मार्कण्डेय की कहानी 'गुलरा के बाबा'

 

मार्कण्डेय


आज तेजी से बदलते हुए वक्त में लोक और लोक का संसार गुम होता जा रहा है। स्थानीयताएं अब अपना दम तोड रही हैं। साथ ही बिखर रही है उसकी खुशबू। मार्कण्डेय नई कहानी आन्दोलन के प्रवर्तकों में से एक रहे हैं। लोक जीवन और लोक की संवेदना उनकी कहानियों के मूल में है। गुलरा के बाबा उनकी ऐसी ही चर्चित कहानी है। इस कहानी के नायक गुलरा के बाबा के मन में उस चैतू के लिए रंच मात्र भी प्रतिशोध की भावना नहीं है जिसने जोश में उनसे कड़ी बातें कर दी थी। बाबा उस चैतू के लिए आखिरकार खुद ही उस सरपत को कटवाने लगते हैं जिसे काटने के लिए कभी उन्होंने उसको रोका था। चैतू के घर की हालत उनसे देखी न गई। यही तो वह गंवई मन है जिसके पास मानवीय संवेदनाएं बची हुई हैं। आज मार्कण्डेय जी होते तो अपना 93वां जन्मदिन मना रहे होते। आज भले ही शारीरिक तौर पर वे हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी रचनाएं हमेशा उन्हें जीवन्त रखेंगी। मार्कण्डेय जी की स्मृति को नमन करते हुए आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं उनकी चर्चित कहानी 'गुलरा के बाबा'।


 

गुलरा के बाबा



मार्कण्डेय


"कवन है रे वह सरपत काट रहा?" बाबा ने अमिलहवा के नीचे खड़े हो कर अपनी लाठी कंधे से उतारते हुए कहा। आवाज सारी गुलरा में गूँज गयी। बड़ी गम्भीर और बड़ी बुलंद आवाज़ थी वह; अनजान आदमी तो एक बार डर जाए. और चिरइ-चुरमुन भी पेड़ों पर से उड़ पड़े। गुलरा की इस आमों की बगिया का एक-एक जीव, एक-एक पत्ता बाबा के इस गर्जन से परिचित है। क्यों न हो, बाबा रात-दिन इन्हीं पेड़ों की सेवा-सत्कार में तो लगे रहते हैं।


पर बाबा की पुकार का कोई असर नहीं हुआ। उन्होंने एक बार नीचे सिर किया और अपने उघरे शरीर को देखा, चमड़े झूल गये थे और उन पर बेशुमार झुर्रियाँ पड़ गयी थीं। पूरे पचहथे जवान, भींट ऐसी छाती और हाथी की सूँड़ जैसे हाथ, बड़ी-बड़ी तेज़ आँखें; लोग हनुमान कहते थे बाबा को, हनुमान! मेले-ठेले में अपने पिता गंजन सिंह के लिए रास्ता बनाने का काम बाबा ही करते थे। बड़ी बड़ी भीड़ को पानी की काई की तरह इधर-उधर कर देना उनके लिए कोई विशेष बात न थी। बखरी में खाने घुसते समय बिटियों-पतोहुओं को जता देना तो जरूरी होता न! बाबा दालान ही में से खाँसते और सारी बखरियों के कुत्ते मारे डर के भाग कर बाहर हो जाते।


बाबा के दिल को धक्का लगा। वे गुलरा के बाबा कहे जाते हैं; इतना बड़ा जंगल और बाग उनके ही ऊपर तो छोड़ रक्खा है परिवार वालों ने, और यहाँ दस कोस में कौन नहीं जानता इसे..... उनका आहत अभिमान नयी भाषा में बोला-बुढ़ापे के एहसास के कारण-और क्रोध की हल्की गर्मी उनके शरीर में दौड़ गयी। उन्होंने बगल में देखा, लेहसुनवाँ में नये गोंफे आ गये थे, शायद इस साल इसमें बौर भी आ जाएँ, और फिर धीरे-धीरे उस हिलती सरपत की ओर चल पड़े।


चैतू अहीर था-पूरा चेलिक; करीब चौबीस-पचीस का, काला मजीठ शरीर, जैसे कोल्हू की जाट। इसी ने तो बनारस के मशहूर पहलवान झग्गा को पटक दिया- केवल दो ही मिनट में।


चैतू बाबा को देख कर रुक गया।


'सलाम ठाकुर!"


'खुश रहो चैतू, लेकिन तुम यह क्या कर रहे हो?" 'सरपत काट रहे हैं ठाकुर। יין 'अच्छा कल से मत काटना!"


'ऐसे ही काटूंगा।" और चैतू लटक कर हँसिया चलाने लगा।


"यह बात नहीं चैतू।" बाबा सागर की-सी गहराई से कहते गये, "मैं तुम्हारी बातें समझ रहा हूँ। अपने दो-एक संगी साथियों और बूढ़-पुरनियों को भी बुलाये आना- यहीं; यदि तुम मेरा गट्ठा टेढ़ा कर दोगे, तो मैं कभी जबान नहीं खोलूँगा और यदि नहीं, तो तुम कल से यहाँ दिखाई न पड़ना?"


चैतू कटी-कटाई सरपत छोड़ कर चला गया। दूसरे दिन बाबा सभी भाई, कुछ गाँव के तमाशबीन और चैतू के अपने संगी-साथी; खासी भीड़ हो गयी थी। बाबा ने बाँह फैला दी-बीते भर नीचे तक झुर्रीदार चमड़ा लटक गया और चैतू ने दाँत पीस-पीस कर ज़ोर लगाया- माथे पर पसीना हो आया, पर बाबा का हाथ टस-से-मस न हुआ।


किसी ने कहा, “बस चैतू, अब तुम अपना हाथ फैलाओ!" चैतू ने हाथ फैलाया और बाबा ने बच्चे की तरह उसे मरोड़ कर दबा दिया। चैतू चिचिया उठा। बाबा ने छोड़ दिया।


बाबा के छोटे भाई देवी सिंह बड़े लठैत थे। उनसे चैतू की यह धृष्टता देखी नहीं जा रही थी, पर बाबा ने कहा, "ऐसा मत करो।" और अब, जब वह हार गया, तो वे एकाएक उबल पड़े, "कहो तो दे दूँ दो बाँस साले की पीठ पर!" बाबा ने देवी सिंह को डाँटा। वे सिटपिटा गये। चारों ओर बाबा के पौरुष की तारीफें होने लगीं, पर वे जैसे उदास हो गये थे।

 


 


फागुन के दूसरे पखवारे के थोड़े ही दिन बाक़ी थे-दिन को सुनहली धूप, शाम को अबीरी आकाश और रात को रुपहली, टहकी चाँदनी-खलिहान जौ-गेहूँ के डाँठ से खचाखच भरे हुए। हवा भी चिबोला करती है न! बकरिदिया ठाकुर के बाबा घर से नह काट कर लौट रही थी-फगुनहट का झोंका आया और आँचल उड़ा कर चला गया—“शरमा गयी बकरीदा! इसमें क्या बात है जी, फागुन देवर लागें!” देवकी पंडित ने आज खूब छान ली थी ! "भौजी ने मेरी सिलिक की कमीज़ रद्द कर दी।" नन्हकुआ मुस्कराता जा रहा था और हाथ से कमीज़ सुखा रहा था। 'जीताबो आज खूब फँसी। बड़ी उस्ताद बनती थी न! आज पड़ गया सुधुआ से पाला, कलाई मरोड़ कर रंग का लोटा छीन लिया और खूब नहला कर गालों पर ऐसी रोली मली कि बच्ची को छुट्टी का दूध याद आ गया।"


'बड़ा बुरा किया- राम! राम!! कुनरू-ऐसे गाल इतने जोर से मलने के लिए थोड़े ही हैं।" रामदीन खाँसते हुए बोले और खटिया पर करवट बदल ली। पारस ने मुँह बनाते हुए जवाब दिया, "बुढ़ापा आ गया, लेकिन लत न छूटी। मरते-मरते जीभ में कीड़े पड़ जाएँगे बाबा! - अब तो मान जाओ, आखिरी समा में!"


गुलरा के पलासों पर तो फागुन उतर आया था, अजब का फूल होता है—लाला टेस; और टहनियाँ काली या चितकबरी-बे-पत्तियों की। शाम की किरणें रोज़ उन पर थम जाती हैं और आम की बगिया की साँवरी छाँह जैसे उसकी ललछहट में एक खैरी-मटमैली रेखा से बँट जाती है। बाबा एकटक नीचे देख रहे हैं-गोमती की तलहटी में-पछुवा का वेग, पानी की लहरें और उसमें पड़ती हुई सुनहली रेखाएँ और पलास की छायाएँ। बसहटा चारपाई, हुक्का चिलम, फरसा-कुदार, गगरी और बाँस की पुरानी लाठी-सब एक नन्हीं सी मड़इया में। सुखई चिलम भर देता जा रहा है-बाबा का चेला है, अखाड़े का - बड़ा गठीला जवान। बाबा ने अपनी सब पेंच इसी को सिखायी-पट्ट तो इतना रवाँ है कि एक बार गामा को भी उठा कर फेंक दे।


सुखई ने चिलम पर दम लगाते हुए कहा, "बाबा! आज मनकिया भी आ गयी। अब तो छे रंडियाँ हो गयीं, मुदा चमेलिया जैसी गाने वाली...." बाबा की आँखें जैसे पलास के फूलों में धँस गयी हों। दिन की उदासी जैसे घनीभूत हो कर गुलरा के झपसे आमों की डाल पर बैठ गयी हो।


चमेलिया बचपन से आती। इस गाँव में फागुन के छै दिन ठाकुर के चबूतरे पर तबला ठनकता ही रह जाता। एक नहीं दस-दस रंडियाँ आतीं। उस समय बाबा बच्चे थे। बड़े ठाकुर के चौथे-पाँचवें पुत्र थे शायद और ठाकुर के साथ महफिल में बैठते! एक दिन खेलते-खेलते गये और पतुरिया की नन्हीं बच्ची के कुर्ते की छोर पकड़ कर खींचने लगे, "अभी से सीख रहा है!" किसी ने ठहाका मारा और लड़की चिल्ला कर रोने लगी। चमेलिया बाबा के साथ ही जवान हुई और उसने अपनी माँ की गद्दी को जगाए रखा।


उसका स्वर, उसका रूप और उसके पाँवों की थिरकन लोगों को मोह लेती थी, और जब बाबा होते, तब क्या पूछना! जैसे उसके पैरों में पंछियों वाले पंख जुड़ गये हों। वह पुरानी कहानी बाबा भी जानते थे और चमेलिया भी, पर बाबा की भौहें कभी टेढ़ी नहीं हुईं, और चमेलिया कभी हारी नहीं।


जाते समय इनाम के बाद भी बाबा से रुपये माँगना-ज़रूरत न रहने पर भी। 'रुपये ले जा चमेली! पर इसे कर्ज समझना!" चमेलिया एक तीखी हँसी हँसती, जैसे वासना का जीवित स्वर उसके कंठ में उतर आया हो। उसकी आँखें, चेहरा; सब दमदमा उठते पर बाबा स्थिर और गम्भीर! उनके उन्नत वक्षस्थल पर बनी हुई, कड़ी-कड़ी मांसपेशियाँ और बलिष्ठ भुजाएँ, जैसे सींक से छू दो तो खून आ जाए, और चमेलिया उसे देखती-देखती चली जाती।


उस साल वह जा ही तो रही थी, पर रास्ते के लिए इतना सिंगारपटार, जैसे मेनका धरती पर उतर आयी हो। लम्बा, छरहरा, सुडौल बदन और कुल बीस वर्ष की उमर; चमेलिया बाबा का कर्ज चुकाना ही चाहती थी। गुलरा केराकत स्टेशन के रास्ते में पड़ता है। 'समाजी' घाट पर चले गये और चमेलिया बगिया में घुसी। बाबा कसरत कर के पसीना सुखा रहे थे। खटिया रेत पर पड़ी थी। रोशनी सँवरा गयी थी। थोड़ी ही देर में रात होगी और बाबा घर खाने जाएँगे पर एकाएक नूपुर की आवाज़-बाबा ने गरदन घुमायी, “चमेलिया, तुम यहाँ!"


"हाँ, कर्ज चुकाने आयी हूँ।" आम्रपाली आम की बगिया में उतर आयी, पर बुद्ध का वहाँ कोई शिष्य नहीं था वर्ना आँख पर पट्टी बाँध लेने के लिए कह देते।


'मैंने कभी तगादा किया था !"


"फिर भी वह कर्ज तो है।" कह कर वह मुस्कुरायी- एक मोहभरी मुस्कान की रोशनी बिखर गयी। बाबा कपड़े नहीं पहने थे। एकाएक ध्यान गया। बढ़ कर धोती उठाना चाहते थे पर उसने लपक कर धोती उठा ली और कस कर सीने में दबोच कर एकटक बाबा की ओर देखने लगी-बड़ी तेज़ आँखें थीं-कटार की तरह।


"मुझे देखने भी न दोगे!"


नीचे से ऊपर तक जैसे साँचे में गढ़ा शरीर-मँसें भीन ही रही थीं, एक अजीब कसाव और ऐंठन !


"मैंने ऐसा शरीर नहीं देखा है।" उसने अपनी आँखें तिरछी करते हुए कहा। अचूक आँखें थीं ये-नेह से छलछलायी हुई। बाबा नीचे सिर किये ही हँसे, "ऐसे उरिन नहीं होने की चमेली!" चमेलिया के चेहरे पर पराजय की हिंसा चमकी। एक तेज, एक जोश उसकी आँखों में उतर आया- बिलकुल अनदेखा; वह सारी शक्ति लगा देगी। बढ़ कर बाबा के पैरों के पास बैठ गयी। नंगी, तेल के चुपड़ी-चिकनी जाँघों पर नरम-नरम गाल घिस दिये। हाथों से कमर पकड़ ली। गरम कड़ी-कड़ी छातियों में पिंडलियाँ कस लीं, पर बाबा चुप तो चुप। उनके तीसरा नेत्र नहीं था वरना शंकर की तरह आज काम को जला देने की ठान लेते, पर चमेलिया स्त्री थी, स्त्री पर हाथ उठाना? यह बाबा से नहीं हो सकता था।

 


 


"जा चमेलिया तेरी आँखों का दोष मिट जाएगा।" बाबा ने बड़ी उदासी से कहा। चमेलिया की आँखें चकरा गयीं। उसका रोयाँ-रोयाँ काँप गया। आँखों का दोष मिट जाएगा? वेश्या की आँखों का दोष? और चमेलिया उसी साल अंधी हो गयी। सुखई ने मौन तोड़ा।


"अब तो देर हो रही है बाबा!"


"हाँ रे, मैं तो भूल ही गया था कि घर भी चलना है।" बाबा ने एक फीकी हँसी हँसते हुए कहा। रात काफी बीत चुकी थी। बगिया में घना अँधेरा छा गया था। एकाएक बाबा को आम की सोर से ठो कर लग गयी।


- बाबा को ठोकर कभी नहीं लगती थी गुलरा में, सुखई सोचते-सोचते कहने लगा, "बाबा! यह वही पेड़ है, याद है न?' "याद हैं सुखइया। गजब की सिल्ली थी इसकी। अभी तक इसकी खुत्थियाँ बची ही रह गयी हैं!"


कई वर्ष पहले की बात है, जब बड़की बखरी बन रही थी। गर्मी का महीना–आराकस लगे थे। अकेलवा आम कटा था। काँड़ियाँ चीरी जाने को थीं। सिल्ली अहार कर ठीक कर ली गयी थी। गढ़ा खोद कर तैयार था। दस आराकस और आठ चरवाहे और लोहार-कुल मिला कर अठारह। हलाकाँन हो गये बेचारे-एड़ी का पसीना चोटी पहुँच गया, पर सिल्ली टस-से-मस न हुई। आखिर थक कर बैठ गये। बाबा रस-दाना कर के गुलरा आ रहे थे-पूछा, "क्या रे, पेड़िया नहीं चढ़ी?"


"यह जुम्मिस भी नहीं खा रही है बाबा! आओ, आपके साथ भी जोर लगा कर देख लें।"


सब उठ खड़े हुए। बाबा के साथ यही सुखइया था - कुल सोलह वर्ष का और एक बारह वर्ष का छोकरा गड़ेरिया। बाबा ने बड़ी स्थिरता से कहा, 'अब तुम लोग बैठो ही। देखो हम तीनों कुछ कर सकते हैं?"


बाबा ने सिल्ली का माथा थामा। ऊपर को उठाया और झटका दे कर उसे हाथों पर रोक लिया, दोनों लड़के इधर-उधर; एक बार और ज़ोर लगा। बाबा ने कहा, "जीओ मेरे बेटो!" और दूसरे झटके में सिल्ली खड़ी हो गयी।


आराकस सन्न रह गये। बाबा को भी कुछ पसीना हो आया। उन्होंने कहा,


“आड़ लगा कर चीरो!" और तनिक दूर हट कर लेहसुनवाँ की छाया में बैठ गये। दोनों लड़के भी वहीं छहाँने लगे। सब के सब-आराकस और लोहार बाबा के पास पहुँचे। उनमें एक लोहार था-लड़ता-भिड़ता भी था। कहने लगा, "बाबा, बड़ा जोर है आपके गट्टे में!"

 

बाबा हँसे, "अरे, यह मेरा जोर नहीं, यह तो सुखइया और नगइया का है।" बच्चे हँस पड़े। लोहार ने कहा, "नहीं बाबा, ये सब बच्चे हैं, क्या जोर लगाएँगे।"


बाबा ने कहा, "बात मानो, यह उन्हीं का जोर है।" फिर लोहार ने हँसते हुए सिर हिलाया।


'अच्छा, तो फिर तुम उससे कुश्ती लड़ कर देख लो !" बाबा ने वैसे ही " कहा और दोनों की कुश्ती हो गयी। हाथ मिला और फिर दूसरे ही क्षण सुखइया लौहार के सीने पर था।


बाबा हँसे। लोहार शरमा गया। "सचमुच इन सबों में जोर है।" लोहार फुसफुसाया और उठ कर सब काम पर चले गये। बाबा तक हँसते रहे।


बाबा चौके में चले गये थे। थाली परसी जा चुकी थी, तब तक देवी सिंह एकाएक घर में घुसे। बाबा ने उनकी ओर देखा, "क्या नाच बंद हो गयी?"


"नहीं तो। अरे चैतुआ साले की टाँग टूट गयी। खबर लगी, हम लोग उठ कर पता लगाने चले गये।" 'क्या कहा?" बाबा जैसे भौंचक्के-से हो गये।

 


 


"अरे गरूर का नतीजा यही होता है। गट्टा टेढ़ा करने आया था न ठाकुर का!


अब इन कमीनों की हिम्मत इतनी हो गयी?" देवी सिंह ने मुँह बनाते हुए कहा। बाबा बिगड़ गये, ‘‘तुम्हें जिन्दगी-भर तमीज नहीं होगी, आखिर कैसे टूटी टाँग?"


'जाके देख क्यों नहीं आते बड़ी मोह है तो, वह तो टूटनी ही थी। आज अखाड़े में टूटी, कल हम लोगों की लाठी से टूटती। गुलरा से सरपत न काटने गया था !"


थाली परसी रही; पर बाबा रुके नहीं। वे यह काम तो जानते हैं - कितनी दूर-दूर के लोग उनके यहाँ हड्डियाँ बैठवाने आते हैं? और दौड़ कर मन्ना साव की दूकान पर पहुँचे- "अम्माहल्दी, चोट मुसब्बर, सेतखरी"- पुड़िया बँध गयी। बाबा ले कर दौड़े। चाँदनी पिघल कर धरती पर पसर गयी थी। हवा के झोंके इस ओर से उस ओर चले जाते थे-बुढ़ाई का समय, अब कहाँ है बह चाल?-बाबा सोचने लगे-कितना अच्छा लड़ैत है। उस दिन कितना जोर लगाता था। झग्गा कोई मामूली पहलवान थोड़े ही है-दो मिनट में उसे दे मारा। अब तो गाँव का नाम यही रखे है।

चैतू का घर आ गया। बाबा थक कर चूर हो गये थे। साँस बढ़ गयी थी। तनिक थम कर देखने लगे-लोग घेरे थे और चैतू ज़मीन पर पड़ा तड़फड़ा रहा था। टाँग कमर के पास वाले जोड़ से सरक गयी थी। सब लोग हट गये। बाबा ने हाथ लगाया- "थोड़ा तेल तो लाओ और यह दवाई जरा पीस लेना।" उन्होंने देखा, चोट बड़ी बेतुकी थी। चैतू पट्ट सुला दिया, फिर तेल लगा कर माँजते माँजते एकाएक पैर लगा कर उन्होंने चैतू की टाँगें हाथ से उठा दीं। चट की आवाज़ हुई और चोट ठीक हो गयी, हड्डी बैठ गयी! बाबा ने दवा गरम करवायी ओर चोट पर बाँध दिया।


चैतू होश में आ गया था, उसकी माँ और बीवी दोनों एकटक बाबा को देख कर रो रही थीं-खुशी के मारे। चैतू ने भी देखा-आँखें मुलमुलायीं, फिर एकाएक बोल उठा, "बाबा!" और उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। बाबा ने उसका सर अपनी जाँघ कर टिका लिया। इधर-उधर देखा। चैतू का छप्पर टूटा पड़ा था। बखरी का ओसार भी छान्ह का ही बना था-वह भी सड़ गया था।


बड़े सबेरे जब पलाशों की लाली पर सूरज की किरणें एक-एक कर उतर रही थीं-गुलरा की सरपत में पच्चीस मज़दूर लगे थे-कटाई हो रही थी। 


सुखई ने पूछा, “क्या होगी सरपत, बाबा?' 


'चैतुआ की छान्ह टूट गयी है रे!" बाबा ने उत्साह से कहा।


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्व. विजेंद्र जी की हैं।)

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