अमित एस. परिहार की कविताएँ

अमित एस. परिहार



परिचय 

 

जून ०१ जबरजस्त खेड़ा गांव, जिला फतेहपुर यमुना के    पश्चिमी पाठ के निकट उस पार बुन्देलखण्ड   -अवधी, बुन्देलखण्डी और पश्चिमी खड़ी बोली का सम्मिश्र क्षेत्र।
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इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य एम. ए. में स्वर्ण पदक सहित  वहीं से शोध उपाधि।
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२००७-०८ में UGC के "असिहस्स" प्रोजेक्ट के अंतर्गत कविता विषयक पुस्तक समीक्षा : इतिहास और मूल्यांकन विषय में फेलो।
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पढ़ाई-लिखाई के दौरान वाम धड़े के छात्र संगठन आइसा से जुड़ाव और छात्र संघर्षों में प्रतिभाग।
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छात्र जीवन में 'बहकही' अनियतकालीन साहित्यिक-वैचारिक पत्रिका का सम्पादन।
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उत्तर प्रदेश, वागर्थ, नया ज्ञानोदय, कौमुदी, काव्यम् आदि पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित।
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२००७ में भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता द्वारा युवा कविता का प्रथम सम्मान।
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उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान में प्रधान सम्पादक के पद पर उ. प्र. शासन द्वारा भेजे गए किन्तु तकनीकी वजहों से तीन माह बाद पुनः विकास विभाग में वापस।



किसी भी समय के रचनाकार का दायित्व होता है कि वह जीवन की सच्चाइयों को ज्यों का त्यों उकेरने का काम करे। वैसे यह कहने में आसान जरूर है लेकिन हकीकत के धरातल पर ला इसे ला पाना बहुत कठिन है। क्योंकि रचनाकार जब लेखनी के साथ होता है तब उसके इस लेखकीय दायित्व के साथ साथ कई एक स्वार्थ, कई एक महत्वाकांक्षाएं, कई प्रलोभन उसके सामने अपने रंग विरंगे पंख पसारे होते हैं। रचनाकार को इन सबसे संघर्ष करना होता है। उसे कई जगह अपने आप से जूझना होता है। ईमानदारी और कर्तव्य बोध निभाने की कीमत भी रचनाकार को चुकानी होती है। 



युवा कवि अमित परिहार अपने समय के उन सन्दर्भों से रु ब रु कराते हैं जो हमारे वक्त के चकाचौंध और रफ्तार से पीछे उड़ती धूल गर्द के पीछे अदृश्य सी हो जाती हैं। अमित उन लोगों के साथ खड़े दिखाई पड़ते हैं जो उन्हीं के शब्दों में कहें तो 'अंजान सफर में अनजान शहर की अनजान जगह में/ फँसे हुए लोग दुनिया के मुहावरे पर इंसान नहीं हैं।' आज पहली बार प्रस्तुत है अमित परिहार की कुछ नई कविताएँ।



अमित एस. परिहार की कविताएँ



घर लौटते हुए


कोरोना समय में घर लौटते हुए
बहुतों को नसीब नहीं हुई डेहरी
डेहरी को नहीं नसीब हुआ उनका आखिरी चुम्बन
नहीं नसीब हुआ उसके माथे का स्पर्श
कहाँ छोड़ता है कोई अपनी डेहरी
कितनी भी झुक आया हो मोहार
कितनी ही भखर गया हो डेहरी का काठ
भला कोई काठ से डेहरी पहचानता है क्या?
मां के पुकारने
बच्चों के खिलखिला कर हँस पड़ने
चुहल दाम्पत्य जीवन की
पिता के खाँसने की                 आदिम ध्वनियों से
जो न जाने कब से-कब से, ऐसे ही सुनती आ रही हैं पीढियां
आदिम ध्वनि के आदिम स्पर्श से
पहचानी जातीं डेहरियाँ
मुश्किल है पर
डेहरी के पार करने से पार होता है जीवन
फिर भी
जीवन के पार करने पर भी पार नहीं होती डेहरी!






संवलाए जल में वासित कोई देवदूत नहीं  आएगा                                           


अपने ही भरे से ऊबे
जरूरी से ज्यादा गैरजरूरी से भरे
जिसके एक होने से चल जाना था काम
तीन-तीन
जिसे होना था तीन वह भी नौ
कहाँ जा कर खाली करेंगे अपना ही घर
ले जाएंगे किस गडइया?
गडइया  ले जाने से पहले
खाली उसे भी       करना
घर से भी ज्यादा  लबालब
कूड़े के   ढेर के ढेर में डूबी
पहले खाली करने इस गडहिया को ले जाएं नदी
नदी तो मिल जाएगी      खाली
पर पानी के अभाव में नदी को नदी कहना
कहाँ वाजिब?
नदी को नदी कहने से अच्छा कह दें मुर्दहवा गडइया
मुर्दहवा गड़इया   सुबह के स्वप्न से नहीं उसका वज़ूद
जो जागरण में रह जाता है कई बार
उसके अस्तित्व में शामिल जीवन की उम्मीद
मृत शरीर के आख़िरी सफ़र का ये पड़ाव
इस उम्मीद में, कि
कई  सदियां लांघ आए बूढ़े बरगदों , महुओं की सुवासित हवाओं से
संवलाए जल में वासित कोई देवदूत
हवाओं से ख़रगोशी करे कहे
मुर्दे में फूंक दे प्राण
जाओ मुर्झाई मरणासन्न नदियों की देह
ले आओ यहीं..
अपने ही भरे से ऊबे उन लोगों को भी ले आओ
जिन्होंने घरों में छिपा कर रख ली है नदी
कैद कर रखे हैं वनप्रांत
धरती की कोख से ले गए हैं अयस्कों के भंडार
छिपा रखे बहुमूल्य बहुरूप रत्न
वह हवाओं को जकड़ कर लेने आए हैं
अपने घरों में
अपने ही भरे से ऊबे हुए लोग
खाली कर रहे अपने घर।


दुनिया के मुहावरे में वो इंसान नहीं हैं


उनके हाथों में कूंचियां हैं
अलग-अलग रंगों में डूबी हुई
चटक हरा            जैसे धनहरे खेत की पत्तियों  पर सरसराती आई हो   उंगलियों में फंसी हुई ब्रुस
नीला           जैसे आकाश के रंग से मिलता हुआ
लाल           जैसे सूरज में डुबा कर निकाल ली गई हो ब्रुस
और वो जो कम उम्र बच्चे के हाथ में उल्टी टंगी कूची से चू रहा है पीला
सरसों के फूलों से चुराया हुआ सा
और वो जो सफेद में काला मिला देने से बनता है 'ग्रे'
उनकी संवलाई हुई जिंदगी का सा रंग
अभी दीवार पर स्कूली बस्ते का अधूरा रेखांकन भी पूरा
नहीं हुआ                         उसे लगा बच्चे ने अब्बू कहा
उसका दुख इस उमस भरी गर्मी में पसीने के साथ झर रहा है धरती के टुकड़े पर
वहीं बगल में एक नन्हीं टूटी हुई चप्पल पड़ी है
सामने रोड पर खड़े अनमने से ट्रक के पीछे 'फिर मिलेंगे' की तख़्ती पर सूर्य धब्बे सा उतर आया है।
शिक्षा और सड़क के मध्य उठी हुई दीवार 
चहारदीवारी है स्कूल की
एक श्रमिक उसी दीवार पर पेन्सिल की रेखाकृति बनाते हुए नोक पर ग्रेफाइट का 'ग्रे' रंगते हुए डूबा हुआ है।
उधर पश्चिम की दीवार की ओट में डूबता सूरज, डूब रहा है
जैसे पहाड़ पर क्रेटर से उतरता हुआ तप्त लावा खोता जाता है अपना लाल रंग।
ढली हुई साँझ में रात्रि के आगमन की प्रतीक्षा      नहीं है
एक दीर्घ रात्रि के         लम्बे अंधेरे  कैनवस पर
जीवन का उजाला उकेर रहे हैं श्रमजीवी हाथ          
झरझर बह रहा है जीवन का राग।
अचानक चले आए इस विस्थापन को  कूँचियों और रंगों पर ठेले चले जा रहे हैं लोग।
अनिश्चितता के अतल जल में बन रहा है भंवर
इसी भंवर में अपने अपने रंगों की खोई हुई नमी ले रहे हैं  लोग।
इस अनजान सफ़र में अनजान शहर की अंजान जगह में
फँसे हुए लोग दुनिया के मुहावरे पर इंसान नहीं हैं
इंसानी मदद से ख़ुश हो कर  ये दे रहे हैं वरदान
रच रहे हैं दुनिया फ़िर से
जो कमियां रह गईं थीं दुनिया को बनाते वक्त
ठीक कर रहे हैं भगवान।


#लाकडाउन के मध्यान्ह! में जयपुर के निकट प्राथमिक स्कूल में मजदूरों के एक जत्थे को रुकवाया  गया। मजदूरों को प्रशासन और ग्रामीणों से जो सहयोग और अपनापा मिला उससे प्रसन्न मजदूरों ने अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करने का अनूठा रचनात्मक तरीका चुना। उन्होंने अपनी क्षमताओं का उपयोग कर विद्यालय की तस्वीर बदल दी।





कागज़ पर नदी


खेत का, तालाब का पानी सुखा देने वाली जब कड़ी धूप  होती
ठीक इसी भुलभुलाती धूप में जब देश भर में पानी की चोरी के मुकदमों की बाढ़ आती है। रातों-रात नहरों , झीलों, तालाबों के पानी की चोरी से राष्ट्रीय अखबार के स्थानीय पृष्ठ रंग जाते हैं। स्थानीय अखबार का स्थानीय पत्रकार राष्ट्रीय पक्षी के मरने की ख़बर न छापने के बदले, बदले में कुछ चाहता है इसमें बुरा क्या है? भूख उसकी भी उतनी ही बड़ी है जितनी देश के प्रथम नागरिक की भूख।
जिस पानी की रिक्तता से सूखती है धरती    उसी के सूखने से सूखते हैं बादल, उसी से सूखती है नदी, सूखते हैं कुंए, नाले, परनाले, गड़ही, तालाब सब।
उसी से सूखती है फसल, सूखते हैं पेड छतनार।
सूखते हैं तितलियों और पक्षियों के झुंड।
उसी से सूखता है गला और उसी से सूखते हैं प्राण
पानी नहीं होता तो सूख जाते हैं रिश्ते
रिश्ते नहीं होते तो सूख जाता है समाज
समाज के सूखने से एक दिन सूख जाती है सरकार
और इस तरह एक सूखी हुई  सरकार देश चलाती है।
और यही सरकार पूरी दम से मदद में एक नदी ले कर निकलती है। नदी थोड़ी दूर ज़मीन पर बहती है।
इसके बाद नदी कागज़ पर ही बहती है, कागज़ पर ही मुड़ती है और इस तरह कागज़ से चल कर कागज़ तक पहुंचती है नदी
अंततः बारिश के मौसम की प्रतीक्षा में कागज़ पर ही पड़ी रहती है नदी।
और इस तरह एक सूखी हुई सरकार, सूखी हुई नदी के बूते, सूखा हुआ देश चलाती है।



  


कोट पहना हुआ आदमी


कोट पहना हुआ आदमी
आदमी से थोड़ा कम या थोड़ा अधिक
कोट पहना हुआ आदमी
अपने बूते के बाहर का आदमी
जरूरत से थोड़ा ज्यादा या जरूरत से थोड़ा कम
उसकी आत्मा दो तहों के बाद भार से दबी
कोट पहने आदमी को
जब भी देखो ! बोलते
ढब से सुनो   सुनने के साथ देखो
उसका स्वर उठा हुआ    या फिर दबा हुआ
अपने स्वर में कभी नहीं बोलता
कोट पहना हुआ आदमी

जब भी देखो चलते
दिखता है तना हुआ या झुक कर चलता हुआ
कभी नहीं चलता      अपनी चाल

कोट पहने आदमी के भीतर का एक आदमी
कभी नहीं दिखता!
मेरे प्यारे!    उसे ढूंढो
हो सके तो!
मिला दो !    उस आदमी से
जो अभी-अभी कोट पहन कर  बस निकलना ही चाहता है।



शहरनामा-1

एक मेगामाल के ठीक सामने
एक बड़ी गाड़ी आ कर रुकी है
गाड़ी से एक खाकी ड्रेस पहना हुआ आदमी
लगभग हडबडाहट में कूद गया इतनी तेज
कि 'पलक झपकते ही' की बजाए आप ये कहना पसन्द करें कि 'उसने इतनी तेजी से पलक झपकाई कि लगा हड़बड़ाहट में एक सिपाही कूद गया।'


इससे पहले गाड़ी के अन्दर बैठे लोगों में किसी का हाथ हिलता               अर्दलीनुमा सिपाही ने गेट खोल दिया
सेन्ट्रल सीट पर बिछे निचाट सफेद तौलिये पर बैठा युगल नीचे उतर आया है
पीछे वाली सीट से           एक बारह-तेरह वर्ष की लड़की
जिसने काही रंग की फ्रांक पहन रखी है
उस पर एक पीले रंगकी डोरी
उसकी पीठ की तरफ से घुटनों तक लटक रही है
एक नवजात शिशु उसके कंधे पर चिपका हुआ है

बच्चा उस स्त्री की ओर एकटक देख रहा है                उसका दाहिना हाथ खिलौने की तरह उठ रहा है

जो अभी इसी गाड़ी से उतर कर खड़ी हुई है स्त्री
उसके रेड फ्रेम पर ब्लैक ग्लास वाला गागल पहन रखा है

गाड़ी के अन्दर से कूंकूंकूंकूं की आवाज़ आ रही है
थोड़ी ही देर बाद उसकी खिड़की से एक झबरा डागी जीभ लपलपा रहा है बाहर

सिपाही ने बाँए कंधे पर एक रायफल थ्री नार थ्री टाँग ली है  दाँए हाथ पर मोबाइल, एक नोटबुक.. कुछ और चीजें पकड़ रखी हैं
सिपाही के चेहरे पर अजीब ज़र्द सा पुता हुआ है
ज़र्द चेहरे पर साफ चौकन्नी आँखे अलग ही दिखती हैं
जैसे अछोर सफ़ेद पर काला

छोटी लड़की तेजी से चलती हुई क्रोक्रोडायल की आकृति वाले प्रवेश द्वार पर उसके पैने दाँत के नीचे जा कर खड़ी हो गई है
बच्चा अब बाहर की ओर देख रहा है
जिधर से उसकी मां आ रही है
बच्चा मां को ही देख रहा है या नहीं
यकीन के साथ नहीं कहा जा सकता
सामने सड़क की उस पट्टी पर लाल सिग्नल पर ठहरी हुई गाड़ियों के पास बहुत से बच्चे
अलग-अलग उम्र अलग-अलग कद के बच्चे
जिनके कपड़े एक से हैं सीवन से उधड़े-फटे

सारे रंग एक ही रंग में सने हुए    मैले

उचक-उचक कर हाथ फैलाए हुए बच्चे दिख रहे हैं
तीखे बजाए जा रहे हार्न, तीन पहिए की गाड़ियों पर ठोके जा रहे डंडे, कुछ ले लेने की मनुहार करते ठेले और खोमचे वालों की आवाज़ के साथ बच्चों की आवाज़ की चटनी
दिख रही है
सुनना मुश्किल हो रहा है     वैसे भी तेज आवाज़ों के कोलाज में
हल्के रंगों वाली धीमी आवाज़ कहाँ सुनाई देती है ?
हो भी! तो सुनना कौन चाहता संगतकार सी आवाज़?
सभी को चाहिए मुख्य वादी स्वर
संवादी और कोमल स्वरों का वक्त नहीं है यह

स्त्री पलट चुकी है हठात बाहर की ओर
सिपाही दौड़ा हुआ आ रहा है
क्या हुआ है उसे पता नहीं
और वो काही फ्रांक वाली बच्ची
थके छोटे कदमों से
लौट रही है धीरे   धीरे।


शहरनामा-२


एक बच्चा लगातार रो रहा है

सामने टेबल पर फलों से भरी सजावटी ट्रे रखी है
फलों में भूरी रंगत वाली कीवी, यलो आड़ू
हरी टोपी वाली चटक लाल स्ट्राबेरी 
और कुछ  चित्तीदार केले
और टिप्पी वाले विदेशी किस्म के गहरे लाल रंग के सेब भी हैं

बच्चा लगातार रो रहा है

कुछ चाकलेट, लॉलीपॉप
डार्क फंतासी चोको कुकीज के दो-चार बिखरे हुए पैकेट
और उसी के बगल में  टूटे पैर वाला हल्क
और बिना ढ़ाल के कैप्टन अमेरिका
और स्पाइडरमैन जिसके दोनों हाथ नहीं हैं
मुह के बल पड़े ब्लैक पैंथर का पैर
बैटमेन के सिर पर टिका हुआ  है और
आयरन मैन कई पार्ट  में बिखर चुका हैऐ

बच्चा लगातार रो रहा है
नाक बहती हुई होठों तक चली आई है
उसके भी नीचे

एक स्त्री जो बच्चे की मां होगी शायद
सोने सी चमक वाला आभूषण पटक कर 
कुछ दूसरी चीजें  हैंड बैग, गाउन, सैंडल कई-कई    बारी-बारी
फेंक रही है जोर से
लाल रंग की नेलपॉलिश तेज आवाज के साथ फूट कर फर्श पर फैल गई    उसके छीटे    झीने स्वर्णआभा वाले कर्टेन
बड़ी दीवार पर टंगे बड़े से कैनवस पर  जलरंगों से चित्रित बुद्ध के स्मित अधरों  पर         आँख पर
कुछ छीटे पड़े हैं दूर जहाँ अदृश्य है उनका रंग

लाल रंग उदासी का है या प्रसन्नता का?

आखिरी में अगर आखरी हो तो
एक फ्रेम पर जड़ी तस्वीर फेंकी गई है

जलती हुई आँखे लिए एक पुरुष चेकदार शर्ट में
चेकबुक के आकार वाली नोटबुक लिए
जिसके पन्ने हिल रहे हैं
बल्कि वह चेकबुक ही है
बच्चे की पीठ-पीछे आ कर खड़ा हो गया है।

बच्चा लगातार रो रहा है अभी भी

स्त्री तेजी से निकल गई है बालकनी की ओर।
पुरुष स्त्री के पीछे उसी ओर निकल गया

नीचे पार्क की ओर जोर-जोर से आवाज़ें आ रही है
कुछ लोग बेतहाशा भागे जा रहे हैं  उस ओर
कुछ ने दरवाज़े बंद कर लिए हैं
खिड़कियों के सरकाए जा रहे हैं        पर्दे।

बच्चा अभी भी रो रहा है लगातार।


(इस ब्लॉग में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं।)

सम्पर्क

मोबाइल : 7007987800

टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही सुंदर प्रस्तुति आदरणीय

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  2. आपकी द्वारा लिखित समस्त रचनाएं बहुत ही सुंदर है जो कि बहुत ही सारगर्भित रहस्यों को समेटे हुए है अपने अन्दर ।

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    1. अच्छा लगा ,आपकी प्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया.

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  3. बहुत सुंदर सार्थक विषय।
    यथार्थ वादी लेखन ।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत शानदार कविताएँ। इतने सुंदर परिचय के लिए शुक्रिया।

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