पीयूष बबेले की पुस्तक ‘नेहरू : मिथक और सत्य’ की प्रकर्ष मालवीय ‘विपुल’ द्वारा की गयी समीक्षा



 

नेहरू : मिथक और सत्य एक समीक्षा





प्रकर्ष मालवीय विपुल



आज राष्ट्र अपने प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की ५६वीं पुण्यतिथि पर उन्हें याद कर रहा है. लेकिन तभी प्रश्न यह भी खड़ा हो जाता है कि राष्ट्र उन्हें क्यों याद करे? क्या सिर्फ़ इसलिए कि वे हमारे प्रथम प्रधानमंत्री थे? हालाँकि यह भी पर्याप्त महत्वपूर्ण कारण है उन्हें याद करने का. लेकिन तब यह सिर्फ़ रस्म अदायगी भर हो कर रह जाएगी और जैसी कि आजकल हमारे यहाँ परंपरा हो गई है कि नायकों के जयंती या पुण्यतिथि पर प्रशासन भारी भरकम तामझाम में इतना मशरूफ हो जाता है कि किसी नायक को याद करने की मूल वजह नेपथ्य में चली जाती है और उक्त समारोह आज के समय के अमुक विशिष्ट जन (सत्ताधीश वर्ग) का सम्मान समारोह अधिक प्रतीत होने लगता है. 



या हम उन्हें इसलिए याद करें कि उन्हें याद करना एक सच्चे देशभक्त को याद करना है, जिसने इस देश के लोगों, सम्पदा और संस्कृति से बेइम्तिहाँ मोहब्बत की, जिसके मन में इस देश को विदेशी दासता से मुक्त कराने की बेचैनी थी और जिसके लिए हो रहे स्वतंत्रता संघर्ष में उन्होंने अपने जीवन के ग्यारह वर्ष विदेशी सत्ता के कैदख़ाने में बिताए और अंततः जब देश आज़ाद हुआ तो उनके मन में देश के मुस्तकबिल के निर्माण को ले कर एक स्पष्ट दृष्टि थी. 



या इसलिए याद करें कि आज उनका देश कृतघ्नता के रास्ते पर चल चुका है और अपने स्वतंत्रता संग्राम के नायकों के मृत शरीरों को क्षत विक्षत करने पर आमादा है और शायद उन मूल्यों को भूल चुका और उस रास्ते से भटक गया है जिनके साथ एक आधुनिक और भविष्य की आँखों में आँखें डाल कर बतियाने वाले देश की नींव पड़ी थी. 


मुझे तीसरा और अंतिम कारण सबसे अधिक प्रासंगिक जान पड़ता है. ख़ैर, अपने विचार रखने से पहले मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि मैं नेहरू या किसी भी नेता को आलोचना से परे नहीं मानता लेकिन आलोचना उनके कृतित्व की हो और गरिमापूर्ण होनी चाहिए. किसी की आलोचना करते हुए उसका चरित्र हनन करना सबसे आसान काम है. यह बेहद निंदनीय है. इसके दो कारण हैं - एक तो वह व्यक्ति स्वयं नहीं है अपना पक्ष रखने के लिए और दूसरा सुनने वालों को इसमें ज़्यादा मसाला मिलता है. ख़ैर ये भी हमारे लोकतंत्र के पथभ्रष्ट होने का ही लक्षण है.




पिछले कुछ वर्षों में हमने देखा है कि इस देश ने अपनी हर विफलता का ठीकरा छप्पन वर्ष पूर्व दिवंगत हो चुके नेहरू पर फोड़ा है. जिस तरह से पूँजीवादी विश्व को हर वक्त साम्यवाद का भूत सताता रहता है उसी तरह हमारे देश में दक्षिणपंथी शक्तियों, रूढ़िवादी विचारों और यथास्थितिवादियों को नेहरू का भूत सताता रहता है. पिछले कुछ वर्षों में नेहरू को बदनाम करने और उनकी व्यक्तिगत छवि को धूमिल करने एवं उनके निजी जीवन को ले कर अनर्गल प्रलाप करने के कुत्सित प्रयासों में असीमित बढ़ोत्तरी भी हमने देखी है. हमने देखा है कि नेहरू के बारे में अपुष्ट तथ्यों पर आधारित झूठी खबरों की बाढ़ सी आ गई है जिनके प्रसार को सूचना क्रांति की लहरों की सवारी कर रही व्यवस्था ने और आसान बनाया है. किंतु संतोष की बात यह है इस बेहद निर्मम, बर्बर, निराशा से परिपूर्ण और उत्तर सत्य का उत्सव मनाने वाले समय में कुछ बेहद ईमानदार और उत्साहजनक प्रयास भी हो रहे हैं जो इस उत्तरसत्य के बनाए भ्रमजाल को तोड़ने का भरसक प्रयास कर रहे हैं. ऐसा ही एक प्रयास है वरिष्ठ पत्रकार पीयूष बबेले की पुस्तक - नेहरू, मिथक और सत्य’.



नेहरू पर केंद्रित यह पुस्तक आज के समय में नेहरू के बारे में फैलाए मिथकों की पड़ताल करती है और सत्य का अन्वेषण करती है. यह पुस्तक बहुत तफ़सील से नेहरू के बारे में फैलाए गए झूठों को परत दर परत उधेड़ती है चाहे वो कश्मीर की समस्या हो, धारा ३७० हो, नेहरू पटेल सम्बंध हों, नेहरू गांधी सम्बंध हों, भगत सिंह और साथियों की उपेक्षा को ले कर की गईं बातें हों या भारत चीन युद्ध हो. साथ ही साथ यह पुस्तक नेहरू के एक विज़नरी व्यक्तित्व को उद्घाटित करती है. एक आधुनिक देश के निर्माण में लगे एक बेहद सौम्य, अपने स्वप्न को समर्पित एवं दृढसंकल्पित नेहरू से आपका परिचय होता है जो एक तरफ़ देश के लिए ऊँचे से ऊँचे ख़्वाब देख रहा है तो दूसरी तरफ़ बेहद संकुचित विचारों से जूझ रहा है. नेहरू एक तरफ़ जहां देश को दुनिया भर की आधुनिकतम तकनीक, तकनीकी शिक्षा, उच्च शिक्षा, अनुसंधान, ऊर्जा, कल कारख़ानों के माध्यम से उद्योग आदि के उच्चतम शिखर पर ले जाने के स्वप्न देख रहे थे ठीक उसी समय उन्हें देश में जंगल की आग की तरह फैलते साम्प्रदायिक द्वेष एवं हिंसा से भी दो चार होना पड़ रहा था. नेहरू इस बात को ले कर बिल्कुल स्पष्ट एवं सचेत थे कि संकुचित राष्ट्रवाद इस देश को पथभ्रष्ट कर देगा. इस पुस्तक को पढ़ते हुए आश्चर्य होता है कि राष्ट्रवाद को ले कर जिस तरह की संकुचित बहसों, जिनमें प्रतीकों पर अत्यधिक ज़ोर होता है, से आज हमारा सामना होता है उनसे नेहरू का भी सामना हुआ था किंतु हर बार उन्होंने देश को संकुचित विचारों में गिरने से ना केवल रोका बल्कि देश को प्रगतिशीलता के रास्ते पर ले जाने का भी कार्य किया. उदाहरण के लिए पिछले दिनों हमने देखा कि सिनेमा घरों में राष्ट्रगान को बजाए जाने को लेकर ख़ासा बवाल काटा गया एवं अंततः देश की सप्रीम अदालत ने भी अपने फ़ैसले में सिनेमा घरों में राष्ट्रगान बजाए जाने को सही ठहराया और इसका बजाया जाना अनिवार्य कर दिया. ठीक यही प्रश्न नेहरू के सामने भी आया था और उन्होंने एक कैबिनेट नोट में लिखा- 


इस बारे में भी दिशा निर्देश दिया जाना ज़रूरी है कि किन उचित अवसरों पर राष्ट्रगान बजाया जाना है. इस मामले में कोई बाध्यता नहीं हो सकती, लेकिन आधिकारिक सलाह का अनुसरण किया जाना चाहिए. जैसे कि मुझे लगता है कि हर सिनेमा के शो के बाद राष्ट्रगान बजाया जाना ग़ैर ज़रूरी है. इस मौक़े पर लोग जाने की तैयारी में होते हैं और राष्ट्रगान को उचित सम्मान नहीं दे पाते. बाक़ी देशों में भी सिनेमा के शो के बाद राष्ट्रगान बजाने का चलन नहीं है. ज़ाहिर है कि विशेष मौक़ों पर निश्चित तौर वे इसे बजा सकते हैं. ऐसा करने से राष्ट्रगान की गरिमा ही बढ़ेगी, इसे बहुत हल्का नहीं बनाया जाना चाहिए. मैं इस सलाह से सहमत हूँ कि फ़िल्म ख़त्म होने के बाद पर्दे पर राष्ट्रध्वज दिखा दिया जाय.यह पुस्तक इसी तरह के अन्य बेहद रोचक तथ्यों से भरी पड़ी है.




स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात विदेशी सत्ता द्वारा बुरी तरह लूटे गए देश का ना केवल पेट भरना था बल्कि औद्योगिक प्रगति के पथ पर लाते हुए देश को खाद्य और खाद्यान्न के मोर्चे पर आत्मनिर्भर बनाने की फ़िक्र भी नेहरू को बराबर लगी थी. इसीलिए एक तरफ़ जहाँ देश में औद्योगिक कारख़ानों की एक के बाद एक स्थापना हो रही थी तो दूसरी तरफ़ उन कारख़ानों को ऊर्जा की आपूर्ति और खेतों की सिंचाई के लिए बहूद्देशीय परियोजनाओं की नींव डाली जा रही थी. आज पूरे विश्व में महामहामारी का ख़तरा मंडरा रहा है और हमारा देश भी इस महामारी से जूझ रहा है. इस महामारी से लड़ने में भारतीय चिकित्सा एवं आयुर्विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली बेहद सराहनीय भूमिका निभा रहा है. इस संस्थान की स्थापना दूरदृष्टा नेहरू ने १९५६ में ही कर दी थी. कहना ना होगा कि आज हमारे प्रधानमंत्री जिस आत्मनिर्भर भारत की वकालत कर रहे हैं उस दिशा में भारत नेहरू के संरक्षण में कारख़ानों और उद्योगों की स्थापना एवं उनके राष्ट्रीकरण के माध्यम से बहुत पहले ही बढ़ गया था.



आज भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की जो स्थिति है और जो स्वयं नेहरू को भूल चुकी है उसके लिए ऐसा लगता है नेहरू ने ४ जून १९४९ को मुख्यमंत्रियों को संबोधित एक पत्र के माध्यम से ही एक संदेश दे दिया था- 

मुझे यह कहना पड़ेगा कि कांग्रेस के लोग सुस्त हो गए हैं. तेज़ी से बदलती दुनिया के जड़ हो जाने और मुग़ालते में रहने से ज़्यादा ख़तरनाक कोई चीज़ नहीं है. हम लोग सरकारी ज़िम्मेदारियों से दबे हुए हैं. हमें रोज़ समस्याओं के पहाड़ से टकराना होता है और उन्हें सुलझाने के लिए हम कोई कसर नहीं उठा रखते. बुनियादी मुद्दों के बारे में सोचने के लिए तो हमें वक्त ही नहीं मिलता. कई बार हम ऐसे मुद्दों में उलझ जाते हैं, को महत्वपूर्ण तो हैं, लेकिन न सिर्फ़ अप्रासंगिक हैं, बल्कि मौजूदा हालात में बेहद ख़तरनाक भी हैं. इसीलिए अलगाववादी प्रवृत्तियाँ और प्रांतवाद, भाषा के आधार पर राज्य, यहाँ तक कि भाषा का सवाल या क़ानून या दबाव के ज़रिए लोगों को ज़्यादा नैतिक बनाने जैसे सवाल हमारे दिमाग़ों को घेरे हुए हैं.



इसी तरह के एक अन्य पत्र में दो जून १९५१ को मुख्यमंत्रियों को लिखते हैं –

लोकतंत्र में इससे बुरा कुछ नहीं हो सकता कि सरकार या जनता आत्ममुग्ध हो जाए. दुर्भाग्य की बात है कि ऊँची आवाज़ में बात करने के अलावा हर मामले में हमारे अंदर आत्ममुग्धता और उदासीनता घर करती जा रही है. हमारी कांग्रेस की राजनीति भी काफ़ी हद तक हवा हवाई होती जा रही है. इस बात की ख़ूब चर्चा हो रही है लोग कांग्रेस को छोड़ कर जा रहे हैं और ख़ासकर बड़े लोग कांग्रेस छोड़ रहे हैं लेकिन इसके बावजूद किसी भी बड़े मुद्दे पर सार्वजनिक रूप से बहस नहीं हो रही. कोई सोचता होगा जब देश के सामने इतने बड़े बड़े मुद्दे हैं तो All India congress committee में उन पर ज़ोरदार बहस होनी चाहिए लेकिन अब AICC ढुलमुल तरीक़े से मिलती है और अपना रूटीन काम  करती है वह इस बारे में चर्चा नहीं होती कि वह कौन कौन सी बड़ी दिक़्क़तें हैं,  जो  देश को और कांग्रेस को बीमार कर रही हैं. लगता है, कहीं कुछ गड़बड़ हो गई. धीरे धीरे हमारी राजनीति पार्लर वैरायटी होती जा रही है. मैं आशा करता हूँ कि हम अपने आपको इस शिकंजे से निकाल लेंगे, क्योंकि यह किसी भी अच्छे काम  के  लिए बुरा है.”



जब देश उद्योग, विज्ञान, सांख्यिकीय के रास्ते पर तेज प्रगति कर रहा था उसी समय भारत की खोज करने वाले नेहरू को देश की कला, संस्कृति और साहित्य और खेल की भी फ़िक्र थी. इसी उद्देश्य से ३१ मई १९५२ को संगीत नाटक अकादमी और ५ अगस्त १९५४ को दिल्ली में ललित कला अकादमी और १२ मार्च १९५४ को साहित्य अकादमी की स्थापना हुई. बक़ौल लेखक साहित्य अकादमी शुरू होने के अगले दिन नेहरू ने जो किया वह ऐतिहासिक है. नेहरू ने साहित्य अकादमी के नव नियुक्त सचिव कृष्ण कृपलानी को महाकवि निराला के बारे में पत्र लिखा. नेहरू ने लिखा कि वैसे तो निराला बहुत बड़े कवि हैं और जब क़भी रौ में आते हैं तो बहुत अच्छी कविताएँ लिखते हैं। लेकिन वे फक्कड़ स्वभाव के हैं. उनके पास पैसा रुकता नहीं है. उनकी किताबें वैसे तो खूब बिकती हैं और पाठ्यक्रम में भी शामिल हैं, लेकिन उन्होंने जिस तरह रॉयल्टी बेच दी है, उसमें सिर्फ़ प्रकाशकों को फ़ायदा होता है. निराला के हिस्से में बमुश्किल २०-२५ रुपए आते हैं. इसीलिए नेहरू ने निराला के लिए हर महीने १०० रुपए की मदद भेजने का सुझाव दिया और साथ ही यह ताकीद भी की कि यह पैसा सीधे निराला को भेजने के बजाय कवयित्री एवं निराला की मुँहबोली बहन महादेवी वर्मा को भेजा जाय. 



ऐसी ही अनेकों रोचक जानकारियों से यह पुस्तक आपको दो चार कराती है. वाट्सएप यूनिवर्सिटी से मिली जानकारी के आधार पर अपनी धारणाओं का निर्माण करने वाली पीढ़ी को नेहरू की बेहतर आलोचना के लिए भी यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए. इस पुस्तक की भूमिका में वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार लिखते हैं कि पत्रकार पीयूष बबेले ने नेहरू को ले कर फैलाए जा चुके अनेक मिथ्या प्रकरणों के इस दौर में नेहरू के सत्य को क़ायम करने की कोशिश की है. आम तौर पर  आज़ादी की मध्यरात्रि वाले भाषण का ही प्रचार प्रसार होता रहा है मगर पीयूष बबेले की किताब पढ़ कर लगा जब पहले भाषण की रेकार्डिंग है तो उनके बाक़ी भाषणों की भी होगी. लेकिन उनका ज़िक्र कभी सार्वजनिक बहसों में नहीं आया. अलग अलग वर्षों में 15 अगस्त के मौक़े पर नेहरू के संबोधनों को लेकर पीयूष ने ज़रूरी विश्लेषण किया है. नेहरू के हर भाषण में आज़ादी एक स्थाई भाव है. वे लगातार जनता को आज़ादी का मतलब बता रहे हैं और उसमें एक निरंतरता भी है बल्कि वही निरंतरता लगातार निखरती जा रही है. 



पीयूष की यह किताब इस मायने में एक ज़रूरी हस्तक्षेप है. लाखों लोगों ने बिना किसी तथ्य  नेहरू के  बारे में ग़लत ही सही मगर जान लिया है. जिस नेहरू को उनकी विरासत के लोगों ने छोड़ दिया था, उस नेहरू को बदनाम करने वालों ने फिर से जनमानस में क़ायम कर दिया है. अफ़सोस की वह सही नेहरू नहीं है. नेहरू  के  नाम पर लीपापोती करने वालों ने ग़लती कर दी. इतना झूठ फैला दिया कि अब सही नेहरू को जानने की ललक जागेगी. इसी संदर्भ में यह किताब एक सही वक्त में आपके हाथों में है......’ . 
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आज हमारे प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू जी की ५६वीं पुण्यतिथि पर उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करने के साथ ही मैं अपने पितामह को भी श्रद्धांजलि देता हूँ जो स्वयं प्रतिबद्ध नेहरूवादी थे और जिन्होंने किशोरावस्था से ही नेहरू के साहित्य से हमारा परिचय करवा दिया था एवं जिन्होंने दुनिया को देखने की दृष्टि प्रदान की.


 प्रकर्ष मालवीय ‘विपुल’




सम्पर्क-

मोबाईल - 09389352502
08765968806

टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 28.5.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3715 में दिया जाएगा
    धन्यवाद
    दिलबागसिंह विर्क

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  2. असल में बौद्धिक स्तर पर हम भिन्न भिन्न पंथों के पिछलग्गू हो गए हैं। स्वतंत्र चिंतन और मूल्यांकन की शक्ति समाप्त हो गयी है। पंथ के आधार पर हम किसी भी व्यक्तित्व को पीछे छोड़कर उस व्यक्ति की पूजा या निंदा में लगकर उसे भगवान या शैतान घोषित कर देते हैं। सच यह है कि हर व्यक्ति सही और गलत का संमुच्च्य होता है। उसकी सही बातों की प्रशंसा और गलत बातों की बौद्धिक आलोचना होनी चाहिए। किसी भी व्यक्तित्व को इसी आलोक में देखा जाना चाहिए। उसके पक्ष और विपक्ष दोनों पहलुओं की तार्किक समीक्षा होनी चाहिए।

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  3. प्रथम प्रधानमंत्री व स्वतन्त्रता आंदोलन के महान नेता को शत शत नमन ! नेहरू और गाँधी भारत के आकाश के ऐसे चाँद और सूरज हैं जिनकी चमक को किसी की आलोचना तिलमात्र भी कम नहीं कर सकती।

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  4. बहुत शानदार समीक्षा।

    लगता है अब सिर्फ आलोचक बचे हैं,
    वरना समालोचक की दृष्टि हमेशा दोनों पहलू देखती है।
    गहन चिंतन देती अद्भुत पुस्तक होगी काश बहुत हाथों तक पहुंच पाए ।
    सुंदर समीक्षा।

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  5. बहुत ही सुंदर एवं सारगर्भित समीक्षा। पढ़कर अत्यंत प्रसन्नता हुई एक महान लेखक द्वारा एक महान व्यक्ति के बारे में लिखी गई पुस्तक की समीक्षा एवं विश्लेषण बहुत ही सटीक और नपे तुले शब्दों में की गई है। मेरी ओर से असीम शुभकामनाएं।
    आशीष कुमार मालवीय

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