आशुतोष यादव की कविताएँ


आशुतोष यादव


असि प्रो० - इतिहास, राजकीय महाविघालय तालबेहट ललितपुर (उत्तर प्रदेश)
निवासी - जालौन
प्रारंभिक शिक्षा बाँदा एवं झाँसी में
स्नातक, परास्नातक, डी. फिल. (प्राचीन इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद)  


आज़ादी के 73 साल बीतने के बाद भी देश के तमाम हिस्से आज भी ऐसे हैं जो प्रगति या विकास से कोसों दूर हैं। यह हमारे सरकारों की राजनीतिक अदूरदर्शिता का परिचायक है। कोरोना की त्रासदी में जब प्रवासी मजदूर दिल्ली, गाज़ियाबाद, सूरत, अहमदाबाद, मुम्बई, पुणे जैसे शहरों से अपने अपने जिलों और गाँवों तक बड़ी त्रासद स्थितियों के बीच लौट रहे हैं, तब यह पिछड़ापन और स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रहा है। काश उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा जैसे बीमारू प्रदेशों का भी वैसा औद्योगिक विकास हुआ होता तो आज इन प्रदेशों के मजदूरों की यह स्थिति न होती। आशुतोष यादव इतिहास के प्राध्यापक हैं। इसीलिए इनकी कविताओं में इतिहास बोध का एक अलग पुट दिखायी पड़ता है। चूंकि आशुतोष खुद बुंदेलखंड क्षेत्र के रहवासी हैं और उसी क्षेत्र में अध्यापन कार्य कर रहे हैं इसलिए वे अपने क्षेत्र के दुःख दर्द को भलीभांति जानते हैं। उनकी कविता 'मैं बुंदेलखंड हूँ' में यह दुःख दर्द गहनता के साथ दिखायी पड़ता है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है आशुतोष यादव की कविताएँ।



आशुतोष यादव की कविताएं


धरती की तरफ से


मेरे आकाश
तुम मुझसे दूर तो थे
पर जुदा नहीं


कितनी बार
नीम, ढाक, महुआ, पीपल, सेमल बन कर
मैंने तुम्हें छूना चाहा


कितनी बार
तुम बरसे मुझ पर
किया मेरी रसातुर शिराओं को तृप्त


कितनी बार
तुम्हारी बौछारों को
अन्तः सलिला बना
अपने आँचल में संजोया है उसे


कितनी बार
सौंधी खुशबू की तितलियाँ
मैंने उड़ायी हैं तुम्हारी ओर


कितनी बार
उड़ाए उम्मीद के जुगनू
तुम्हारी अमावस को मिटाने
 

जितनी बार
तुम्हारे प्यार की
कादम्बिनी मुस्काई
उसी से ठिलठिलाये है मेरे कदंब के फूल


ओ मेरे आकाश
निहारो मेरी निहार को
तुम मुझसे दूर तो थे
पर जुदा नहीं

 

पयधार

जब-जब
इस विराट आकाश के नीचे
समूचे दिक् जाल को
समेट कर
अनंत की अभीप्सा से  भर कर
मैं ऊपर को देखता हूँ
तब देखते ही देखते
देखना ही बन जाता है
विराट की चौखट की अर्गला
तब यों लगता है कि मानो
विराट की देहरी से
एक अग्नि जिह्वा निकल कर
चाट रही है मेरी देह को
तब विराट वर्तुल में ढलता चला जाता है
निखिल ब्रह्माण्ड
निसृत हो उठती है उससे
एक पयधार



सूर्य नमस्कार


सूरज
भुरक रहा है ताप
मेरे काले, भूरे, स्लेटी शब्दों पर
जमी तरलता बह निकली है
फिर घाटों, पाटों से बात करती
कुछ को तोड़ती
कुछ को बनाती
बही जा रही है


यह ताप की तरलता
जब फिर
अंजुरि में आयेगी
किसी विश्वामित्र की ओर उछलेगी
जब हवा में
मनुष्य के संकल्प की
हुंकार बन कर
फिर कापेंगें किरीटधारी
सूरज के ताप की तरलता
फिर ढालेगी
नया लोक



गंधराज की कली


टूट कर गिर पड़ी थी डाल से
बे-वज़ह की बात से
फिर कभी डाल पर
वायु के उच्छवास से
हिल न पायी


छोड़ता जल पात्र में
मन यह सोचता था
जल उसे फिर शक्ति देगा
समय ही कुछ भक्ति देगा
पर वह अब जड़ से जुदा थी
अनुरक्ति किंचित भी
किसी से  न पायी


गंध का वह राज
जो था उसके हृदय में
राज की वह बात
किसी से कह ना पायी
गंध की तितली कभी भी
उड़ ना पायी


गंधराज की कली
जो गिर गयी संघात से


बे-वज़ह की बात से
फिर किसी से
मिल न पायी
फिर कभी भी
खिल न पायी



सभी स्वस्तिक सात्विक नही होते


अपने अपने होते है सबके स्वस्तिक
सभी स्वस्तिक सात्विक नही होते
कुछ स्वस्तिक उल्टे घूमते हैं


कुछ स्तवक
अपने स्तवन से
गढ़ देते हैं उसमें दांते


ये दांते वाले स्वस्तिक
कसे होते है
उस वैचारिक ठूंठ पर
जो यह मानती है कि
काट छांट कर
बनायी जा सकती है एक संस्कृति


वे नहीं जानते
फावड़ा गलाने से नहीं  
चलाने से चलती है दुनिया


दंतुरित होती है इस सोच की प्रार्थनाएं
इनके स्वस्ति-पाठ से
कोपलें नहीं फूटती
संश्लेषण ही रुक जाता है
भविष्य का


दीपाधार


किया आलोक से
पूरित
अंतस को
बाह्य को
तिमिर को पिया


जो मिला
जिससे मिला
वह बो दिया
यों जिया


रहा बस
दीपाधार बन
जो किया
जिसने किया
वह 'दिया'




लौट रहे है लोग  


लौट रहा है
वुहान में कैद जंगल
सभ्यता के जंगल से
जंगल की सभ्यता में


सांप अपनी बाबीं में
चमगादड़ निशीथ निर्जन कंदराओं में
बची हुई पेंगोलिन शेष आश्रयों में


गंडासे की धार
वापस उतर गयी है
पत्थरों में


अक्ष पर पटी उलझनों को खींचने में
उल्टा ही चल पड़ा हो मानो
भटकी गति का पहिया


नकारात्मक हस्तक्षेप से
लौट रहे हैं लोग
एक सकारात्मक दुनिया में



एक नई दुनिया बनने को है


इस बार
धमाका नही हुआ
वायु, जल या आकाश में
देह ही
पोखरण बनी जा रही है
देख रही है सूक्ष्म का विस्फोट

आयुध कुन्द हैं
कुबेर शांत
रोज़नामचे ठप्प पड़े हैं
चुपचाप है वार्तिक
 

नहीं चल रही
अदृश्य के कारोबारियों की
कस्तूरी की दुकानें
ओझा नहीं झाड़ पा रहे यह भूत


चक्का जाम है सभ्यता का
घटना विहीन सी हो गयी है दुनिया
इन दिनों
न कुछ से हो रहा है
सब कुछ


वे भीमकाय जलपोत
जिनसे लांघे गये समुद्र
खोजी गयी नई दुनिया
साबर से खींची जा रही हैं
उनकी कीलें
बरमा, बटाली, बसूला, रंदा
सब जुटे है जलपोत पर
बढ़ई अब की देख रहा है उसमें
नये ताबूत की संभावना
 

अदृश्य से ढल रहा है
एक उत्तर दृश्य


कोई रफूगर
अपनी अटेरन से तागा निकाल कर
भर रहा है
ध्रुवों के घाव
 

कोई मछुआरा
निथार रहा है
मलकुण्ड बनी पृथिवी  


कोई तन्तुवाय
परिवेश को धुनक कर
लपेट रहा है परेता पर
नई फसल का सूत
फेंक रहा है ढरकी
इधर से उधर
भर रहा है भरनी
सज रहा है
नई दुनिया का ताना बाना
 

कोई मोची
जमा रहा है निहाई
अपनी सोबणी, सलारी, सुईया ले कर
बना रहा है
नये रवन्ने के हिसाब से पदत्राण


शब्द शिल्पी
बदल रहे हैं इबारत
वे लिख रहे हैं
शक्ति की जगह सामर्थ्य
वैभव की जगह विभूति
ज्ञान की जगह बोध
आधिपत्य की जगह सहअस्तित्व
स्वैराचार की जगह ऋत्

यों लगता है मानो कि
आशंका तो घिरी है
पर आकाश साफ है
फिर एक नई दुनिया बनने को है।





मैं बुंदेलखंड हूँ


नून तेल दाल के लिए
लड़ाई लड़ के हार चुकी
आत्मसमर्पण की मुद्रा में रखी
औंधी हाण्डी हूँ


सिल पर रखा हुआ
खामोश बट्टा हूँ
अध सुलगी सिगड़ी हूँ
दिप दिप करती रोशनी की ढिबरी हूँ


जाम हो चुकी
चारे की मशीन के खूंटे से बंधी
आधी हो चुकी
गौ माता हूँ


सूखा हुआ कुँआ हूँ
बैठा हुआ बोरवेल हूँ
अवसाद से भरा
तालाब हूँ


टूटे हुए घरों में
स्मृति शेष किवाड़ो पर
लटका हुआ
बारहमासी ताला हूँ


अलसाई सुबह की
उदास शाम हूँ
पूष की दहलीज पर
क्वाँर का घाम हूँ


कोल और सहरिया की
कुल्हाड़ी से ज्यादा
सभ्यता की आरी से
चिरा पड़ा जंगल हूँ


पठार के सीने पर
नदी के आलापों से उपजी
बालू की
अवैध ढुलाई हूँ


स्याह होठों के बीच दबी
बीड़ी से उठता हुआ
आँख और तकलीफ के बीच पड़ा
धुएं का पर्दा हूँ


पति की ज़िंदगी से भी कीमती
पाठा की औरत की घिनौची में रखा
पानी से भरा
घड़ा हूँ


रेहन पर रखे किसान के
चोटिल भविष्य पर
साहूकार का
निर्मम लेप हूँ


नीम नीचे के दरके चबूतरे का
सूनापन हूँ
आशा और आश्वासनों के बीच झूलता
निलंबित मृत्युदण्ड हूँ


मैं बुंदेलखंड हूँ।



गुरू अलबेला बरेदी है 

गुरू तो बरेदी है
हाथ, पैर, कपड़े और आवाज
हर तरफ से खुरदरा


हर जंगल उसका जाना हुआ
रास्ता छाना हुआ
मौसम पहचाना हुआ


लम्बी लघ्धी से आसमान को साधे
तोड़ता है वह नीम के झौंके
हर सरसराहट पर चौकन्ना रह
निबोलियों पर सुस्ताता है


अपनी आवाज़ की चादर से 
झुण्ड को ढांकता है 
सबके मेमने उसकी गोद में होते है
वह जानता है सबके दर्द
उनकी जड़ी
वह हर आहट को पहचानता है


वह झुण्ड के झुण्ड चराता है
हाँकता है
दूर तक ले जाता है
लौटाता है सबको अंधकार से पहले


इतने पर भी वह किसी को दुहता नही है।
गुरू अलबेला बरेदी है।




  उस जाते हुए आगे के हाथ


  सब कुछ नहीं छूट जाता पीछे
  
कुछ साथ साथ चलता है
  
और आगे तक जाता है
  
हमारे होने और न होने से भी आगे


  
उस जाते हुए आगे के हाथ
  
मैने एक खुशबू में लिपटा
  
हल्दी रंगा लिफाफा दे दिया है
  
जिसमें भरे हैं उम्मीद के जुगनू
  
जो अमावस में सबका साथ दें


  
अब आप कहिए  
  
आपने क्या दिया है
  
उस जाते हुए आगे के हाथ


   (इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं।)


  सम्पर्क

  स्थायी पता –
  808, बाहर बड़ा गाँव गेट,
  टीचर्स कालोनी, झाँसी (उत्तर प्रदेश)  

  ई मेल -  ashuyadavjhs@gmail.com

  
मोबाईल – 9452040903, 7905915416

टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुन्दर कविताएँ सर
    🙏🙏

    जवाब देंहटाएं
  2. डॉ. नीरज गुप्ता

    उत्कृष्ट सृजन🙏🙏🙏
    'मैं बुन्देलखण्ड हूँ' अत्यंत प्रभावकारी👏
    हिरोशिमा की तर्ज पर 'एक नई दुनिया...' और 'सूर्य नमस्कार' सहित सभी कविताओं में गहन एवं व्यापक संवेदना की अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई🙏🙏🙏

    "यह ताप की तरलता
    जब फिर
    अंजुरि में आयेगी
    किसी विश्वामित्र की ओर उछलेगी
    जब हवा में
    मनुष्य के संकल्प की
    हुंकार बन कर
    फिर कापेंगें किरीटधारी
    सूरज के ताप की तरलता
    फिर ढालेगी
    नया लोक"

    निश्चित तौर पर यह संकल्प नया लोक गढ़ने के लिए अाज की महती आवश्यकता है।🙏🙏🙏

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं