सुरेन्द्र कुमार की गज़लें


सुरेन्द्र कुमार


गज़ल ऐसी विधा है जो छंदहीनता और लयहीनता के आज के समय में भी अपने छन्द और लय के सहारे ही आगे बढ़ रही है। इसीलिए गज़ल लिखना आसान नहीं क्योंकि यहाँ तो वे शिल्पी ही आते और हाथ आजमाते हैं जिन्हें लय का शऊर हो। ज़िंदगी के उबड़ खाबड़ अनुभव को लयबद्ध करना वैसे भी आसान कहाँ होता है? लेकिन उस कठिनाई से जूझने वाला ही तो गज़लगो हो पाता है। सुरेन्द्र कुमार हिन्दी गज़ल के ऐसे हस्ताक्षर हैं जिन्होंने जीवन की दुश्वारियों को सहजता से अपनी गज़लों में  ढाला है। सुरेन्द्र कुमार की यह सहजता ओढ़ी हुई नहीं है बल्कि स्वाभाविक है। इसीलिए वह मन मस्तिष्क को कुछ इस तरह झंकृत करती है कि उसकी अनुगूंज देर तक बनी रहती है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है सुरेन्द्र कुमार की गज़लें।




सुरेन्द्र कुमार की गज़लें



1

गेहूं बोना शुरू कर दूंगा धान कटने के बाद।
बिटिया का गौना कर दूंगा धान कटने के बाद।
जब पुआल घर आएगी सर्दी से बच जाएगी।
गाय का सांथरा कर दूंगा धान कटने के बाद।
जब भी मिला पगडंडी पर मुंह फुलाए रहती थी।
उसको दीवाना कर दूंगा धान कटने के बाद।
सपना सुहाना कर दूंगा धान कटने के बाद।
घर आना जाना कर दूंगा धान काटने के बाद।
बादल बे मौसम बरसने का रिश्वत मांगेगा।
अब कि बार समझौता कर लूंगा धान काटने के बाद।





2

वो पोस्टर दीवार पर उखड़ा हुआ।
देख रहा हवा का रुख बिगड़ा हुआ।
नहीं दिखता गली मोहल्ले भटकता।
कि जब से वो चांद का टुकड़ा हुआ।
न आ सका माहौल था बिगड़ा हुआ।
रोता रहा अकेला घर उजड़ा हुआ।
आखिर संभल संभल कर चल रहा था वो।
टायर था ज़िंदगी का रगड़ा हुआ।


3

बरसों से बंद पड़ा है मकान चाचा।
फसाद में किधर गया रहमान चाचा।
जबसे उदासी का माहौल तारी है।
अब नहीं आती होठों पर मुस्कान चाचा।
हल्की सी बारिश में टपक पड़ता है।
कच्ची छत का ये तेरा मकान चाचा।
खेलने का था जहां मैदान चाचा।
उन्होंने बना ली वहां दुकान चाचा।
हाथ में रहती तेरे कुरआन चाचा।
तू कैसे बन गया बेईमान चाचा।




4

समंदर को कुछ कहने के चक्कर में।
ज़बान की नाव बहने के चक्कर में।
हमने नज़र की तोप लगा दी है।
भरम का किला ढहने के चक्कर में।
दीयों की क़तार देख कर सहम गए।
जो थे अंधेरा रहने के चक्कर में।
मैंने अपना बदन कोरा कर लिया।
तेरे प्यार भरे गहने के चक्कर में।
उसकी बैसाखी से चल कर देखा।
बस खामखां दर्द सहने के चक्कर में।


5

खाट के बान कौन कसे बाबा।
इस बार ठंड में चल बसे बाबा।
मैं कच्चे मकान सा उदास रहा। 
मुझको देखकर सब हंसे  बाबा।
हम तो धूल  पर  पड़े  रुमाल हैं।
हम  किसके दिल में सजे बाबा।
जंगल में गुजरते शेर को देखकर।
इधर  बचे बाबा उधर बचे बाबा।




6

आखिर तवे का दर्द किसने बांटा है रामकली।
तेरे कनस्तर में कितना आटा है रामकली।
जो तेरे पैर में आकर भी न आता है।
वो तो जूता बिरला बाटा है रामकली।
छोटू के बाबू जब से गुजरे उसके बाद।
तूने किस तरह वक्त काटा है रामकली।
माथे का पसीना पौंछकर सीना तान कर।
वक्त के गाल पर मारा चांटा है रामकली।
आता है खुद को जताने के लिए सूरज।
वरना कौन किसके लिए आता है रामकली।



7

कि जब मुझ पर झमेला पड़ गया था।
तब  मैं  बहुत अकेला पड़ गया था।
उधर बच्चों को ननिहाल जाना था।
इधर  बीच  में  मेला  पड़  गया था।
मैं  खुद को खुद में ढ़ूढ़ ही रहा था।
अचानक भीड़ का रेला पड़ गया था।
वक्त की दी हुई ज़िन्दगी की चोट से।
पूरा  बदन  नीला  पड़  गया था।
नदी  में  हुई  हलचल  ये  बता रही।
अचानक कहीं से ढेला पड़ गया था।

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)


सम्पर्क-

मोबाईल - 6396401020

टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही सुन्दर रचनाएँ

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  2. बादल बे मौसम बरसने का रिश्वत मांगेगा।
    अब कि बार समझौता कर लूंगा धान काटने के बाद। - आमीन

    आता है खुद को जताने के लिए सूरज।
    वरना कौन किसके लिए आता है रामकली।

    बहुत ख़ूब सुरेन्द्र जी!

    काश! किसानों की मुरादें सच में पूरी हों धान कटने के बाद

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत अच्छी ग़ज़ल हैं। आज के हालात की अक्कासी के साथ राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक संदर्भों में भी यह ग़ज़ल ताजगी लिए हुए हैं। इन ग़ज़लों की जुबां आसान है और अंदाज़े बयां कुछ अलग सा पर बहुत खूब है। 

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