चैतन्य नागर का आलेख 'काम के नाम पर'।
मनुष्य के जीवन में आज भागदौड़ काफी बढ़ गयी है। आज दुनिया के
भी किसी इंसान के पास काम का तनाव पहले के समयों की अपेक्षा कुछ अधिक ही
है। लेकिन इंसान के लिए काम के साथ साथ आराम की भी जरूरत होती है। न केवल
उसके शरीर अपितु मन और चित्त के लिए भी। इसीलिए सप्ताहांत के अवकाश की
व्यवस्था की गयी। लेकिन इंसान की उस अनन्त, असीम महत्वाकांक्षा का क्या जो सब
कुछ पा लेना चाहता है। अपने पास समेट लेना चाहता है। चैतन्य नागर इस तरह
की सामाजिक सांस्कृतिक समस्याओं पर अरसे से
सोचते और लिखते रहे हैं। आज पहली बार पर प्रस्तुत है चैतन्य नागर का आलेख 'काम के नाम पर'।
काम के नाम पर
चैतन्य नागर
दुख की धूप से बचने के लिए काम एक छायादार वृक्ष बन जाता है। लम्बे समय तक व्यस्त रहते हुए काम कब एक लत में बदल जाता है इसका पता ही
नहीं चल पाता। व्यस्तता का महिमामंडन और 'कुछ
न करने' वालों का मखौल उड़ाना हमारी गहरी
सांस्कृतिक, सामाजिक आदतों में शामिल है। पूरे हफ्ते शारीरिक
और मानसिक पसीना बहाने के बाद लोग किस बेसब्री से सप्ताहांत की प्रतीक्षा करते हैं,
इसे देखें तो लगेगा कि शायद हम अपने काम से प्रेम नहीं कर पाते। बस
आर्थिक, सामाजिक और व्यक्तिगत कारणों से काम में लग जाते हैं,
उसकी ऊब और परेशानी को बर्दाश्त करते रहते हैं क्योंकि एक लम्बी प्रतीक्षा
के बाद अवकाश नाम की एक उम्मीद की किरण दिखती है। अवकाश के दिन भी हम व्यस्त रहते
हैं, पर वह करने में जो करना चाहते हैं, जिसमे हमें सुख मिलता है। इस तरह हमारा अधिकांश जीवन वह करने में बीतता है
जो हम बाहरी-भीतरी दबाव में करते हैं, और बहुत थोडा समय वह
करने में बिता पाते हैं, जो हमें पसंद है। हम जी रहे हैं
कैमू के ‘मिथ ऑव सिसिफस’ के पात्र की तरह,
जो रोज़ एक ही चट्टान सर पर उठा कर उसे पहाडी के शिखर तक पहुंचाता
हैं, और शाम को फिर वह चट्टान खिसक कर नीचे आ जाती है। दूसरे
दिन, आने वाले कई दिनों तक, कई बरस तक
यही सिलसिला जारी रहता है। एक अब्सर्ड, असंगत, अबूझ जीवन, जिसमे रोज़ हमें एक सूरज दिया जाता है,
पर हर शाम हमसे वह छीन लिया जाता है। हर सुबह हमें खुद से बाहर
निकलने पर मजबूर करती है, और हर शाम हमें वापस अपने निर्मम
अकेलेपन की तरफ धकेल देती है।
लोग अक्सर काम के लिए ‘पापी पेट’ को दोष देते हैं। वास्तव में, चिकित्सकीय दृष्टि से,
हमारे पेट का आकार एक बंद मुट्ठी के बराबर होता है। उसके लिए काम
करना तो जरूरी है ही। वह चाहे हमारा खुद का पेट हो, या हम पर
निर्भर करने वाले दूसरे लोगों का। पर एक मनोवैज्ञानिक ‘पेट’
भी होता है हमारे पास। यह पेट हमें दौडाता है इधर से उधर। यह पेट
कहता है कि हमारे पास दो फ्लैट्स काफी नहीं, दो और होने
चाहिए; दो कार भी कम हैं, दो और चाहिए वगैरह।
यह मनोवैज्ञानिक पेट हमें एक ऐसी यात्रा पर ले जाता है जो लगातार यह मांग करती है
कि हमें ‘और अधिक, और अधिक’ की जरुरत है। यह यात्रा अंतहीन है। इस यात्रा का यह अंजाम है कि हममें से कुछ
तो सचमुच भाग रहे हैं। दोनों पैरों और तरह तरह के
वाहनों पर। कुछ बैठे-बैठे ही और कुछ तो लेट कर भाग रहे हैं। दिलचस्प बात यह है कि
बहुत शान्त दिखने वाला इंसान भी भीतर चल रही एक मैराथन में हांफ रहा होता है। देह
के अलावा बाकी पूरा अस्तित्व अपनी समूची ऊर्जा के साथ किसी और तल पर भी अपने
अंतहीन कारोबार में बझा रहता है।
देह की दिशा और जरूरतों के बिलकुल विपरीत दिशा हो सकती है यह। बीच
से फंटे हुए बांस से हैं हम। वैसे ही बेसुरे भी। भाग
तो सभी रहे हैं। पहुँच नहीं रहा कहीं कोई।
पहुँचते तो फिर भागते क्यों? रुक
न जाते!
सिकंदर की यात्रा कुछ ऐसी ही थी। विश्व विजय पर निकले सिकंदर ने जब
अपने गुरु डायोजिनीस से बताया कि वह तो कई देशों को जीतने के लिए निकल रहा है तो छिद्रान्वेषी
दार्शनिक ने पूछा कि इस आयोजन, इस जीत के बाद आखिर
क्या करोगे। सिकंदर ने जवाब दिया कि वह वापस आ कर चैन से जियेगा। दुनिया का मखौल उड़ाने
वाले महान ग्रीक दार्शनिक ने कहा, ‘क्या अभी, यह सब किये बगैर, तुम्हे कोई चैन से जीने से रोक रहा
है?’ ‘जो काम तुम इस भयंकर जद्दोजेहद के बाद करोगे, वही अभी क्यों नहीं कर पा रहे?। स्पष्ट था कि सिकंदर
के पास इसका कोई जवाब नहीं था।
कई देशों में हुए शोध बताते हैं कि सेवानिवृत्त होने के कुछ वर्षों
के भीतर ही किसी की मृत्यु होना बहुत ही सामान्य घटना है। इसके मनोदैहिक कारण हैं।
पहला तो यह कि चलते फिरते हुए शरीर ज्यादा स्वस्थ रहता है और ऐसे किसी इंसान को कई
दशकों के बाद घर बैठना पड़े, तब उसकी सेहत
पर तो इसका असर पड़ेगा ही पर इससे कहीं ज्यादा गहरे कारण मन के तल पर जमे बैठे हैं।
अचानक एक सुबह जब यह अहसास होता है कि समूची जीवन शैली ही बदल चुकी है, सोने-उठने का वक़्त, खाने का समय, साथ रहने वाले, बतियाने वाले साथी-संगी, सब कुछ बदल गया है, तो जीवन में एक विराट शून्य का
और उसके साथ ही गहरे अवसाद का भी आगमन हो जाता है। इस शून्य को स्वीकार करना,
उसके साथ लय-ताल बैठा पाना, और बड़ी उम्र में समूचे
जीवन को नए सिरे से गढ़ना सबके वश की बात नहीं होती। इसके साथ तनाव बढ़ता है और तनाव
के साथ चली आती हैं कई व्याधियां। अक्सर ये व्याधियां ही जीवन के अंत का कारण बन
जाती हैं।
अपनी महत्वाकांक्षा के पीछे भागते मन में इतना ठहराव, इतनी स्थिरता नहीं होती कि वह इस तरह के प्रश्नों को सुन सके, उनके साथ थोडा समय बिता कर उन पर गौर कर सके। पास्कल
तो कहता था कि हमारी समस्याएं हैं ही इसलिए क्योंकि हम अकेले कभी किसी कमरे में
शांत हो कर नहीं बैठ पाते।
सफलता की उपासना पूरी दुनिया कर रही है; समृद्धि की आस सभी को लगी है पर इनकी खोज में पूरा जीवन बिताने के बाद जब
अचानक अकेलेपन, व्याधियों और मृत्यु का सच सामने आता है,
तो हम असहाय हो उठते हैं। ऐसा लगता है कि जीवन के कुछ बड़े सवालों पर
हमने कोई ऊर्जा खर्च ही नहीं की। बस दूसरों के बनाये हुए रास्ते पर, उनके दबाव में रह कर काम करते रहे। बिस्तर पर पडी चादर की सलवटें दूर करने
में ही रात बीत गयी, और सोने का समय ही नहीं मिल पाया।
यह दौड़-भाग सिर्फ समझ और गहरी अंतर्दृष्टि के साथ ही समाप्त हो
सकती है, पर यह विरलों के पास ही होती है। यह उन लोगों के
पास भी होती है जो बहुत अधिक सृजनशील होते हैं। वे कलाकार हो भी सकते हैं, नहीं भी। उन्हें भौतिक चीज़ों से एक विरक्ति होती है। आइंस्टीन कहता था कि
फलों का एक कटोरा, एक वायलिन और काम करने के लिए एक मेज ही
जीने के लिए काफी है। यह मनोवैज्ञानिक भूख की यात्रा हमें आखिरकार कहीं का नहीं
छोडती। हर पूरी होने वाली कामना, अगली कामना के लिए आग में
घी का काम करती है। अक्सर इसका अहसास जीवन के अंतिम पल तक भी नहीं हो पाता।
हो सके तो काम करते हुए भी हर रोज़ थोड़ी देर के
लिए ही सही, कुछ किये
बगैर भी रहना चाहिए। खालीपन की मासूमियत के साथ नाता तोड़ना नहीं चाहिए। ये हमें
फिर से तरोताज़ा बनाती है, और हमें खुद
को नए सिरे से देखने का अवसर देती है। खाली दिमाग
शैतान का घर नहीं होता। 'शैतान' तो भरे दिमाग में भी रहता है। हम बस
उसपर व्यस्तता का, काम-काज
का एक ढक्कन लगा देते हैं।
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(चैतन्य कृष्णमूर्ति फाउंडेशन इंडिया के स्कूलों के साथ
वर्षों से जुड़े हैं।
स्वतन्त्र रूप से सामाजिक/सांस्कृतिक विषयों पर लिखते हैं। )
सम्पर्क
मोबाइल : 7007955489
ई-मेल : chaitanyanagar@gmail.com
वाह
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