अमरेन्द्र कुमार शर्मा का आलेख 'वॉल्टर बेंजामिन और एरिक हॉब्सबॉम का कला इतिहास वृतान्त : कुछ नोट्स'।
एरिक हॉब्सबॉम |
19वीं-20वीं सदी के कुछ आविष्कारों ने न केवल इस दुनिया
को बदल दिया बल्कि इसने कला
और संस्कृति को भी व्यापक तौर पर प्रभावित किया। फोटोग्राफी, रेडियो, सिनेमा और
टेलीविजन के आविष्कार ने कला के साथ-साथ संस्कृति पर गहरा
प्रभाव डाला। इससे इतिहास भी प्रभावित हुआ और कलाओं का अध्ययन एक नए सिरे से किया जाने लगा। अमरेन्द्र कुमार शर्मा ने इधर अपने गम्भीर गद्य लेखन से ध्यान आकृष्ट किया है। ज्ञान के साथ-साथ गद्य की एक रवानगी उनके यहाँ स्पष्ट तौर पर देखी जा सकती है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है अमरेन्द्र कुमार शर्मा का शोधपरक आलेख 'वॉल्टर
बेंजामिन और एरिक हॉब्सबॉम का कला इतिहास
वृतान्त : कुछ नोट्स'।
वाल्टर बेंजामिन और एरिक हॉब्सबॉम का कला इतिहास-वृतांत : कुछ
नोट्स
अमरेन्द्र कुमार शर्मा
(यह
लेख अंटोनियो ग्राम्शी,
वाल्टर बेंजामिन और एरिक हॉब्सबॉम की
कला संबंधी चिंतन पर आधारित परियोजना का एक हिस्सा है। यहाँ सिर्फ वाल्टर बेंजामिन
और एरिक हॉब्सबॉम उपस्थित हैं, अंटोनियो
ग्राम्शी के साथ यह फिर कभी.)
‘‘अतीत के पास एक पैमाना है जिससे उद्धार मापा जाता है। गुजरी
हुई नस्लों और आज की नस्ल के बीच एक खुफ़िया एग्रीमेंट है। हमारा पृथ्वी पर आना तय
था। गुजरी हुई नस्ल की तरह,
हमारी नस्ल को भी कमज़ोर मसीहाई ताकत
मिली है और इस ताकत पर गुज़रे जमाने का भी हक है। यह हक सस्ते में अदा नहीं किया जा
सकता है।’’ - वाल्टर बेंजामिन
‘‘.....अतीत से वैधता मिलती है। वर्तमान में खुशी मनाने लायक तो कुछ
है नहीं इसलिए अतीत इसकी गौरवशाली पृष्ठभूमि बनाने के काम आता है।’’.... ‘‘जब हमें इतिहास की सबसे ज्यादा जरूरत होती है तभी वह हमारी
मदद करना बंद कर देता है।’’ - एरिक हॉब्सबॉम
इतिहास में एक
मौलिक सवाल होना चाहिए कि वह एक प्रक्रिया की खोज करे। वाल्टर बेंजामिन और एरिक हॉब्सबॉम हमारी दुनिया की दास्तान अपने
समय में अलग-अलग समयों के माध्यम से बहुस्तरीय आधार पर करते हैं जिसमें दुनिया को
निर्मित करने वाला इतिहास है,
दुनिया में लालित्य और लय पैदा करने
वाली कलाएँ हैं। जो एक प्रक्रिया से हो कर गुजरती है। उपर्युक्त दोनों कथन को हम
इसी निगाह से देखना चाहते हैं। इस निगाह में यह कहना होगा कि वाल्टर बेंजामिन और
एरिक हॉब्सबॉम का संक्षिप्त जीवन-वृत शामिल होना अनिवार्य है।
वाल्टर
बेंजामिन का जन्म 15 जुलाई 1892 को बर्लिन में हुआ। स्कूली शिक्षा बर्लिन में हुई और एल्बर्ट
विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र की पढ़ाई की। एल्बर्ट विश्वविद्यालय में पढ़ाई के
दौरान ही 1912 में कवि हाइनल से दोस्ती हुई। प्रथम विश्वयुद्ध के आरंभ में
ही युद्ध के विरोध में हाइनल ने अपनी प्रेयसी के साथ आत्महत्या कर ली थी जिसका
मानसिक असर बेंजामिन पर जीवनपर्यंत रहा। 1915
में यहूदी धर्म के इतिहासकार ग्रहद ग्रेश्म सोलेम से दोस्ती हुई और उनसे लंबे समय
तक पत्र व्यवहार रहा। म्यूनिख में अध्ययन के दौरान बेंजामिन की मुलाक़ात प्रसिद्ध
कवि रेनियर मारिया रिल्के से हुई। 1923
में प्रसिद्ध विचारक थियोडोर एडोर्ना से बेंजामिन की मुलाक़ात हुई। वे उनके विचारों
से प्रभावित हुए और मार्क्सवादी ज्ञान सरणी की ओर उनका झुकाव बढ़ता गया। 1924 में सोवियत रूस की अभिनेत्री एस्जा लेसिस से बेंजामिन की
दोस्ती हुई और वहीं से मार्क्सवाद पर उनका विश्वास पक्का हो गया। 1925 के दौरान फ्रैंकफर्त विश्वविद्यालय में व्याख्याता की नौकरी
के लिए उनको अस्वीकार कर दिया गया। 1929
में बेंजामिन की मुलाक़ात ब्रेख्त से हुई। ब्रेख्त से बेंजामिन बहुत प्रभावित रहे।
बेंजामिन काफी समय तक इटली में रहे, उन्होंने
मास्को की यात्रा की और जर्मनी में रेडियो पर नाटक और कथा-वाचक के रूप में कार्य
किया। 1933 में जर्मनी से वे पलायन कर गए और पेरिस में निर्वासित जीवन
जीते रहे। हिटलर के फ़ासीवादी जुल्मों से परेशान बेंजामिन को 1940 में प्रसिद्ध चिंतक
होरखाइमर के विशेष प्रयासों से अमेरिका में प्रवेश के लिए वीसा हासिल हुआ। फ्रांस
से निकलते हुए फ्रांस और स्पेन की सीमा रेखा पर एक छोटे से अनाम कस्बे पोर्टबोउ
में गहरे अवसाद के क्षणों में और हिटलर की फ़ौज से भागते हुए मारफीन की गोलियाँ खा कर
अपने दोस्त हाइनल की तरह उन्होंने 26
सितंबर 1940 को आत्महत्या कर ली। वाल्टर बेंजामिन को अकादमिक दुनिया में
एक ‘कल्ट फिगर’
के रूप में याद किया जाता है।
बेंजामिन के अंतिम दिनों पर एक फ़िल्म ‘द
फ़ाइनल फ्रंटियर’
भी बनाई गई। बेंजामिन की प्रसिद्ध
रचनाओं में कुछ महत्वपूर्ण हैं- ‘द ओरिजिन ऑफ जर्मन ट्रेजिक ड्रामा’, ‘मास्को डायरी’, ‘चार्ल्स
बॉदलेयर ए लिरिक पोएट इन द एज ऑफ हाइ कैपिटलिज्म’, ‘पेरिस
आकरेड्स’ आदि।
जब हमारी
दुनिया प्रथम विश्वयुद्ध की त्रासदी देख रही थी, जॉन
अर्नेस्ट हॉब्सबॉम का जन्म उसी दौरान गर्मियों में 9 जून 1917 में सिकन्दरिया (मिस्र) में हुआ था। यह कौन जानता था कि
युद्ध की त्रासदियों के बीच जन्म लेने वाला बच्चा अपने समय के इतिहास के रेशे-रेशे
को हमारे सामने प्रस्तुत कर देगा जिसमें हम अपना भुला हुआ चेहरा एक बार फिर से देख
सकेंगे और पहचान सकेंगे कि हमारा अतीत किस प्रकार का था। हॉब्सबॉम की प्रारंभिक
शिक्षा वियना, बर्लिन,
लंदन और कैम्ब्रिज में हुई। हॉब्सबॉम
की 12 साल की उम्र में पिता और 14
साल की उम्र में माता की मृत्यु हो गई। अपने माता-पिता की मृत्यु और 1933 में हिटलर की शक्ति के उदय के दौरान ही हॉब्सबॉम ने जर्मनी छोड़
दिया और लंदन आ गए। 1947 में इतिहास के व्याख्याता पद पर उनकी नियुक्ति हुई और 1982 में वे सेवानिवृत हुए। अपनी मृत्यु तक वे इमरेटेस प्रोफेसर
रहे। अकादमिक जगत का लंबा अनुभव और अध्ययन का विस्तार उनको हमारे समय के अकादमिक
जगत में अनुकरणीय बना देता है। अठारहवीं, उन्नीसवीं, बीसवीं सदी के इतिहास के कई अनछुए पहलुओं को सामने लाने वाले
हॉब्सबॉम अपने समकालीन समय में अकेले वामपंथी इतिहासकार हैं। उनके कुछ बयान
विवादास्पद भी रहे,
जिनमें से कनाडियन लेखक और
राजनीतिज्ञ इगनेरिएफ़ को ब्रिटिश टी. वी. को दिये गए एक साक्षात्कार का बयान
उल्लेखनीय है। हॉब्सबॉम ने स्टालिन के समय में बीस मिलियन लोगों की हत्याओं के
स्पष्टीकरण को जायज ठहराए जाने के प्रश्न पर सकारात्मक प्रतिक्रिया दी थी। इसी
दौरान जब यही प्रश्न उनसे बी. बी. सी. रेडियो ने किया कि, क्या कई मिलियन लोगों के जीवन के बलिदान की कीमत ‘कम्युनिस्ट यूटोपिया’ के
बराबर होगी? एरिक हॉब्सबॉम ने उत्तर दिया, ‘यह
वैसा ही अनुभव है जैसा हमने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान किया।’ एरिक हॉब्सबॉम इसी तरह से मानते हैं कि ‘ऐसा समय जिसमें आपको लगता है कि ‘मास मर्डर’
और व्यापक परेशानियों का समय सार्वभौमिक
है वही समय नए विश्व के जन्म में होने वाली परेशानी का अवसर है और इसी कीमत पर वह
समय वापस आता है।’
यह विचार दरअसल एक दुनिया की नई
निर्मितियों से अनिवार्य रूप से जुड़ी हुई होती हैं। हॉब्सबॉम ब्रिटिश अकादमी और
अमेरिकी अकादमी ऑफ आर्ट्स एंड साईंस के फेलो रहे थे। हॉब्सबॉम की ‘दि एज ऑफ रिवोल्यूशन’, ‘दि
एज ऑफ कैपिटलिज्म’,
‘दि एज ऑफ एम्पायर’, ‘दि एज ऑफ एक्सट्रीम’ ‘हाउ
दी चेंज द वर्ल्ड’
जैसी रचना इतिहास में मील का पत्थर
साबित हुई हैं। हॉब्सबॉम की आत्मकथात्मक कृति ‘इंट्रेस्टिंग
टाईम’ और उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित कृति ‘फ्रैक्चर्ड टाइम’ महत्त्वपूर्ण
कृति इस रूप में हैं कि इसमें उनके जीवन के वे पहलू जो ‘एज’
सीरीज की पुस्तकों में नहीं आई हैं, वे इसमें आई है, खासकर
उनके लेखन के ‘अपलाएड फॉर्म’।
2012 की अक्तूबर की पहली तारीख को, जब
हॉब्सबॉम ने सुबह का अखबार पढ़ लिया था और अपने सिरहाने उसे रोज की तरह संभाल कर रख
दिया था; तब लंदन के रायल फील्ड अस्पताल में जहाँ उनके ल्यूकीमिया का
ईलाज चल रहा था,
धीरे से अपनी आँख मूँद ली थी। एक
महान वामपंथी इतिहासकार,
जिनके लिखे अक्षर हमेशा हमारे बीच
मौजूद हैं और रहेंगे।
वाल्टर
बेंजामिन और एरिक हॉब्सबॉम के कला संबंधी विचारों, अवलोकनों
की ओर जाने से पहले यह जरूरी है कि हम इन दोनों के इतिहास संबंधी विचार सूत्र को
देखें, यह इसलिए भी जरूरी होगा, क्योंकि
कलाएं अपना रूपाकार इतिहास के भीतर ही ग्रहण करती है और गढ़ती है। पहले वाल्टर
बेंजामिन के इतिहास संबंधी विचार सूत्र देखें –
‘अतीत को सिर्फ एक तस्वीर में ही पकड़ा जा सकता है, एक ऐसी तस्वीर जो उसी पल में उभरती है जिस पल में उसे पहचाना
जाता है, और बाद में कभी नहीं दिखती।’
‘अतीत की हर तस्वीर जिसमें वर्तमान अपने मुद्दे नहीं ढूंढ पाता, हमेशा के लिए खो जाने का जोखिम उठाती है।’
‘ऐतिहासिक भौतिकवाद अतीत की वह तस्वीर कायम रखना चाहता है जो
खतरे की घड़ी में अनायास इतिहास द्वारा चुनी गई लगती है।’
वही इतिहासकार
अतीत में आशा के अंगारे भड़का सकता है जो यह मानता है कि अगर दुश्मन जीत गया तो मर
चुके मनुष्य भी महफूज नहीं हैं और इसी दुश्मन की जीत अब भी हो रही है।’
‘इतिहासवाद अतीत की चिरस्थायी छवि देता है; ऐतिहासिक भौतिकवाद अतीत का अनोखा अनुभव कराता है। इतिहासवाद के
रंडीखाने में ‘वन्स अपान अ टाइम’ नाम
की रंडी को वह दूसरों के लिए छोड़ देता है। वह अपनी शक्ति को अपने कब्जे में रखता
है, ताकि जवाँमर्द की तरह इतिहास की तारतम्यता को धमाके से उड़ा
सके।’
वाल्टर
बेंजामिन के इन अवलोकनों में एरिक हॉब्सबॉम के अवलोकन कई बार साथ चलते हैं और कई
बार अलग भी होते हैं। एरिक हॉब्सबॉम के इतिहास संबंधी विचार सूत्र कुछ इस प्रकार
हैं -
‘इतिहास राष्ट्रवादी या नृजातीय या पुनरुत्थानवादी विचारधाराओं
के लिए उसी तरह कच्चा माल होता है जैसे हेरोइन के नशेड़ियों के लिए अफीम। इन विचारधाराओं के लिए शायद इतिहास सबसे जरूरी चीज
होता है। अगर अतीत अनुकूल नहीं होता है तो उसे अपने अनुकूल गढ़ लिया जाता सकता है’।
‘हमारे अध्ययनों को उसी तरह बम के कारखानों में बदला जा सकता
है जिस तरह आयरिश रिपब्लिकन आर्मी (आई आर ए) ने रासायनिक खाद को विस्फोटक में
बदलना सीख लिया था’।
‘अस्मिता की राजनीति के लिए मिथक और गढे. हुए झूठ जरूरी हैं।
इन्हीं के आधारों पर आजकल लोगों के समूह मानव जातियों, धर्मों या अतीत अथवा वर्तमान राष्ट्रों की सीमाओं के अनुसार
अपने आपको परिभाषित करते हैं’।
‘अतीत तक वापसी किसी ऐसी चीज की ओर वापसी हो सकती है जो इतनी
दूरदराज हो कि उसका पुनर्निर्माण करना पड़े। यानी कई सदियों तक विसरा दिये जाने के
बाद शास्त्रीय पुरातनता का ‘पुनर्जन्म’
या पुनर्जागरण। पंद्रहवीं और सोलहवीं
सदी के बुद्धिजीवी उसे इसी रूप में देखते थे, या
फिर ज्यादा संभावना है कि वह वापसी ऐसी चीज की ओर हो जो कभी थी ही नहीं लेकिन
जिसका इजाद इसी मकसद के लिए किया गया है’।
‘वर्तमान बिलकुल साफ़ है कि वह अतीत की कार्बन कॉपी नहीं है। हो
भी नहीं सकता। यह किसी कार्यवाहीगत अर्थ में इसके आधार पर गढ़ी भी नहीं जा सकती।
औद्योगीकरण की शुरुआत के बाद से ही हर पीढ़ी अपने साथ जो लाती है उसकी अभिनवता उस
समानता से कहीं ज्यादा होती है जो गुजरी पीढ़ी के साथ इस पीढ़ी की होती है’।
‘इतिहास उन्हीं विषयों में आता है जिनके प्रसंग में ‘प्रगति’
शब्द लागू होता है।’
‘उन्नीसवीं सदी के मध्य से ही इतिहास में आदर्शवादी चौखटे की
जगह भौतिकवादी चौखटा कायम करने के प्रयास सुनियोजित रूप में शुरू हो गए थे। इसका
नतीजा राजनीतिक इतिहास में कमी और ‘आर्थिक
या समाजशास्त्रीय’
इतिहास के उत्थान के रूप में सामने
आया। यह बात 1910 में ही दर्ज किया गया था।’ हम
चाहें तो महात्मा गांधी के ‘हिन्द स्वराज’ को
यहाँ याद कर लें जो 1909 में प्रकाशित हुई थी।
दी जर्मन आइडियोलॉजी, कलेक्टेड वर्क्स में मार्क्स और एंगेल्स के हवाले से एरिक हॉब्सबॉम जब यह उद्धृत करते हैं कि ‘चेतना जीवन को तय नहीं करती बल्कि जीवन ही चेतना को तय करता
है।’ तब वे इतिहास-निर्माण में मनुष्य की पारदर्शी भूमिका को
स्वीकारते हुए वर्तमान के दरवाजे पर इतिहास को खड़ा कर देते हैं। वाल्टर बेंजामिन
यहीं पर यह कहते हैं कि,
‘मनुष्य या मानव नहीं, बल्कि संघर्ष करता हुआ शोषित वर्ग ही ऐतिहासिक ज्ञान का कोष
है।’ तब वे चेतना की निर्मिति में व्यक्ति के संघर्ष को सम्मिलित
मानने के अनिवार्य लक्षण को अलग से रेखांकित
करते हैं।
वॉल्टर बेंजामिन |
1789 से 1848 के बीच वाद्य-यंत्रों के संगीत का ज़ोर आस्ट्रिया और जर्मनी
में था। ऑपेरा इस काल में सबसे ज्यादा फला-फूला था, जिसमें
रांसिनी, डोनिजेत्ति,
बेलिनी और युवा वेद्री इटली में, बेबर और युवा वैगनर जर्मनी में और गिलंका रूस में ख्यात हुए।
इस दौर में कलाकार मोटे-तौर पर सामाजिक आंदोलनों और जन-कार्रवाइयों से प्रेरित हुआ
करते थे और उसमें समय-समय पर भागीदारी भी किया करते थे। कहा जाता है कि मोजार्ट ने
फ्री-मैसनरी के लिए एक राजनीतिक प्रचारात्मक ऑपेरा ‘द मैजिक फ्लूट’ लिखा
था। प्रसिद्ध संगीतकर बीथोवेन ने क्रांति के वारिस के रूप में नेपोलियन को ‘इरोइका’
समर्पित कर दिया था। प्रसिद्ध
साहित्यकार गोएथे अपने समय में सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में कार्यशील थे, चार्ल्स डिकेंस ने अपने उपन्यासों में सामाजिक बुराइयों को
चित्रित किया, दोस्तोवोस्की को उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए 1849 में फाँसी की सजा सुना दी गई थी और बाद में उस सजा को
साइबेरियाई निर्वासन में तब्दील कर दिया गया था। ठीक उसी तरह वैगनर और गोया को
राजनीतिक निर्वासन की सजा और पुश्किन जैसे नामचीन कवि को ‘डिस्ब्रिस्त’
का साथ देने की सजा दी गई। बालजाक की
‘ह्यूमन कौमेडी’ को
सामाजिक जागरण का प्रतीक माना जाता रहा है। कुल मिला कर कलाकार अपने समय की
गतिविधियों से हस्तक्षेपकारी भूमिका में जुड़े हुए थे। कला में राजनीतिक पक्ष पर ज़ोर बना हुआ था। चित्रकार
दोमिए एक राजनीतिक कार्टूनिस्ट बन गए थे। यह एक दौर था जब कवियों ने ऐसी कविताएँ
भी लिखीं जो बेहतरीन रचना होने के साथ-साथ क्रांतिकारी चेतना फैलाने वाली भी थी।
शेली की कविता ‘मास्क ऑफ अनार्की’ (1820) एक
महत्वपूर्ण उदाहरण है। इसी दौरान फ्रांस, जर्मनी
और इटली में साहित्य और पत्रकारिता का समन्वय हो गया था, साथ ही सौंदर्य बोध के सैद्धांतिक पक्ष के सामाजिक जुड़ाव
का भी यही दौर माना जाता है। ‘कला
कला के लिए’ जैसे सूत्र पीछे छूटते जा रहे थे और अब ‘कला मानवता के लिए’ या
फिर ‘कला राष्ट्र या सर्वहारा के लिए’ जैसी उम्मीदों पर टिकने लगा था।
इस दौर की एक
प्रमुख विशेषता थी क्लासिज्म के विरुद्ध रोमांटिसिज्म का प्रादुर्भाव एक क्रांति
के तौर पर हुआ। विक्टर हयुगो ने माना है कि रोमांटिसिज्म वही करता है जो प्रकृति
करती है, और शार्ल नोदिए ने कहा कि यह (साधारण चीजों से थक कर)
मानव-हृदय की यह अंतिम शरणस्थली है। नोवलिस ने माना कि रोमांटिसिज्म का मतलब था ‘पारंपरिक को एक उच्चतर अर्थ देना, निश्चित को अनिश्चित का रूप देना।’ दरअसल इस दौर में इस नई चिंतन पद्धति का बोलबाला था। जिसकी
परिणति 1798 में ‘लिरिकल बैलेड्स’ के
प्रकाशन के रूप में हुई जिनमें बीस साल की उम्र से जिन कवियों ने अपनी यात्रा शुरू
की थी, शामिल थे। यह माना जाता था कि इस दौर में तीस की उम्र तक कोई
न कोई ‘मास्टरपीस’ रचना
अवश्य कर ली जाए। यह युवा विद्यार्थी बौद्धिकों का दौर था। पहली बार रोमांटिसिज्म
में स्त्रियाँ भी शामिल हो रही थीं जिसे पश्चिम में एक परिघटना की तरह देखा गया
जैसे- फ्रांस में चित्रकार मदाम विंजे लबर्न और आंजेलिका काउफमान, जर्मनी में बेट्टीना और नेट, इंग्लैंड
में जेन आस्टिन और एलजियाबेथ बराउनिंग आदि महत्वपूर्ण नाम हैं। एरिक हॉब्सबॉम ने
इस बात को ध्यान से विश्लेषित किया कि
रोमांटिसिज्म के दौर में ही बड़े पैमाने पर लोक-गीतों के संग्रह का अभियान
चलाया गया और प्राचीन महाकाव्यों का प्रकाशन, शब्दकोशों
का निर्माण किया गया।
1848 के पहले कई प्रभावशाली कृतियाँ दुनिया के साहित्य को
प्रभावित कर रहीं थीं। चार्ल्स डिकेंस (1812-1870) की
महत्वपूर्ण रचनाएँ आ चुकी थी। होनोरे डोमियर (1808-1879) अपनी
सक्रिय रेखाचित्रों से दुनिया का आरेख खींच रहे थे और रिचर्ड वैगनर (1813-1883) अपनी ऑपेरा के साथ दुनिया के रंगमंच पर उपस्थित थे। इसी दौर
में गद्य खासकर उपन्यास बड़ी तेजी से प्रकाश में आया। इसका कारण माना गया फ्रांसीसी
और ब्रितानी शौर्य गाथाओं का बहुतायत में जनता के बीच चर्चित होना। 1848-1875 के बीच साहित्य, संगीत
और कलाओं का विस्तार तेजी से हुआ। साहित्य मोटे तौर पर उपन्यास के माध्यम से पोषित
हुआ, दरअसल उपन्यास एक ऐसा फॉर्म था जिसमें बुर्ज़आ समाज के उत्थान
और उसके आपसी अंतर्द्वंद्वों से मुठभेड़ का आरेख बहुआयामी स्तर पर खींचा जा सकता
था। यह वह दौर था जब कला वस्तुओं के प्रति लोगों का झुकाव तेजी से हो रहा था। 1850 के आस-पास अठारहवीं सदी के फ्रांसीसी फर्नीचर के एक डिजाइन
का भारी उत्पादन इसलिए होने लगा था कि यह संपत्तिशाली वर्ग के आंतरिक सज्जा का
अंतरराष्ट्रीय प्रतीक बन गया था। इसी समय सीमित रसिकों के वावजूद थियेटर और
शास्त्रीय संगीत उठान पर था। थियेटर का आर्थिक पक्ष समृद्ध था। सीमित बाजार पर
निर्भर प्रकाशक मोटी और महंगी किताबें छाप रहे थे और अमीर होते जा रहे थे।
दरअसल इस पूरे
परिवेश के बीच, मध्य उन्नीसवीं सदी एक क्रांतिकारी परिघटना धीरे-धीरे रच रही
थी। तकनीक और विज्ञान के आविष्कार ने कई प्रकार के सर्जनात्मक कार्य को कम कीमतों
पर और अधिक मात्रा में उत्पादित करना आरंभ कर दिया था। फोटोग्राफी 1820 में पहली बार सामने आई। और फ्रांस में 1830 में इसका प्रचलन हुआ और इसे काफी सराहा भी गया। यह कला
यथार्थ के बहुमात्रिक उत्पादन में काम करने वाली धारा बन कर उभरी। 1850 में फ्रांस में फोटोग्राफी एक व्यावसायिक उद्यम की तरह
विकसित हुई और उसके चलन ने चित्रकला के सामने एक तात्कालिक गंभीर चुनौती खड़ी कर दी
थी। ब्रिटेन मे फोटोग्राफी बहुत दिनों तक सुविधासम्पन्न स्त्रियों और पुरुषों के
हाथ में सीमित रही और वे इसे प्रायोगिक प्रयोजनों तथा शौक में अभिव्यक्त करते रहे
थे। एरिक हॉब्सबॉम ने फोटोग्राफी के विकास से यह निष्कर्ष निकाला कि ‘फोटोग्राफी उपयोगी थी, क्योंकि
वह चित्रकार को वस्तुओं की यांत्रिक नकल से बचाती थी।’ फोटोग्राफी को अब तक यूरोप के समाज मे कानूनी मान्यता नहीं
मिली हुई थी, यूरोप में एक तस्वीर की चोरी और न्यायालय मे विवाद के आ जाने
के बाद 1862 में कानूनी तौर पर फोटोग्राफी को कला के रूप में मान्यता
मिली, और एक फॉटोग्राफर की आलोचना करना दरअसल उस पेंटिग स्कूल की
आलोचना करना माना गया जहां से फोटोग्राफर यथार्थ छवियों को उकेरता था। इसी संदर्भ
में वाल्टर बेंजामिन ने यह कहा कि ‘उंगली
की एक मामूली सी हरकत पर्याप्त होती है कि वह किसी घटना को असीम काल तक थाम ले।
कैमरे ने क्षण को,
घटना के उपरांत एक झटके में, जस-का-तस बांध दिया।’ ठीक
इसके बाद एलेक्ट्रोटाइपिंग की तकनीक ने स्टील पर नक्काशी को उकेरने के रास्ते को
बेहद आसान बना दिया था। इस प्रकार के तकनीक के आ जाने से पारंपरिक शिल्पों पर
प्रभाव पड़ा और उनका अवमूल्यन होने लगा, जो
एक चिंता की बात थी। उन शिल्पों में जो मशीनी उत्पादन से खासे प्रभावित हुए उसने
एक पीढ़ी का अंतराल उत्पन्न कर दिया। ध्यान से अगर देखें तों इस अवमूल्यन ने उस
राजनैतिक, वैचारिक प्रतिक्रिया को जन्म दिया था जो मुख्यतः सामाजवादी
कला एवं शिल्प आंदोलन के रूप में उभर रही थी। इस आंदोलन का प्रभाव कलाकारों पर भी
था जो आम जन-मानस से ज्यादा प्रभावित हुआ करते थे बनिस्पत कुलीन बुर्ज़आ से। इन
कारीगरों में अपनी संस्कृति के प्रति लगाव था और वे थोड़ा सम्मान चाहते थे।
उन्नीसवीं सदी के तीसरे दौर में इनकी कला लोकप्रिय होने लगी थी। विकास क्रम में यह
भी हुआ कि अधिकतर कलाकार बाजार से सामंजस्य स्थापित करने लगे थे और समाज में
सम्मानीय जीवन जीने लगे थे। चार्ल्स डिकेंस, विलियम
थेकरे, जार्ज इलियट,
टेनिसन, विक्टर हयूगो, एमिल
जोला, टॉल्सटाय,
दोस्तोवोस्की, तुर्गनेव,
वैगनर, वर्दी,
चायकोव्स्की, मार्क ट्वेन,
हेनरिक इब्सन आदि कुछ नाम हैं जो
अपने जीवन-काल में ही अधिक सफल रहे और खूब सराहे गए।
उन्नीसवीं सदी
की कला के विन्यास में विकास का जो इतिहास हमने ऊपर देखा है उसमें उन्नीसवीं सदी
के बाद के वर्षों में परिवर्तन हुआ। कला के ढाँचों में समझदारी और एक प्रकार की
सामाजिक मांग उभर रही थी। उस मांग में यह बात शामिल थी कि कला को संपूर्ण मांगों
का पूर्तिकर्ता होना चाहिए तात्पर्य यह कि पारंपरिक धर्म की जगह पढ़े-लिखे स्वतंत्र
लोगों के बीच भी कला को अपनी जगह बनानी चाहिए खासकर जर्मनी में, जो संस्कृति को अपना एकाधिकृत क्षेत्र मानता रहा है। इतिहास
के उस इलाके को ध्यान से देखा जाना चाहिए जहाँ औद्योगिक क्रांति के बाद आर्थिक
क्षेत्र पर ब्रिटेन का एकाधिकार हो गया था और राजनीति पर फ्रांस का। ऐसे समय में
जर्मनी संस्कृति पर एकाधिकार मानता था, जहाँ
ऑपेरा और थियेटर मंदिर के समान पूजे जाते थे। क्लासिक्स को जर्मनी मे बहुत आदर
प्राप्त था। एरिक हॉब्सबॉम ने इस बात को नोट किया कि जर्मनी और आस्ट्रिया से बाहर
कम ही लोग होंगे जो अपनी संतानों को संगीत-संचालकों या संगीत-सर्जक के रूप में
देखना चाहते थे।
एरिक हॉब्सबॉम
कला के संदर्भ में बॉदलेयर का अध्ययन करते हुए उल्लेख करते हैं कि ‘बॉदलेयर महसूस करता है कि वर्तमान को अभिव्यक्त करने का सुख
सिर्फ़ उसकी संभावित सुंदरता से नहीं आता है, बल्कि
उसके उस गुण से भी कि वह वर्तमान में है, तब
हर उत्तराधिकारी जो इस वर्तमान के बाद आता है, उसे
विशिष्ट अभिव्यक्ति का फार्म तलाशना होगा, क्योंकि
कोई दूसरा उसे उस प्रकार अभिव्यक्त कर ही नहीं पाएगा।’ दरअसल,
एरिक हॉब्सबॉम जब बॉदलेयर के इस
विचार का उल्लेख कर रहे थे तो उसकी पृष्ठभूमि में कहीं न कहीं वाल्टर बेंजामिन के
बॉदलेयर के संदर्भ मे यह विचार रहे होंगे, ‘अनुरूपताएं
एक तरह से स्मृति के आँकड़े हैं,
लेकिन इतिहास के आँकड़े नहीं, इतिहास से पहले के आँकड़े। उत्सव के रूप में मनाए जाने वाले या
खुशी भरे दिन पिछले जीवन का सामना करने पल ही महत्वपूर्ण बनते हैं।’ उन्नीसवीं सदी के कला के विकास में पुस्तकालयों का महत्वपूर्ण
स्थान रहा है। गौर से अगर देखें तो 1880
के बाद आस्ट्रिया,
रूस, इटली, बेल्जियम,
हालैण्ड आदि देशों ने पुस्तकालयों की
संख्या अपने-अपने देशों मे दस गुनी बढ़ा दी थी। ब्रिटेन ने भी लगभग उतना ही किया और
स्पेन और पुर्तगाल ने चार गुना की वृद्धि की थी। यूनाइटेड स्टेटस में यह
अपेक्षाकृत कम तीन गुना था। ब्रिटिश संग्रहालय में पढ़ने का कमरा पहली बार 1852-1857 के बीच बना था। हम कह सकते हैं कि इस दौर में यूरोप में कई
गुना ज्यादा पुस्तकालयों की स्थापना हुई। इसी दौरान बड़े पैमाने पर वीथिकाओं और
संग्रहालयों में जाने वाले दर्शकों की बढ़ोतरी होने लगी। यह गौर करना उचित होगा कि 1860 के अंतिम समय में ग्लाइडस्टोन वह पहला प्रधानमंत्री हुआ
जिसने कला एवं संस्कृति के सितारों को अपने घर भोज पर निमंत्रित किया। इसी दौर में
सुगम संगीत का एक दौर आया जो कला के क्षेत्र में बड़ी तेजी से उभर रहा था और अपने
लिए स्वर्ण युग कहलाने वाले समय का निर्माण कर रहा था। दरअसल, यह इस कारण भी हुआ था कि ‘राष्ट्रीय’ संगीत विद्यालय बहुत निकटता से उन देशों से जुड़ गए जो समूहिक चेतना, स्वतंत्रता और एकीकरण के प्रभावों से गुजर रहे थे।
एरिक हॉब्सबॉम
ने कला पर सोचते हुए उन्नीसवीं सदी की वास्तुकला के बारे में विस्तार से यह
विश्लेषण किया कि वास्तुकला किसी ‘सत्य’ को नया नहीं करती थी, बल्कि
यह उस समाज के आत्मविश्वास को दर्शाती थी जो उस कला को एक आकार दे रहा होता है। दरअसल, इसमें यह देखना दिलचस्प होगा कि वास्तुकला ही एक ऐसी कला थी
जिसके पास ऐसा कोई अर्थ नहीं था जिसे शब्द दिया जा सके। दूसरी कलाओं के पास सत्य
था क्योंकि उनकी कला कुछ कहने का माद्दा रखती थी। उन्नीसवीं सदी में इस बात पर
पुरजोर यकीन रहा है कि कला में रूप (फार्म) विषयवस्तु (कंटेन्ट) के मुक़ाबले ज्यादा
महत्वपूर्ण नहीं है जबकि बीसवीं सदी के लगभग मध्य में जो पीढ़ी जवान हो रही थी उनका आलोचकीय विवेक
उन्नीसवीं सदी के इस यकीन से अलग ठहरता है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि उन्नीसवीं
और बीसवीं सदी दोनों में ही सारी कलाओं को साहित्य की परिधि द्वारा ही व्याख्यायित
नहीं किया जा सकता है। कला के इतिहास के अध्ययन और कला के प्रतिरूपों में हो रहे
बदलावों को विचारकों ने समझा और कलाकारों ने हो रहे बदलावों को स्वीकार करना सीख
लिया था इसलिए, अब कला में क्रांति का विचार और क्रांति की कला का विचार
प्रमुखता से समाज में मौजूद था। इसी परिवेश में 1849
में पहली बार ‘आधुनिकता’
जैसे शब्द सामने आए जिसे कला के
संदर्भ में इस्तेमाल से भ्रमित हो जाने वाले परिवेश का निर्माण होने लगा था। इसलिए
हमें कला को यूरोप के ‘अवांगार्द’
की धारणा वाले पहलू से देखना चाहिए
जिसे एरिक हॉब्सबॉम ने अपनी ‘एज’
सीरीज वाली किताबों में बार-बार
विश्लेषित किया है। अवांगार्द कला की यात्रा फ्रांस से साहित्य के माध्यम से चल कर
चित्रकला तक जाती है। दरअसल, अवांगार्द के पास कोई कोई राजनीतिक एजेंडा नहीं हुआ करता था।
फ्रेंको प्रशियाई युद्ध के दौरान उसमें न भाग लेने के इरादे से अतिवादी वाम के
समर्थक चित्रकारों में से पिसानो और माने, 1870
ई. के दौरान लंदन चले गए थे। चित्रकार सेजान अपने प्रांत के संरक्षण मे आ गए थे और
अपने मित्र उपन्यासकार एमिल जोला के राजनीतिक विचारों में रुचि लेना बंद कर दिया
था। पेरिस कम्यून से इस दौरान अधिकांश चित्रकार बाहर आ गए थे। दरअसल, पश्चिमी बुर्जुआ कला, चित्रकारी
और कविता में इस बात को लेकर हमेशा इस बात को लेकर विभेद रहा है कि यह जन-साधारण
को आकर्षित करने वाला हो या स्वपरिभाषित अल्पसंख्यक समुदाय को। इस संदर्भ में कवि
गोतीए (1811-1872) के इस कथन को देखा जा सकता है जो उन्होंने एक नौजवान को
समझाते हुए कहा कि ‘पुराने बुर्जुआ सूर्योदय तथा सूर्यास्त से प्रभावित होता है, और कवि के पास शिल्पकारिता होती है।’ कवि की पहचान उसके शिल्प से ही होती है। कविता के संदर्भ में
वाल्टर बेंजामिन ने बॉदलियर का उदाहरण लेते हुए कहा कि, ‘बॉदलियर को उत्सुकता रही कि उसकी कविता को समझा जाए; अतः वह अपनी पुस्तक सहधर्मी- जैसे लगते व्यक्तियों को समर्पित
करता है। पाठक के नाम उसकी कविता इस सलाम के साथ खत्म होती है: धूर्त पाठक मुझ सा
मेरा भाई।’ कवि और कविता के साथ पाठक के संबंध पर बॉदलियर की टिप्पणी
दरअसल गोतीए के कथन से जहाँ वे कविता की शिल्पकारिता पर ज़ोर देते हैं, मेल खाता है,
जहाँ साहित्य जन-साधारण के लिए
निर्मित होता है। तत्कालीन समय में संगीत के संदर्भ में इसे इस प्रकार देख सकते
हैं और जिसे एरिक हॉब्सबॉम ने भी बड़े ही विस्तार से उल्लेख किया है कि संगीत में
यथार्थवाद के मायने,
पहचान में आने वाली संवेदनाओं से थे
जैसे रिचर्ड वागनर (1813-1883)
जो जर्मनी के संगीत कंपोजर थे। यह
गौर करना आवश्यक है कि गंभीर संगीत सिर्फ इसलिए पल्लवित नहीं हुआ कि वह यथार्थवादी
दुनिया को यथार्थ दिखाता था बल्कि इसलिए, कि
वह आत्मा की बातों को जगाता था,
और धर्म के प्रयासों को प्रस्तुत
करता था और यह सब इसलिए भी कि वह धर्म सहायक रह चुका था।
बुर्जुआ वर्ग
का लाक्षणिक आख्यान गद्य साहित्य में उपन्यास को माना जाता है। राल्फ फॉक्स ने इसे
विस्तार से अपनी किताब ‘उपन्यास और लोक जीवन’ में
वर्णित किया है। एरिक हॉब्सबॉम जब अपने कला चिंतन में उपन्यासों पर बात कर रहे
होते हैं तो उनकी चिंतन की पृष्ठभूमि में राल्फ फॉक्स का विश्लेषण मौजूद रहता है।
एरिक हॉब्सबॉम यह नोट करते हैं कि ‘उपन्यास
की भरपूर क्षमताएं उसके वितान पर निर्भर थीं। बहुत विशाल तथा महत्वाकांक्षी थीम, उपन्यासकार की मुट्ठी में थे। ‘वार एंड पीस’
ने टॉल्सटाय को आकर्षित किया, दोस्तोवोस्की को ‘क्राइम
एंड पनिशमेंट’ ने और ‘फादर एंड संस’ ने
तुर्गनेव को अपनी और खींच लिया। उपन्यास एक समाज की समूची समग्र सच्चाइयों को
पकड़ने का प्रयास करता था।’...
‘जो सबसे अद्भुत लाक्षणिक बात इस दौर
के उपन्यासों की है,
वह यह कि उसके सबसे महत्त्वाकांक्षी
प्रयास, मिथकों और तकनीक की मार्फत नहीं हासिल हुए। वे तो हासिल हुए
प्रतिदिन के यथार्थ से और सड़कों पर घटित होते वर्णनों से। वह स्वर्ग के कृतित्वों
को, सराहते नहीं थे, बल्कि
उस पर चोट करते थे। इसी,
वजह से वे कम नुकसान सहते हुए बखूबी
अनूदित हुए। कम-से-कम महान उपन्यासकार चार्ल्स डिकेंस तो जरूर ही अंतर्राष्ट्रीय
रुतबे वाले साबित हुए।’
एरिक हॉब्सबॉम की इस बात में और भी
विदेशी उपन्यासकारों के नाम जोड़े जाते हैं जिनका रुतबा उनकी यथार्थ शैलियों के
कारण साहित्य की दुनिया में ऊँचा रहा और आज भी है। यथार्थ की यही शैली बुर्जुआ
समाज के सामने धीरे-धीरे पहचान का संकट उत्पन्न कर दिया था। जिसके ठोस कारणों की
खोज में एरिक हॉब्सबॉम 1870 के दशक से 1914 तक की कलाओं के इतिहास में तलाश करते हैं। यह वह दौर था जब
सर्जनात्मक कलाओं और उसके रसिक जनता दोनों का आधार हिल गया था। जनता इस तर्क पर
धीरे-धीरे कायम होने लगी थी कि वह कला के संबंध में कुछ नहीं जानती लेकिन इतना
अवश्य जानती है कि उन्हें क्या अच्छा लगता है। कला इस पूरे दौर में जनता की इस
धारणा से जूझती रही, जिसमें
सिनेमा का उल्लेख किया जा सकता है।
उन्नीसवीं सदी
के अंत में जब सामान्य जनता को अच्छी लगने वाली कला में तकनीक और बाजार दोनों का
क्रांतिकारी मेल हुआ और इस निकष पर सिनेमा की खोज एक असाधारण खोज के रूप में सामने
आने लगी थी। यह खोज बीसवीं सदी के कला माध्यमों पर एकछत्र राज स्थापित करने की
दिशा में अपना कदम बढ़ा चुका था। सिनेमा के साथ जैज और उसके साथ उत्पन्न हुई उसकी
तरह की अन्य शैलियाँ अपना रूप ग्रहण करने लगी थी। उन्नीसवीं सदी के इस रूपाकार में
बुर्जुआ समाज में रचनात्मक कलाकारों और आम जनता के कलाकारों के बीच के अंतर को बड़े
पैमाने पर बढ़ा-चढ़ा कर देखने की पद्धति का निषेध किया गया। संगीत और नृत्य की शैली
मे ऑपेरा रूसी बैले को शामिल करते हुए जनता के स्वभाव के साथ अवांगार्द ताल-मेल
मिला रहे थे। ठीक इसी दौर में गद्य लेखन ने भी अपना एक स्थान खोजना आरंभ कर दिया
था। थामस हार्डी,
थामस मान तथा मार्शल प्रूस्त की अधिकांश
कृतियाँ मोटे तौर पर 1914 के बाद प्रकाशित हुई थीं लेकिन उनकी प्रतिष्ठा और लोकप्रियता
पहले से ही थी। इब्सन और चेखव जैसे लेखक क्लासिक-नाट्य परंपरा का भाग बनने लगे थे।
ध्यान से अगर देखें तो यह सब प्रथम विश्वयुद्ध के पहले के बुद्धिजीवी, कलाकार,
आलोचक और फैशनपरस्त लोगों का एक छोटा
सा आधुनिक प्रयोगशील अवांगार्द था जो कला को प्रभाववादी और उत्तर प्रभाववादी के
विभाजन से देख रहा था। बाद में यही उत्तर उन्नीसवीं सदी और बीसवीं सदी के कला
प्रतिरूप में अंतर का आधार बने।
Pablo picasso |
जब चित्रकला
में क्यूबिज्म का दौर (1907-1911)
था तब उसी दौर में असाधारण प्रतिभा
के धनी पाब्लो पिकासो (1881-1973)
जो रेनेसा के बाद के पहले चित्रकार
थे। चित्रों मे हो रहे परिवर्तन को लक्षित कर क्यूबिज्म के दौर से आगे निकाल रहे
थे और चित्रकला को प्रभावित करने लगे थे। पिकासो की जितनी प्रतिष्ठा उनके चित्रों
के कारण मिलती है उससे कहीं ज्यादा प्रतिष्ठा चित्रकलाओं के संघटक के रूप में
मिलनी चाहिए। पिकासो से पहले विनसेट वॉन गॉग (1853-1890) मात्र
37 साल के जीवन-काल में चित्रकला की विद्या को एक ऊंचाई तक
पहुंचा चुके थे। पिकासो ने क्यूबिज्म की नई धारणा को वॉन गॉग की धारणा से जोड़ने का
काम किया और साथ ही कला अवांगार्द चेतना से भी। इस दौर में शहरी आबादी के आकार में
वृद्धि हुई और उसकी आमदनी भी बढ़ी,
इसका प्रभाव इस दौर में कलाओं के
विकास पर भी हुआ। यह अकारण नहीं था कि जर्मनी में नाट्यशालाओं की संख्या में भी
वृद्धि होने लगी थी और प्रसिद्ध यौन-विज्ञानी हेवलाक एलिस (1859-1939) एलिज़ाबेथ और जेकोब युग के नाटककारों की सस्ती दर वाली सीरीज
का संपादन करने लगे थे। दरअसल,
कला अब पेशेवर अंदाज मे हमारे सामने
उपस्थित होने लगी थी। अब एक पेशेवर रचनाकार के तौर पर पहले की तुलना में अपनी
जीविका अर्जित करना आसान हो गया था, क्योंकि
दैनिक और नियतकालीन पत्र-पत्रिकाओं की संख्या में तेजी से वृद्धि होने लगी थी। इस
दौर में एक और महत्त्वपूर्ण बदलाव यह भी हुआ कि विज्ञापन एक उद्योग की तरह जन्म
लेने लगा था और उपभोक्ता के लिए सामानों का उत्पादन पेशेवर ख्याति प्राप्त
कलाकारों, दस्तकारों से करवाया जाने लगा था। ब्रिटेन में नाटक और संगीत
रचनाएँ, आस्ट्रिया में साहित्य और चित्रकला का विकास नए सिरे से शुरू
हुआ, अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस दौर में कलाओं का विकास
ऐसे देशों में हुआ जो अब तक इसके लिए जाने नहीं जाते थे और वे छोटे देश थे या फिर
लंबे समय से निष्क्रिय रहे थे,
जैसे ब्रसेल्स, बार्सिलोना,
ग्लासगो, हेलिन्स्की,
आयरलैंड आदि। लेकिन कलाओं के संदर्भ
का एक दूसरा पहलू भी था जिसे एरिक हॉब्सबॉम ने कहा कि ‘विचाराधीन समय में कला के इतिहास को केवल सफलता की कहानी के
रूप में लिखने से काम नहीं चलेगा।’ जबकि
यह भी सच है कि इस दौर की कलाएं शेक्सपियर और बीथोवेन से कहीं ज्यादा शालीन और
लोकतांत्रिक हुआ करती थी। बहरहाल,
यह बड़े पैमाने पर इस दौरान यह स्पष्ट
होने लगा था कि 1888 की जर्मन-चेतना, 1788
की जर्मन-चेतना से गिरावट दर्ज कर रही थी। इस दौर में यह लक्षित किया जाने लगा था
कि संस्कृति, भीड़ और उन्माद की प्रमुखता के विरुद्ध खुद को बचाने के लिए
संघर्ष कर रही हो। प्राचीन और अर्वाचीनों के बीच यूरोप में संघर्ष, जो मोटे तौर पर सत्रहवीं सदी में शुरू हुआ था और जिसमें
क्रांति के युग में अर्वाचीनों की निर्णायक विजय हो चुकी थी- अब प्राचीन जो
शास्त्रीय पुरातन में नहीं रहे थे, एक
बार फिर से जीत रहे थे। संस्कृति का जनशिक्षा के माध्यम से लोकतंत्रीकरण उन कुछ
लोगों के लिए काफी था,
जो अलग से अपनी सांस्कृतिक पहचान का
स्तर बनाए रखना चाहते थे। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में तेजी से बढ़ रहे शहरों और
उसमें बड़े पैमाने पर हो रहे विस्थापन ने दृश्य कलाओं और मनोरंजन के लिए आकर्षक
बाजार उपलब्ध करा दिया था जो तत्कालीन समय के यायावर कलाकारों के लिए भी मुफ़ीद था।
आगे चल कर तकनीकी क्रांति के बाद आविष्कृत व्यापक बाजार के कारण कला तेजी से अपना
विकास कर रही थी।
1880 के बाद ‘आधुनिकता’
एक नारे के रूप में तब्दील होने लगी
थी और ‘अवांगार्द’
जैसे संज्ञाओं का प्रयोग आधुनिक
संदर्भों में किया जाने लगा था। फ्रांस जैसे देश में चित्रकारों और लेखकों के वार्तालाप
में यह शब्द बार-बार प्रयुक्त होने लगा था। आम जनता और कलाओं के बीच की दूरी सचमुच
कम होती हुई प्रतीत होने लगी थी। सौंदर्यवादियों और कला के लिए कला में विश्वास
करने वाले जो एक स्तर पर वर्तमान कला के पतनशील होने के एनाउंसर थे, के साथ-साथ वे लोग भी जो जनता की पहुँच से बाहर के प्रतीकवादी
जैसे आंदोलन से जुड़े थे;
ये सभी अब कला के समाजवाद के प्रति
सहानुभूति प्रदर्शित करने लगे थे। बीसवीं सदी के आगमन तक राजनीति और कला की ‘आधुनिकता’
के बीच कोई खाई नहीं रह गई थी। यहीं
पर यह भी उल्लेख कर देना उचित होगा कि इस दौर में कला में कुछ आंतरिक कमियाँ भी
थीं, वह एक किस्म से अपने भीतर के अंतर्विरोध का शिकार भी बहुधा हो
जाया करती थीं जिसके कारण यह सांस्कृतिक दृश्य से ओझल हो जाया करती थी। यानि इस
दौर में अवांगार्द को अलग-अलग स्थितियों में समझा जाना चाहिए। 1890-1895 के समय के ठीक उलट, पिछली
पीढ़ी के कुछ बचे हुए लोगों को अगर छोड़ दें तो नई पीढ़ी के लोग नई सदी के अवांगार्द
परिवर्तनगामी राजनीति के प्रति आकर्षित नहीं थे। चित्रकारों का अवांगार्द मोटे तौर
पर पूरी तरह अपनी तकनीकी बहसों में उलझा हुआ था। जबकि सच्चाई यह थी कि अवांगार्द
कला निश्चित रूप से कलाकार की विवेक दृष्टि या उसके तकनीकी अभ्यास के अलावा भी कुछ
और संप्रेषित करना चाहती थी। यह स्पष्ट है कि इस दौर में जिस आधुनिकता को अपनाया
जा रहा था वह एक किस्म से अंतर्विरोध का शिकार थी।
Adolf loos |
इस दौर के
बारे में वाल्टर बेंजामिन ने विश्लेषित करते हुए पूंजीवाद के उस दौर को रेखांकित
किया, जिसमें तकनीक ने कलाकृतियों की पुनरावृत्ति करके प्रस्तुत
करना जान लिया गया था। वास्तव में उत्तर उन्नीसवीं सदी के अवांगार्द नए युग की कला
की रचना करते हुए पुरानी पद्धतियों को ही आगे बढ़ा रहे थे जिस पर अभी भी चर्चा की
जा थी और ‘प्रतीकवाद’
को एक सामाजिक आंदोलन के लिहाज से
बदला जा रहा था। इसी दौर में प्रसिद्ध वास्तुकार एडोल्फ़ लूस (1870-1933) ने एक महत्त्वपूर्ण घोषणा की, ‘अलंकरण
अपराध है’ जिसके कारण रेखाओं, रूपों, माध्यमों में अलंकार के निषेध से शुद्धता की तरफ वापसी हुई।
इसमें ऐसी तकनीक को अपनाया गया जिसका कारीगरों, बढ़इयों
से कोई संबंध नहीं रह गया था;
इनमें कुछ प्रमुख नाम हॉलैंड के
बरलेज, अमेरिका के सुलिवन,आस्ट्रिया
में वगनर, स्काटलैंड के मेकिंटोस, फ्रांस
के आगास्ट पियरे,
जर्मनी के बेहरेंस जैसे कलाकार के
थे। इनमें से वागनर ‘कला का संपूर्ण कार्य’ जैसी
अवधारणा का प्रतिनिधित्व करते थे। नई कला में बदल रही कला ने कला के एकीकरण को
प्राप्त करने का प्रयास बड़े पैमाने पर किया। इस पूरे दौर में एक बात जो विलक्षण
दिखलाई देती है वह है,
परंपरावादियों और कुछ ख्यात
आधुनिकतावादियों पर अवांगार्द ने वही आरोप लगाए जो कभी मार्क्स ने 1789-1850 के क्रांतिकारियों पर लगाए थे वह यह कि, ‘वह अतीत की प्रेतात्माओं को अपने लक्ष्य के लिए इस्तेमाल करते
हैं, उनसे नाम,
युद्ध के नारे और वर्दियाँ ले कर एक
सुपरिचित छद्म के रूप में इतिहास का एक नया दृश्य खड़ा करना चाहते हैं और वह इसके
लिए उधार ली गई भाषा बोलते हैं,
उनके पास केवल यह भाषा ही नहीं थीं, उन्हें यह भी ज्ञात नहीं था कि इसका अर्थ क्या है, क्योंकि विश्व को अभिव्यक्त करने वाली भाषा का बोधगम्य पक्ष
केवल यह हो सकता था कि अतीत बिखर रहा है।’ इस
प्रकार अगर देखे तो अवांगार्द कलाकारों को आगे ले जाने वाली बात उनकी
भविष्य-दृष्टि नहीं थी,
बल्कि उनकी दृष्टि तो अतीत को उलट कर
देखने वाली थी। अवांगार्द इस दौरान कई दिशाओं में भटके, लेकिन मोटे तौर पर उन्होंने दो विकल्प चुने, पहला,
वह जिसमें वस्तु पर रंगों और रूप की
वरीयता का विकल्प था,
जिसे ‘अभिव्यंजनावाद’ कहा
जाता था और दूसरा विकल्प यथार्थ का प्रतिनिधित्व करने वाले परंपरागत तत्वों को
तरह-तरह से विखंडित करके उन्हें विभिन्न व्यवस्थाओं अथवा अव्यवस्थाओं में
पुनर्संयोजित करना जिसे क्यूबिज्म कहा जाता था।
बीसवीं सदी के
प्रारम्भ में आधुनिकतावाद दरअसल एक प्रकार के असमंजस से गुजर रहे थे। बीसवीं सदी
की शुरुआत में कलाओं का संकट समाज के संकट को प्रत्यावर्तित कर रहा था। साहित्य
में परंपरागत रूपों के छंद और लय के प्रयोग नए नहीं थे लेकिन बीसवीं सदी के आरंभ
में लेखकों द्वारा वस्तु की खींचतान और उसके रूप में बड़े पैमाने पर तोड़-मरोड़ किए
गए। कविता में यह स्थिति भिन्न थी; बीसवीं
सदी की प्रारंभिक कविता उत्तर उन्नीसवीं सदी के बिंबवाद के विरोध में खड़े न हो कर उसका
रैखिक विकास थी,
इसमें कुछ उल्लेखनीय नाम थे; रिल्के (1875-1926),
जार्ज (1868-1933), यीट्स (1865-1939)
आदि।
Rainer Maria Rilke |
बीसवीं सदी
में सिनेमा एक ऐसी कला के रूप में उभर रहा था जो तमाम कलाओं के आधिपत्य को खत्म
करते हुए उसके चरित्र को पूरी तरह बदल रहा था।
सिनेमा दरअसल अपने उत्पादन और यथार्थ को प्रस्तुत करने के तरीकों तथा अपनी
तकनीक में विशिष्ट था। सिनेमा पहली बार एक ऐसी कला के रूप में उभर रहा था जिसका
कोई पूर्व इतिहास नहीं था। इसके उभरने में बीसवीं सदी का औद्योगिक समाज प्रेरक
तत्व के रूप में काम कर रहा था। पहली बार समाज की आँख के सामने जीवंत दृश्य पर्दे
पर गतिमान हो रहे थे। इतिहास में पहली बार कहानी, नाटक
और दृश्य दर्शक के शारीरिक स्वभाव, समय
और स्थान की सीमाओं से मुक्त हो रहे थे। तकनीकी विकास का यह एक क्रांतिकारी क्षण
था। एरिक हॉब्सबॉम ने इसे नोट किया कि ‘कैमरे
का संचालन, उसके फोकस की परिवर्तनशीलता, चमत्कार
उत्पन्न करने वाली फोटोग्राफी और इसके अतिरिक्त उतारी गई फ़िल्म के टुकड़ों को काट
कर इच्छानुसार जोड़ने या फिर से तोड़ कर जोड़ने की सुविधाओं का ऐसे फ़िल्मकारों ने खूब
प्रयोग किए जिनसे अवांगार्द की कभी कोई सहानुभूति कभी नहीं रही थी।’ सिनेमा का यह विकास रेखाचित्र से होते हुए फोटोग्राफी के
माध्यम से हुआ, लेकिन यह विकास रैखिक नहीं था। बीसवीं सदी के आरंभ में ही 1905 के आसपास कार्ल लामल (यूनिवर्सल फिल्म्स), लुई बी. मायर (मेट्रो-गोल्डविन-मायर), वार्नर ब्रदर्स और विलियम फॉक्स (फॉक्स फिल्म्स) की नींव रखी
गई। 1913 ई. में बनी फ़िल्म ‘द
नेशन’ के साथ अमेरिका के लोक आधारित लोकतंत्र ने टिकटों की दर में
कमी करके निम्न वर्गों को मनोरंजन के एक नए दायरे में शामिल कर लिया, जबकि ठीक इसके समानांतर यूरोप के सामाजिक लोकतंत्र अपने
श्रमिक वर्ग को बेहतर वस्तुएं उपलब्ध करवाना चाहते थे। उन्होंने फिल्मों को यह
कहते हुए अस्वीकार कर दिया कि यह आवारा सर्वहाराओं के पलायन का एक भटकावघर है।
सिनेमा के संदर्भ में वाल्टर बेंजामिन का अवलोकन ज्यादा प्रभावी है, उनके अवलोकन में यह शामिल है कि ‘फिल्म में कैमरा अभिनेता को दर्शकों के सामने लाता है। इसके
दो नतीजे होते हैं। कैमरा,
जो दर्शकों के सामने अभिनेता को पेश
कर रहा है, अभिनय की अखंडता का सम्मान करे ही यह जरूरी नहीं। कैमरामैन
कैमरे की स्थिति को अभिनय के मुताबिक लगातार बदलता रहता है। इसके बाद फिल्म संपादक, दी गई सामग्री में से चुन कर जो चीज तैयार करता है वही अंतिम
रूप से फिल्म कहलाती है।’
1920 तक सिनेमा केवल तस्वीरें ही दिखा
सकती थीं, शब्दों की पुनर्प्रस्तुति संभव नहीं थी, इसलिए इस दौरान का सिनेमा ख़ामोशी के लिए बाध्य थी। सिनेमा के
साथ यह बड़ा ही दिलचस्प दौर गुजर रहा था, सिनेमा
की खामोशी को भरने के लिए वाद्यवृंद रखे जाने लगे जिसके कारण कम प्रतिभावान वादकों
को रोजगार मिलने लगा। सिनेमा,
भाषाओं की बहुलता से मुक्त हो कर
चलचित्रों की एक सार्वभौमिक भाषा उत्पन्न कर रहा था। भाषाओं की बहुलता वाले दौर
में और आज भी सिनेमा ने एक वैश्विक बाजार बनाने में सफलता हासिल की। सिनेमा इस
कारण कला की अभिव्यक्ति में एक क्रांतिकारी परिवर्तन का वाहक बना जिसे अमेरिका ने 1914 में सिनेमा के हर व्यावहारिक पक्षों के साथ अपना लिया था।
सिनेमा के माध्यम से दुनिया के हर हिस्से में पहुंचा जा सकता था। सिनेमा एक ऐसे
माध्यम की खोज थी जिसने उच्च संस्कृति वाले अवांगार्द की धारणा को पीछे छोड़ दिया; यानि बीसवीं सदी की कलाओं में जो क्रांति हुई वह अवांगार्द की
क्रांति से अलग और स्वतंत्र हुई थी और यही बीसवीं सदी की कला के संदर्भ में अपनी
विशेषता भी है।
दरअसल, 1914 तक ऐसी तमाम चीजें मौजूद थीं जिन्हें ‘आधुनिकतावाद’
के विशाल शामियाने में जगह मिल रही
थी; मसलन साम्यवाद, अभिव्यंजनावाद, भविष्यवाद,
चित्रकला में शुद्ध अमूर्तन, वृत्तिवाद,
वास्तुकला में आलंकारिकता से पलायन, संगीत में सुरताल का बहिष्कार और साहित्य में परंपरा से अलगाव, जो आने वाली पूरी शताब्दी को आंदोलित करने वाली थी। 1914 के बाद के समय में पूर्व के अवांगार्द द्वारा स्थापित संसार
के रूपाकारों में बदलाव लाने का काम मोटे तौर पर दो आंदोलनों ने किया। पहला, दादावाद जो एक कला आंदोलन के रूप में ज्यूरिख (स्विट्जरलैंड)
में 1916 में शुरू हुआ और जो यूरोप के पश्चिमी आधे भाग में
अतियथार्थवाद की प्राक्कल्पना था। यह मोटे तौर पर प्रथम विश्वयुद्ध के भय से
उत्पन्न आंदोलन था। दादावाद ने 1914 से पहले के क्यूबिज्म और अवांगार्द के कुछ तत्वों को मसलन, कोलाज या टुकड़े, कुछ
हिस्से, तस्वीरें आदि को साथ-साथ जोड़ देने को अपनाया। मूल बात यह थी
कि ऐसी कोई भी चीज जो परंपरागत बुर्जुआजी में वितृष्णा उत्पन्न कर सके, वह दादा के रूप में स्वीकार्य थी। 1917 में न्यूयार्क में मार्शल डुकेंप (897-1968) द्वारा सार्वजनिक शौचालय का ‘बनी
बनाई कलाकृति’ के तौर पर प्रदर्शन पूरी तरह से दादावाद की आत्मा का प्रतिनिधित्व
करता था। दूसरा,
सोवियत रूस से उभरा विधायकवाद
(कंस्ट्रक्तिविज्म) था। यह एक प्रकार का अभियान था जिसमें किसी ढांचे पर त्रिआयामी
आवरण डाल कर उसे वास्तविक जीवन के अनुरूप मेले-ठेलों की आकृतियों (जैसे विशाल
झूले) जैसा बनाया जाता था। यह आंदोलन को जल्दी ही वास्तुकला की मुख्य धारा ने अपने
अंदर समेट लिया। विधायकवाद की सबसे महत्वाकांक्षी योजनाएं, मसलन कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के सम्मान में बनने वाली टेटलिन की
प्रसिद्ध घूमने वाली मीनार थी,
जो कभी पूरी नहीं हो सकी थी। कला की
अवांगार्द दुनिया में अतियथार्थवाद का शामिल होना बीसवीं सदी का एक खालिस योगदान
है। अतियथार्थवाद की विशिष्टता इस बात में रही है कि वह कला के रूपाकारों में झटका देने की अबूझता रखती है। एरिक हॉब्सबॉम
अतियथार्थवाद को एक उर्वर आंदोलन मानते हैं, ऐसा
मानने का उनके पास एक ठोस आधार है। फ्रांस के एलुआर, अरांगा;
स्पेन के गार्सिया लोर्का; पेरू के सेजारे; चिली
के पाब्लो नेरुदा आदि ख्यात कवि इस आंदोलन से प्रभावित रहे थे। इस आंदोलन के कुछ
प्रभाव को हम अभी जादुई यथार्थवाद में देख सकते हैं, जिसके लेखन से कोलम्बिया के मार्खेज जुड़े हुए हैं। सिनेमा माध्यम में अतियथार्थवाद
का प्रभाव लुई ब्यूनल (1900-1983) पर
था और फ्रांसीसी सिनेमा के प्रसिद्ध पटकथा लेखक और कवि जेक्स प्रेवर्ट (1900-1977) पर भी था। अवांगार्द आंदोलन वाले समाज में बीसवीं सदी के
दौरान कला के दो प्रतिरूप बड़ी तेजी से अपना पाँव पसार रहे थे। एक, सिनेमा और दूसरा जैज संगीत। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान सिनेमा
को अवांगार्द आंदोलन ने अपनाना शुरू कर दिया था। इस आंदोलन के प्रभाव से ही कला
सिनेमा, जो मोटे तौर पर कुलीन सिने-दर्शक को प्रभावित करने के
उद्देश्य से सामने आया,
बड़ी तेजी से आगे बढ़ रहा था। सर्गेई
आइजेन्स्टाइन (1898-1948)
जो सोवियत रूस के फिल्म निर्देशक और
फिल्म के सिद्धांतकार थे,
की सबसे महत्त्वपूर्ण फिल्म ‘बैटलशिप पोटेमकीन’ थी
यह मूक थी और 1925 में सामने आई थी। एक सार्वकालिक महान रचना बन गई थी। इस
फिल्म के दृश्य दर दृश्य यथार्थ का ऐसा चेहरा उजागर करती है, जो अब से पहले सिनेमा में नहीं देखा गया था। इसी क्रम में ‘बैटलशिप पोटेमकीन’ के
ओडेस स्टेप्स का जिक्र आता है। एरिक हॉब्सबॉम ने इस फिल्म को देखने के अपने अनुभव
का जिक्र किया है और यह माना है कि ओडेस स्टेप्स मूक सिनेमा का एक शास्त्रीय
अनुक्रम है और सिनेमा के इतिहास का अत्यंत प्रभावशाली छह मिनट भी है। जर्मन सिनेमा
तत्कालीन दौर में मूलतः अधिक राजनैतिक नहीं था लेकिन उसमें भी परिवर्तन की हवा बह
रही थी। जर्मन निर्देशक जी.डबल्यू. पेब्स्ट (1885-1967) ऐसे
निर्देशक थे जिनकी रुचि सामाजिक गतिविधियों में कम स्त्री-देह को प्रस्तुत करने
में ज्यादा थी। पेब्स्ट के संदर्भ में यह दुखद रहा कि वे आगे चल कर नजियों के साथ
मिल कर काम करने लगे थे हालाँकि बाद में उन्होंने कई महत्वपूर्ण फिल्मों का
निर्माण किया जिनमें ब्रेख्त-विल्स की ‘थ्री
पेनी ऑपेरा’ भी शामिल थी। इसी दौरान डाक्यूमेंटरी फिल्म अवांगार्द के
वामपंथी रुझान के प्रभाव से एक आत्मचेतस आंदोलन बन गई थी। बीसवीं सदी के तीस के
दशक में समाचार-पत्रिकाओं के घोर व्यावसायिकों को भी इस आंदोलन की संभावनाएं समझ
में आने लगी थी और वे इन न्यूज-रीलों का बौद्धिक तथा सर्जनात्मक स्तर बढ़ा कर और
साथ ही अधिक भव्य बना कर डाक्यूमेंटरी के रूप में प्रस्तुत करने लगे थे। बीसवीं
सदी के चौथे दशक की आखिर में ब्रिटेन में यह देखा जाने लगा था कि हर वह निवासी जो
एक दैनिक समाचार पत्र खरीद सकता था, वह
सिनेमा का एक टिकट भी खरीदता था। इस दौरान यह देखा जाने लगा था कि अवांगार्द और
लोकप्रिय कला एक दूसरे के साथ साहचर्य बना कर चल रही थी लेकिन धीरे-धीरे पश्चिम के
पुराने देश जिसमें शिक्षा के स्तर में बढ़ोतरी होने लगी थी एक प्रकार का
श्रेष्ठीवाद सिनेमा के लोक-माध्यम में प्रवेश करने लगा था। जर्मनी की मूक फिल्में, तीस के दशक की फ्रांसीसी सवाक फिल्में और इटली की फिल्मों में
एक किस्म का फासीवादी आवरण व्याप्त था और जिसके हटते ही यूरोप में सिनेमा का
स्वर्णयुग आरंभ हो गया था। मोटे तौर पर देखें तो तीस के दशक का यूरोपीय सिनेमा
बुद्धिजीवियों के सांस्कृतिक रुझान और आम जनता के मनोरंजन के वांछित तत्वों को
समन्वयन करने में और सिनेमा को सफल करने में लगा हुआ था। धीरे-धीरे सिनेमा एक
अंतर्राष्ट्रीय जन माध्यम बन रही थी। मूक फिल्में सभी जगहों पर समझी जाने लगी थी
और सवाक सिनेमा का आगमन होने लगा था। इसकी भाषा अंग्रेजी देश की सीमा रेखा को
लांघती हुई कई देशों में फ़ैल रही थी और वह एक जानी-पहचानी भाषा बनती जा रही थी।
यही कारण रहा है कि अंग्रेजी भाषा बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में कारोबार की भाषा
के रूप में तब्दील हो गई थी। भाषा की राजनीति पर अलग से चर्चा की जानी चाहिए, हम इसे यहाँ स्थगित कर रहे हैं। यह जानना रोचक होगा कि
द्वितीय विश्व युद्ध के समय में हालीवुड में जितनी फिल्में बनती थीं उनकी कुल
संख्या शेष दुनिया में बनने वाली फिल्मों के बराबर थीं। इस समय भारत प्रतिवर्ष एक
सौ सत्तर फिल्म बना रहा था। एक पूंजीवादी धारणा की प्रमुखता वाले देश और एक
नौकरशाही द्वारा नियंत्रित समाजवादी देश सोवियत संघ में फर्क को एस प्रकार देख
सकते हैं कि 1937 में हालीवुड में कुल 567
फिल्में बनाई गईं और सोवियत रूस में 1938
में कुल इकतालीस फिल्मों का निर्माण हुआ। जैज संगीत भी इस दौरान अपने पक्ष मे
व्यापक सहमति बनाती जा रही थी। यह संगीत दरअसल अपने अतीत से एक अलगाव था जो तकनीक
और मशीन के आविष्कार से निर्मित हो रहा था। इसमें शब्द और अभिव्यक्ति, शब्द और वाद्ययंत्र पारंपरिक प्रचलन से एकदम भिन्न थे, सेक्साफोन के साथ अपनी तस्वीर खिंचवाना एक शगल था। बीसवीं सदी
के अमेरिका में यह बड़ी तेजी से लोकप्रिय हुआ था। इस दौरान यह देखा जा रहा था कि
उन्नीसवीं सदी की सैद्धांतिक चित्र-कृतियों के मूल्यों में भारी गिरावट आ रही थी
और विक्टोरिया काल की किसी इमारत को अच्छाई से देखना अच्छी अभिरुचि को आहत करना था
और जिसे प्रतिक्रियावादी तरीका माना जाता था। यानि एक ‘आधुनिकतवाद’
जैसी पदावली का प्रभाव बड़े पैमाने पर
देखा जाने लगा था।
बीसवीं सदी
में सिनेमा के साथ चित्र और साहित्य की एक ऐसी दुनिया धीरे-धीरे रूप ले रही थी
जिसमें अभिव्यक्त किए जाने का एक कोई निश्चित छोर नहीं था और इसी समय रेडियो अपनी
एक अलग दास्तान ले कर उपस्थित हो रहा था। वाल्टर बेंजामिन ने पाल क्ली (1879-1940) जो स्विट्जरलैंड का मशहूर चित्रकार था और अतियथार्थवाद और
घनवाद से प्रभावित था,
के चित्र एंगलेस नोवस को देख कर एक
महत्वपूर्ण दावा प्रस्तुत किया कि, ‘यह
वही कला थी जिसका दृष्टिकोण ‘इतिहास के देवदूत’ का
दृष्टिकोण था।’ बेंजामिन ने इस चित्र का विशद विश्लेषण किया है जिसमें अतीत, स्वर्ग,
देवदूत, भविष्य,
प्रगति आदि के ताने-बाने को बुना गया
है। कला के इतिहास को अगर गौर से देखें तो पता चलेगा कि पश्चिम से बाहर के संसार
में अधिकांश कलाकारों की मूल समस्या आधुनिकतवाद न हो कर आधुनिकता थी। वह आधुनिकता
जिसकी कोई ठोस और पारदर्शी परिभाषा अभी तक निर्मित नहीं हो पाई थी सिवाय कुछ
लक्षणों के, और यह भी सच था कि लक्षण समय और स्थान सापेक्ष होते हैं। एरिक
हॉब्सबॉम ने बीसवीं सदी को जनता की सदी माना है और इसमें उसी कला को प्रमुख माना
गया जो जनता के लिए और जनता के द्वारा सृजित किया जा रहा हो। अब, इस दुनिया के भूगोल को जानने का विशेषाधिकार केवल ऊँचे वर्ग
के पास ही नहीं रह गया था,
बल्कि आम आदमी भी उसे जान सकता था और
अपने जाने हुए को रच सकता था,
उसे साहित्य में सृजित कर सकता था।
साहित्य में रिपोर्ताज यहीं से आकार ग्रहण करता है, 1920
के दशक में यह समाजोन्मुखी साहित्य का एक स्वीकृत रूप बन गया और दृश्य-प्रस्तुति
का द्योतक बन गया। मध्य यूरोप में इसका प्रचलन चेक कम्युनिस्ट पत्रकार एगान एरविन
किश द्वारा हुआ। यह शब्द पहली बार 1929 में फ्रांसीसी शब्दकोशों में शामिल हुआ और अंग्रेजी में 1931 में आया। बीसवीं सदी के आरंभ में रेडियो की खोज दुनिया की
प्रचलित छवि को बदल देने वाली तकनीक साबित हो रही थी। 1901 में जब मार्कोनी ने रेडियो का आविष्कार किया था तो यह इतिहास
में पहली बार हो रहा था कि एक-दूसरे से पूरी तरह अजनबी लोग आपस में मिल रहे थे और
यह जान रहे थे कि एक व्यक्ति ने पिछली शाम को क्या-क्या सुना था। कौन जानता था कि
गरीब गृहिणियों के जीवन में जो कभी घटित नहीं हुआ था कि दुनिया उनके कमरों में
सिमटने लगी थी और वे खुश हो रहीं थीं। रेडियो के आ जाने और ध्वनियों के विस्तार हो
जाने से अब कोई अकेला नहीं रह गया था। वर्ष 1931
तक रेडियो की संख्या इटली में ऑटोमोबाइल से अधिक नहीं थी। लेकिन रेडियो का एक पहलू
यह भी था कि प्रेस के आ जाने और सिनेमा के प्रादुर्भाव से जो क्रांतिधर्मी बदलाव
हमारे समाज में आए,
उस प्रकार का बदलाव रेडियो नहीं ला
सका था। दरअसल, सिनेमा द्वारा हुए बदलाव को रेडियो द्वारा हुए बदलावों के
समकक्ष देखे जाने की मांग नहीं की जानी चाहिए। रेडियो सबसे अधिक संगीत कला को
प्रभावित कर रही थी। संगीत के संदर्भ से रेडियो यह पहली बार अवसर उपलब्ध करा रहा
था कि श्रोता दूरी पर रह कर भी अधिक समय तक बिना किसी अवरोध के सुन सकता था।
सुविधानुसार या तो अकेले या सामूहिक। लेकिन रेडियो संगीत की गुणवत्ता में कोई
बदलाव नहीं ला सका था। बीसवीं सदी में प्रेस (अखबार, पुस्तक),
कैमरा (फोटोग्राफी), फिल्म (दृश्य-श्रव्य), रेडियो
(श्रव्य) आदि कला के पूरे ढाँचे को तकनीक और उसकी औद्योगिक संरचना के आधार पर
प्रभावित कर रहे थे। अब,
विकसित होती दुनिया के अधिकांश घरों
में रेडियो ने एक ही साथ ध्वनि,
शब्द और संगीत को पहुंचा दिया था, और दुनिया के बाकी हिस्सों में जहां विकास का ढाँचा अभी तक
ठीक से खड़ा नहीं हो पाया था वहाँ भी अपने लिए जगह तलाश करने लगा था। छोटे
ट्रांजिस्टर के आविष्कार ने,
जिसे कहीं भी ले जाना संभव था और जिसमें ज्यादा समय
तक चलने वाली बैट्री लगी हुई थी तथा विद्युत शक्ति के फैले हुए जंजाल से मुक्त थी, ने एक क्रांतिकारी बदलाव खड़ा कर दिया था। यानि अब रेडियो जो
बड़े नगरों में ही सीमित था अब छोटे शहरों में भी उसके जाल फैलने लगे थे। भारी-भरकम
ग्रामोफोन अब धीरे-धीरे पुराने होने लगे थे। मनचाहे संगीत को लाने-ले जाने के लायक
बनाने वाली चीज टेप-कैसेट बाजार में उपलब्ध हो गए थे जिसे छोटे रिकार्ड-प्लेयर पर
आसानी से बजाया जा सकता था। बीसवीं सदी के सत्तर के दशक में यह बड़े पैमाने पर फैल
गया था। दुनिया अपनी छवि बदल रही थी। सत्तर के दशक में ही ईरान के निर्वासित नेता
अयातुल्लाह खुमैनी जो बाद में ईरान में क्रांति के वाहक बने, भाषण रेडियो के माध्यम से ईरान की जनता सुनती थी। सेनाओं और
फौजों को संदेश देने के लिए रेडियो प्रभावकारी था। चलती-फिरती तस्वीरों वाले
टेलीविज़न बीसवीं सदी के अस्सी के दशक में धीरे-धीरे लोगों के घरों में पहुँचने लगे
थे। एरिक हॉब्सबॉम ने दक्षिणी अमेरिकी देश ब्राज़ील का उदाहरण दिया है, जहां अस्सी के दशक में अस्सी प्रतिशत जनता तक टेलीविज़न पहुँच
गया था, खासकर उन इलाकों में जहां नगरीय मूल-संरचना मौजूद थी। यह
आश्चर्य है कि संयुक्त राज्य अमेरिका में टेलीविज़न ब्राज़ील की तुलना में इसी दशक
में कम था।
यूरोप जो महज
अब पश्चिमी यूरोप नहीं रह गया था (1989
के पहले यूरोप का मतलब पश्चिमी यूरोप ही हुआ करता था), कला के क्षेत्र में उसकी केंद्रीयता समाप्त हो रही थी। कला के
महत्त्वपूर्ण केंद्र पेरिस की जगह अब न्यूयार्क गर्व के साथ खड़ा हो रहा है। बीसवीं
सदी के साथ के दशक के बाद साहित्य के क्षेत्र में भी बदलाव आने लगा कि अब साहित्य
के नोबल पुरस्कार के निर्णायक-मंडल ने यूरोप के बाहर के साहित्य को भी निर्णयों की
दृष्टि से गंभीरता से देखने लगे थे, जो
अब तक नहीं हुआ था। सोवियत रूस की कला की दृष्टि से खासकर दृश्य कलाओं की दृष्टि
से स्थिति थोड़ी भिन्न थी। इसका कारण था, उसकी
विचारधारा, सौंदर्यबोध और संस्थाओं के प्रति उसका नजरिया, जो शेष विश्व से अलग था, जिसे
मोटे तौर पर कठोर रूढ़िवाद कह दिया जाता है और दूसरा इन्हीं आधारों पर शेष विश्व से
अलगाव। सोवियत रूस में 1917 से पहले की जो भव्यता थी और तीस के दशक में जो उर्वरता थी, अब वह नहीं रह गई थी। सोवियत रूस में कविता इसका अपवाद थी।
कविता में अब भी महान रचा जा रहा था और अपनी परंपरा से कविता अब भी विलग नहीं हुई
थी। हम यहाँ कुछ नामों का उल्लेख करना चाहेंगे। अख्मातोव (1889-1966), मारीना त्स्वेतायेवा (1892-1941), बोरिस
पास्तरनाक (1890-1960), मयकोव्स्की (1893-1930) आदि
कविता में बड़ी ही गंभीरता से उपस्थित थे जिनका असर न केवल रूस में बल्कि शेष विश्व
की कविता पर भी रहा है आज तक।
Vladimir Vladimirovich Mayakovsky |
बीसवीं सदी की
कला के विकास में खासकर इस सदी के पूर्वार्ध में यह एक रहस्य बना रहा है कि कलाओं
के उत्थान या उसकी उपलब्धियों में दौलत की क्या भूमिका रही है। यह हमेशा की तरह
अपरिभाषित थी। स्थापत्य कला ही ऐसी कला थी जिसमें दौलत की भूमिका दिखलाई देती थी
क्योंकि इसमें विशालता को ही भव्यता और सुंदरता मान लिया जाता था। इस दौरान
शैक्षणिक-संस्थानों का विस्तार बड़े पैमाने पर देखा जाता है और अध्ययन में कलाओं का
अध्ययन शामिल हो रहा था। पर्यटकों और गाइडों ने आर्थिक स्तर पर कला की एक नई
परिभाषा निर्मित कर ली थी। आर्थिक तरक्की और रोजगार के नए अवसर निर्मित होने लगे
थे। नया बाजार निर्मित हो रहा था जिसका अर्थ स्त्री और पुरुष के लिए अलग-अलग था।
सामान्य रूप में बीसवीं सदी की संस्कृति पर इसका निर्णायक प्रभाव पड़ा। इस सदी में
दुनिया के नगरीकृत होते देश की सामान्य संस्कृति आम जनता के मनोरंजन पर आधारित
सिनेमा, रेडियो,
संगीत आदि के आधार पर अपना आकार
ग्रहण कर रही थी। विश्वयुद्ध के बाद मूर्तिकला और चित्रकला अपनी अर्थ गंभीरता में
वैसी नहीं रह गई थी जैसी वह विश्वयुद्ध से पहले अपनी प्रतिष्ठा बना रखी थी।
साहित्य-कला में उपन्यास की नई दुनिया सामने आई। तुर्की और लैटिन अमेरिकी देशों ने
उपन्यास लेखन के कलेवर को बदला। एक ऐसा देश कोलम्बिया, जो दुनिया के नक्शे पर अभी तक प्रकाश में नहीं आया था, उपन्यासकर गार्बियल गार्सिया मार्खेज के उपन्यास ‘ए हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलिटयूड’ ने
अचानक कोलम्बिया को दुनिया के नक्शे पर मशहूर कर दिया था। उपन्यास और नाटक बीसवीं
सदी में धीरे-धीरे टेलीविज़न के धारावाहिकों में समाने लगे थे। टेलीविज़न और वीडियो
ने धीरे-धीरे इनका स्थान सीमित कर दिया था। कला माध्यमों में बदलाव को हम इस बात
से समझ सकते हैं कि,
कला के प्रेमी से अगर हम अपने समय
में पाँच-दस साहित्यकारों के नाम या उनकी रचनाओं के नाम गिनाने के लिए कहें तो
उसमें उन्हें मुश्किल होगी लेकिन हम उन्हें अपने समय के बीस-तीस फिल्मों और
निर्देशकों के नाम गिनाने के लिए कहें तो यह उन्हें आसान लगेगा। बीसवीं सदी में
(इक्कीसवीं सदी में तो और ज्यादा) कला की यही तस्वीर धीरे-धीरे उभर रही थी और
इन्हीं तस्वीरों में और अधिक रंग-रोगन के साथ उसे इक्कीसवीं सदी में उपस्थित होना
था।
बीसवीं सदी के
उत्तरार्ध में उपभोक्ता समाज में उन शब्दों के इस्तेमाल की अधिकता थी, जो कहे जाने वाले पवित्र पुस्तकों में नहीं थी। उपभोक्ता समाज
उन शब्दों का इस्तेमाल ज्यादा करने लगे थे जिन्हें खरीदा जा सके, जो एक जींस हो, एक
ब्रांड हो। सामान्य रूप से चित्रकला अब कमीजों,
टी-शर्टों पर अंकित होने लगे थे,
झंडों, पेय के डिब्बों, शीतल
पेय की शीशियों पर कलाएं अपना नया रंग बिखेर रही थी। क्यूबिज्म आंदोलन
विक्टोरिया-युग के चित्रकला का आलोचक था। कला में रूप और वस्तु की संगति की बहस
अभी भी नए अर्थों में मौजूद थीं। बीसवीं सदी के छठे दशक के दौरान संगीत के क्षेत्र
में ‘रॉक एन रोल’
एक नाटकीय बदलाव ले कर सामने आता है।
रॉक, उत्तरी अमेरिका की अश्वेत बस्तियों में एक मुहावरे के साथ
शुरुआती रूप में सामने आया और शौकिया रूप से छोटे-छोटे नुक्कड़ों पर युवा गायकों
द्वारा गाया जाने लगा। तब यह कौन जानता था कि रॉक संगीत से अरबों का कारोबार खड़ा
हो जाएगा और दौलत कमाने वाली रिकार्ड कंपनियाँ इस संगीत के माध्यम से रातों-रात
मालामाल हो जाएगी। इन कंपनियों ने रॉक संगीत में धीरे-धीरे घाल-मेल करना शुरू कर
दिया था। अब यह वैसा नहीं रह गया था जैसे यह अश्वेत बस्तियों के नुक्कड़ों पर हुआ
करता था। अब, संगीत की सरंचनाओं
में विद्युत-ध्वनियों के मेल से अनेक किस्म के प्रयोग होने लगे थे। रॉक के
विन्यास में विद्युत-ध्वनियों के प्रवेश ने उसे लाखों लोगों के करीब ला कर खड़ा कर
दिया।
आधुनिकतावाद
के जिस मुहावरे ने अमेरिका की कला और स्थापत्य को अपने में समेट लिया था और जो
कला-संग्रहालयों से ले कर बड़े-बड़े कारपोरेट घरानों में अपनी अमूर्त छवियों के साथ
मौजूद हो गया था;
उसमें बीसवीं सदी के सातवें दशक में
बड़ी तेजी से प्रतिक्रिया की विरोधी हवा चलने लगी थी। आठवें दशक तक आते-आते यह
विरोध ‘उत्तर-आधुनिकतवाद’ जैसे
नए मुहावरे और एक किस्म के कथित आंदोलन में बादल गया। यह आंदोलन कला में कोई नए
मूल्य को स्थापित करने की घोषणा नहीं कर रहा था और न ही पूर्व के कलाओं में हुए
निर्णयों और उसके मूल्यों को अस्वीकार कर रहा था बल्कि यह ऐसी किसी संभावना को ही
अस्वीकार कर रहा था जिसमें ऐसा कोई निर्णय देने की बात कही जाती हो। आगे चल कर ‘उत्तर-आधुनिकतवाद’ उन
इलाकों की भी सैर करने लगा था जिसका संबंध कलाओं से नहीं रह गया था। नब्बे के दशक
में जब दुनिया बड़ी तेजी से बदल रही थी। दुनिया के नक्शे पर तीसरी दुनिया के देश
पूरी ताकत से उभर रहे थे,
तब ‘उत्तर-आधुनिकतवाद’ दार्शनिक,
समाज-विज्ञानी, नृतत्वशास्त्री, इतिहासकार
और अन्य अनुशासनों के विद्वानों में बड़े ही धड़ल्ले से उपयोग होने लगा था। साहित्य
और उसके आलोचना साहित्य में इसका इस्तेमाल बड़े ही गर्व से होने लगा था। ‘उत्तर-आधुनिकतावादी’ चाहे
जिस माध्यम में हों,
उनमें एक बात समान थी और वह यह कि वे
सभी अपने समाज के वस्तुगत यथार्थ के अस्तित्व में संशय रखते थे और इस बात पर यकीन
करते थे कि इस समझ की सहमति बौद्धिक-विमर्शों के द्वारा बनाई जा सकती है। तात्पर्य
यह कि यह ‘उत्तर-आधुनिकतावाद’ अब
केवल कला तक सीमित नहीं रह गया था बल्कि इसका प्रसार तेजी से अन्य माध्यमों में हो
गया था। इसे महज संयोग माना जा सकता है कि यह सबसे पहले कला के परिदृश्य में ही
सामने आया। कला परिदृश्य में सबसे पहले आने का कारण कई कारणों के अलावा एक यह भी
रहा कि अवांगार्द आंदोलन में एक किस्म की बौद्धिक निरंकुशता थी। कलाकार अपनी कला
में जिस बात को अभिव्यक्त करना चाहते थे उसमें साध्य और साधनों का कोई समन्वय नहीं
रह गया था और यह सब लगभग सौ सालों तक चलता रहा था। साधन और साध्य के सवाल पर
महात्मा गांधी की याद हो आना स्वाभाविक है। दरअसल, कला
में जो अपनी निजी प्रेरणा को ही मान्यता देता है उसकी कला सामाजिक रूप से कभी सफल
नहीं होती। वाल्टर बेंजामिन ने इसे बड़े ही
विस्तार से ‘यांत्रिक पुनरुत्पादन के युग में कलाकृति’ में उठाया है। कला में साधन और साध्य का सामंजस्य आवश्यक होता
है। वाल्टर बेंजामिन को कई बार एरिक हॉब्सबॉम याद करते हैं। वे याद करते हुए कहते
हैं, ‘वाल्टर बेंजामिन ने कहा था, ‘तकनीकी
पुनर्प्रस्तुति’
के युग ने न केवल उस तरीके को ही बदल
दिया जो रचना के लिए था-- और इस तरह से फिल्म और इससे प्रसूत कलाओं (टेलीविज़न, वीडियो) को शताब्दी की केंद्रीय कला के रूप में प्रतिष्ठित
किया- इसने उस प्रत्यक्षण में भी परिवर्तन किया जिसके द्वारा मनुष्य यथार्थ को
देखते थे और रचनात्मक कलाओं का अनुभव करते थे।’ दरअसल, कला अब व्यक्तिगत नहीं रह गई थी बल्कि यह सहकारी हो गई थी। यह
शारीरिक के साथ-साथ तकनीकी भी हो गई थी। पचास के दशक में यूरोप और खासकर फ्रांस
में यह जो धारणा थी कि सिनेमा एक ही रचनाशील व्यक्ति की कृति है जिसे निर्देशक कहा
जाता है, वह नब्बे तक आते-आते एकदम टूट गई थी।
अब मैं एक
प्रश्न से अपनी बात शुरू करता हूँ (या कि खत्म करता हूँ) कि क्या कला की गुणवत्ता
को काल के क्रमानुसार परखा जाना चाहिए? क्या
ऐसा करना उचित होगा?
कला की उपादेयता क्या उसकी सराहना या
लोकप्रियता में है?
या क्या कला की कोई उपादेयता भी है? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनसे हमारा समाज पुनर्जागरण काल से ही
जूझता रहा है। दरअसल कोई भी कृति इसलिए नहीं महान हो जाती है कि वह पुरानी या
प्राचीन है (यह पुनर्जागरण में मानी जाती थी) और न ही इसलिए कि वह सबसे नवीन या
अधुनातन है (यह अवांगार्द में मान्यता रही है)। कला के संदर्भ में दोनों ही
मान्यता सर्वथा एकांगी है। खासकर,
तब जब बीसवीं सदी में नब्बे के दशक
में रहन-सहन के हर निकायों में व्यापक बदलाव हुए हैं। आर्थिक ढांचों और सामाजिक
रिश्तों में, रुचियों में व्यापक बदलाव आया है। सौंदर्य अभिरुचियों में
व्यापक फेर-बदल हुए हैं। हाशिए पर रह रही छोटी-छोटी अस्मिताओं ने न केवल अपनी जगह
बनाई बल्कि प्रभु वर्ग को अपने लिए जगह छोड़ने के लिए आग्रहशील बनाया। बीसवीं सदी
में नब्बे के दशक के बाद और इक्कीसवीं सदी में भी कला के संदर्भ में विचार इन्हीं
छोटी-छोटी अस्मिताओं से ही निर्मित होगी।
(यह
लेख एरिक हॉब्सबॉम के ‘एज’
सीरीज की चार पुस्तकों और ‘इतिहासकार की चिंता’ और
वाल्टर बेंजामिन के निबंध संग्रह ‘उपरांत’ एवं बेंजामिन पर केंद्रित पहल-69 के अंक पर आधारित है। इस लेख में जो कुछ और जितना है, इन्हीं में से है।)
अमरेन्द्र कुमार शर्मा |
अमरेन्द्र
कुमार शर्मा
महात्मा
गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा
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