शंभुनाथ का आलेख 'आत्मनिरीक्षण का जोखिम'
किसी भी व्यक्ति के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होता है आत्म निरीक्षण। हालांकि आज का समय ही कुछ ऐसा है कि लोग आत्म निरीक्षण से बचना चाहते हैं। व्यक्तित्व के विकास के लिए यह बहुत जरूरी होता है। कबीर अपना आत्म निरीक्षण करते हुए कहते हैं 'बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय। जो दिल खोजा आपना मुझ सा बुरा न कोय।' यह आत्म निरीक्षण कमजोर व्यक्ति कर ही नहीं सकता। इसके लिए साहस की जरूरत होती है। इस आत्म निरीक्षण पर ही शंभुनाथ जी ने ’वागर्थ’ मई-2023 की अपनी संपादकीय लिखी है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं शंभुनाथ का आलेख 'आत्मनिरीक्षण का जोखिम'
'आत्मनिरीक्षण का जोखिम'
शंभुनाथ
कई बार मनुष्य के पास सिर्फ एक उपाय होता है, ‘जो घटित हो रहा है उसे चुपचाप जियो’। यह अंधेरे का फोटो खींचने से अलग हो सकता है, यदि हमारे सामने यह सवाल हो- ‘फिर भी यह जीवन अपना है, तो इसका क्या अर्थ है?’ इस प्रश्न का संबंध सबसे पहले आत्मनिरीक्षण से है। भारतीय समाज में सामंती मानसिकता की प्रधानता के कारण यह कठिन है, पर जरूरी है।
हमें जिन चीजों से परेशानी होती है, सबसे पहले यह देखने की जरूरत है कि क्या वे हमारे अंदर भी हैं। इकबाल ने कहा है,
‘अपने मन में डूबकर पा जा सुराग-ए-जिंदगी
तू अगर मेरा नहीं बनता न बन, अपना तो बन।’
आत्मनिरीक्षण पुनर्निर्माण की ओर बढ़ा पहला कदम है। इसमें तकलीफ होती है, पर अपनी जड़ता से मुक्ति अंततः एक आनंददायक चीज है। दास्तोवस्की ने कहा था, ‘सबसे समझदार व्यक्ति वह है, जो महीने में कम से कम एक बार अपने को मूर्ख कहता है।’ दरअसल अपने पर हँसना भी सीख लेना चाहिए।हालत यह है कि प्रभुत्व की एक न एक सीढ़ी पर खड़ा आज का ‘सभ्य’ आदमी अपनी हर रुचि, विचार और आचरण को श्रेष्ठ समझता है। इस तरह आत्मनिरीक्षण का प्रधान शत्रु आत्मविमुग्धता है, जिससे अधिक नुकसानदेह कुछ भी नहीं।
आत्मनिरीक्षण या आत्मालोचन का अर्थ अपना निषेध करना नहीं है, अपनी जड़ीभूत बौद्धिक पूर्वदशा का अतिक्रमण करना है।भारतेंदु हरिश्चंद्र का एक राजभक्त से ‘अंधेर नगरी’ (1881) की चेतना तक पहुंचने का क्या अर्थ है? मार्क्स ने 1853 में भारत के बारे में लिखते हुए उपनिवेशवाद का औचित्य बताया था। लेकिन आगे चलकर 1857 में उन्होंने पहले से एकदम भिन्न कहा और अपने को सुधारा- उन्हें शर्म नहीं आई।
हट जाइए, धूप आने दीजिए
ग्रीक दार्शनिक सुकरात ने कहा था, ‘आत्मनिरीक्षण सभी नैतिक सत्यों की बुनियाद है।’ यह कठिन काम है। आखिर कोई कैसे अपने ही मस्तिष्क में घुस कर जांच-परख करे, घटनाओं की अधिक वस्तुनिष्ठता से व्याख्या करे और जीवन के उद्देश्यों को एक बड़े परिप्रेक्ष्य में समझे। यह सब कठिन है, फिर भी सभ्यता के हर मोड़ पर लोगों ने आत्मनिरीक्षण किया है, क्योंकि इसके बिना पुनर्निर्माण संभव नहीं है। ‘कठोपनिषद’ में नचिकेता अपने पिता बाजश्रवा की संकुचित भौतिकवादी दृष्टि से असंतुष्ट होता है, क्योंकि वे लोभ और क्रोध से भरे हुए थे। नचिकेता अपने समय में बह जाने की जगह प्रश्न करता है, क्योंकि उसे ज्ञान चाहिए। वह बेझिझक मृत्यु के सामने खड़ा होता है। नचिकेता का अर्थ है, न-चि-केता, अर्थात यह जानना कि वह नहीं जानता है!
एथेंस में जब देववाणी हुई कि सुकरात सबसे बड़ा ज्ञानी है तो सुकरात ने इसकी व्याख्या करते हुए यही कहा कि देववाणी का अर्थ है, ‘मुझे यह ज्ञान है कि मैं कुछ नहीं जानता हूँ।’ जो ज्ञानी है, वह वस्तुतः यही जानता है कि वह कितना कम जानता है। छोटी मछलियां ज्यादा उछलती हैं!
जेम्स ज्वायस ने अपनी एक कहानी ‘ए पेनफुल स्टोरी’ में एक चरित्र के संबंध में कहा था, ‘वह अपनी देह से एक दूरी पर रहता था।’ आज कहा जा सकता है कि आदमी अपनी देह के बाहर निकलना नहीं चाहता। उसका दिमाग आधा सो गया है। स्मार्ट फोन उसके पास है, पर वह खुद अपने पास नहीं है। वह परवश है, वस्तुतः अपने आपसे ‘डिसकनेक्ट’ हो गया है! ऐसे में जरूरत होती है कि वह देखे- कैसे सांस ले रहा है, किस तरह जी रहा है।वह किसी भी तरह से अपने को पकड़े, ताकि खो न जाए!
राजसी वैभव के साथ आए सिकंदर ने डायोजिनिस से पूछा, ‘मैं आपके ज्ञान का सम्मान करने आया हूूं। कहिए, क्या करूं?’ दार्शनिक ने विनम्रता से कहा, ‘यहां से हट जाइए, धूप आने दीजिए!’ ज्ञान के वैभव के सामने तब धनबल और बाहुबल का वैभव फीका था। जैसा डायोजिनिस था, वैसा ही गाड़ीवान रैक्व भी। यदि आज थोड़े से सुख, सम्मान या पुरस्कार के लिए इतनी रणनीतियां और चुप्पियां हैं तो यह सब इसका लक्षण है कि शिक्षा तथा साहित्य के संसार में दोपहर में अंधेरा है। किताबें बहुत ज्यादा हैं, पर ज्ञान की कमी हो गई है।
स्मार्ट बहुत हैं, संवेदनशील कितने हैं?
आज के शिक्षित लोग कैसे हैं? आज पढ़ा-लिखा या ज्ञानी होने का अर्थ है, अच्छी नौकरी मिलते ही सबसे पहले एक बड़ी कार खरीदना, साधारण जनों से मिलना-जुलना बंद कर देना और तड़ातड़ ‘अदर’ निर्मित करना तथा उसको शत्रु घोषित करना। अब आदमी अपनी योग्यता की जगह अंधी वफादारी के बल पर कुछ पाना चाहता है। वह हर चमकती चीज के पीछे दौड़ता है। वह न सिर्फ आधुनिकता-विवेक, बल्कि परंपरा-विवेक भी खोता जा रहा है।
देश में राजाश्रय में रहने और राजाओं द्वारा पुरस्कृत होने को गौरव से देखने की परंपरा पुरानी है। राजा जनक ज्ञानियों के अखाड़े में जब याज्ञवल्क्य के ब्रह्मज्ञान से प्रसन्न हो गए, उन्होंने स्वर्ण जड़े सींगों वाली एक सौ दुधारू गायों का उपहार दिया। याज्ञवल्क्य ने अपने शिष्यों से कहा ‘ये गाएं घर ले चलो, ये मुझे चाहिए।’
याज्ञवल्क्य से उनकी विदुषी पत्नी मैत्रेयी भिन्न हैं। दोनों के बीच एक संवाद है। इससे पता चलता है कि प्राचीन क्लासिकल साहित्य में लोभ से विमुखता के भी वृत्तांत हैं। जब याज्ञवल्क्य मैत्रेयी को धन देना चाहते हैं, वह कहती है, ‘धन से कभी मनुष्य की तृप्ति नहीं हो सकती। जिस चीज से मैं अमृतमयी नहीं हो सकती, वह ले कर मैं क्या करूँगी।’ (बृहदारण्यक उपनिषद)। आज बाजार ने आदमी के लोभ का विस्तार धरती से आसमान तक कर दिया है। पब्लिक भी उसे ही श्रेष्ठ और महान मानती है, जिसने सही-गलत करके प्रबंध-पटुता से प्रचुर धन, उच्च सत्ता और तात्कालिक यश प्राप्त कर लिया है। आम लोगों के मन पर साधारणतः अंतर्वस्तु की तुलना में ग्लैमर भरे प्रचार का असर ज्यादा होता है।
भक्त कवि आत्मनिरीक्षण करते रहे हैं। सूर का उदाहरण लें, वे अपने कई पदों में बेहिचक कहते हैं कि वे लोभी, विषयासक्त, कुटिल और नासमझ हैं। उन्होंने न कभी कोई त्याग किया और न जरा भी अध्ययन किया। वे इस तरह की बात बार-बार कहते हैं, ‘मो सम कौन कुटिल खल कामी।’ क्या सूरदास ऐसे थे? यदि नहीं, तो इस तरह क्यों कह रहे थे? सूर ने ‘मैं’ को सामाजिक आत्मालोचन का जरिया बनाया। वे अपने जमाने की बुराइयों के बारे में कह रहे थे और सभी के ‘पापों’ का भार अपनी चेतना पर ले रहे थे। आज भी वैसे ही कलेजे की जरूरत है कि लोग देखें- वे कितने स्वच्छ और कितने कुटिल हैं, कितने त्यागी और कितने लोभी हैं, कितने सामाजिक और कितने स्व-केंद्रित हैं।
यह प्रश्न आज किया जाना चाहिए, स्मार्ट बहुत हैं, संवेदनशील कितने हैं?
क्या सिद्धांत विचारों के लिए जेल है
हमने देखा है कि 20वीं सदी में सबसे ज्यादा सिद्धांत बने। वह सिद्धांतों की सदी थी और इनके चूर-चूर होने की, ‘पोस्ट थियरी’ की भी। नए-नए पर्यवेक्षण के आधार पर बने सिद्धांत बताते रहे हैं कि कुछ भी क्यों घटित हो रहा है और क्या किया जाए।सिद्धांत बने और चूर-चूर हुए, इसका यह अर्थ नहीं है कि वे बेकार थे। सिर्फ यह कहा जा सकता है कि हर सिद्धांतकार के पर्यवेक्षण की अपनी सीमा थी। दुनिया की सारी चीजों का आकाश किसी खास पर्यवेक्षण में समा पाना संभव नहीं है।
कई बार कोई खास सैद्धांतिक सोच आकार लेना शुरू करती है कि चीजों के अस्थिर चरित्र से टकरा कर टूट जाती है। यह भी देखा गया है कि कई सिद्धांत अपना एक कठोर राजनीतिक केंद्रवाद बना लेते हैं, उनमें खुलापन नहीं होता। वे अंधविश्वास का रूप ले लेते हैं। इतिहास गवाह है कि कई बड़े सिद्धांत बने थे, पर दुनिया उन्हें संभाल नहीं सकी। क्योंकि कुछ समय बाद ही सिद्धांत और आचरण में भारी फर्क आ गया- एक भिन्न यथार्थ सामने आ गया।
मनुष्य एक इंद्रियपरायण प्राणी है, वह फिसलता है। इसके अलावा, दुनिया के बदलने की रफ्तार सिद्धांतों के बनने और अमल में लाने की रफ्तार से तेज है। खासकर वैश्वीकरण, आर्थिक सुधार और तकनीकी क्रांति ने दुनिया को एक बेहतर जगह बनाने का स्वप्न दिखाकर आज इसे एक खूबसूरत नरक में बदल दिया है, जो अनंत है। इसमें सिद्धांत के लिए कोई जगह नहीं है।
देखा जा सकता है कि जब सिद्धांत अर्थहीन हो उठते हैं, समाज विघटित और बाजार संगठित होने लगता है। सब कुछ विकाऊ हो जाता है, भीड़ ही सब कुछ होती है। ऐसे में अकेला होना भी बहुत अर्थ रखता है।
क्या सिद्धांत विचारों के लिए एक जेल है? यदि सिद्धांत में खुलेपन और पुनर्गठन के लिए स्पेस नहीं है तो वह एक जेल है। किसी सचमुच की नई साहित्यिक कृति का लिखा जाना जेल तोड़कर बाहर निकलना है। लेखक कई बार संसार को बदलना चाहता है, पर अपनी पुरानी धारणाओं और कल्पनाओं से बाहर निकलना नहीं चाहता। वह अपनी बनाई जेल नहीं तोड़ना चाहता, जबकि उसके सामने चुनौतियां नई होती हैं। कई राजनीतिज्ञ तो जनता को जगाते-जगाते खुद बीच रास्ते में सो गए!
जब भाषाओं तक पहुंचता है ध्वंस
निरंतर आत्मजागरूक रहने के लिए अपने को और अपनी सोच को थोड़े-थोड़े समय बाद जांचते-परखते रहना जरूरी है। इससे बेहतर आत्मबोध के अलावा, सामाजिक संबंधों और लक्ष्यों का विस्तार होता है। टालस्टाय की एक कथा में है, एक भिखारी जिस जगह बैठ कर भीख मांगता था, कभी नहीं जान पाया कि वहां वस्तुतः सोने का बर्तन था!
आत्मनिरीक्षण तभी संभव है, जब ‘आत्म’ बचा हो। 20वीं सदी में आधुनिकीकरण और वैश्वीकरण के विविध रूपों ने ‘आत्म का संकट’ पैदा किया। मनुष्य मशीनों, उपभोक्ता वस्तुओं और संकुचित राजनीतिक स्वार्थों से घिरता गया तो ‘आत्म का संकट’ बढ़ता गया। औपनिवेशिक युग के ‘हम और वे’ ने धर्म, जाति, प्रांतीयता आदि के संदर्भ में अपना उत्तर-औपनिवेशिक नवीनीकरण किया। इसके बावजूद, 20वीं सदी में ऐसे साहित्यिक और सामाजिक उदाहरणों की कमी नहीं है, जहां आत्मान्वेषण, आत्मसंघर्ष और आलोचनात्मक सोच की प्रवृत्तियां मिलती हैं, जहां नियति से मुठभेड़ हुई है और ‘आत्म का पुनर्निर्माण’ संभव हुआ है।
औपनिवेशिक-सामंती ताकतों द्वारा देश में बड़े स्तर पर जो ध्वंस घटित हुआ था, उसका प्रसार स्मृतियों से ले कर स्वप्नों तक हुआ। वह ध्वंस हमारी भाषाओं तक पहुंचा। भाषाओं के ध्वंस से तात्पर्य है तर्क शक्ति और कल्पनाशीलता का ध्वंस, शब्दों के अर्थ का ध्वंस। ऐसे समय में भी समाज और साहित्य दोनों जगहों पर तरह-तरह से इस संकट का सामना करने की कोशिश हुई है।ध्वंसों के बीच पुनर्रचना के प्रयास हुए हैं।
पूंजीवादी सभ्यता ने समाज के रिश्तों को छिन्न-भिन्न कर लोगों को मॉब, डार्क मासेज और उन्मत्त झुंड में बदलना शुरू कर दिया था। सभी किस्म के ऊँचे आदर्श छिन्न-भिन्न होने लगे थे। मुक्तिबोध की ‘एक साहित्यिक की डायरी’ लगभग ग्रीक संवाद की शैली में है। इसमें वे प्रश्न करते हैं कि इन वर्षों में सबसे बड़ी भूल कौन-सी हुई? फिर खुद जवाब देते हैं, ‘राजनीति के पास समाज सुधार का कोई कार्यक्रम न होना। साहित्य के पास समाज सुधार का कोई कार्यक्रम न होना। सबने सोचा, सामान्य बातें करके सिर्फ और एकमात्र राजनीतिक और साहित्यिक आंदोलन के जरिए वस्तुस्थिति में परिवर्तन कर सकेंगे।’ सभी ने अधूरा छोड़ दिया समाज सुधार की परियोजना को। सभी ने शार्ट कट चुना। वे भाषा के ध्वंस को नहीं रोक सके। वे उसका हिस्सा बन गए, क्योंकि ‘आधुनिक सभ्यता के वन में व्यक्तित्व-वृक्ष सुविधावादी’ होते गए! क्रांति के बुलेट गुलाब की पंखुरियों में गल गए!
आधुनिक दृष्टि खो दी,
उत्तर–आधुनिक अंधापन छा गया
आधुनिक लेखिका महादेवी वर्मा की पंक्ति है,
‘अलि मैं कण-कण को जान चली।
सबका क्रंदन पहचान चली।’
उत्तर-आधुनिक विमर्शों में ‘सबका क्रंदन’ पहचानने के लिए ‘स्पेस’ नहीं रह गया। स्त्रीवाद, दलित विमर्श तथा अन्य विमर्शों ने ‘सफरिंग’ को अपने-अपने सामुदायिक खाने में सीमित कर के देखा। इन्होंने हाशिए की पीड़ा को ‘कण-कण’ की सामाजिक चेतना से जोड़ने की कोशिश नहीं की। वस्तुतः आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता की विपरीतावस्था ने उत्तर-आधुनिकता का नुकसान किया, अंततः उत्तर-आधुनिकता भी पाखंड में बदल गई।
देखा जा सकता है कि उत्तर-आधुनिकता, उत्तर-औपनिवेशिक सिद्धांत और विमर्शवाद ने आज हमारे समाज को जिस हिंसक मोड़ पर, बंद गली में खड़ा कर दिया है उसकी बुनियाद में आत्मनिरीक्षण, संवाद और पुनर्निर्माण की प्रवृत्तियों का कमजोर पड़ना है।यह आधुनिकता के अंध-विरोध, बंधुत्व, बुद्धिवाद, भारतीय राष्ट्रीयता, लोकतंत्र, प्रगतिशीलता आदि आधुनिक दृष्टियों से त्यागपत्र का नतीजा है।
कहा जा सकता है, सभी विमर्श–महाविमर्श पोस्ट–माडर्न हैं।इनका आधुनिकता से लेना–देना नहीं है। आधुनिक दृष्टियों में ‘हाशिया’ की उपेक्षा की गई थी– स्त्रियों, दलितों, आदिवासियों और कई अन्य मामलों की उपेक्षा की गई थी। इसलिए नई आवाजों की जरूरत थी। इसके एवज में आधुनिकता की तर्क शक्ति, कल्पनाशीलता, सुधारवाद और मानवता के ऊंचे आदर्शों को खो देना कतई बुद्धिमत्तापूर्ण न था।
पिछले करीब चार दशकों से ‘भिन्नता’ के जो उत्तेजनापूर्ण सैद्धांतिक विमर्श तैयार हो रहे हैं, उनकी वजह से समाज में ‘साझापन’, ‘साझा सच’, कॉमन प्लेस खोता जा रहा है। यह अंततः राष्ट्रीय आत्मघात है। आज हमारा समाज बौद्धिक गत्यवरोध का शिकार है। वह मतांधताओं में फंसा हुआ है और हिंसा का मैदान है।
आधुनिक दौर में एक और चीज सामने आई थी- ‘आत्मस्वीकारोक्ति’, अर्थात इसका बोध कि हम दिशाहारा हो गए हैं। साठ के बाद के आधुनिक साहित्य में क्षयशील हो चले इतिहासबोध, आक्रामक बड़े संगठन और खोखली विचारधाराओं से खुले विद्रोह का स्वर है। इस काल के साहित्य में प्रधानता व्यवस्था से आक्रोश और उसे निर्भीकतापूर्वक एक्सपोज करने की थी।
राजकमल चौधरी ने ‘मुक्तिप्रसंग’ की भूमिका में एलेन गिंसबर्ग की ‘हाउल’ कविता से एक उद्धरण देते हुए लिखा है, ‘मैंने अनुभव किया है, स्वयं को और अपने अनुभव को मुक्त किया जा सकता है।… इस अनुभव के साथ ही, दो समानधर्मा शब्द (हैं)- जिजीविषा और मुमुक्षा (मुक्ति कामना)।… सती वर्तमान के अग्नि जर्जर शव को अपने कंधों पर मैं शिव की तरह धारण करता हूँ। मैं इस शव के गर्भ में हूँ और शव मेरे कंधे पर है। इसकी विकृति, बीभत्सता और दुर्गंधों में मुझे जीवित रहना ही पड़ेगा।’ वर्तमान एक अग्निदग्ध शव है, पर इस शव में ही नियति से मुठभेड़ करता हुआ व्यक्ति का स्व है।
इसका अर्थ है, एक समय तक ‘व्यक्ति’ की मृत्यु नहीं हुई थी, लोगों में संघर्ष का माद्दा और एक मानवीय स्वाभिमान था।लेखकों में ‘आत्मस्वीकारोक्ति’ के साथ ‘मुक्ति की कामना’ थी। वे नया पथ पा नहीं सके थे, पर खोज रहे थे।
हम देख सकते हैं कि 21वीं सदी में मानवीय स्वतंत्रता और स्वाभिमान की रक्षा एक नुकसानदेह मामला है। पोस्ट-माडर्न व्यक्ति को ऐन-केन प्रकारेण सत्ता-व्यवस्था में हिस्सा चाहिए, भ्रष्टाचार में हिस्सा चाहिए और बहुत अधिक सुख चाहिए, चाहे इसके लिए धर्म, जाति, प्रांतीयता के आधार पर जितना अधिक संकीर्ण होना पड़े और जिस हद तक गुलामी मंजूर करनी पड़े।
पोस्ट-माडर्न को आत्मान्वेषण, आत्मसंघर्ष, आत्मस्वीकारोक्ति, आत्मनिरीक्षण, आत्मशोध, आत्मसुधार के मार्ग पर नहीं चलना है, क्योंकि ये आलोचनात्मक सोच की ओर ले जाते हैं। ये कई बार अकेलेपन की ओर ले जाते हैं, जबकि मुक्ति हिंसक सामुदायिक झुंड में है। आज किसी को अकेला हो जाना पसंद नहीं, भले हर संबंध अब एक रणनीतिक गठबंधन हो। पोस्ट-माडर्न विमर्शवादियों की मुक्ति कूपमंडूकता में है, सुखवाद में है, सामूहिक हुल्लड़ में है। उनके पास बेरोजगारी को लेकर या मनुष्य और मनुष्य के बीच बढ़ती विषमता को लेकर कोई चिंता नहीं है। लोग दृष्टिकोण के स्तर पर जरा भी माडर्न नहीं हो पाए और पोस्ट-माडर्न हो गए!
यदि आत्मनिरीक्षण नहीं है तो यह बौद्धिक आत्मक्षय है
प्रेमचंद ने ‘हंस’ के आत्मकथा अंक (1932) में लिखा था, ‘एक आदमी अपने जीवन के तत्व आपके सामने रखता है, अपनी आत्मा के संशय और संघर्ष लिखता है, आपसे अपनी बीती बात कहकर अपने चित्त को शांत करना चाहता है, आपसे अपील करके अपने उद्योगों के औचित्य पर राय लेना चाहता है।’ ऐसी आत्मजीवनियों में आत्मसंशय रहा है, लेखक ‘सेल्फ क्रिटिकल’ रहे हैं। उनकी स्मृतियों का कल्पना और नवोन्मेषों से संबंध रहा है। उस युग की आत्मकथाएँ होमोजीनियस नहीं थीं। जितने तरह के लेखक थे- गांधी, उग्र, यशपाल, अमृता प्रीतम, हरिवंश राय बच्चन, मन्नू भंडारी, तुलसीराम- उतनी तरह की आत्मकथाएं रही हैं। हर आत्मकथा अनोखी थी।
हम पिछले कुछ दशकों की दलित और स्त्री आत्मकथाओं में लेखकों का स्वानुभव पाते हैं। उनके ऊपर हुए सामंती अत्याचारों के चित्र पाते हैं। वे आपबीती बातें कहते हैं, विमर्श यहां तक ठीक हैं। ये आधुनिकता में दबी चीखों को उद्घाटित करते हैं। यह एक बड़ी क्षतिपूर्ति है- जो लगातार सुनते आ रहे थे, उनका बोलना।लेकिन ऐसे विमर्श तब विमर्शवाद बन जाते हैं, जब दो चीजें प्रतिबंधित हो जाती हैं। पहली चीज, आत्मसंशय और दूसरी चीज, मनुष्य की पीड़ाओं के बीच पुल।
कई बार विमर्शवाद उत्तेजनात्मक भिन्नता–प्रदर्शन से भिन्न नहीं होता। उसे अपने सामुदायिक सरोकार से बाहर की चीजों के बारे में जानना जरूरी नहीं लगता, उन चीजों का अंधाधुंध नकार काफी होता है। दरअसल विमर्शवाद विचारहीन विमर्श है।विमर्शवादी तालाब में जहाज पकड़ना चाहता है। धर्म, जाति, जेंडर आदि के आधार पर विमर्शवादी लेखन में प्रकृति गायब है, प्रेम गायब है, विस्तृत सौंदर्यबोध गायब है, सिर्फ घृणा का राज्य है।
आज के अधिकांश विमर्शों में अपने आप से प्रश्न नहीं है, अपने से आवश्यक सृजनात्मक दूरी नहीं है। बल्कि आत्मग्रस्तता है, आत्म-औचित्यीकरण और एक हद तक व्यक्तिवाद है। किसी भी तरह का स्वार्थ जब सिर उठाता है, विवेक पैरों तले होता है। एक और बात है, इतिहास को खलनायक बना दिया जाता है और नायक पूजा होती है। सबके अपने-अपने नायक होते हैं।सबका अपना-अपना बौद्धिक कारागार होता है।
ऐसे विमर्शों-महाविमर्शों ने ज़ाति, जेंडर, धर्म और प्रांतीयता के आधार पर लोकप्रियतावादी अपनी-अपनी राजनीति खड़ी करने में जरूर सफलता पाई है, अपना मार्केट भी बनाया है, लेकिन समाज में दावानल की तरह फैली ‘भिन्नता’ और ‘घृणा’ की कीमत पर, एक वैश्विक व्यापारिक उत्पीड़न के सामने निस्सहाय बनाकर और धार्मिक कूपमंडूकता में वृद्धि का अवसर दे कर। घृणा के तवे को गरम रखना वस्तुतः एलीट वर्गों के हित में गया है।
विमर्शवादी सोच हर बिंदु पर पृथकता का संदेश देता है और किसी बिंदु पर अ-पृथकता का नैरेटिव नहीं बनता। वह आत्ममोह में अंततः एक व्यापक बौद्धिक क्षय का हिस्सा बन जाता है। यह सोचने का वक्त आ गया है कि जहां आत्मनिरीक्षण नहीं होगा, वहां बौद्धिक आत्मक्षय एक स्वाभाविक घटना है।
सैद्धांतिक कट्टरवाद और आत्मनिरीक्षण एक साथ संभव नहीं है
एक समय मनुष्य-मनुष्य में भेद पैदा करने वाला हर दृश्य लेखक को व्यथित करता था। सिर्फ लेखक ही नहीं, शिक्षक, वकील, ऑफिस कर्मचारी, छोटे व्यापारी भी संवेदनशील थे। उनमें देश के महान कवियों-लेखकों और अन्य उदार व्यक्तित्वों के प्रति आदर भाव था। वे सामाजिक अन्याय को सिर्फ अपने समुदाय के साथ होने वाले अन्याय तक सीमित करके नहीं देखते थे। वे समसमय की कई समस्याओं को देख कर विचलित होते थे। वे देश-विभाजन, स्वाधीनता के स्वप्नभंग, कृषकों की पीड़ा, सामाजिक विषमता, उद्योगीकरण के बुरे प्रभाव, उपभोक्तावाद, मध्यवर्ग की विडंबना जैसी कई समस्याओं को उठाते थे। वे आपस में संवाद करते थे।
एक समय विश्व परिदृश्य ऐसा था कि साहित्य और चिंतन को कहीं बांध कर रखना संभव नहीं था। ‘दार्शनिक’ और ‘ऐतिहासिक’ के बीच संबंध विच्छेद नहीं हुआ था। अब हालत यह है कि किसी को अपने कुएं से बाहर नहीं निकलना है, जबकि दुखों के पहाड़ रो रहे हैं।
आत्मनिरीक्षण में किसी भी किस्म का अहं, कट्टरता या उच्चताबोध बाधक होता है। आदमी का लोभ और भय भी बाधक बनता है। ज्ञान की खोज संदेह के बिना संभव नहीं है। इसके लिए कई बार अपने ऊपर भी संदेह करना पड़ता है। खासकर लोकतंत्र में दूसरों की आलोचना करने के साथ आत्मालोचना भी करते रहना चाहिए। आत्मालोचना का अर्थ ‘मुझसे बुरा न कोय’ की धारणा नहीं है, ‘दिया तले अंधेरा’ हो सकता है।
कई बार कहा जाता है कि बुद्धिजीवियों और उदात्त बौद्धिक गतिविधियों का युग बीत गया है। कभी असहमति या आलोचना अच्छी चीज मानी जाती थी, शांतिपूर्वक सुनी जाती थी। कई लोग अपने को सुधारते थे। आज किसी की नजर अपनी कमियों पर नहीं है, इतनी आत्ममुग्धता है। कोई अपनी आलोचना सुनना नहीं चाहता।
दरअसल किसी भी राह पर अंधा हो कर चलने से अंततः मुंह के बल गिरना पड़ता है। खासकर जब भारतीय समाज विविधता से भरा है, उसमें सोच को कठोर फ्रेम से बाहर निकालना जरूरी है। लक्षित किया जा सकता है कि आधुनिकता में हर व्यक्ति को केवल मनुष्य के रूप में देखा गया, तो उत्तर-आधुनिकता में मनुष्य को ब्राह्मण-पिछड़ा-दलित में, स्त्री-पुरुष में, हिंदू-मुसलमान-ईसाई में या बाहरी-भीतरी के रूप में। लोगों को एक न एक ‘हम-वे’ में कठोरतापूर्वक बांट दिया गया। इस तरह आधुनिकता में समस्याएं थीं, तो उत्तर आधुनिकता में भी समस्याएं पैदा हुईं।
हमारा ‘क्रिटिकल सेल्फ’ ही हमें बचा सकता है
देवी प्रसाद मिश्र की ताजा पुस्तक है ‘मनुष्य होने के संस्मरण’। इसके शीर्षक से बोध हो जाता है कि हमारा मनुष्य होना अब एक संस्मरण होता जा रहा है। हम भूलते जा रहे हैं कि एक परंपरागत ‘प्रदत्त अस्मिता’ के बावजूद हम मनुष्य हैं, नागरिक हैं और हमारी एक ‘अर्जित अस्मिता’ भी है। हम लोगों पर इधर नकारात्मक स्मृतियों ने तेज हमला किया है। जाहिर है, इन स्थितियों में एक ‘क्रिटिकल सेल्फ’ ही हमें विडंबनाओं से बचा सकता है। उपर्युक्त पुस्तक से वर्तमान सामाजिक विडंबना से संबंधित एक उद्धरण है :
‘फिल्म इतनी बुरी थी कि मैंने सोचा इस सीन के बाद निकल जाऊंगा।
लेकिन मैं बैठा रहा और सोचा कि चलो, अगला सीन अगर ठीक नहीं हुआ तो निकल ही जाऊंगा।
अगला सीन पिछले से भी बुरा निकला, लेकिन मैंने सोचा कि थोड़ा इंतजार कर लेता हूँ।
लेकिन फिल्म ठीक होती नजर नहीं आती थी।
अंततः मैं एक भयानक फिल्म को पूरा देख कर ही निकला।
मैंने यह छूट सिनेमा ही नहीं, सरकार को भी दी। मैंने उसके बेहतर होने का इंतजार किया।
बाजार को भी मैंने यह छूट दी। मैंने उसके कम बिगड़ने का इंतजार किया।
मैंने राजनीतिज्ञों को छूट दी। मैंने उनके कम झूठे, कम फासिस्ट होने का इंतजार किया।
अब आपसे क्या छिपाना, मैंने खुद को भी बहुत छूट दी।’
भारत के समाजों में सोचने और आत्मनिरीक्षण की प्रवृत्ति प्राचीन काल से रही है, लेकिन इन दिनों ‘अदर’ की राजनीति के कारण हालत काफी बदल गई है। सामुदायिक राजनीति से घिरे लोगों की सोच में कठोर फ्रेम बन गए हैं। जीवन में ऐसे रूपक छा रहे हैं जो तथ्यों से विच्छिन्न करके कुतर्कों से आच्छादित संसार में ले जाते हैं। फलतः ‘तर्कपूर्ण’ दब जाता है, ‘उत्तेजनापूर्ण’ को लाउडस्पीकर मिल जाता है। सच दब जाता है, चापलूसी फलदार वृक्ष बन जाती है। अपराध जेहाद या धर्मयुद्ध माने जाने लगते हैं।ऐसी स्थितियों में बौद्धिक आत्म सतर्कता जरूरी है। ऐसे दौर में इतिहास, धर्म, संस्कृति, राजनीति, मुक्त बाजार-व्यवस्था, आधुनिकता, उत्तर-आधुनिकता, सबाल्टर्नवाद, विमर्श आदि सभी मामलों में आलोचनात्मक आत्मनिरीक्षण जरूरी है।
कहना न होगा कि आत्मनिरीक्षण का लक्ष्य अपने को मिटाना नहीं है, नई चुनौतियों के बीच पुनर्निर्माण है। यह हमेशा दूसरों पर दोष मढ़ने की प्रवृत्ति से बाहर निकल कर अन्यायों और गलतियों को एक बड़े परिप्रेक्ष्य में देखना है। यह लोगों का ध्यान विभाजित करने के उत्तर-आधुनिक खेल से एक अलग चीज है। आज तात्कालिक फायदे की सोच से बाहर निकलना बड़ा कठिन है, पर आत्मनिरीक्षण का जोखिम उठाने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। सुधरो या मिटो!
निश्चय ही टब में बच्चे को नहलाने के बाद पानी फेंकते हैं, बच्चे को नहीं फेंक देते!
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जवाब देंहटाएं'आत्मनिरीक्षण' को केंद्र में लेकर लेखक ने जो भी मुद्दे उठाए , समीचीन हैं. आज के आत्ममुग्ध समय में आत्मनिरीक्षण जिंदा बचे रहने की एक विचारोत्तेजक सकीम की तरह ली जानी चाहिए. अनके शुभकामनाएँ!!
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