम
टूटने के क्रम में
सबसे पहले टूटता है भ्रम
जमकर टूटता है क्रोध
सिसक कर टूटता हैं संवाद
चरमरा कर टूटती हैं उम्मीदें
चूर हो टूटते हैं रिश्ते
छलनी हो कर टूटता है स्नेह
घेर कर तोड़ा जाता है मान
खनक कर टूटता है सम्मान
दम घुट कर टूटता है आत्मसम्मान
सिमट कर टूटती है मर्यादा
फूट कर टूटता है इंसान
सन्नाटे में टूटता है धैर्य
और अंत में शांति में टूटती है आत्मा!!
मन का ज़हर
फिर नहीं चुभती हैं वह नज़रें
जिनकी नज़रों में नज़रें डाल
आपने बुन डालें हो मन के ज़हर के ताने-बाने
एक दूजे के मन का ज़हर पी लेना
मन को तो हल्का कर देता है
पर जीवन को भारी।
ज़हर का भी अपना विज्ञान है
ख़ुद ज़्यादा मात्रा में पीने से
दूजा आपको कमज़ोर समझता है
दूजे को ज़्यादा मात्रा में पिलाने से
आप बन जाते हैं और भी ज़हरीले
बराबर मात्रा में ज़हर का स्वाद
दोनों की स्थिति को कर देता है एक लावारिस लाश सा
जिनके दोबारा नज़रों में डूबने का समय हो चुका है पूर्ण
वे हमेशा लहरों में उतरा कर बहेंगे
उनका यूँ सतह पर उतराते बहना
देता रहता है चीलों को कौओं को निमंत्रण
कि वे भी आयें और
नोच-नोच कर, कर दें उस बदन में इतने घाव
कि उन घावों से निकल वह ज़हर
कर दे पूरी नदी को ज़हरीला
ज़हर का अपना दर्शन भी है
विद्या प्राप्ति के लिये ज़हर पीना
ज़रूरी नही कि आपको अर्जुन ही बनाये
आप बन सकते हैं एकलव्य और कर्ण
कट सकता है अगूंठा, विस्मरण हो सकता है विद्या का
सम्मान प्राप्ति के लिये ज़हर पीने से
ज़रूरी नहीं आप बन जाये विभीषण और
प्राप्त हो जाये सोने की लंका
आप बन सकते हैं सीता
देनी पड़ेगी अग्नि परीक्षा, काटने होंगे वन में दिन
समाना होगा धरती में
आत्मसम्मान के लिये ज़हर पीने पर
ज़रूरी नहीं आप बन जायें भीष्म पितामह
प्राप्त कर लें इच्छा मृत्यु का वरदान
आप बन सकते हैं द्रौपदी
घसीटा जा सकता है आपको सभा में
हो सकती है महाभारत
अपनों के हित के लिये ज़हर पीने से
ज़रूरी नहीं आप बन जायें गोविंद
रच डाले नारायणी सेना
आप बन सकते हैं अभिमन्यु
घिर सकते हैं चक्रव्यूह में
रथ का टूटा हुआ पहिया हाथ में उठाये!!
स्त्री प्रकृति होती है
प्रेयसी प्रेम करते वक़्त हृदय की
सम्पूर्ण भावनाओं को सौंप देती हैं अपने प्रेमी को
खुद को किसी को सौंपने से पूर्व
वह नहीं सुनती अपने पूर्वाभास की
प्रेम उसे अंधा नहीं, निर्णयहीन कर देता है
उसके प्रेमी को प्रेम नहीं खुद्दारी पसन्द है
प्रेम उसे खुद्दारी सिखाता है
ख़ुद की वास्तविकता बदल प्रियसी खुद्दार हो जाती है
पहले प्रेमी की ख़ुद्दारी उसे मारती है
उसके जाने के बाद,
उसकी सिखाई हुई ख़ुद्दारी से वह ख़ुद को मारती है
वह जो उसे अस्वीकार गया
वह ही उसे खुद को अस्वीकार करना सिखा गया
अपने वास्तविक स्वरूप को त्याग देने के बाद
अवास्तविक स्वरूप को ईश्वर नहीं स्वीकारता
ईश्वर भी ख़ुद्दारी जानता है
जो चीज़ जैसी बना कर भेजता है वैसी ही वापस लेता है
प्रेमी भगवान से भी ऊपर है
प्रेयसी सृष्टि की सबसे नीच योनि से भी नीच
उसने ईश्वर को साधे बिना ख़ुद को बदल डाला
इस दुनिया और उस दुनिया के बीच ये प्रेयसियाँ
बादलों के बीच ही रहतीं हैं
इस प्रकृति की जितनी कोमलता है, सुंदरता है
उस सुंदरता ने इन प्रेयसियों की आत्मा को
अपने वजूद में सोख रखा है
वे जिनके पुरुष नहीं होते हैं
उनकी प्रकृति होती है
या यूँ कहूँ
वे ही प्रकृति होती हैं।
आत्मा की मृत्यु
आत्मा की मृत्यु भी दो तरीके से होती है
पहले वे लोग
जिनकी आत्मा मरी है
वे दूसरे की आत्मा भी मार रहे हैं
यातना देना इन्हें सुख देता है
इनकी बुद्धि इनकी नैतिकता को मारती है
दूसरे वे
जिनकी आत्मा मरी
और वे चिर एकांत में चले गये
इन्हें नहीं भाता कभी
प्रश्न करना
उत्तर देना
ये अपनी ही आत्मा को बार-बार मारते हैं
करते हैं अंतिम संस्कार अपनी हर ईच्छा का
इनकी नैतिकता इनकी बुद्धि मारती है।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
ई मेल : nehasinghjb06@gmail.com
कविताओं मेँ समय का ताप है और दर्द भी। टंकण मेँ कुछ भूलें हुई हैं। साफ़गोई से संवेदनशील तरीके से बात रखी गई है। अच्छी रचनाओं की सराहना होनी चाहिए। कई बार चुप्पी अच्छी नहीं लगती है।
जवाब देंहटाएंललन चतुर्वेदी