हरिशंकर परसाई का व्यंग्य लेख 'वैष्णव की फिसलन'

 

                                                       हरिशंकर परसाई

 


व्यंग्य ऐसी विधा है जिसमें किसी मुद्दे पर तार्किक रूप से ऐसे प्रहार किया जाता है जिसमें उपहास का पुट रहे। किसी भी व्यंग्यकार के लिए यह एक बड़ी चुनौती होती है। हरिशंकर परसाई हिन्दी व्यंग्य के सरताज हैं। जिस विषय को उठाते हुए उसे बड़ी खूबसूरती से निभाते हैं। परसाई जी का यह जन्मशताब्दी वर्ष है। इसी क्रम में आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं हरिशंकर परसाई का व्यंग्य लेख 'वैष्णव की फिसलन'।


 

वैष्णव की फिसलन

               

हरिशंकर परसाई


वैष्णव करोड़पति है। भगवान विष्णु का मंदिर। जायदाद लगी है। भगवान सूदखोरी करते हैं। ब्याज से कर्ज देते हैं। वैष्णव दो घंटे भगवान विष्णु की पूजा करते हैं, फिर गादी-तकिए वाली बैठक में आ कर धर्म को धंधे से जोड़ते हैं। धर्म धंधे से जुड़ जाए, इसी को ‘योग’ कहते हैं। कर्ज लेने वाले आते हैं। विष्णु भगवान के वे मुनीम हो जाते हैं । कर्ज लेने वाले से दस्तावेज लिखवाते हैं -


‘दस्तावेज लिख दी रामलाल वल्द श्यामलाल ने भगवान विष्णु वल्द नामालूम को ऐसा जो कि...


वैष्णव बहुत दिनों से विष्णु के पिता के नाम की तलाश में है, पर वह मिल नहीं रहा। मिल जाय तो वल्दियत ठीक हो जाय।


वैष्णव के पास नंबर दो का बहुत पैसा हो गया है । कई एजेंसियाँ ले रखी हैं। स्टाकिस्ट हैं। जब चाहे माल दबा कर ‘ब्लैक’ करने लगते हैं। मगर दो घंटे विष्णु-पूजा में कभी नागा नहीं करते। सब प्रभु की कृपा से हो रहा है। उनके प्रभु भी शायद दो नंबरी हैं। एक नंबरी होते, तो ऐसा नहीं करने देते।


वैष्णव सोचता है - अपार नंबर दो का पैसा इकठ्ठा हो गया है। इसका क्या किया जाय? बढ़ता ही जाता है। प्रभु की लीला है। वही आदेश देंगे कि क्या किया जाय।


वैष्णव एक दिन प्रभु की पूजा के बाद हाथ जोड़ कर प्रार्थना करने लगा - प्रभु, आपके ही आशीर्वाद से मेरे पास इतना सारा दो नंबर का धन इकठ्ठा हो गया है। अब मैं इसका क्या करूँ? आप ही रास्ता बताइए। मैं इसका क्या करूँ? प्रभु, कष्ट हरो सबका!


तभी वैष्णव की शुद्ध आत्मा से आवाज उठी - अधम, माया जोड़ी है, तो माया का उपयोग भी सीख। तू एक बड़ा होटल खोल। आजकल होटल बहुत चल रहे हैं।




वैष्णव ने प्रभु का आदेश मान कर एक विशाल होटल बनवाई। बहुत अच्छे कमरे। खूबसूरत बाथरूम। नीचे लॉन्ड्री। नाई की दुकान। टैक्सियाँ। बाहर बढ़िया लान। ऊपर टेरेस गार्डेन।


और वैष्णव ने खूब विज्ञापन करवाया।


कमरे का किराया तीस रुपए रखा।


फिर वैष्णव के सामने धर्म-संकट आया। भोजन कैसा होगा? उसने सलाहकारों से कहा - मैं वैष्णव हूँ। शुद्ध शाकाहारी भोजन कराऊँगा। शुद्ध घी की सब्जी, फल, दाल, रायता, पापड़ वगैरह।


बड़े होटल का नाम सुन कर बड़े लोग आने लगे। बड़ी-बड़ी कंपनियों के एक्जीक्यूटिव, बड़े अफसर और बड़े सेठ।


वैष्णव संतुष्ट हुआ।


पर फिर वैष्णव ने देखा कि होटल में ठहरने वाले कुछ असंतुष्ट हैं।


एक दिन कंपनी का एक एक्जीक्यूटिव बड़े तैश में वैष्णव के पास आया। कहने लगा - इतने महँगे होटल में हम क्या यह घास-पत्ती खाने के लिए ठहरते हैं? यहाँ ‘नानवेज’ का इंतजाम क्यों नहीं है?


वैष्णव ने जवाब दिया - मैं तो वैष्णव हूँ। मैं गोश्त का इंतजाम अपने होटल में कैसे कर सकता हूँ ?


उस आदमी ने कहा - वैष्णव हो, तो ढाबा खोलो। आधुनिक होटल क्यों खोलते हो? तुम्हारे यहाँ आगे कोई नहीं ठहरेगा|


वैष्णव ने कहा - यह धर्म-संकट की बात है। मैं प्रभु से पूछूँगा।


उस आदमी ने कहा - हम भी बिजनेस में हैं। हम कोई धर्मात्मा नहीं हैं - न आप, न मैं।


वैष्णव ने कहा - पर मुझे तो यह सब प्रभु विष्णु ने दिया है। मैं वैष्णव धर्म के प्रतिकूल कैसे जा सकता हूँ? मैं प्रभु के सामने नतमस्तक हो कर उनका आदेश लूँगा।




 

दूसरे दिन वैष्णव साष्टांग विष्णु के सामने लेट गया। कहने लगा - प्रभु, यह होटल बैठ जाएगा। ठहरने वाले कहते हैं कि हमें वहाँ बहुत तकलीफ होती है। मैंने तो प्रभु, वैष्णव भोजन का प्रबंध किया है। पर वे मांस माँगते हैं। अब मैं क्या करूँ?


वैष्णव की शुद्ध आत्मा से आवाज आई - मूर्ख, गांधी जी से बड़ा वैष्णव इस युग में कौन हुआ है? गाँधी का भजन है - 

‘वैष्णव जन तो तेणे कहिये, जे पीर पराई जाणे रे।’ 

तू इन होटलों में रहने वालों की पीर क्यों नहीं जानता? उन्हें इच्छानुसार खाना नहीं मिलता। इनकी पीर तू समझ और उस पीर को दूर कर।


वैष्णव समझ गया।


उसने जल्दी ही गोश्त, मुर्गा, मछली का इंतजाम करवा दिया।

होटल के ग्राहक बढ़ने लगे।

मगर एक दिन फिर वही एक्जीक्यूटिव आया।

कहने लगा - हाँ, अब ठीक है। मांसाहार अच्छा मिलने लगा। पर एक बात है।

वैष्णव ने पूछा - क्या?

उसने जवाब दिया - गोश्त के पचने की दवाई भी तो चाहिए ।

वैष्णव ने कहा - लवण भास्कर चूर्ण का इंतजाम करवा दूँ?


एक्जीक्यूटिव ने माथा ठोंका।


कहने लगा - आप कुछ नहीं समझते। मेरा मतलब है - शराब। यहाँ बार खोलिए।


वैष्णव सन्न रह गया। शराब यहाँ कैसे पी जाएगी? मैं प्रभु के चरणामृत का प्रबंध तो कर सकता हूँ। पर मदिरा! हे राम!


दूसरे दिन वैष्णव ने फिर प्रभु से कहा - प्रभु, वे लोग मदिरा माँगते हैं| मैं आपका भक्त, मदिरा कैसे पिला सकता हूँ?


वैष्णव की पवित्र आत्मा से आवाज आई - मूर्ख, तू क्या होटल बैठाना चाहता है? देवता सोमरस पीते थे। वही सोमरस यह मदिरा है। इसमें तेरा वैष्णव-धर्म कहाँ भंग होता है। सामवेद में तिरसठ श्लोक सोमरस अर्थात मदिरा की स्तुति में हैं। तुझे धर्म की समझ है या नहीं?


वैष्णव समझ गया।


उसने होटल में ‘बार’ खोल दिया।


अब होटल ठाठ से चलने लगा। वैष्णव खुश था।





फिर एक दिन एक आदमी आया। कहने लगा - अब होटल ठीक है। शराब भी है। गोश्त भी है। मगर मारा हुआ गोश्त है। हमें जिंदा गोश्त भी चाहिए।


वैष्णव ने पूछा - यह जिंदा गोश्त कैसा होता है?


उसने कहा - कैबरे, जिसमें औरतें नंगी हो कर नाचती हैं।


वैष्णव ने कहा - अरे बाप रे!


उस आदमी ने कहा - इसमें ‘अरे बाप रे’ की कोई बात नहीं। सब बड़े होटलों में चलता है। यह शुरू कर दो तो कमरों का किराया बढ़ा सकते हो।


वैष्णव ने कहा - मैं कट्टर वैष्णव हूँ। मैं प्रभु से पूछूँगा।


दूसरे दिन फिर वैष्णव प्रभु के चरणों में था। कहने लगा - प्रभु, वे लोग कहते हैं कि होटल में नाच भी होना चाहिए। आधा नंगा या पूरा नंगा।


वैष्णव की शुद्ध आत्मा से आवाज आई - मूर्ख, कृष्णावतार में मैंने गोपियों को नचाया था। चीर-हरण तक किया था। तुझे क्या संकोच है?


प्रभु की आज्ञा से वैष्णव ने ‘कैबरे’ भी चालू कर दिया।


अब कमरे भरे रहते थे - शराब, गोश्त और कैबरे।


वैष्णव बहुत खुश था। प्रभु की कृपा से होटल भरा रहता था।


कुछ दिनों बाद एक ग्राहक ने बेयरे से कहा - इधर कुछ और भी मिलता है?


बेयरे ने पूछा - और क्या साब?


ग्राहक ने कहा - अरे यही मन बहलाने को कुछ? कोई ऊँचे किस्म का माल मिले तो लाओ।


बेयरा ने कहा - नहीं साब, इस होटल में यह नहीं चलता।


ग्राहक वैष्णव के पास गया। बोला - इस होटल में कौन ठहरेगा? इधर रात को मन बहलाने का कोई इंतजाम नहीं है।

 


 


वैष्णव ने कहा - कैबरे तो है, साहब।


ग्राहक ने कहा - कैबरे तो दूर का होता है। बिलकुल पास का चाहिए, गर्म माल, कमरे में।


वैष्णव फिर धर्म-संकट में पड़ गया।


दूसरे दिन वैष्णव फिर प्रभु की सेवा में गया। प्रार्थना की - कृपानिधान! ग्राहक लोग नारी माँगते हैं - पाप की खान। मैं तो इस पाप की खान से जहाँ तक बनता है, दूर रहता हूँ। अब मैं क्या करूँ?


वैष्णव की शुद्ध आत्मा से आवाज आई - मूर्ख, यह तो प्रकृति और पुरुष का संयोग है। इसमें क्या पाप और क्या पुण्य? चलने दे।


वैष्णव ने बेयरों से कहा - चुपचाप इंतजाम कर दिया करो। जरा पुलिस से बच कर, पच्चीस फीसदी भगवान की भेंट ले लिया करो।


अब वैष्णव का होटल खूब चलने लगा।


शराब, गोश्त, कैबरे और औरत।


वैष्णव धर्म बराबर निभ रहा है।


इधर यह भी चल रहा है।


वैष्णव ने धर्म को धंधे से खूब जोड़ा है।

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं