अलका सरावगी के ताजातरीन उपन्यास पर यतीश कुमार की समीक्षा 'गाँधी और सरला देवी चौधरानी : सवाल उठाता उपन्यास'

 




अलका सरावगी हिन्दी की चर्चित रचनाकार हैं। कहन की उनकी शैली ऐसी प्रवाहपूर्ण होती है कि पाठक रचना के आगोश में बंधता चला जाता है। पाठक की तंद्रा तभी टूटती है जब वह रचना की आखिरी पंक्ति से रू ब रू होता है। फ्लैश बैक की शैली का अलका जी अनूठा इस्तेमाल करती हैं। उनकी रचनाओं में गल्प होते हुए भी समय और उसके दस्तावेज अपनी कहानी कह रहे होते हैं। गाँधी और सरला देवी चौधरानी इतिहास के जीवन्त पात्र हैं। इन्हें उपन्यास के विषय के रूप में उठाना जितना आसान दिखता है, उतना आसान वह था नहीं। लेकिन यह तो अलका जी का हुनर है, जो इसे बड़ी खूबसूरती से निभा ले गई हैं। कवि यतीश कुमार की नजर से भला यह उपन्यास कैसे बचा रह सकता था। वे जबरदस्त पढ़ाकू हैं और यही बात उन्हें औरों से अलग खड़ा कर देती है। रचना से रू ब रू होते हुए यतीश 'बिटवीन द लाइंस' जाते हैं और कृति की ऐसी समीक्षा करते हैं कि पाठक का जी ललचा जाए रचना पढ़ने के लिए। एक पाठक के रूप में मेरे साथ भी कई बार ऐसा ही हुआ है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं अलका सरावगी के ताजातरीन उपन्यास 'गाँधी और सरला देवी चौधरानी : बारह अध्याय' पर यतीश कुमार की समीक्षा 'गाँधी और सरला देवी चौधरानी : सवाल उठाता उपन्यास'।



गाँधी और सरला देवी चौधरानी : सवाल उठाता उपन्यास


यतीश कुमार



संपादक, गायिका, संगीतकार, लेखिका और न जाने क्या-क्या। उपन्यास को पढ़ते हुए सरला का व्यक्तित्व कुछ यूँ दिखाई दिया कि महबूब शायर ग़ज़लकार निदा फ़ाज़ली की पंक्तियाँ याद आ गयीं।


“हर आदमी में होते हैं, दस बीस आदमी।

जिसको भी देखना हो कई बार देखना।।”


पर यहाँ इसके संदर्भ और मायने अलग हैं। एक सरला और उसका कितना व्यापक व्यक्तित्व कितनी सम्भावनाएँ, कितनी ऊर्जा, कितने सारे नए और पहले कदम, कितनी सारी दिशाओं, क्षेत्रों से हो कर निकल आना और फिर अपनी स्वायत्तता स्वतंत्र व्यक्तित्व के मौलिक खोल में वापसी।



'हिंदुस्तान’ अख़बार के संपादक पंजाबी पति, बंगाली पत्नी और गुजराती मित्र गाँधी। तीन क्षेत्र के तीन किरदार और इनके इर्द गिर्द घूमती कहानी। इसके साथ-साथ विवेकानंद, बंकिम, रवींद्रनाथ टैगोर, गाँधी, अरविन्द (ओरविन्दो) के साथ सरला के अलग-अलग समीकरण। सरला की ज़िंदगी के आए बदलाव में कितना अहम रोल इन महान विभूतियों का रहा है, उसकी पड़ताल है यह किताब।



लाहौर केंद्र रहा है, क्रांति की शुरुआती लहर का और लहर, जो पंजाब और लाहौर के बीच हिचकोले मारती रही, वहीं मिले गाँधी, सरला देवी चौधरानी से। सैंतालीस साल की उम्र में मुलाक़ात हुई पर देखा 19 साल पहले 1901 में था। इस वाक्य का ज़िक्र रह-रह कर हुआ है और उपन्यास अपने रास्ते, सरला के रास्ते चलता चला जाता है, जिसमें ढेर सारी विडम्बनाओं की छौंक है।



भारत स्त्री महामंडल की स्थापना-1910 में, टैगोर परिवार में घर जमाई बनने की एक परम्परा से इतर पिता जानकी दास घोषाल का जाना और माँ स्वर्णकुमारी देवी, बांग्ला की पहली महिला उपन्यासकार, का होना (जबकि हमें पता रहा है मल्लिका के बारे में)। पिता जानकी दास का शुक्तो में करेले की जगह कुनैन डालने वाला वाक़या, पिता का अपनी शर्तों पर काम करना, सरला का बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय लिखित वन्देमातरम् गीत को सुर देने में टैगोर की मदद करना, नाना द्वारिका नाथ टैगोर का सहयोग राजा राममोहन राय के ब्रह्म समाज के निर्माण में होना! ढेर सारी रोचकता और नये-नये कामों को करने की लगन के साथ ब्रह्म समाज की आधुनिकता और देशभक्ति व स्वदेशी भाव का समन्वय इस उपन्यास का नेपथ्य है, जिसकी आवाज़ आप तक पन्ने दर पन्ने पहुँचेगी। उपन्यास या कहा जाये सरला की कहानी की शुरुआत बंकिम चन्द्र की मुलाक़ात से होती है। एक सच यह भी सामने आता है कि बंकिम चन्द्र ने उनके कालिदास लिखित नाटक को पढ़ कर उन्हें पत्र लिखा था। मैसूर में महारानी गर्ल्स स्कूल में असिस्टेंट सुप्रिंटेंडेंट की नौकरी करना, 12 साल की उम्र में कविता और लेख छपना कोई आम बात नहीं, हिंदुस्तान का अंग्रेज़ी संस्करण निकालने की योजना बनाना, शादी के बाद 'भारत स्त्री महामंडल' का गठन करना। अलका सरावगी के लिखे पन्ने, इन सब घटनाओं को फ़्लैश बैक की आवाजाही में रचते हैं, जो कि उपन्यास की संरचना और कथ्य को एक रोचकता भरी मज़बूती प्रदान करता है।



माँ-बेटी का रिश्ता और इसके बीच की कश्मकश को बेहतरीन ढंग से लिखा गया है। एक तरफ़ `सखी समिति’ का गठन स्त्री आत्मनिर्भरता के लिए, तो दूसरी तरफ़ अभिजात्यपन का खोखलापन, जिसमें सरला के नौकरी करने पर बंदिश की कोशिश या शादी के बंधन में बांधने की हिमाक़त। यह बिडम्बनाओं से लिप्त रिश्ते हैं, जिसे यूँ उकेरना इतना आसान भी नहीं। जोड़ासांको की अंतर्कथा लिखना वैसे भी जोखिम भरा काम है और अलका सरावगी इस जोखिम को बख़ूबी उठाती हैं।



पालकी में बैठे-बैठे गंगा स्नान करना और दूसरी मामी का अरबी घोड़े पर सुबह की सैर पर निकलना यह कॉंट्रास्ट है जिसे एक ही घर के लोग जी रहे हैं।



सरला की शुरुआती कहानी में ही पुरुष-पुरुष और स्त्री-स्त्री का परस्पर प्रेम पर केंद्रित होना समय से बहुत आगे चलने का साक्ष्य है। इस शोध के लिए ढेरों मशक़्क़त करनी पड़ी होगी लेखिका को। स्वतंत्रता और अनुबंध दोनों एक साथ नहीं रह सकते ठीक ऐसा ही सरला के मन का हाल दिखाया गया है, इन बिडम्बनाओं से लड़ते-झगड़ते आगे बढ़ने का अबाध जुनून! 



कलकत्ता उस समय जबकि व्यापार और कला-संस्कृति का केंद्र था फिर भी सरला को मैसूर हर तरीक़े से ज़्यादा स्वतंत्र दिखा, ख़ासकर स्त्रियों की स्वच्छंदता या स्वतंत्रता की बात करें तो। इस पक्ष को भी लेखिका ने समझने की पूरी कोशिश की है और बखूबी लिखा भी है।



साहित्य संगीत और देश सेवा का वितान रचा है, सरला के बहाने, अलका जी ने। सरला ने आगे जा कर पूजा और संगीत को आह्वान से जोड़ा। प्रशिक्षण का इंतज़ाम किया जिसमें आत्मरक्षा की भावना जागृत हो सके। 'अनुशीलन समिति’ का गठन जहाँ से सशस्त्र क्रांति में भागीदारी की भूमिका भी बनी। 'भारती' पत्रिका का संपादन, शरद चन्द्र की कहानी 'बड़ी दीदी' को दो अंकों में बिना नाम के छापना और तीसरे में नाम बताना शरद चन्द्र की पहली रचना को प्रसिद्धि तक ले गया। एक अकेला क्या-क्या कर सकता है और समाज को बदलने में कितनी बड़ी भूमिका अदा कर सकता है, प्रेरणादायक नेतृत्व कर सकता है, यह सब इस वितान में रचा गया है।



कुछ अत्यंत रोचक घटनाएँ आश्चर्य में डालती हैं, मसलन गाँधी का सरला के पिता जानकी दास घोषाल के यहाँ क्लर्क का काम करना जैसी अकल्पनीय घटना का ज़िक्र इस किताब को और भी रोचक बनाता है। तोलस्तोय और जॉन रस्कीन की किताबों का असर गाँधी पर कैसे पड़ा कि वे अपना काम ख़ुद करने लगे यह जानना भी कम आश्चर्य से भरा नहीं था ।



समय के साथ गाँधी के लिखे पत्रों में भाषा और भाव में बदलाव दिखा है। स्नेह और प्रेम ने अपनी पैठ बनायी है जिसका उम्र से कोई लेना देना नहीं। यह किताब गाँधी और सरला के बतरस का अंतहीन आनंद श्रृंखला भी है।



दिल्ली से अहमदाबाद की ट्रेन यात्रा के लिए गाँधी ने तीसरे दर्जे के बदले दूसरे दर्जे की टिकट ली और सरला ने पहले दर्जे के बदले दूसरे, इसका साफ़ मतलब है कि थोड़ा-थोड़ा झुकाव, थोड़ा-थोड़ा बदलाव दोनों ओर से था। पंजाब में गाँधी भाषण देते थे सरला अनुवाद करती थी और अहमदाबाद में सरला हिन्दी में भाषण देती, गाँधी गुजराती में अनुवाद करते थे। परस्पर आदर, स्नेह और प्रेम को पग-पग बढ़ते हुए रचा है अलका सरावगी ने।



अलका सरावगी 



बच्चे की तरह सरल और तपस्वी की तरह हठी गाँधी के भीतर कितनी सारी विडम्बनाएँ हैं जिनको यह किताब रुक-रुक कर उजागर करती है। सरला को सब छोड़ कर उनके साथ आश्रम में सेवा समर्पित करने का अनुनय जिस तरीक़े से दिन में चार-चार ख़त लिख कर किया गया वह आश्चर्यजनक है। रोज़ ख़त लिखने का वादा निभाना, गाँधी के एक अलग व्यक्तित्व से परिचय कराता है, भले ही यह सिलसिला साल भर का ही क्यों न हो। गाँधी ने पहली खादी साड़ी सरला देवी के लिए बनवायी। एक जगह गाँधी सुबह का चाँद सरला के साथ देखने की तमन्ना करते हैं तो एकबारगी प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या कस्तूरबा के साथ भी ऐसे चाँद देखने की कल्पना गाँधी की रही होगी? इसी संदर्भ में आगे लिखा है 'मीरा बाई को बस गाया जा सकता है जिया नहीं जा सकता’ ऐसे सच से सामना करवाना सरला के व्यक्तित्व के फलक को और विस्तार देता है।



गाँधी के आश्रम के भीतर की विडम्बना का भी रूप इसमें दिखेगा। रवीन्द्र नाथ टैगोर के स्वागत में हुए खर्च में की गई आपत्ति को दर्ज करना या आश्रम में फ़ातिमा की शादी का मामला। केलनबाख को पत्र लिखते हुए गाँधी ज़िक्र करते हैं आध्यात्मिक पत्नी के दर्जे का, जो उन्होंने सरला को दिया है और विडम्बना यह है कि अपनी आत्मकथा 'सत्य के साथ मेरे प्रयोग' में सरला का ठीक से ज़िक्र तक नहीं। कथेतर और उपन्यास में मौलिक अंतर है सत्यता प्रामाणिकता का। एक पाठक का मन जानने को व्याकुल हो जाएगा कि कितना कथेतर है यह उपन्यास। इसी के साथ और भी कई प्रश्न हैं जिनका उत्तर ढूँढने के लिए ये किताब आपको अपने पास बुलाएगी और पुनरपाठ की याचना भी करेगी।



पिता जानकी दास ने परंपरा तोड़ी, ब्रह्म समाज नहीं अपनाया और जायदाद से बेदख़ल हुए। पिता का यही विद्रोही स्वर और स्वभाव सरला में भी आया और माँ का स्वभाव, उपन्यासकार बेटी के साहित्य और संपादन में। अब प्रश्न यह उठता है कि सरला को माँ से ज़्यादा लगाव था या पिता से! स्वर्ण कुमारी देवी यानी सरला की माँ साहित्य लेखन में मशगूल रहतीं और बच्ची पर ध्यान कम रहता। शुरुआत में ज़िक्र भी आया है कि सरला सीढ़ी से गिरती है, दाँत टूटते हैं पर माँ का हाथ कलम से नहीं उठता। यहाँ सोचने पर मजबूर हो जाता हूँ कि क्या ऐसी परिस्थिति बतौर लेखक-लेखिका हम सब भी झेलते हैं। एक आत्मनिरीक्षण का भाव पैदा होता है पढ़ते हुए।



चाहे 'कलिकथा वाया बाइपास' हो या 'कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए' या 'गाँधी और सरला देवी चौंधरानी' इन तीनों में फ़्लैशबैक पैटर्न है। कहानी आगे से पीछे की ओर टहलती है। ऐसा नैरेटिव स्टाइल चुनने के पहले अलका सरावगी के भीतर कैसा भूचाल चलता होगा और कैसे यह पैटर्न चुनती होंगी? सच पढ़ते हुए इतने सवाल उठ रहे हैं कि ख़त्म ही नहीं हो रहे।



कलकत्ता उस समय व्यापार और कला-संस्कृति का केंद्र था फिर भी सरला को मैसूर ज़्यादा स्वतंत्र दिखा हर तरीक़े से, ख़ासकर स्त्रियों की स्वच्छंदता या स्वतंत्रता की बात करें तो। क्या कारण रहे होंगे इसके पीछे? और यह सवाल मुझे बेचैन करता रहा और मुझसे रहा नहीं गया तो इसका उत्तर मैंने अलका जी से एक साक्षात्कार में जान ही लिया। 



इस किताब के बहाने अलका सरावगी ने कुछ ऐसे ऐतिहासिक किरदारों को भी ज़िंदा करने की कोशिश की है, जो हमारे ज़ेहन से गुम हो चुके हैं जिनमें से एक हैं प्रतापादित्य जिन्होंने बंगाल को आज़ाद बंगाल का रूप दिया। यह बहुत ही रोचक पक्ष है उपन्यास का जिसकी तारीफ़ होनी चाहिए।



इस उपन्यास में ऐसे बहुत सारे मोड़ हैं, जैसे - सरला की ज़िंदगी में, बचपन में माँ का अलग रूप या बंकिम के गीत या पिता का विद्रोह या भारती पत्रिका का संपादन। टर्निंग पॉइंट बदलता रहता है जिसने उनकी ज़िंदगी का रुख़ मोड़ दिया और हर बार लगेगा यह बेहतर टर्निंग पॉइंट है ।



गाँधी की स्वयं के प्रति ईमानदारी का उदाहरण, राजागोपालाचारी को लिखे ख़त में सरला के प्रति अपनी मनोदशा का विवरण है। राजागोपालाचारी जी की नकारात्मक प्रतिक्रिया से भरी उनकी चिट्ठी को फिर सरला से साझा करना भी है । 



गाँधी सरला को देख पूर्ण स्त्री की कल्पना करते हैं परन्तु यह कहानी तुम मेरी आध्यात्मिक पत्नी हो से, क्या तुम मेरी आध्यात्मिक पत्नी बनने लायक़ हो के बीच टहलती रहती है। गाँधी का संबोधन समय के साथ बदलता गया। मेरी बहन सरला से my dear Sarla और फिर my Dearest Sarla और फिर dear Sarla से my dearest girl फिर आध्यात्मिक पत्नी। यह बदलते संबोधन गाँधी की बदलती मानसिकता या उनके भीतर चलते घुमड़ते मनोभाव का प्रतिफल है जैसे अपने और सरला के साथ कोई अभिनय प्रयोग चल रहा हो जिसका कोई इल्म सरला को न हो। ब्रह्मचर्य, गाँधी की आध्यात्मिक दृष्टि की देन है। इसको ले कर काफ़ी असमंजस रहा ख़ासकर बच्चियों पर इसके प्रयोग को लेकर। मगन लाल की दस साल की बेटी राधा जिसका विवाह सरला के पुत्र दीपक से बाद में हुआ इस प्रयोग का हिस्सा रही। गांधी के यह प्रयोग आश्रम में भी आगे दिखे हैं। मसलन कैथरिन मैरी हेलमेन जो 1932 से सेवाश्रम में रह रही थी उसे गाँधी ने सरला बहन का नाम दिया। पढ़ते हुए स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि क्या गाँधी कथनी और करनी में अलग थे जहाँ तक स्त्रियों के साथ और उनके सानिध्य और साथ के प्रयोग की बात है। कस्तूरबा के साथ शुरुआती दिनों में जो भी किया उन्होंने उसकी स्वीकारोक्ति का ज़िक्र है यहाँ पर सरला को जब पत्र में यह लिखते हैं कि इस सूत कातने और सरल जीवन की दिनचर्या में जाने से पहले पति रामभज से पूछ लें या आज्ञा लें। गाँधी के इस व्यक्तित्व के बारे में पढ़ते हुए लगा जैसे कुछ अनसुलझा धागा छूट गया हो। जबकि अपनी आत्माकथा 'सत्य के साथ मेरे प्रयोग' में अपनी इस आध्यात्मिक पत्नी का ज़िक्र तक नहीं है ठीक से। गाँधी के परिप्रेक्ष्य में यह किताब गाँधी की अन्य किताबों से किस प्रकार भिन्न है इसे समझने के लिए कादम्बरी देवी और ज्योतिन्द्र नाथ के बीच दस साल का अंतर है और वैसा ही अंतर रामभज दत्त और सरला के बीच है। आश्चर्य होता है रिश्तों की खटास या मिठास क्या उम्र के अंतर से बंधी है।



सरला से इतर कस्तूरबा सत्याग्रह आंदोलन की पहली महिला प्रवर्तक थीं जो जेल गयीं और स्त्रियों के बिना सत्याग्रह का इतना बड़ा मुहिम सफल नहीं हो सकता इसका पाठ भी उन्होंने ही दिया। फिर भी मुझे लगता है तीन मुख्य किरदारों के मध्य कस्तूरबा का भी पक्ष रखा जाता तो बेहतर होता।



एक और कड़वी सच्चाई यह है कि एक लड़की जो विद्रोही प्रवृत्ति की है, स्वच्छंद है देश प्रेम और अध्यात्म के बीच डोल रही थी। शादी नहीं करने की बात करती थी अचानक 33 साल की उम्र में उसकी शादी दो बार के शादीशुदा किसी अनजान व्यक्ति से कर दी जाती है और वह ख़ुशी-ख़ुशी चली जाती है। बतौर पाठक हम यहाँ उलझ जाते हैं ।



कुल मिला कर अगर यह उपन्यास इतने सारे प्रश्न उठाता है या आपको इतनी जगह देता है कि आपके भीतर भी प्रश्न उठे तो लगता है अलका जी सफल हुई इसे रचने में। ये कारवाँ यूँ ही चलता रहे और अगला विषय एक नये अध्याय के साथ आए। शुभकामनाओं के साथ बधाई इस अत्यंत पठनीय उपन्यास को लिखने के लिये।



'गाँधी और सरला देवी चौधरानी : बारह अध्याय'

अलका सरावगी 

वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली 

पृष्ठ 216, मूल्य - रू 245/







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8420637209


टिप्पणियाँ

  1. वेद प्रकाश सिंह, शोधार्थी, हिन्दी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय26 मई 2023 को 9:50 am बजे

    बहुत ही बेजोड़ कहन शैली में लिखा गया एक महत्वपूर्ण उपन्यास जो गांधी के अनछूए पहलुओं को बारीकी से खोलने में सफ़ल होता है। आज ही मैंने इस उपन्यास को पढ़ना शुरू किया है.... शेष प्रतिक्रिया पूरा उपन्यास पढ़ने के पश्चात!

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