प्रचण्ड प्रवीर की लघु कथा 'अलोन मस्त'

 


मोबाइल के जमाने से ठीक पहले हमारे जीवन में गप्पों के लिए अच्छी खासी जगह हुआ करती थी। होती तो ये गप्पें ही थीं लेकिन इनमें व्यंग्य का पुट जबरदस्त होता था। गपोड़ी जब भी जुटते माहौल सरस हो जाता। इन गप्पों में काफी जीवंतता होती। प्रचण्ड प्रवीर ने अपनी लघुकथा 'अलोन मस्त' में इन गप्पों के हवाले से इस समय की विद्रूपता पर सटीक व्यंग्यात्मक प्रहार किया है। प्रवीर की चर्चित पुस्तक श्रृंखला 'कल की बात' सेतु प्रकाशन से प्रकाशित हैं। 'कल की बात' श्रृंखला में प्रवीर की कई किताबें  प्रकाशित एवम चर्चित हो चुकी हैं। बहरहाल सी क्रम में यह अप्रकाशित लघुकथा है, जिसे हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रकाशित कर रहे हैं। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं प्रचण्ड प्रवीर की लघु कहानी   'अलोन मस्त'।

 


अलोन मस्त



प्रचण्ड प्रवीर 




कल की बात है। जैसे ही मैंने शहर के अन्तिम छोर पर बनी सराय में कदम रखा, वहाँ कुछ लोग गप्पे लड़ाते दिखे। कहते हैं पूरब दिशा में बसी ये जगह कई सौ सालों से आने-जाने वाले मुसाफिरों के लिए सरायों का ठिकाना हुआ करता था। लेकिन इक्कीसवीं सदी में दुनिया बदल गयी है और केवल नाम रह गया है। बदलते समय में सराय का रंग-ढंग बदल गया है। पहले सर्दी में लोग आग जलाते थे, हुक्का गुड़गुड़ाते थे और दुशाला ओढ़ कर दुख-दर्द की बातें करते थे। जानकारों का कहना है कि दुनिया जितनी बदलती है, उतनी ही पहले जैसी ही रह जाती है।

                


हम आदत से मजबूर सराय में बनी चाय की दुकान पास पहुँच कर गप्पें सुनना चाहते थे। सराय में तो यही रिवाज है कि कोई भी आ कर बात कह-सुन सकता है। लोग कहते हैं कि यहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, आक्रामकता की नहीं। मैंने ध्यान दिया कि दुकान भले चाय की लग रही थी, पर दुकान का नाम था – जोकरबर्गर। चाय के साथ यहाँ पाव बिका करती थी, लेकिन अब दुनिया बदली है तो बर्गर के नाम से वही बासी पुराना पाव नए नाम से बेचा जा रहा है। शायद उसमें ही ज्यादा मुनाफा है या हो सकता है कि ये दुकान की मार्केटिंग का नया नुस्खा हो, जो भी हो पर शहर में जोकरबर्गर दुकान की धूम थी। वहीं गहन-विचार विमर्श में व्यस्त महानुभावों के समीप पहुँच कर मैंने उनकी बातों पर कान देना शुरू किया। एक जन कह रहे थे, “यहाँ से वहाँ तक, दिल्ली से दिलवारपुर तक, हर जगह  इन दिनों जाम ही जाम है। इस अखिल भारतीय जाम का कारण क्या है? डीजे। पहले लोग आर्केस्ट्रा बुलाते थे, वहाँ पर एक आदमी माइक ले कर बेसुरी आवाज़ में ‘जिमी जिमी जिमी, आजा आजा आजा  1- हलो माइक टेस्टिंग’  गाता था। सच है कि उसमें खर्चा आता था। अब क्या है? एक ठेले पर साउण्ड बॉक्स लगा कर, लाइट चमका कर पंजाबी गाना बजाया जाता है। किसी को मतलब समझ आये न आये, रंगारंग डांस हो रहा है। खर्च भी कम है। पहले बारात जाती थी तब मर्दाना नाचता था। आज कल शहर में बारह से लेकर बाईस साल तक की बाईस-पच्चीस छोरियाँ नाचती हैं। जहाँ एक तरफ छोरी नाचेगी, दूसरी तरफ लड़कों का झुण्ड किनारे खड़े हो कर मोबाइल से उनका विडियो बनाएगा।“

                


पहले जन को दूसरे ने टोका, “क्या जी? तुम ही तो मोबाइल बेचते हो। इसके दोषी तो तुम ही हुए न?”

                


पहले ने कहा, “नहीं नहीं। पहली बात है कि वह धंधा है। दूसरी बात है कि धंधा में भी हमारा काम केवल बिल काट कर देना है। बाकी काम भैया या बाबू जी करते हैं। हम तो ‘बिल देत्स’ हैं। बचपन में कोरे कागज पर, फिर कार्बन लगा कर रसीद वाला बिल देते थे। जब से कम्प्यूटर आया तब से प्रिंट में बिल ही देते हैं। इतना बिल देना पड़ता है कि चाहने वालों ने प्यार से मेरा नाम ‘बिल देत्स’ रख दिया है। लेकिन तुम बताओ, तुम्हारा नाम ‘शेफ बेजोड़’ कैसे पड़ा जब कि तुम मनिहारी का दुकान सँभालते हो?”

                


‘शेफ बेजोड़’ ने कहा, “दरअसल हमलोग हुए हलवाई समुदाय के। बचपन से हम नमकीन और मिठाई बनाते-बेचते आए हैं। इसलिए हम आगे चल कर होटल मैनेजमेंट पढ़ कर बेजोड़ शेफ बनना चाहते थे। इस दिशा में प्रयास भी चालू था लेकिन दुनिया एकदम से बदल गयी। हमने देखा कि लोग मिठाई, नमकीन, खाना-ताना सबकुछ मोबाइल से डिलीवरी करवाने लगे, उसी मोबाइल से जिसे तुम बेचते हो। हमने और विचार किया। पता चला कि मुनाफा मनिहारी के सामान में ज्यादा है। अब तो हम मिठाई, मनिहारी, किराना -हर तरह का सामान का कम्प्यूटर से, मोबाइल से ऑर्डर लेते हैं और डिलीवरी करवाते हैं। जल्दी ही ड्रोन से भी करवाएँगे। अभी सबसे ज्यादा ग्राहक महिला वर्ग है। सुनो जी ‘बिल देत्स’, तुम्हारे पड़ोस में जो चौरसिया रहता है, उसका छोटा बेटा इसी तरह शादी में रोड पर नाचते हुए विडियो बनाते-बनाते हमारे नाई की लड़की को पसंद कर लिया। बाद में उसी से ब्याह कर लिया। परिवार वालों के घनघोर विरोध के बाद भी। लड़की थी एक नम्बर की सुन्दर। मेरे ही दुकान से लिपस्टिक, टिकली-बिन्दी ऑर्डर करती थी। कोरोना में लड़की का जेठ, यानी चौरसिया का बड़ा लड़का चल बसा। इधर उस होनहार लड़के ने बिजनेस बढ़ाने के चक्कर में पचास लाख डुबो दिया। सास-ससुर की सेवा में, साले की देखभाल में, ससुराल के मकान की मरम्मत में कुछ चालीस लाख और खर्च कर दिए थे। बड़े लड़के की मौत और जबरदस्त घाटे ने सबको बदहवास कर दिया। सास बिचारी बहू से एक दिन ग़म खा कर बोली कि बेटी, तुम्हारे भैंसुर (जेठ) नहीं रहे। इसलिए तुम कुछ तो सिंगार कम करो। आजकल की नारी अब जाग चुकी है। अब सिंगार करे या न करे, कपड़े कैसे पहने यह वह तय करेगी, सास थोड़े ही। उसने टका-सा जवाब दिया कि आपका बेटा मरा है, आप ग़म रखिए। हमारी शादी अभी-अभी हुई है, हम लिपस्टिक क्यों न लगाएँ? उसके बाद उसने अपने दुल्हे से यह बात कह दी। दुल्हा पहले ही घाटे से परेशान था, उस पर से खूसट माँ-बाप के ताने कैसे सुन सकता था? लिहाजा उसने माँ-बाप की पिटाई कर दी।“

                


शेफ बेजोड़ को टोक कर जोकरबर्गर के मालिक ने कहा, “छी छी छी। क्या जमाना है? दुनिया बड़ी खराब है।“

                


हमने मौका देख कर पूछा, “आपके दुकान का नाम ‘जोकरबर्गर’ कैसे पड़ा?”

                


“पड़ा क्या? हमने खुद रखा है।“ उसने आँखें तरेर कर देखा। कहने लगा, “हमारा ही नाम जोकरबर्गर है। माँ-बाप ने ‘अनिल साह’ रखा था। लेकिन ऐसे नाम से क्या होगा? हममें बचपन से ही कॉमिक टैलेंट भरा हुआ है। हमने नया नाम रखा और सोचा कि अपने इसी नाम से दुकान चलाएँ। सीताराम के आशीर्वाद से मिली प्रतिभा को जनता तक पहुँचाएँ। मौका नहीं मिला वरना अभी हम बम्बई में होते। जॉनी वाकर, जॉनी लीवर के बाद लोग ‘जोकर बर्गर’ का नाम लेते।“

                


“अभी भी क्या देर हुई है?” मैंने पूछा तो ‘बिल देत्स’ और ‘शेफ बेजोड़’ ने भी हाँ में हाँ मिलायी। इस पर जोकर बर्गर रुआँसे हो गए। भरे गले से उन्होंने बताया, “दुनिया के लिए मैं जोकर बर्गर हूँ। पर मेरे दिल में कितना दर्द है यह कौन जानता है? अरे मेरे घर आइए। साक्षात देवी के दर्शन होंगे। मेरी घरवाली दुर्गा है दुर्गा। मैंने भी बारात में नाचते-नाचते उसको पसन्द किया। घर वालों के मर्जी के खिलाफ उससे शादी की। मैंने भी ससुराल को सजाया, सँवारा। साले को पढ़ाया, साली की शादी करवायी। फिर भी, मैं कहता हूँ नोट कर लो, फिर भी हमारी शादी की यही हकीकत है कि वह दुर्गा है और मैं मुर्गा हूँ। बस एक दिन वह मुझे ‘झटका’ से खत्म कर देगी। तब तक इस दुकान पर समय गुजारता हूँ। पहले यहाँ मेरे बाप चाय पर चर्चा करवाते थे, मैं बर्गर पर गपशप करवाता हूँ। दुकान के सिवा कहीं और आ-जा नहीं सकता।“

                


“मुझे आपकी परेशानी कुछ समझ नहीं आयी।“ मैंने कुछ हैरानी से पूछा। बिल देत्स ने कहा, “यह तो कहानी घर-घर की है।“ शेफ बेजोड़ ने अनुमोदन किया, “हर शादी का यही अंजाम होता है। वैसे जोकरबर्गर साहब, आप इधर की बातें उधर बहुत करते हैं। है ना सही बात?”

                


जोकरबर्गर ने कान पकड़ कर जीभ निकाल कर कहा, “सीताराम सीताराम, कैसी बात कर दी आपने? सीताराम, सीताराम।“ बड़ी होशियारी से उसने हमसे कहा, “आपका परिचय? असली नाम नहीं भी बताएँ तो भी चलेगा। लेकिन थोड़े में इतना बता दें कि काम चल जाए।“


हमने कहा, “हम हुए ‘अलोन मस्त’। हमने बारात में नाच कर देखा और औरों को नाचते हुए देखते हैं, पर किसी लड़की को पटा नहीं पाए। हमने भी सोचा कि मनिहारी की दुकान पर औरतों को चूड़ियाँ पहनायी जाएँ, पर मौका नहीं लगा। हमने सोचा कि हम भी चाय पर चर्चा कर के इधर की बात उधर करें, पर किसी की बातों में दिल नहीं लगा। हमने भी सोचा कि बड़ी कम्पनी खोल कर एक लाख लोग को नौकरी दें, लेकिन हमसे नहीं हुआ। फिर हमने यह भी सोचा कि किसी बनी-बनायी कम्पनी को खरीद कर बहुतों को नौकरी से निकाल दें। इसका भी मौका नहीं मिला?”   

                


‘बिल देत्स’ ने चिढ़ कर कहा, “आप खयाली पुलाव पकाने वाले और उसी को खाने वाले आदमी मालूम होते हैं।“ शेफ बेजोड़ ने गरम हो कर कहा, “ऐसे आदमी मेरे दुकान से कुछ ऑर्डर ही नहीं करेंगे।“


                

जोकरबर्गर ने दोनों को देख कर भट्टी की आग में से गर्म चिमटे को निकाल कर कहा, “ऐसे लोग इधर की बातें लिख-लिख कर उधर पहुँचा देंगे। ऐसे आदमी बड़े खतरनाक होते हैं। आओ इसका इलाज करते हैं।“

                


इससे पहले कि दुश्मन हम पर हमला करते, हम वहाँ से नौ दो ग्यारह हो लिए। यानी फिर से ‘अलोन मस्त’ हो गए।



                

जैसे कभी प्यारे, झील के किनारे, हँस अकेला निकले  2


                

वैसे ही देखोजी, ये मन मौजी, मौजों के सीने पे चले

                

चाँद सितारों के तले, साथी है तो मेरा साया

                

अकेला हूँ मैं इस दुनिया में....


                 

ये थी कल की बात!    



दिनांक : 04/12/2022


कल की बात – 239


 सन्दर्भ 

                

1. गीतकार – अनजान, चित्रपट – डिस्को डांसर (1982)


2. गीतकार - मजरूह सुल्तानपुरी, चित्रपट – बात एक रात की (1962)

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