नितेश व्यास की काव्यात्मक समीक्षा वग़रना शहर में ग़ालिब की आबरू क्या है
जीवन संघर्ष का दूसरा नाम है। जहां संघर्ष नहीं, वहां जीवन नहीं। इस संघर्ष में जो खुद को श्रेष्ठतम साबित करता है, वही बच पाता है। यह बचना ही रचना है। यह बचना अस्तित्व का बचना है। यह हकीकत या सच्चाई से बचना नहीं है। बल्कि यह बचना खुद से एक मुठभेड़ है। इस सन्दर्भ में कवि श्रीकांत वर्मा की पंक्तियां याद आ रही हैं 'चाहता तो बच सकता था/ मगर कैसे बच सकता था/ जो बचेगा / कैसे रचेगा।' अभिनेता पीयूष मिश्रा ने सिने संसार में, आज जो अपनी पहचान बनाई है, वह संघर्ष के दम पर ही बनाई है। हाल ही में उनकी एक किताब आई है 'तुम्हारी औकात क्या है पीयूष मिश्रा'। इस किताब की एक काव्यात्मक समीक्षा की है नितेश व्यास ने। अपनी इस काव्यात्मक समीक्षा में नितेश कई जगह मौलिक नजर आते हैं। रचना पर केन्द्रित होते हुए भी स्वतन्त्र अस्तित्व लिए हुए सघन बनावट वाली कविता नितेश रच डालते हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं नितेश व्यास की काव्यात्मक समीक्षा 'सन्ताप के भीतर काव्य-सरित्'।
वग़रना शहर में ग़ालिब की आबरू क्या है?
नितेश व्यास
जीवन के पास अपना तराजू है हमारी औकात मापने का, हर मनुष्य के पास है अपना-अपना। कभी कभी ही जीवन अपना तराजू हमारे हाथ मे देता है। तब हम उसके एक पलड़े में रखते अपनी सफलताओं-असफलताओं को तो तराजू के दूसरे हिस्से में जीवन रखता अपनी भारी भरकम सच्चाई, पीछे छूट जाते सारे ठाठ और आदमी कह उठता खुद से कि अबे क्या है तेरी औकात...।
अभी इरफ़ान पर पढ़ी अजय ब्रह्मात्मज की पुस्तक समाप्त हुई और आत्मा के दरवाज़े पर दुसरी दस्तक हुई।
एक रोचक उपन्यास, शीर्षक देख प्रथम दृष्टया मैंने भी खुद से यही सवाल किया-तुम्हारी औकात क्या है नितेश व्यास?
हो क्या तुम और एक औकात-मापक यन्त्र-सा कुछ मेरे हाथ मे था- तुम्हारी औकात क्या है पीयूष मिश्रा
इत्तेफाक कि इरफ़ान पीयूष के एक साल बाद आए थे एन. एस. डी. में लेकिन पीयूष मिश्रा इरफ़ान को पढने के तुरन्त बाद आ गये मेरे हाथ। अभिनय दोनों ओर से स्वयं को पूरता, दोनों ही अपने अभिनय में पूरे तो फिर मेरा जीवनाभिनय भी कैसे पूरा हो सकता है।
बिना जाने अपनी औकात, क्यूं सन्ताप? इसे मैं उस छटपटाती आत्मा की कहानी कहूंगा जिसमें कुछ अलग हट कर करने की ज़िद और वो भी अपनी शर्तो पर, हौंसला ऐसा जैसा कि शक़ील आज़मी कहते है-
परों को खोल ज़माना उड़ान देखता है
ज़मी पे बैठ के क्या आसमान देखता है।।
सन्ताप त्रिवेदी अर्थात पीयूष मिश्रा ऐसी ही एक शख्शियत है जिसने जीवन के पैने नाख़ुनों को अपनी देह को पार कर आत्मा तक उतरते देखा है। वह घर-परिवार हो, दोस्त-यार हो या अभिनय का विराट संसार हो। एक जद्दोजहद एक टकराहट एक घर्षण सदैव देहात्म के बीच चलता रहता। वह रूठता भी तो किससे, उसका सबसे बड़ा झगड़ा तो स्वयं से, फिर परिवार से, फिर साथियों-सहपाठियों से और अन्ततः अपने अभिनय से। जिसे वह न जाने किस आदर्श स्तर पर ले जाना चाहता। वह एक आदर्श को पार करता तो दूसरा गढ़ लेता, एक चुनौती से पार पाता कि दूसरी मुंह बाए खड़ी दीखती। अन्तत:रोबर्ट डी नीरो जिसके अभिनय को वह दिल से ही नहीं वरन् आत्मा से चाहता था उसी को तदाकाराकारित रूप मे पा लेना उसका चरम लक्ष्य तय हुआ। उसने बहुत कुछ पाया बहुत ज्यादा खो कर। इस उपन्यास को पढ़ने से पूर्व भी हरेक युवा की तरफ पीयूष मिश्रा मेरे भी प्रिय थे। कोक स्टुडियो की गायकी और गुलाल के पृथ्वी बना को भला कौन रसिक भूल सकता। यह उनके प्रति मेरा प्रेम है या व्यामोह कि पुस्तक पढ़ कर कुछ लिखने से खुद को नहीं रोक पाया। हर मनुष्य को कभी न कभी अपने भीतर झांकना ही पड़ता है और अगर कोई सच्चाई से भीतर जाएगा तो स्वयं को पा ही जाएगा। सारी कलाएं हमें हम तक पहुंचाने की ही तो साधन है। तुम्हारे भीतर धधकते अग्निकुण्ड की कुछ लपटें जो मुझ तक पहुंचीं उसके ताप से अपने आप को न बचा सका, जो लिखा वह क्या है कैसा है मुझे नहीं मालूम। फ़िल-वक़्त जौन औलिया का एक शेर पीयूष मिश्रा की नज़्र करता हूं कि-
मेरे कमरे का क्या बयां कि यहां।
ख़ून थूका गया शरारत में।।
काव्यात्मक-समीक्षा 'सन्ताप के भीतर काव्य-सरित्'।
तुम
एक धधकते अग्निकुंड
जिसमें प्रज्जवलित रहती अहर्निश
रूपकाग्नि
सप्तजिह्व कहलाती अग्नि -
काली कराली च मनोजवा च
सुलोहिता या च सुधुम्रवर्णा,
स्फुलिंगिनी विश्वरुचिं च देवी
लैलायमाना इति सप्तजिह्वा।।
अफ़सोस कि किसी भी जिह्वा का नाम सन्ताप नहीं
__________
किसी भी हवनकुंड में
एक समय में
अग्नि अपनी एक ही जिह्वा लपलपाती
पर देखी मैं ने
तुम्हारे आत्म-कुंड में
सप्तजिह्वाएं
लपलपाती एक साथ
सहस्रपात्
______________________
जीवन बस जीवन
कितने जीवन हैं हमारे भीतर
कितने जीवन थे तुम्हारे भीतर
और मेरे भीतर...
जीवनियां पढ़ते हुए जो जीवन मैंने जिए
उनका हिसाब अलग रखो
जो जीवन मेरे भीतर
घिसटते रहे पेट के बल
उनका हिसाब
अपने अलावा किससे मांगू?
तुम्हें प्रियांश कहूं, पीयूष कहूं या सन्ताप
________________
_______________
त्रिताप से सन्तप्त हैं सब
पश्चाताप से भरे कुछ कुछ
स्वयं सन्ताप
सम्यक् ताप
जिसकी आंच
परिपार्श्वव को जलाती
जलती
जलता खुद
अपने आप
अपने पाप
__________________
डर को भी
जपा जा सकता है
किसी बीज-मन्त्र की तरह
देखा मैंने तुम में
निरन्तर चलता
डर का अजपा-जाप
________
डर
किसी डोर-सा
बंधा है
जीवन के एक छोर से दूसरे छोर तक
जिस पर
गाता, बजाता, अभिनय करता
असन्तुलित-सन्ताप
क्या उसने डर से साध लिया है सन्तुलन?
____________
तुमने नहीं किया था वरण डर का
लेकिन
कान्वेंट स्कूल के
फर्स्ट स्टेंडर्ड में
अपनी मां की प्रतीक्षा करते हुए,
मां से पहले ही
तुम तक
आ पहुंचा था डर
वह कर गया था घर
तुम्हारे भीतर
बस गया था
अपनी समग्रता के साथ
एक सच्चे साथी-सा
जबकि सब बारी-बारी छोड़े जा रहे थे
वो अन्त तक रहा साथ
___________________
__________________
जिस पिन्नी (छोटी बहन) को
चमकीले सफ़ेद घोड़े पर बिठा कर
कल ही आसमान की सैर करवाई थी
तारों से हाथ मिलाया था
सूरज को हिदायत दी थी कि बे
थोड़ा कम जला कर
आज उसने सुना-पिन्नी नहीं रही।
उस बालक को कौन समझाए 'नहीं रही' का मतलब
उसके सामने देह पड़ी थी
कल तक वो हिलती थी, आज नहीं
उसमें फूट पड़ा था एक प्रश्न
कि क्या लोग चले भी जाते हैं, पर कहां?
मुझे याद आया अन्तिम-अरण्य
_________________________
सखी संगिनी
संगिनी-संताप के था बीच में विश्वास कोई
नाम का विश्वास था पर था वो हेत्वाभास कोई
की शरारत संगिनी-संताप मुझको चाहता तू
पर सखा बचपन का है विश्वास मुझको चाहता यूं
मित्र है प्रेमी भी है सब कुछ भी बनना चाहता है
थे सुने जब ये वचन संताप ने हेमलेट हो कर
था लगा था एक घूंसा, हृदय चकनाचूर हो कर
दूसरा है तू पुरुष जीवन के यूं पासंग मेरे
वचन जो निष्ठुर लगे हो गया था संताप सकुचित
प्रेम था पावन अत:निष्कलुष हृदय प्रमत्त-पुलकित
संगिनी-संताप की आराधना थी साधना थी
दैव था निष्ठुर मगर नियति में उसकी प्रार्थना थी
प्रार्थना जो साधना थी अन्त उसका कैसे होता
हृदय के इक कोण में ज्योति-अखण्डित भासती थी
भासती है और रहेगी भासती वह प्रथम ज्योति-संगिनी बन
____________________
____________________
कोई अकस्मात आता है जीवन में
गुरु बन कर
बनाने गुरुतर
लड़ते हैं हम उससे झगड़ते भी
नहीं करते स्वीकार सहज
नरेन भी कहां कर पाया रामकृष्ण देव को
प्रतिरोध की एक ग्रंथि
न जाने कब बन जाती आत्म-ग्रन्थ
विश्नोई भी कुछ ऐसा ही था
जीवन में
तुम्हारे साथ तुम्हारे विरुद्ध
निकटातिदूर
दूर से रस्ता दिखाता हुआ
होता ही है कोई ऐसा एक उपनिषद्
हम सब के जीवन में
सच है
जीवन कितना ही कठोर हो जाए तुम्हारे प्रति
करुणा की कोंपल फूट ही पड़ती निष्ठुर पाषाण पर भी
थोडा रुको
थोडा झुको
___________
__________
समाज
प्रेम सम्बन्ध में भी
देखता आयु को
तब से अब तक
जबकि
प्रेम है वायु
कब से
सब तक
_________________
श्वास ही का तो सारा खेल है
रोग हो या कि योग
उस दिन कमरे में सुखासीन तुम
श्वास पर ध्यान लगाये
फिर श्वास भी गुम
सिर्फ प्रकाश ही प्रकाश
मैं भी बहुत समय बाद
बैठा आज खुद के पास
सुखासीन
दृष्टि श्वास पर
मन में गूंज रहा था शंकाराचार्य विरचित
शिवापराधक्षमास्तोत्र का वह श्लोक -
नासाग्रे न्यस्त दृष्टिर्विदित भवगुणो
नैव दृष्ट: कदाचित्
क्षन्तव्यो मेऽपराध:शिव शिव शिव भो!
श्रीमहादेव शम्भो।
(अपने भवरोग का स्मरण करते हुए मैनें दृष्टि को नासाग्र पर रखकर कभी नहीं देखा, हे महादेव शम्भो! मेरा अपराध क्षम्य हों)
________________
_______________
नींद कहां थी
रात के सन्नाटों में गूंजा करती थी
बस तेरी कहानी
सीलिंग फैन के तानपुरे पर
स्वर साधे कोई विसंवादी
अस्फुट आखर कुछ, एक बड़बड़
जैसे शाबर मन्त्रों का एक अस्फुट-सा रव
धूंआ था अन्तर-अग्नि का या
अग्निदण्ड के धूमिल छल्ले
घूंट-घूंट व्हिस्की के या सिसकियां निरन्तर
पीते थे तुम
सन्नाटे कुछ तो कहते जो रहा अनकहा
श्वेत-श्याम कागद पर जो ना पूरा उतरा
श्वेत-श्याम जीवन के दो चेहरे हम सब के
किसे छुपाऊ किसे उघाडूं
किसे सुनाऊं किसको बचा के ले जाऊं सबसे, खुद से भी
नहीं नहीं खुद से न बचूंगा
कभी नहीं,
मैं निकल पडूंगा, बिखर पडूंगा, बिफर पडूंगा
कहीं न कहीं
गीत में या अभिनय में या कि सन्नाटे में
मा व्हिस्की के घूंट में या फिर धुंआ उड़ाता
कहीं न कहीं ढूंढते रहना मुझको
पा जाओगे खुद को पूरा-पूरा
दिखूं अधूरा वहां भी मैं पूरा ही रहूंगा
ध्यान लगाना
कुछ पल साथ निभाना मेरा
संगिनी मेरी कालरात्रि यह
नीम-बेहोशी में ही लिखी है ये इबारतें
सुनते हो ना, तुमसे ही कह रहा निरन्तर
जैसे बच्चा करता है छुप-छुप शरारतें
मैने तो उस पल ही तुमको भांप लिया था
भीतर तेरे झांक लिया था
कोक स्टुडियो मे जब तुमको देखा था यूं बुनते गाना
जैसे मां-बहनें बुनती स्वैटर का ताना-बाना
वो जो नज़ाकत वो बांकापन कुछ थी कलाऐं
सारे राग लपेटे गर्दन पर मफ़्लर से
ताल झपकती पलको ही से दिख जाती थी
जो न दीखता, सुनके उसे जाना जा सकता
जो न सुनाया तुमने बैठा था छुपके जो पंक्ति-मध्य में छटपटाहटें आत्म की, वो जो तम-भरी रुदित-रात्रियां
पढ़ी जो ये औक़ात तुम्हारी
ओ सन्ताप पीयूष त्रिवेदी या कि मिश्रा
नहीं फरक पड़ता, इंसा ज़िन्दा है तुममें
जीवन बहता है तुम में झर-झरता निर्झर
पलंग-झुलती मृत्यु का ठेंगा
उसके ही मुंह में डाल कर
निकल जो आए थे तुम
अब न कहीं जाओगे
पीयूष को मर मिटे थे दानव और दैव सब
छीना-झपटी में या छल से छलक पड़ा था
कुछ बूंदें पा कर ही जीवन जी उठता है
नहीं हो बोतल दुख पी कर भी जी उठता है
मैं भी उठा हूं पुस्तक पी कर
नींद नहीं आएगी तब तक
पिया हुआ यह अमृत या कि गरल
जो भी, ना उगल ही दूंगा
जो है दिया जीवन ने, उसको बिना लुटाए
कौन जो पा सकता है मुक्ति?
_____________________
____________________________________
राबर्ट डी नीरो
कोई एक ऐसा
जिसके जैसा होना चाहते हम
दिखना और दिखाना चाहते करना चाहते काम
अमुमकिन
जैसे इरफ़ान सुरेखा सीकरी को
संध्या-छाया में देख हुआ था मन्त्रमुग्ध वैसा ही
आवेश चढ़ा सन्ताप के ऊपर जब उसने राबर्ट डी नीरो को
दो विपरीत ध्रुवीय अभिनयों में देखा
वो भोंचक था
उसने जाना उसने गलती से दुनिया के सबसे महान प्रोफेशन में कदम रख दिया है
वो चुप था, सोच रहा था-
"मैं अभिनय नाम के लफ्ज़ को माइक्रो लेवल तक जानना चाहता हूं"
तब उसके अन्दर पौधे ने पनपना शुरु कर दिया था
पीयूष-बीज अंकुरित हुआ था
_____________________________
ऊंचाई पर खुलते हैं प्रश्न
खिलते है प्रश्न
वो जीवन हो कि अध्यात्म
ऊंचाई चाहे विचार की हो या देह हो उच्च शिखर पर
वह भी एन एस डी का एक साल बर्बाद कर
किसी बर्फीले शहर की ऊंचाई पर था
पूछने खुद से, उस सन्नाटे से
जो थोड़ा उसके निकट था दूर बहुत ज्यादा
कहां जाना है? क्या करना है?
जीना, जीना, जीना फिर एक दिन मर जाना है
मानव जीवन क्यों, कर्म के लिये
मेरा कर्म क्या, अभिनय
क्या मैं वह कर पा रहा हूं?
जवाब मिलेगा कभी तो मिलेगा
जिन खोजा तिन पाइयां
फिलहाल बन्द करता हूं किताब और
पूछता हूं खुद से, क्या मै भी कर पा रहा हूं अपना कर्म?
_____________________
___________________________
शान्ति उतरी तो थी उसके भीतर
एक कौंध के द्वारा
शोर के द्वारा
मौन के द्वारा
बस थी एक असीम शान्ति अनुभूति-जन्य
आक्रोश रहित
ज्वार के शान्त हो जाने से शान्त समुद्र-सा
लेटा था
अब सीलिंग फेन की खटखट
नहीं खटकती उसे
_____________________
इक्कीस की उम्र और चौदह गाने
अभिनय होना था राधेश्याम कथावाचक के
पारसी नाटक मश़रिकी हूर का
बी एम शाह डायरेक्टर म्युजिक कम्पोज़र थे मोहन उप्रेती
प्रमुख नकारी भूमिका में था सन्तान
मोहन जी का ऐन वक्त पर दु:ख भरा संदेश जो आया
गीत नहीं-संगीत नहीं कर सकता इसमें
थे हतप्रभ सब, शाह जी के पैरों से भूमि खिसक गयी थी
बिन संगीत के पारसी नाटक कैसे होगा
सभा बुलाई ख़बर सुनाई हाथ जोड़ कर माफ़ी मांगी
इतने ही में छात्र-मण्डली के भीतर से हाथ उठा एक
मैं दूंगा संगीत गीत भी मै लिख दूंगा
ठान लिया उसने कि वो यह भी कर सकता
और किया भी, क्या ख़ूब हुआ वह नाटक
यह लड़का आगे जाएगा एक ही स्वर में बोले थे सब
एक दिव्य ज्योति उतरी थी अभिनय की तब
या सन्ताप मे पीयूष बन कर दैव ही उतरा
नहीं दैव, विश्वास आत्म का उतरा था तब ख़ुद पर
_____________________
___________________________
पिता की नियति और पुत्र की प्रकृति
टकराती ही कहीं न कहीं
आयु के दो भिन्न पड़ाव
जहां पिता ये भूल जाते कि वो भी कभी पुत्र थे
और पुत्र को होश नहीं रहता कि वो भी कभी पिता होगा
एक टकराहट एक अदृश्य दीवार
दोनों के बीच में न जाने
नियति का कौनसा दूत आकर खींचता
कि वो धीरे-धीरे बढ़ती ही जाती
जिस पर गढ़ी कील पर
मां टंगी रहती किसी तस्वीर-सी अबोली
उसकी झोली में पति से झड़प
पुत्र की झिड़क ही आती
पल्ले के एक छोर में पुत्र की मनोकामना की गांठ
दूसरे में अपने चिर-सुहाग की आस बांधे
टपकते आंसुओं की धार के बीच
गूंथती आटा
बिना नमक
_____________________
______________________________
अपेक्षाओं की भीड़
उपेक्षाओं का नीड़
बढ़ती ही जाती पीड़़
रिसती-टपकती
टप-टप टप-टप टप-टप
_________________________
स्मृतियां धोखेबाज़ होती है
मनुष्य की ही नहीं
शहर की भी
___________________
तब ख़त ही तो थे
अपने प्रेम को, क्रोध को
पूरी भाव-सरणि को व्यक्त करने को,
संगिनी भी ख़त लिखती थी
और चाहती भी थी कि कोई उसे भी ख़त लिखे
लिखता तो सन्ताप भी था संगिनी को ख़त
लेकिन वो किसी तार-से केवल सूचना मात्र-से
लेकिन उसे पसन्द थे लम्बे ख़त
तब ही तो जब छुट्टियों मे सन्ताप दिल्ली से ग्वालियर आता
तो वो उसे विश्वास के लम्बे-लम्बे ख़त दिखलाती
चहक तो चिड़िया-सी ही पाई, वही रही बड़ी दूर तक साथ
फिर रख दी गयी इक डिबिया मे,
जिसे बमुश्किल निकाला था फिर एक बार सन्ताप के सामने,
जब वो छुट्टियों में मिला था
शायद आखिरी बार भी
क्या लम्बे ख़त ही आसीन करते
किसी को हृदयासन पर?
उनमें विश्वास भी तो हो, कुछ प्यास, थोड़ी आस
लेकिन यहां
ख़त लम्बे हो रहे थे
विश्वास होता जा रहा था छोटा
संगिनी के जीवन में और अपने होने में भी
संगिनी विश्वास से ही नहीं
ख़ुद से भी बहुत दूर होती गयी
लेकिन सन्ताप? खुद के बहुत निकट
_____________________
_____________________________
तब उसने ख़ुद से कहा -तुम्हारी.........
वह पागल हो चुका था
कि जब कोई तुमसे कहे जो भी तुम कर रहे हो
चाहे कितने ही वर्षों से
सब फालतू
"यू स्पीक लाइक अ डाग
तुम कुत्ते की तरह बोल रहे हो, हैमलेट कुत्ता नहीं
किसने कहा थ्येटर करने को,
जाओ बैंक में नौकरी करो"
तीखे बाण
फ्रिट्ज़ बैनेविट्ज़ हेमलेट के निर्देशक
एक आंख वाले होते हुए भी सहस्राक्ष
दैत्य गुरु शुक्राचार्य की तरह
जिससे कुछ भी छुपा नहीं रह सकता, अभिनय-त्रुटि तो कदापि नहीं
तब उसे लगा कि वो नाज़ी काॅन्सन्टेशन कैंप में है
यातना की तीव्रता बढ़ रही थी
वह पागल हो रहा था या कि द्रष्टा
यहां शेखर की याद आती है-
'वेदना में एक शक्ति है, जो दृष्टि देती है।
जो यातना में है वह द्रष्टा हो सकता है।'
आख़िर अभिनय ओर क्या है?
_______
और सन्ताप पागल हो गया
स्वयं के निकट जाना
भीतर तक घुस कर स्वयं को देखना
खरोचना आत्मा को कि उसका लहू
जो कि तुम्हारी भाषा में अप-प्रयोग है,
को देह पर किसी कालिख-सा पुतते देखना
दुनिया इसी को पागलपन कहती है
सनक कहती है
लेकिन इस सनक के बिना आहारनिद्राभयमैथुनीसृष्टि
से परे नहीं देखा जा सकता
कलाओं के क्षेत्र में
एक छलांग
एक दुस्साहसी आत्मा का प्रतिरोध
भीतर के अन्तिम छोर तक जा कर
खुद को बाहर उलीच देता
आन्तरिक ऊर्जा का विस्फोट होता
तो देह-दीवार भरभरा जाती
देह की दरारों में से आलोक रिसता
मीठा-जहरीला आलोक
दूसरों के लिए मीठा
ज़हर खुद के लिए
क्या सन्ताप में पीयूष उतर रहा था?
हैमलेट अपने रंग में था
उसका चेहरा
किसी सद्य: विकसित कमल -सा
फ्रिट्ज़ बेनेविट्ज़ की हथेलियों में भरा हुआ था
स्थिर-मौन
या प्रचण्ड आरम्भ
____________________
अन्ततः हथियार कला के आगे
आत्मसमर्पण करते है
यह बात उस समय भी (ही) सम्भव थी
तभी तो हिटलर की सेना का एक ख़ूंखार नाज़ी सैनिक
ब्रेख्त और उनकी पत्नी के थियेटर को ज्वाइन कर लेता है
और अपने देश का ही नही
विदेशों में भी अपने सर्वश्रेष्ठ निर्देशन का
परचम लहराता है
बन्दूक टंगी थी दीवार पर
उसकी उपस्थिति की धमक से ही कलाकारों की नीदें उड़ जाती
उन्हें उनके साथ नाज़ी यातना-शिविरों सा अनुभव होता
ठीक ही कहा है मेरे पूर्वजों ने कि
'अपने प्रति निर्दय हुए बिना कला-साहित्य के मर्म को
नहीं छुआ जा सकता।'
_______________________
_______________________
पात्र
जिसमें उतरता अभिनय
होता
तदाकाराकारित
पात्र होता है दैवप्रदत्त
अभ्यास केवल उसे आकार देता है
ऊसर में अच्छे से अच्छा बीज भी कहां पनपता है
________________________
सोचना और चलना
चलते-चलते सोचना
और
सोचते-सोचते चल पड़ना
वह सोचते-सोचते चल पड़ता
चलते-चलते न जाने क्या सोचता जाता
उसमें सार्थक था
चरैवेति चरैवेति
मैंने भी यह जो लिख रहा, सड़क पर चलते चलते-चलते
_________________________
कला कोई भी हो
कुछ घंटे नहीं
वह मांगती है जीवन
पूरा का पूरा
तभी तो सच्चा कलाकार नहीं बंधता
त्वरित प्रलोभन से
तुमने भी तो तुरन्त ही छोड़ दी थी
एन एस डी मे मिली रेपर्टरी की जमी जमाई नौकरी
आसमां की ऊंचाइयों को छूने वाले पंछी
छोटे दरख़्तों पर
क्या बसाते हैं अपना घोंसला?
सबसे बड़ा था तुम्हारा हौंसला
------------------------------------------
------------------------------------------
जब कोई सब कुछ छोड़ कर
मात्र कला पर ही हो जाता है आश्रित
और उस एक को ही मान लेता अपना साध्य-सर्वस्व
तो नियति उस पर रुष्ट हो जाती
और अपने पोष्य शिशुओं की गिनती मे से उसका नाम
हटा देती, शेखर के अज्ञेय-वचन
सन्ताप के साथ भी यही हो रहा था
अब जीवन उसके सामने विकराल हो कर खड़ा था
______________________
ऊर्जा का पुंज ही तो है मनुष्य
चेतना का एक चक्र
निरन्तर घूमता है मस्तक के पृष्ठ भाग में
केवल देवी-देवताओं के सीरियल मे ही नही
रीयल में भी हममें से निकलते चैतनिक-आवेग
कभी कभी वह आवेग इतने तीव्र की देह में नहीं समाते
कोई पागल तो कोई हो जाता सन्यासी-जोगी
वही चेतना-चक्र घूमता भीतर तुम्हारे
लहू में शराब घोलने से नहीं मिलती शान्ति
बल्कि ओर बढती विकलता
अध्यात्म कहता ऊर्जा की सद्गति लाती विकास
उसकी अधोगति करती सत्यानाश
कभी तुम्हारी ऊर्जा उतारू थी तुम्हारे सर्वनाश पर
लेकिन तुम्हारी निष्ठा अक्षुण्ण थी अभिनयाकाश पर
_____________
फुटपाथ पर चलते हैं लोग
फुटपाथ पर रहते हैं लोग
फुटपाथ पर सोते हैं
तुम भी सोये थे
पांच रुपया रात-गुज़ारी दे कर
दस रूपये न होने के कारण ही तुमने चुनी होगी ऐसी जगह
जहां शराबी-गाडियां कुचल जाती रात के पांव
जहां मृत्यु कुछ घड़ी पहले पहुंचती
मर तो गया था वह गंजेड़ी भी बिना एक्सिडेंट
जिसकी आधी चादर ने ढकी थी तुम्हारी पूरी रात
लाश के साथ ही सोये रहे थे तुम
जी भी तो रहे थे अपनी ज़िन्दा-लाश के साथ
जीवन कितना सरल
जीना कितना दुष्कर
___________________________
सही कहा तुमने
"भूखे पेट की लोरी बड़ी दर्दनाक होती है"
मुझे याद आती है अपनी ही एक कविता-
'मै भरे पेट से लिखता हूं
भूख पर कविता
भूखा व्यक्ति होता है
ईश्वर के नाम पर
प्रश्नवाचक निबन्ध...?
_____________________
अनवरत और अनासक्त कर्म का स्वाद,
कैसा होता है स्वाद स्वेद का
लहू का स्वाद
टपकते आंसुओं का स्वाद
तुमने अब चख लिया था कर्म का स्वाद
वह भी अनवरत
काम में निरन्तरता
और निरन्तरता में अनासक्ति, ये दो भिन्न ध्रुव हैं
उस समय की धार्मिक कट्टरता के वातावरण ने,
संतो चाची के दिए हुए हारमोनियम ने और
तुम्हारी धधकती आत्म-ज्वाला ने
वो गीत लिखवाये तुमसे जो उस समय
दिल्ली की गली मुहल्लों, सड़कों-चौराहों
और स्कूल-कालेजों तक मे चर्चित हुए
सन्ताप के ताप से अखबारों की सुर्खियां लाल थी
बम्बई के फुटपाथ पर सोने वाला सन्ताप
दिल्ली की नींद उड़ा रहा था
ठहरो
अभी तूफान आ रहा था
____________________________
स्ट्रीट सांग्स्
सड़को पर गाए जाने वाले गीत
एक हारमोनियम और नाल की ताल पर
एक तमाचा व्यवस्था के गाल पर
दिल्ली और उसके आस-पास इन्कलाब ला दिया था
ऐसे ही आता है इन्कलाब
ऐसे ही आया था सड़कों के रास्ते
ऐसे ही आएगा
महलों, आसमानों, संसदों से कभी नहीं निकलते
इन्कलाबी रास्ते
________________
सड़कें
पुकारती है प्रेमिकाओं की तरह
सड़कों के पास भी है अपनी स्मृतियां
तुमने भी कितना सहेजा सड़कों को अपनी स्मृतियों में
कि कदम हो या ऑटो
एक बार तो बढ़ते ही चिरन्तन धर्म-मन्दिर स्कूल की तरफ
जबकि अब वहां कोई नहीं तुम्हारा परिचित
सिगरेट के धुंए-सी बनती-बिखरती स्मृतियां भी
अब टंगी होंगी
नीम के पेड़ पर
पहले वहां जाओ...
_____________________
साधना के मार्ग में एक अवस्था आती है
जब साधक अपने आराध्य से बात करने लग जाता है
राबर्ट डी नीरो
पहले उसके आराध्य थे
वह उनका एकलव्य था पर
वे द्रोण नहीं थे
वे तो उसके लिये आदि शंकर थे
दक्षिणामूर्ति रूप
मौन-उपदेशक
वह कभी सखा भाव तो कभी मीरा भाव में
नीरो से बातें करता
उनसे हाथ भी मिलाया
तुमने नीरो से कहा था......... मैं बेहद सन्तुष्ट हूं क्या तुम भी हो।
कालिदास कहते है-
आ परितोषाद् विदुषां न साधु मन्ये प्रयोगविज्ञानम्
___________
जब शहर हमारा सोता है
न जाने क्या क्या होता है
तुम्हारा कोई भी गीत
आत्मा की चीख है
ये एक नाटक है या गीत है
या नाट्य-गीतिका
घृणा, दहशत, आक्रोश, क्रोध, करुणा
का एक व्याकुल-समन्वय
तुम्हारे भीतर भरे हुए सैलाब को
उस आन्तरिक सन्ताप को आखिरी बूंद तक
निचोड़ कर रख देने की क्रूर-तड़प
एक झुर-झुरी मुझ तक पहुंचती है
जब अपने भीतर चीखती(ता) है पृथ्वी
ओ री दूनिया......
_________________________
जब तुम ज़िक्र करते हो '92 की घटना का
तब मैं तुमसे कहता हूं
कुछ नहीं बदला तब से अब तक, सुनो-
धर्म की भट्टी में
क्रोध को पिघला कर
स्वार्थ की समिधाओं से प्रज्जवलित अग्नि
अब भी प्रतिष्ठित है
अतिशिष्ट-धार्मिकों के घरों में
अवसरवादी अच्छी तरह जानता है
कि उसमें कब-कब
डालना है उकसाहट का घृत
वह जो ऊंचे आसन पर बैठा है ना! जानता है
हर धर्म का कर्मकाण्ड
वह वेत्ता है अभिचार का भी।
________________________
एन इवनिंग विथ सन्ताप त्रिवेदी
तीन तीया पच्चीस
गणितीय सिद्धांत से परे की गणना
जीवन में कुछ मौकों पर
मनुष्य स्वयं को साबित करने की कोशिश
अन्तिम श्वास तक निचोड़ कर करता है
तीन कथाऐं तीन घंटे
पच्चीस किरदार
और करने वाला अकेला हेमलेट
नाट्य के इतिहास की अभूतपूर्व घटना
भरभरा कर टूटना सिमटना बिखरना
लेकिन मंच फर खुद को समेट कर
कथा के बिखरे और रंग-बिरंगे किरचों को
एक ही फ्रेम में कलात्मकता से सजाना
ना थकने का शाप अपनी देह पर लिए
किसी अभिशप्त-ऊर्जा की तरह
जिसे वरदान कहती दुनिया
अश्वत्थामा
मुझे तुम्हारा लहू दिखता है
_________________________
बड़े क्रूर होते हैं महानगर
बड़े दयालु भी
वहां सड़क पर चलते हुए
थैले या बैग में रखने पड़ते है कई चेहरे
वो केवल इंसानी हो, जरूरी नहीं
भोले-शरीफ़ आदमी को भी बनना पड़ता है थोडा लुच्चा
अपने स्वार्थ में सजग
दो रोटी, गांव में एक पड़ोसी के लिए
महानगर में दो दिन सुबह-शाम के लिए
जितना फैलता महानगर उतने ही सिकुड़ते लोग
रोज़ धोने से जैसे सिकुड़ती है कमीज़
यहां रोज़ का मिलना रिश्तों को कर जाता तंग
अपने नगर की दाल-रोटी छोड़
महानगर मे बिरियानी खाने की अभिलाषा वाली
आज की हमारी पीढ़ी
घर से एक बार निकलने के बाद
अपनी परछाई को भी नहीं पहचानती
ऐसे में डूबता-उबरता सन्ताप
अपने जोश के सहारे
भटकता है, धोखे खाता है, सीखता है
फिर अगले मोड़ पर एक नया थोखा
नये चेहरे के साथ हमसाया होता
उसका डर शायद धोखे की शक्ल मे बार-बार पीछे आता
भागता-दौडता अपने आप
कहीं नहीं पहुंचता सन्ताप
कहां पहुंचना था उसे?
कहीं न पहुंचना ही तो उसे अब तक बचाए हुए था
________
इस शहर बम्बई में
सब को
तलाश थी एक ब्रेक की
जबकि इस जादुई नगरी को कभी ब्रेक नहीं लगता
एक मौका, एक अवसर
जिस पर वो अपना सब-कुछ दाव पर लगा सके
8/10 की खोली में
आकाश-भर सपनें
जहां अपने भी नही अपनें
इस कभी न सोने वाले शहर में
जागती आखों में धुंधले सपने ले कर
कभी नहीं आना चाहता था वो
लेकिन नियति...
संगिनी कहीं पीछे छूट गयी थी
अब जीवन-संगिनी थी साथ
उसने 'जिया' के समर्पण को 'जोश' के साथ जिया
हर ग़म को पिया
निष्ठुर-स्वप्निल नगरी से अपने हक़ को छीन लिया
____________
तेरे गालों पे जब गुलाल लगा
ये जहाँ मुझ को लाल लाल लगा
- नासिर अमरोहवी
पुते चेहरे
रक्त या गुलाल
क्रान्ति या भ्रान्ति
नेता या स्वार्थी
प्रचण्ड आरम्भ या ख़ौफनाक अन्त
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है
असह्य यथार्थ या मादक स्वप्न
जो भी हो, जैसी भी हो फिल्मी दुनिया ने लोहा मान लिया
गुलाल में अपना सब कुछ होम कर
उसका चेहरा गुलाब-सा खिल उठा
जो घर फूके आपणा चले हमारे संग...
_____________
मत सहल हमें जानो फिरता है फ़लक बरसों।
तब ख़ाक के पर्दे से इंसान निकलते हैं
-मीर तक़ी मीर
सीवियर ब्रेन स्ट्रोक
एक हाथ एक पांव आवाज़ अभिनय सब ख़त्म
पर जिजीविषा अदम्य-असमाप्य सावित्री-सी
जो खींच लाई पति सत्यवान को यम-द्वार से
तुमने काल की आंख में आंख डाल कर कहा-
'अभी बहुत कुछ करना है'
नकारात्मक चिकित्सकों से दूर
अध्यात्म की गोद में
पाया पुनर्जीवन
अब अध्यात्म स्वभाव था
_______________________
विपश्यना
पश्य विना
वर्णविपर्यय
को सिखाती विपश्यना,
देखने की कला के सिवाय ओर क्या है
अभिनय भी
____________________
बम्बई हो या दिल्ली
ख़ुद की खिल्ली उड़ाने वालों ही ने
मारी बिल्ली।
बल्लीमारान वाले चचा जो फ़रमा गये।
बना है शाह का मुसाहिब फिरे है इतराता
वग़रना शहर में ग़ालिब की आबरू क्या है
न तो ग़ालिब शाह का मुसाहिब थे और न ही उसकी आबरू किसी से छुपी थी ठीक उसी तरह पीयूष मिश्रा भी किसी शाह के मुसाहिब नही जनता-जनार्दन का शहज़ादे है और उसकी आबरू तो अब कहां कहां नहीं पहुंची।
धड़कते रहो भभकते रहो कि यही तो है जीना
________________________
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
नितेश व्यास
गज्जों की गली,
पूरा मोहल्ला, भजनचोकी,
जोधपुर; 342001, राजस्थान
मो - 9829831299
ई मेल : niteshsanskrit@gmail.co
नितेश व्यास की उम्दा कविताओं पर सटीक टिप्पणी है यह | बहुत बहुत बधाई |
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर समीक्षा
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद भाई
हटाएं