प्रेमकुमार मणि का आलेख 'मार्क्स के जन्मदिन पर बुद्ध-चर्चा'




गौतम बुद्ध ऐसे महामानव थे जिन्होंने अपने समय में कई रूढ़ियों और अंधविश्वासों को साहस के साथ तोड़ा। रूढ़िवादी समय में उन्होंने नई लकीर स्थापित करने की कोशिश की। वे चाहते थे कि दुनिया का हर मनुष्य समर्थ बने, सक्षम बने और अपने जीवन के निर्णय वह खुद ले। उस समय यह एक बहुत बड़ी परिकल्पना थी। अगर यह परिकल्पना साकार हो जाती तो 'स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व' की जो परिकल्पना 18 वीं शताब्दी में फ्रांस में दिखाई पड़ी वह बहुत पहले ही साकार हो गई होती। जीवन और इतिहास में अगर मगर के लिए जगह नहीं होती। दुनिया के तमाम मनुष्य आज भी अपनी स्वतंत्रता और समानता के लिए अच्छी खासी जद्दोजहद कर रहे हैं। आज महामानव महात्मा बुद्ध की जयंती है। संयोगवश आज कार्ल मार्क्स का भी जन्मदिन है। मार्क्स भी समानता के प्रबल पक्षधर थे। इन दोनों विभूतियों को नमन करते हुए आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं प्रेम कुमार मणि का आलेख 'मार्क्स के जन्मदिन पर बुद्ध की चर्चा'।



मार्क्स के जन्मदिन पर बुद्ध - चर्चा 


प्रेम कुमार  मणि  

 

आज बुद्ध और मार्क्स दोनों की जयंती है। एक ढाई हजार साल से ज्यादा पहले पैदा हुआ और दूसरा दो सौ साल पहले। जमाना बदल गया है। न आज बुद्ध के ज़माने की स्थितियां हैं, न मार्क्स के ज़माने की। लेकिन दोनों आज भी हमें आकर्षित और उत्साहित करते हैं। आज उनके जन्म दिन, उनके नाम की एक तारीख हैं, जिस रोज उनके अनुयायी उनको याद करते हैं। मैं भी बुद्ध को पसंद करता हूँ, मार्क्स को भी। लेकिन अनुयायी हूँ, यह यकीनी तौर पर नहीं कह सकता. अनुयायी तो मैं शायद किसी का नहीं हो सकता। संशयता की यह लत बहुत कुछ बुद्ध के साहचर्य से ही लगी है। उनसे अपुन की प्यारी नोक-झोक भी  चलती रहती है। लेकिन बावजूद इन सब के बुद्ध से एक निकटता पाता हूँ। मार्क्स से भी ऐसी निकटता है।


उन्नीस साल का युवा था, तब उत्साह में बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी। कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता साल भर पहले ली थी। कुछ समय नालंदा में भी बना रहा। भिक्षुओं के जीवन को देखा। उन सब से सीखा भी। सबसे अधिक तो यही कि अब इन प्राचीन धर्मों -मजहबों से चिपके रहने का कोई अर्थ नहीं है। किसी हिन्दू, मुस्लिम,  ईसाई, बौद्ध या कबीरपंथी को मजहबी धज में देखता हूँ, तब यही महसूस होता है जैसे कोई बुजुर्ग बच्चों जैसी रंग -बिरंगी तितलियों-जहाज के छापे-प्रिंट वाली पोशाक पहन कर घूम रहा है, या कोई युवा जोड़ा शादी की पोशाक में दफ्तर काम संभालने आ पहुंचा है। मेरी स्पष्ट मान्यता है कि तमाम  मजहबों ने अपनी प्रासंगिकता खो दी है। वे हमारे सामाजिक जीवन के मोहक किन्तु लचर जंजाल बन चुके हैं। एक ऐसा चमरौंधा जिसके सहारे कभी हमने मुश्किल यात्रायें की थीं, लेकिन आज जब वह फटा लिथड़ा हो गया है, तब भी उसे पैरों की जगह गले में डाल कर घूम रहे हैं, जैसे -


त्रिपिटक के एक हिस्से चुल्ल-वग्ग में एक प्रसंग है। (स्मरण के आधार पर कह रहा हूँ।)  बुद्ध अपने भिक्षुओं को सम्बोधित करते हुए धम्म की प्रासंगिकता पर कहते हैं  - 'कोई जातक (यानि व्यक्ति) यात्रा पर है। रास्ते में कोई जल-अर्णव मिलता है। सोचता  है कैसे पार करूँ? उसने जुगत की। लकड़ियों-वनस्पतियों को जोड़ा और एक नाव तैयार कर ली। नाव पर बैठ, वह नदी पार कर गया। उस पार हो कर वह सोचता है, अब इस नाव का क्या करूँ। इसे त्याग देना, छोड़ देना तो कृतघ्नता होगी। उस ने उस नाव को माथे पर रख यात्रा शुरू की। बुद्ध भिक्षुओं से पूछते हैं कि ऐसे जातक को क्या कहोगे? बुद्ध ही जवाब देते हैं - "अयं भिक्खवे परिपूरो बालधम्म"। भिक्खुओ! यह भरपूर बचपना है, बालधम्म है।


बुद्ध हमेशा विवेक पर जोर देते हैं। दर्जनों ऐसे प्रसंग हैं जब उन्होंने रूढ़ियों के निषेध की नसीहत दी है। कोई बात धर्मग्रंथों में लिखी है, किसी धर्माचार्य अथवा पैगम्बर ने कही है, या इसे बहुत लोग मान रहे हैं, इसलिए मत मानो। बल्कि देखो कि क्या सचमुच तुम्हारे और बहुजन अथवा बहुतों के लिए मुफीद है? सब कुछ अपने मन के निकष पर तौलो।

 

बुद्ध ने कभी नहीं कहा कि वे सब कुछ कहे जा रहे हैं। वह अपनी सीमाओं से परिचित थे। एक दफा उनके शिष्य-प्रवर आनंद ने उन से पूछा - भंते! क्या आपने जो सत्य बतलाये हैं, उसके अलावे भी कहीं सत्य है क्या? बुद्ध जेतवन में टहल रहे थे। वह झुके। मुट्ठी भर सूखी पत्तियां उठायीं और आनंद से पूछा - क्या इन पत्तियों के अलावे भी कहीं पत्तियां हैं? आनंद ने कहा - यह पूरा जेतवन और इस जैसे जाने कितने वन सूखी पत्तियों से भरे हैं। बुद्ध ने तब मुस्कुराते हुए कहा  - वैसे  ही आनंद, मैंने  मुट्ठी  भर, अपनी  कुव्वत भर सत्य उद्घाटित किये हैं। अपने  समय  के सत्य कहे  हैं। आने वाले समय के सत्य आने वाले बुद्ध कहेंगे।





बुद्ध हमारे सोच को एक वैज्ञानिकता देते हैं। आप जैसे एक रोज पवित्र जल से नहा कर जिंदगी भर के लिए पवित्र नहीं हो सकते, नित प्रति- दिन स्नान अपेक्षित होगा। वैसे ही धम्म का ख़याल और अभ्यास  निरंतर करना होगा। जीवन की तरह धर्म और विचार की भी एक चयापचयता (मेटाबोलिज्म ) होती है, यही उसकी  जीवंतता होती है। इस चयापचयता के अभाव में कोई भी विचार या धर्म मुर्दा हो जाता है। मुसीबत यही है कि इस ज़माने में  धम्म की आध्यात्मिकता क़ो लोगों ने त्याग दिया है और उसके मुर्दा ढाँचे  क़ो ढो रहे हैं। तमाम मंदिर, मस्जिद, गिरजे, पैगोड़े विचारों और मानवता के कब्रगाह बन कर रह गए हैं।


बुद्ध ने हमेशा मनुष्य और इस दुनिया की चिंता की। उन्होंने  धार्मिक नियमों-आडम्बरों को बार-बार तोडा। अंबपाली द्वारा प्रश्न किये जाने पर वह अपने ही बनाये नियम से पीछे हटे। अर्थात उसे तोडा। ऐसा उन्होंने कई दफा किया। कुछ में तो संघ बचाने की चिंता भी जान पड़ती है। जिसके लिए मैं उनकी आलोचना भी करता हूँ। जैसे सैनिकों और कर्जखोरों के संघ में शामिल नहीं किये जाने की घोषणा का औचित्य क्या हो सकता है? लेकिन इन सब के बीच अपने गुरु भिक्षु जगदीश कश्यप जी से सुनी एक कथा आपके समक्ष कहना चाहूंगा।


दो भिक्षु धम्म-प्रचार से लौट रहे थे। शाम गहरा रही थी और मौसम ख़राब था। सामने एक बरसाती नदी थी, जिसका जल -स्तर अचानक बढ़ गया था। नदी किनारे एक भयभीत स्त्री थी,  जो अपने गर्भ के लगभग पूरे  दिन में  थी और नदी पार करने  में  स्वयं  को अक्षम  पा रही थी। भिक्षुओं को देखा तो  उसे  भरोसा  हुआ। उसने उनसे नदी के उस पार, जहाँ उसका गाँव था, करा देने की विनती की।  भिक्षु असमंजस में थे। धम्म-संघ के नियम स्त्री-स्पर्श की ही मनाही  करते थे। एक भिक्षु ने साफ़ मना  कर  दिया। वह धर्म-विमुख नहीं होना चाहता था। लेकिन दूसरे  भिक्षु को स्त्री पर  दया आ गयी और  उसने अपने  कंधे  पर  उसे  बैठा  कर नदी पार  करा  दिया। जब  दोनों  विहार  पहुंचे तब पवित्र  भिक्षु ने नियम-विमुख हुए भिक्षु के बारे में बुद्ध से शिकायत की। बुद्ध ने सुन लिया। लेकिन जब दूसरे दिन तक इस पर कोई निर्णय नहीं लिया गया, तब पवित्र भिक्षु ने संघ में कोहराम मचा दिया। बुद्ध ने पवित्र भिक्षु को ही संघ छोड़ने केलिए कहा। इस पर सभी भिक्षुओं ने हैरानी प्रकट करते हुए बुद्ध से इसे स्पष्ट करने का निवेदन किया।  बुद्ध ने कहा -  प्रसंग पर गौर करो। एक स्त्री संकट में है। धम्म की भावना उसे मदद करना चाहती है।  संघ के नियम इसमें बाधा उपस्थित कर रहे हैं। एक भिक्षु ने संघ के नियम को तोड़ दिया और धम्म के मूल भाव की रक्षा कर ली। उसने उस स्त्री को कंधे पर बिठा कर पार कर दिया और उससे मुक्त हो गया। लेकिन इस पवित्र बने भिक्षु ने नियम की तो रक्षा कर ली, लेकिन धम्म की हत्या कर दी।  यही नहीं, वह स्त्री इसके कंधे पर तो नहीं बैठी, लेकिन इसके मन में जा बैठी और यह उससे अभी भी मुक्त नहीं है।

 

बुद्ध प्रश्नों को इसी तार्किकता और संवेदना से देखते थे। विचार और करुणा उनके यहाँ अंतर्गुम्फित है. वह हमें एक ही साथ विचारशील और करुणाशील बनाते हैं। नियम विचार नहीं होते, वह यह भी बतलाते हैं। वह हमें अवगुंठनों से उन्मुक्त होने और स्वतंत्र चिंतन की प्रेरणा देते हैं। मनुष्य की मुक्ति केलिए वह सतत सक्रियता और सजगता  की शिक्षा देते  हैं। वह संस्थाओं को नहीं, व्यक्ति को मजबूत और आज़ाद करना चाहते हैं. यही आधुनिक जनतंत्र की भी बुनियाद है। धर्महीनता के इस मुश्किल ज़माने में बुद्ध हमारे कानों में बुदबुदाते हैं - 'अप्प दीपो भव'. खुद प्रकाशमान बनो!!!




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