प्रज्ञा सिंह की कविताएं


प्रज्ञा सिंह 



कविता इसीलिए और विधाओं से अलग दिखाई पड़ती है कि इसमें घनीभूत संवेदनाएं भले ही कवि की हों, वे सार्वजनीन होती हैं। अत्यन्त कम शब्दों में जैसे समूचा समय रेखांकित हो जाता हुआ। इसीलिए कविता अन्तर्मन में उतर जाती है और उसकी पंक्तियां ताउम्र के लिए जेहन में बस जाती हैं। स्त्रियों के साथ दोयम व्यवहार हमारे समय की क्रूरतम सच्चाई है। घर परिवार से ले कर बाहर तक स्त्रियां कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। तथाकथित लोकतन्त्र भी उन्हें वह स्वतंत्रता नहीं दिला पाया, जिसकी वे हकदार हैं। बहुत कम ऐसी स्त्रियां होंगी, जिनको किसी सामाजिक क्रूरता या नृसंशता का सामना नहीं करना पड़ा होगा। वाकई वे खुद को खुशनसीब समझती होंगी। लेकिन प्रज्ञा के लिए यह खुशनसीबी नहीं। यहीं पर एक कवि आम से अलग नजर आता है। अपनी एक उम्दा कविता में वे जिक्र करती हैं कि "मैं बच गयी पापा/ हत्या से, बलात्कार से/ नहीं बची दुख से/ संताप से/ नहीं बची डर से/ बच नहीं सकी हाहाकार से"। वाकई क्या स्त्रियां उस डर से बच सकी हैं जिसका शिकार वे रोजमर्रा के जीवन में इस आधुनिक समाज में भी लगातार होती रही हैं। इन अर्थों में कहा जाए तो प्रज्ञा की कविताएं सहज अनुभूति और सघन संवेदना की कविताएं हैं। ये  कविताएं आपको चैन से बैठने नहीं देती, बल्कि परेशान कर देती हैं। पहली बार पर हम पहले भी उनकी कविताओं से रू ब रू हो चुके हैं। एक अरसे बाद हम फिर उनकी कविताएं प्रस्तुत कर रहे हैं। इस कवि की कविताओं में क्रमिक विकास सहज ही देखा और महसूस किया जा सकता है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं प्रज्ञा सिंह की कुछ नई कविताएं।



प्रज्ञा सिंह की कविताएं



बचने का क्या करूं


मैं बच गयी पापा

हत्या से

बलात्कार से

बाल बाल बची

आज के अखबार से 

अर्थी से शवयात्रा से।

शवदाह से

मेरी खिड़की के उस पार

कटी फटी लाशें

छिटकी आंखे

झूलती हुई बांहे

दौडते एम्बुलेंस

सांय सांय सायरन 

चित्कार ही चित्कार 

स्टेयरिंग से चिपका हुआ सर

पिसे हुये पहिये

खून से सने हुये बाल 

दूर गिरी दूध की बॉटल

कुचले हुये कजरौटे


मैं बच गयी पापा

हत्या से, बलात्कार से 

नहीं बची दुख से

संताप से

नहीं बची डर से

बच नहीं सकी हाहाकार से

मेरी एक एक कौर से 

किसी के मांस की गंध आती है 

पानी में घुलता है रक्त 

हत्यारा है आसमान 

जीना नहीं है आसान 

ठंडी लाश की तरह 

पड़ी हुयी अपने ही जिस्म के भीतर


पढती हूं जिसके नाम का शोक संदेश 

वह मैं हूं

जहां व्यवस्था के नाम पर

मेरा कटा हुआ सर

चौराहे पर टांग देने का नाम विकास है


मुझे घोंटने के लिये प्रशासनिक तामझाम है 

मेरी रूह कांपती हैं 

हूटरों की आवाज़ से 

डरी घुटनों में सर छुपाये

जिंदा हूं

बच गयी हूं

हत्या से

बलात्कार से

लेकिन अब अपने इस 

बचने का क्या करूं पापा।



वह कैसे हंस पाता है


गला फाड़ कर चिल्लाना अच्छा नहीं होता 

पर आस पास हो तो गले के जोर पर भी चला आता है

कॉलेज में सबसे कम पैसे का कर्मचारी

सबसे अधिक ड्यूटी बजाता है सायकिल उसकी गर्म से गर्म दोपहरी में नहीं हांफती

जब पैदल चलना हो तो 

वह पंख लगा लेता है


जब पंखे में बैठे लोगों के गले सूखते है

वह कभी जूस कभी कोल्ड ड्रिंक लाने

भागता है

वह सुमुखी सुनिश्चित संतृप्त सा आदमी

चाय पहुंचाने जाता है. 

क्लर्कों की डेस्क पर 

उसके मंहगाई भत्ते का कुछ पता नहीं पीयफ वीयफ अब बड़े बड़ों का नहीं

कटता 

पेंशन मिलने की नहीं


बुढापा उसकी तरह सबका खराब है। वह कोई समस्या नहीं है

मामूली सा आदमी है 

उसकी कोई लड़ता नहीं है ।

किसी आंदोलन में वह गया नहीं उसकी जेब में एक अदद नारा नहीं है वह नेताओं को राजनीति को गरियाता नहीं है


परम संतोषी वह परम सुखी वह 

लगता है ऐसा पर ऐसा है नहीं दरअसल वह किसी विमर्श में शामिल नहीं

जात से भी ऐसा गया गुजरा 

कि सैनी है चमार नहीं 

वह किसी यूनियन का नहीं 

यहीं बास्टे में तरकारी बोने वाला 

पता नहीं किस लालच में 

चला आता है 

यहां मास्टरों को जल पिलाने 

झुकता है कुछ ऐसे कोण से कि 

उसका हमेशा झुकना अच्छा लगता है। 

मास्टर साला भी अपनी पीठ थपथपाता है

कि अपना भी कुछ रुआब है। 

ऐसे तो यह कुल एक गिलास जल का हिसाब है 

वैसे तो यह केवल एक बेरोजगार की बात है


वैसे तो यह निरी बकवास है 

कोई क्यों पूछे कि उसको क्या गम है।  

कोई क्यों जाने कि उसकी सैलरी कम है 

पर क्या हम यह भी नहीं पूछेंगे कि 

उसके पैरों में कैसे इतना दम है 

वह कैसे हंस पाता है

किस बात पर मुस्कुराता है







माना बहुत मुश्किल समय है बच्ची

 

माना बहुत मुश्किल समय है

हथेलियों में नहीं रही

पहले सी झुनझुनी आहटें 

दोस्त धौल धप्पे वाले


गुमशुदा हुये 

नदियों ने ओढ ली

रेतीली थरथराहटों की घनी चादर और 

पानी कि जिसके नाम से 

जानी जाती थी वे 

जाने कौन आसमान पी गया 


माना बहुत मुश्किल समय है 

कि जब हम मुस्कुराना चाहते है 

ओंठो पर कड़कड़ाते कांटे उग आते हैं 

और कोई लिप बाम नहीं दे पाता आराम 

दोष सारा जाड़े का नहीं था बच्ची 

हमारे ही माथे पर 

हम तुम और बेगाने हुये 

बड़े हुये सभ्य हुए

माना बहुत मुश्किल समय है बच्ची

कि यकीन नहीं होता

आवाज दे कर पुकारेंगे

और कोई अपना अनसुना नहीं करेगा

ठिठक जायेंगा और पीछे मुड़ कर देखेगा 

फिर भी एक आवाज तो देनी ही चाहिए मेरी बच्ची

इस मुश्किल समय में भी



स्त्रीलिंग पुलिंग


तमाम बार तो शब्द ही नहीं थे

नहीं थीं संज्ञायें

सर्वनाम नहीं थे

स्त्रियां थीं

कि पहचान चाहतीं थी

अपना नाम चाहतीं थीं

जबकि भाषा में शब्द नहीं थे

संस्कृति में उन्हें यूज किया गया था वस्तु की तरह

जहां उनके घायल जिस्म पर

चुटकुले

भूख पर वाहियात कहावतें थीं

भावनायें पिंगल थीं विलाप छछन्न था

वहां एक औरत आजादी चाहती थी

स्त्रीलिंग पुलिंग से इतर

जाना जाये उसे आदमी की तरह

ऐसा कोई शब्द चाहती थी





भूलना


मुझे कुछ याद नहीं आ रहा 

जिस्मानी तकलीफें या फिर कोई संत्रास 

अपमान भी कोई पीठ से नहीं चिपकता 

यही नाम नहीं था हमेशा से 

जिस नाम से अब पुकारा जाता है

भूल जाने वाली यह बात पहले इतनी

जरूरी नहीं थी

याद रखने के तनाव में भूलने लगा है

सब कुछ


मुंह से गिरे कौर सी इच्छाओं के लिये 

प्रार्थना पत्र में थोडी जगह रख कर भूल जाती हूं

रिक्त स्थानों की पूर्ति के लिये कोई विकल्प नहीं सूझता 

वहां भिनभिनाता रहता है सन्नाटा लहराती हैं दुख की झाडियां 

कई घाव एक साथ हरे हो जाते हैं 

फिर भूल जाती हूं 

किस वाले घाव के लिये जरूरी है मलहम 

कौन सी चोट है गोपन 

किस दर्द पर हमदर्द उछालेंगे सिक्के 


कुछ तकलीफें निहायत हास्यापद हैं 

कई बार भूल जाने से ही मिलती है राहत 

कई बार निहायत जरूरी लगता है भूलना 

थपकियों से सो जाती है पुरानी पीड़ा 

लोरियों जैसे लगने लगते हैं विलाप 

और मृत्यु बदल जाती है उत्सव में 

भूलने से ही।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)




सम्पर्क


ई मेल : Prsingh2109@gmail.com



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