वशिष्ठ अनूप के गजल-गीत


वशिष्ठ अनूप


वशिष्ट अनूप समकालीन हिन्दी गीत गज़ल के महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों में से एक हैं। उनकी गज़लें लोक जीवन और लोक संस्कृति से गहरे तौर पर संपृक्त हैं। भोजपुरी भाषा से उनका जुड़ाव गज़लों को वह देसीयता प्रदान करता है जो अन्यत्र कम ही दिखाई पड़ता है। वशिष्ट अनूप के गीत गज़ल की एक सुविचारित पड़ताल की है कवि आलोचक बलभद्र ने। तो आइए आज पहली बार पढ़ते हैं बलभद्र का आलेख 'वशिष्ठ अनूप के गज़ल-गीत'


वशिष्ठ अनूप के गजल-गीत
                                              

बलभद्र
                                 

(1)
               

तुलसी के, जायसी के, रसखान के वारिस हैं...


    
वशिष्ठ अनूप हिंदी के एक सतत सक्रिय गीत-गजलकार हैं। वे एक ऐसे रचनाकार हैं जो गीत-गजल की रवायत से अच्छी तरह वाकिफ हैं। उर्दू-हिंदी गजल की आपसदारी और उनके तकनीकी मामलों के भी जानकार हैं। कहने का तात्पर्य यह कि उनके गीतों और गजलों में उनका यह ज्ञान बहुत काम आया है। गीत और गजल को ले कर आजकल यह सवाल प्रमुखता से उठने लगा है कि हिंदी-गीत-गजल को क्यों सम्पूर्ण हिंदी-काव्य परिदृश्य से अलग-थलग समझा जाए। क्यों न इनको हिंदी के काव्य-रूप के रूप में लिया जाए? इसको ले कर खुद गीत-गजलकारों के साथ-साथ इन विधाओं पर सोचने-विचारने और बतौर आलोचक काम करने वाले रचनाकारों का गंभीर रचनात्मक हस्तक्षेप देखने को मिल रहा है।



राम कुमार कृषक की पत्रिका 'अलाव' का हाल-फिलहाल प्रकाशित गजल की आलोचना पर केंद्रित अंक इस लिहाज से काफी महत्व का है। इस अंक में पंकज गौतम का एक बढ़िया आलेख है जिसका शीर्षक है 'आलोचना की समस्याएँ और कुछ गजलकार'। इस आलेख में कुछ प्रमुख गजलकारों की गजलों की विषय-वस्तुओं के साथ-साथ अन्य कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर बातें हुई हैं। इसमें शिव कुमार पराग और वशिष्ठ अनूप की गजलों पर भी बातें हुई हैं। शिव कुमार पराग के बारे में लिखते हैं  - "शिव कुमार पराग संभवतः अकेले गजलकार हैं, जो हिंदी-उर्दू की भाषिक संरचना और रवायत के झंझट में नहीं पड़ते। अपने कथ्य के अनुरूप शिल्प-निर्माण की उनमें आत्मविश्वास भरी सलाहियत है।" पराग के बाद वे वशिष्ठ अनूप के बारे में लिखते हैं - "परंपरा की गहरी समझ और उसे आत्मसात कर गजल के रचना-संसार में प्रवेश करने वालों में वशिष्ठ अनूप का नाम महत्वपूर्ण है, पर पराग जैसी विडम्बना के वे भी प्रायः शिकार हैं।" पंकज गौतम ने शिव कुमार पराग के सम्बंध में लिखा है कि उनको जिस तरह पढ़ा-समझा जाना चाहिए, वह नहीं हो रहा है और वशिष्ठ अनूप  के सम्बंध में पराग का जिक्र करते हुए जो कहा है उसका जिक्र ऊपर हो चुका है। सचमुच ये दोनों हमारे समय के महत्वपूर्ण गजलकार हैं। दोनों गजलकार के साथ-साथ गीतकार भी हैं और यह भी उल्लेखनीय है कि हिंदी के साथ-साथ भोजपुरी में दोनों ने गीत भी लिखे हैं। ऐसा महसूस हो रहा है कि इन दोनों की हिंदी गजलें भाषा के स्तर पर भोजपुरी से बहुत लेन-देन रखती हैं और केवल भाषा के स्तर पर ही नहीं, लोकजीवन और लोकसंस्कृति से सघन-सजीव संवाद कायम करते हुए सम्भव होती हैं। हिंदी-गजल के पाठ और समझ का जो एक अब तक का मिजाज है, वो इस 'देसीपन' को ढंग से स्वीकार नहीं कर पा रहा है।


वशिष्ठ अनूप हिंदी गजल के बारे में कहते भी हैं - "निष्कलुष प्यार की भीनी-भीनी महक, ताजगी जैसे बच्चों की निश्छल हँसी/ इसमें शामिल है माटी का कुछ सोंधापन, खूँ-पसीने से हमने सँवारी गजल।" वे हिंदी गजल की वैचारिकी और संवेदना को हिंदी कविता की वैचारिकी और संवेदना से जोड़ कर देखते हैं - "प्यार मीरा घनानंद रसखान का, पीर इसमें कबीरा निराला की है।" साथ ही, हिंदी-गजल की उत्तरोतर समृद्ध होती स्थिति की ओर भी संकेत करते हैं- "आज है अपनी कुटिया की रानी बनी..।" ध्यान देने की बात है कि यहाँ 'कुटिया की रानी' कहा गया है। यहाँ हिंदी-गजल की विषयवस्तु के साथ ही उसकी वर्तमान स्थिति की ओर संकेत है। उपर्युक्त पंक्ति के आधे के बाद है - "कल भिखारिन-सी थी दसदुआरी गजल।" यहाँ मेरा ध्यान 'दसदुआरी' पर गए बिना नहीं रहा। रेणु की एक प्रसिद्ध कहानी है 'रसप्रिया'। उसमें इस 'दसदुआरी' का प्रयोग हुआ है 'मिरदंगिया' जैसे एक लोककलाकार के लिए, जिसकी हालत भिखारी जैसी हो गई है। एक लोककलाकार की हालत कई वजहों से दसदुआरी जैसी हो जाती है। विषयवस्तु और भाषा-शिल्प के मामले में जो वैविध्य दिख रहा है, वो गजल की उत्तरोत्तर समृद्धि का सूचक है। साहित्य की एक विधा लोकजीवन और लोकसंवेदना से जुड़ कर कई चुनौतियों के बावजूद सम्पन्नता की ओर अग्रसर है। वशिष्ठ अनूप की गजलों में लोक और उसका जीवन अपने विविध तुक-तालों में सृजित है। लोक के रागात्मक और द्वंद्वात्मक अन्तर्सम्बन्धों की ऐसी उपस्थिति है कि उसको हिगरा कर समझना कठिन है। ऐसा उचित भी नहीं है।




वशिष्ठ अनूप की गजलों में आम आदमी के जीवन-संघर्षों की विश्वसनीय अभिव्यक्ति है। हर कोई हर रोज अपनी जिंदगी में होता है, होना चाहता है। जिसकी जैसी स्थिति होती है, उस हिसाब से वो अपना तौर-तरीका तय करता है, उसे जीता भी है। इस तय करने और जीने में वर्गीय स्थितियों की अहम भूमिका होती है। गरीब-गुरबों को अपने लिए जो तय करना होता है, वो बहुत कुछ अपने वश में न हो कर किसी और के वश में होता है। वो सब कुछ एक आदमी की तरह चाहता है, सुख-सुविधा, मान-सम्मान, हँसी-खुशी के अवसर - सब कुछ। पर, यह सब उसके लिए संभव नहीं हो पाता है। हमेशा उसके साथ छल हुआ है। बहुत पीछे न भी जाया जाए तो आजादी के बाद से ले कर आज तक के इस कड़वे सच को कोई नकार नहीं सकता है। साहित्य की किसी भी विधा में इस वास्तव की उपेक्षा नहीं हुई है। हिंदी-गजल ने भी इस वास्तव का अनदेखा नही किया है। बल्कि, उससे टकराते हुए ही उसने अपनी अग्रगति हासिल की है। इस दिशा में उसे बहुत कुछ खुद को भी बदलना पड़ा है। नई-नई चुनौतियों के बरक्स अपने को भी कई तरह से माँजना पड़ा है। कई वरिष्ठ गजलकारों के साथ-साथ वशिष्ठ अनूप की गजलों में भी यह सब देखने को मिलता है। इनकी गजलों में जूझता हुआ इंसान दिखाई देता है। सोचता हुआ। सोचना जूझने की बुनियादी प्रक्रिया है। जूझते इंसान की तरह गजल भी जूझती हुई दिखती है। लोक से संवाद कायम करती, उस पर रीझती हुई भी और उसको उसके वस्तुगत संदर्भों में समझती हुई भी। यहीं से वो अपने कथ्य की विश्वसनीयता अर्जित करती है। एक शेर है-

"आंखें टिकी हैं जब भी दहकते सवाल पर
थप्पड़ लगे हैं तेज विचारों के गाल पर।"
               

कविता को हिंदी के कई कवियों ने अपने ढंग से कविता के शिल्प में परिभाषित किया है। वशिष्ठ अनूप गजल को गजल में परिभाषित करते दिखते हैं। लिखते हैं-

'कहते हैं गजल जिसको शबनम भी है शोला भी
आक्रोश है धनिया का, होरी का पसीना है ।"

साहित्य की अन्य विधाओं की तरह गजल का भी अपना समकाल होता है। बदलते जीवन-यथार्थ से उसका आत्मीय और आलोचनात्मक रिश्ता होता है। ऐसा किसी एक या खास दौर में नहीं होता। मीर, ग़ालिब, नजीर की रचनाओं में भी उनके दौर का बहुस्तरीय यथार्थ अभिव्यक्त हुआ है और आज की गजलों में आज का। वशिष्ठ अनूप लिखते हैं –

"कौन कहता है कि आकाश-फल है गजल
वक्त के रूबरू आजकल है गजल।"

   
वे तो गजल को समझते-समझाते अपने अंदाज में उसे एक काव्य-विधा के रूप में न केवल स्वीकृति देते हैं, बल्कि इसकी घोषणा भी कर देते हैं। जिसको ले कर बहस जारी है,  गजलाधारित बहस  का एक समाधान गजल में ही पेश करते हैं –

"कैसे जीवन से कविता जुड़ेगी पुनः
प्रश्न का एक सीधा-सा हल है गजल।"

कविता जीवन से तभी जुड़ेगी जब उसमें जीवन की सहज-सटीक उपस्थिति होगी और वह लयात्मक होगी, सांगीतिक और गजल इस लिहाज से एक समर्थ काव्यरूप है। वे तो सुंदर जगत के सृजन के लिए शब्द-संसार में गजल को एक पहल मानते हैं। वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पांडेय ने 'अलाव' के गजल केंद्रित विशेषांक में मो. जाहिदुल दीवान के एक प्रश्न के उत्तर में इस बात का जिक्र भी किया है - "देखिए, कविता वह होती है, जो सुर में पढ़ने वालों की स्मृति में बसी रहे। इसे कविता को नया जीवन मिलता है। इसी प्रक्रिया में आज भी तुलसीदास, कबीरदास की कविता जनता की कविता बनी हुई है। वह कविता (मतलब कबीर और तुलसी की कविता) जनता को संकट के समय, समस्या के समय याद आती है और काम आती है। यह जो स्मृति में बसने और बसी रहने की क्षमता कविता में होती है, वह प्रायः छंद से ही आती है। हिंदी की जो समकालीन कविता है, वह पाठकों की स्मृति में तो नहीं ही रहती; अधिकांश कवियों की अपनी स्मृति में भी नहीं रहती।.... लेकिन, गजलों में छंद के कारण यह संभावना है कि वह श्रोता और पाठक की स्मृति में रहे और स्वयं कवि की भी स्मृति में हो तो सीधे संवाद की तरह श्रोता तक पहुँच सकती है।" 




मैनेजर पांडेय के साथ-साथ वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना को भी ऐसा कहते हुए कई बार सुना है। किसी आलोचक, किसी कवि अथवा किसी विद्वान की बात उद्धृत न भी की जाए तो भी यह बात आसानी से देखी-समझी जा सकती है कि तुलसी, सूर, कबीर, मीरा, रहीम की कविताओं की पंक्तियों को लोग बात-बात में सुना देते हैं। उसी तरह से ग़ालिब, अकबर इलाहाबादी के साथ-साथ और कई शायरों की पंक्तियों को भी। इधर के कवियों में सबसे अधिक गोरख पांडेय लोकप्रिय हुए। मतलब की लय-छंद के साथ-साथ कविता कहिए या गजल उसमें जीवन की उपस्थिति अनिवार्य है, साथ ही साथ मनुष्यता के पक्ष में होना भी एक अनिवार्य शर्त है। वशिष्ठ अनूप जब गजल को सुंदर सृष्टि के लिए एक 'पहल' मानते हैं और कविता को जन-जीवन से जुड़ने-जोड़ने की बात गजल के शिल्प में कहते हैं तो हमें निश्चित रूप से जानना होगा कि वे किसी हड़बड़ी या किसी आग्रह के दबाव में नहीं कहते।
             



वे गजल को खेत, किसान, माँ,  पिता, घर-आँगन, हाट-बाजार, प्रेम, बिछोह के साथ-साथ गरीबों के दुःख-दर्द, उनके शोषण-उत्पीड़न तक ले जाते हैं। सत्ता के अमानवीय कृत्यों को उजागर करते हुए जन-प्रतिरोध की तसवीरों को भी सहेजते हैं, उनको स्वर देते हैं। आदिवासी समूहों की तरफ भी उनकी दृष्टि है। जल-जंगल-जमीन की वाजिब लड़ाई तक उनकी गजल-यात्रा है। आवारा वित्तीय पूँजी के प्रसार और उसकी चहुंदिश घातक पहुँच और प्रभावों की तरफ भी उनकी दृष्टि है। हमारे आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने के साथ-साथ अर्जित लोकतांत्रिक-संवैधानिक मूल्य और हमारे लक्ष्य, हमारी अपेक्षाएँ सब डाँवाडोल हैं। किसानों और मजदूरों की हालत बद से बदतर है। उनकी जमीन उनसे छीन कर कारपोरेट-घरानों को दी जा रही है। रोजी-रोजगार के अवसर समाप्त किए जा रहे हैं। विकास की उल्टी गंगा बहाई जा रही है –

"यह रथ प्रगति का जा रहा किस ओर है मियाँ
अंधियारा सारे देश में घनघोर है मियाँ।"



काशी को क्योटो बनाने के नाम पर काशी की मूल आत्मा को ही क्षत-विक्षत किया जा रहा है। 2014 से भारतीय राजनीति में काशी और गंगा को काफी चर्चा में ला दिया गया है। साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए ऐसा किया जा रहा है। जनता की समस्याओं की तरफ नहीं, धार्मिक प्रतीकों के राजनीतिक इस्तेमाल और सत्ता की तरफ ज्यादा ध्यान है। काशी के गंगाघाटों पर हो रहे राजनीतिक रोशनीकरण भी गजल का विषय है

"कितने घरों में अब भी पहुँचा नहीं उजाला
घाटों को रोशनी से नहला रहे हो कब से।"

2014 के बाद की राजनीति के अमानवीय, लोकतंत्र और संविधान विरोधी कारपोरेटपरस्त फासिस्ट चरित्र और उसकी कारगुजारियों को ले कर वशिष्ठ अनूप ने काफी कुछ लिखा है –

"अभी आगाज है, कल क्या करेगा, नजर वालों को अंधा करेगा।
कमाई भी है, इज्जत भी बहुत है, कसाई धर्म का धंधा करेगा।
अभी पुरखों की थाती बेचता है, किसी दिन मुल्क का सौदा करेगा।
निशाने पर अहिंसा आ रही फिर, ये हिटलर गोडसे पैदा करेगा।
किसे है याद पहले क्या किया था, ये हर दिन एक नया वादा करेगा।"
  
                   

हमारी पीढ़ी को बचपन में जो बताया-समझाया गया था और जिसकी प्रतिध्वनियाँ आज भी कहीं न कहीं, किसी न किसी मोड़ पर हम में गूँजती रहती हैं वो है 'सादा जीवन उच्च विचार।' अब उसका बिल्कुल उलट पाठ पढ़ाया जा रहा है। सादगी को आउट ऑफ डेट करार दिया गया है और विचारों की उच्चता की जगह तिकड़म, झूठ, ठगी आदि ने ले ली है –

"इन दिनों सदियों सराही सादगी खतरे में है।"

अब तो हालात इस किस्म के हो चले हैं कि हमारी लोक सांस्कृतिक विरासतों के साथ-साथ नदी, पेड़, पहाड़ और 'प्यार में डूबी निश्छल हँसी', हुनर, भोलापन और आदमीयत सब साँसत में हैं। इन बातों को उनकी गजलें कई बार कहती हैं। जो जरूरी है कहना उसको अनूप कहे बगैर नहीं रहते। जो अच्छा लगता है उसको  कहते सुनना भी अच्छा लगता है। इसकी तो एक श्रृंखला दिखाई देती है। माँ के हाथों का खाना अच्छा लगना किसको अच्छा नहीं लगेगा। अपने बच्चों से किसी पिता अथवा गुरू की मनुष्योचित 'हार' को लहक कर लयबद्ध करना कोई वशिष्ठ अनूप से सीखे। दरअसल यह हार सुकूनदायी है। मुझे यहाँ भोजपुरी के कवि राम जियावन दास 'बावला' सहज ही याद आते हैं। हालाँकि, उनका थोड़ा भिन्न काव्य-संदर्भ है। उनकी एक कविता 'नमन बा' सीरीज में है जिसमें कही व्यंग्य है तो कई मानवीय करुणा और सहानुभूति। बावला ने 'डोली वाले पिछले कहार' को भी नमन किया है। वशिष्ठ जी की गजल में दिल से उठती धिक्कार भी सुनी गई है। गलत शर्तों पर झुक कर समझौता करने पर उठने वाली यह 'आत्म-धिक्कार' कम ही सुनाई देती है। यह आत्म-आलोचना है। और यहीं पर चट से कह देते हैं- "जुल्म से जब भी लड़ी तो जिंदगी अच्छी लगी।"  गजलों में नरम-नाजुक रोमांटिक मन-मिजाज को भी जस्टिफाई किया गया है –

"कुछ सकुचाना कुछ घबराना अच्छा लगता है
तेरा हँसना फिर शरमाना अच्छा लगता है।
        
                   

बाजारवाद, कारपोरेट लूट, राजनीति का भगवाकरण, मानवीय व लोकतांत्रिक मूल्य-मान्यताओं के तीव्र क्षरण, बढ़ते अपराध, दलित व महिला उत्पीड़न, कृषि क्षेत्र से किसानों का पलायन यह सब तो यहाँ है ही, इसके साथ-साथ प्राकृतिक संपदा की लूट की खुली छूट भी है और इन सबके विरोध में उठ रहे जन-प्रतिरोध के स्वर भी हैं। अनूप जी प्रतिरोध  के असंगठित और संगठित रूपों और स्वरों की तरफदारी करते हैं। यह अलग बात है फिर भी बहुत मतलब की है कि प्रतिरोध को संगठित करने की कोई टेकनीक यहाँ नहीं है। वजह स्पष्ट है कि वे उस मोर्चे के अनुभव के रचनाकार नहीं हैं। पर, प्रतिरोधकामी अवश्य हैं। यहाँ देखना यह होगा कि किस जमीन पर खड़ा हो कर प्रतिरोध को पहचान देते हैं। गजलों में तो कई बार 'प्रतिरोध' शब्द की आवृत्ति-पुनरावृत्ति भी हुई है। मुझे बार -बार महसूस हो रहा है कि यह सब वे घर-परिवार और रिश्ते-नातों को नकार कर नहीं करते हैं। पारिवारिक जीवन के चित्र गजलों में देखते ही बनते हैं। खटोले पर भतीजे का मचलना देखना हो तो इन गजलों से गुजरना होगा। इसे कुछ गजल या साहित्य-चिंतक नास्टेल्जिक कह सकते हैं। और ऐसा पहली बार तो नहीं कहा गया है। खटोला और भतीजा हो सकता है कुछ को पसंद न आए।
                                             



अपनी रचनाओं में प्रेम-मुहब्बत, मान-मनुहार, गाँव-समाज, पेड़-पौधों, फूलों, सूरज, चाँद, पशु-पक्षियों, तितलियों, भाभियों, दुल्हनों, बच्चों-बच्चियों, स्कूली बस्तों से दबे हुए बच्चों, बच्चे को पहली बार उड़ना सिखाती चिड़ियों, बेरोजगारी और जगहँसाई का दंश झेलते लाखों नौजवानों, अपमानित महिलाओं, नदियों, गिलहरियों, ऊँटों, गधों, खच्चरों, लोकगीतों और लोककथाओं की भूमि उनकी गजलों और गीतों की आधार भूमि है और उनको यकीन है कि यहीं से सत्ता-व्यवस्था को चुनौती दी जा सकती है। इन सबों के लिए ही संघर्ष जरूरी है-

"चलो कि दूब, घास, तितलियाँ बचा लें हम
शज़र बचेंगे तभी गुलसिताँ सुरक्षित है।
चलो कि ऊँट, गधे, खच्चरों की भी सोचें
ये सब रहेंगे तभी कारवाँ सुरक्षित है।"



       
आज की हालत ऐसी हो चली है कि आदमी की पहचान ही संकटग्रस्त हो चली है। आलीशान घर नहीं, महल और लग्जरियस जीवन-शैली ही व्यक्ति के बड़े होने की पहचान बनती जा रही है। मनुष्य छोटा होता जा रहा है –

"हजारों महल बनवा लो बहुत सी गाड़ियाँ ले लो
अगर किरदार बौना है तो खुद्दारी नहीं आती।"

'सदियों सराही सादगी' का यह एकदम उल्टा पाठ है। मुझे यहाँ थोड़ी-सी आपत्ति 'बौना' को ले कर है। शेर में जो बात है वो तो बहुत रेलेवेंट है पर, बौने जो इक्के-दुक्के हैं कहीं, उनके लिए कम से कम ऐसे प्रयोगों से बचना मनुष्यता के हक में होगा।
         

त्रिलोचन जी की एक कविता में तुलसी, कबीर और ग़ालिब आते हैं और ये उनके अपने हैं। ऐसा त्रिलोचन जी ने लिखा है। तुलसी से वे भाषा सीखते हैं और ग़ालिब की बोली उनकी (त्रिलोचन की) अपनी बोली है। विजेन्द्र अनिल एक भोजपुरी गजल में लिखते हैं -"हम कबीर के बानी हमरा पानी कहाँ मिली।" वशिष्ठ अनूप लिखते हैं  -

"तुलसी के, जायसी के, रसखान के वारिस हैं।

कविता में हम कबीर के ऐलान के वारिस हैं।"

एक शेर में मीरा, घनानंद और निराला का नाम लेते हैं। यह हिंदी-साहित्य की ऐतिहासिक सृजनशीलता और उसकी परम्परा की स्वीकृति के साथ-साथ उससे आत्म-संबद्धता की अभिव्यक्ति है। पर, यहाँ यह कहना भी जरूरी है कि वशिष्ठ जी यहाँ गालिब, मीर, नजीर का जिक्र नहीं कर रहे हैं। करते तो बात कुछ और ही हुई रहती। यहाँ यह भी समझना होगा कि यह हिंदी गजल को हिंदी-काव्य धारा के अंतर्गत उसकी प्रवहमानता में एक काव्य-रूप की स्वीकृति से भी संदर्भित है।




                
वशिष्ठ अनूप की कई गजलें ऐसी हैं जो एक ही विषय को ले कर चलती हैं और आरम्भ से अंत तक परस्पर सम्बद्ध दिखती हैं। बहुत सी गजलें अलग-अलग शेरों में भिन्न-भिन्न बातों को ले कर हैं पर अपने पूरे रचाव में वे किसी एक ही मूल बात या चिंता और चिंतन को सम्बोधित हैं। बहुत-सी ऐसी भी हैं जो हिंदी -दोहा की तरह अपने आप में ही पूर्ण और स्वतंत्र हैं। कई बार तो गजलों में लोकगीतों की गूँज भी सुनी जा सकती है। इसका एक कारण यह है कि वे गीत भी रचते हैं।

           
  
                               

(2)
     

ख्वाब पर खौफ की चौकसी ना रहे...


मुझे तो गीत और गजल को लेकर विधागत उलझन कभी नहीं रही। यह एक वास्तविकता भी है कि दोनों को गाने और सुनने से मतलब होता है। गजल के लिए गाने की जगह 'कहना' कहा जाता है। लेकिन, यह कहना जिस तरह होता है वह गाना ही है। जिसे हम आम जनता या आम रसिक या श्रोता कहते हैं उसका संबंध उस बात से ज्यादा होता है, जो गीत या गजल में कही जाती है। वह भक्ति हो, प्रेम हो या प्रतिरोध या कुछ भी। उसमें विरह हो या संयोग या विस्थापन की पीड़ा। उसको तो इससे लेना-देना होता है। अब रही बात उसके रचना-विधान या शिल्प की, तो ध्यातव्य है कि रचना का शिल्प रचना में न दिखे अलग से, यह सबसे अच्छी बात होती है। लोकगीतों में ऐसा ज्यादातर सहज ही देखने को मिलता है। अवधी का वह 'हिरनी' वाला गीत एक श्रेष्ठ उदाहरण है। हिंदी और भोजपुरी में भी ऐसे अनेक गीत हैं। नवगीत के बाद हिंदी में 'जनगीत' का दौर शुरू होता है। शलभ श्रीराम सिंह, गोरख पांडेय, विजेन्द्र अनिल, केशव रत्नम, बली सिंह चीमा, जमुई खां आजाद, नचिकेता, शिव कुमार पराग जैसे अनेक जनगीतकार हुए जिनके गीतों में आम जनता के जीवन के सुख-दुख, आशा-निराशा और उनके संघर्षों की विश्वसनीय अभिव्यक्तियाँ हैं। यह सूची लम्बी है। उल्लेखनीय है कि वशिष्ठ अनूप के गीत भी इसी भाव-भूमि के हैं। हिंदी की जनगीत-धारा को उनके गीत समृद्ध करते हैं।
           


वशिष्ठ अनूप संघर्ष की राह चुनने की वजहों को गीत का विषय बनाते हैं। ये वजहें बहुत वाजिब हैं। किसी भी देश और किसी भी भाषा के कविता-गीत में उस देश और उस भाषा से संबंधित जनता के जीवन की, समाज की बातें ही होती हैं। समाज में व्याप्त असमानता, गरीबी और शोषण-उत्पीड़न और उससे उत्पन्न हालातों और हासिल अनुभवों को भी, अन्य अनुभवों की तरह गीत बहुत सघन और प्रभावी रूप में अभिव्यक्त करता है। वशिष्ठ अनूप के एक गीत में संघर्ष की राह चुनने की वजहों की एक लिस्ट है और वे वजहें इस किस्म की हैं कि कोई जो लोकतांत्रिक मिजाज का होगा वो असहमत भला कैसे होगा। वे उस गीत में संघर्ष की राह चुनने की अपील की मुद्रा में हैं। इस अपील के साथ जिन वजहों का उल्लेख करते हैं वे जीवनसंगत हैं, न्यायसंगत हैं। वे 'ख्वाब पर खौफ की चौकसी ना रहे" जैसी बात सामने ले आते हैं। यह पंक्ति जिस गीत की है उसको गुनगुनाते वक्त गोरख पांडेय का गीत 'हमारे वतन की नई जिंदगी हो' गूँजने लगता है। इस गीत में वे किसानों, मजदूरों, नौजवानों, बच्चो, महिलाओं सबकी आजादी की बात करते हैं। गजल रचने के क्रम में वे 'अच्छा लगता है'/ 'अच्छी लगती है' वाली गजल-श्रृंखला पेश करते हैं। गीत में भी वे 'तो अच्छा होतालिखते हैं। यहाँ हम देखें कि क्या अच्छा होता –

"प्यार-मोहब्बत, अमन-चैन की
फिर टूटी आशा
तानाशाह समझता है
बन्दूकों की भाषा।
बातचीत से राह निकलती
तो अच्छा होता।"

यह गीत (बन्दूकों की भाषा) आगरा में भारत के तत्कालीन पी. एम. अटल बिहारी वाजपेयी और पाकिस्तान के परवेज मुशर्रफ की वार्ता असफल होने के बाद का  है। आगे की पँक्तियाँ हैं –

"अविश्वास की बर्फ पिघलती
तो अच्छा होता
फिर न कहीं बस्तियाँ उजड़तीं
तो अच्छा होता
फिर न कहीं सेनाएँ सजतीं
तो अच्छा होता।" 



इस गीत में युद्ध के मानव-द्रोही परिणामों का भी वर्णन है। समकालीन हिंदी-गीत का यह युद्ध-विरोधी पक्ष है। एक गीत में एक बार फिर लड़ने का संकल्प गूँजता है। एक बार फिर उसी तरह से जैसे 'लड़े थे पहले फिरंगियों से'। एक तरफ गीतकार हक-अधिकारों के वास्ते संघर्ष की राह अपनाने का हिमायती है और दूसरी तरफ दो देशों के बीच के युद्धों का समाधान बातचीत से करने का। हम समझ सकते हैं कि दोनों दो भिन्न संदर्भ हैं। आजाद देश की जनता की खुशहाली अगर शासकवर्गीय बदनीयती और कुचक्रों की शिकार हो जाए तो जनता को एकजुट हो आगे आना जरूरी हो जाता है। दूसरी ओर, कभी-कभी क्या, अक्सर ऐसा देखा गया है कि दो देशों के बीच  युद्ध अथवा युद्ध के हालात सरकारों के राजनीतिक कुचक्र ही होते हैं। आम जनता के जीवन के बुनियादी सवालों के समाधान में या इस जैसे अन्य मामलों में अपनी असफलताओं पर जनता के प्रश्नों को दूसरी तरफ शिफ्ट करने में सरकारें इन युद्धों के जरिए कामयाब होती रही हैं। इसलिए भी, ये युद्ध आमजन और आमजीवन के हित मे नहीं होते।
                         


इन दिनों अगर कोई देश के आम अवाम की बदहाल माली हालत पर बात करता है तो बड़ा खतरा है उसके ऊपर। केंद्र और राज्यों की सरकारें और सरकार समर्थक कई संगठन, समुदाय और समर्थक (भीड़) बहुत कुछ इल्जाम मढ़ दे रहे हैं। इसको देश-निंदा करार दे राष्ट्रद्रोही तक कह दे रहे हैं। अनूप जी का एक गीत है- "उस देश का माथा कैसे ऊँचा हो सकता"। जिस देश के बच्चों को भूखा-प्यासा सोना पड़े (सोना क्या, भात-भात करते मरना पड़े), किसान गरीब-लाचार हों, अदालतें धनवानों की सुनती हों, बुनकर भूखे-नंगे रहने को विवश हों, बच्चियों और औरतों के ऊपर जुल्म ढाये जाते हों; उस देश का माथा कैसे ऊँचा हो सकता है। देश के भीतर की इन समस्याओं को गीतों में ढालते हैं और एक तरह से आज की तारीख में यह काम जोखिम भरा है। वे एक कजरी भी लिखते हैं। पारम्परिक कजरी सावन में गाई जाती है। पर, यह एक राजनीतिक कजरी है। इसे जनकजरी भी कहें तो कोई हर्ज नहीं। इसमें भी देश की जनता की बदहाली को स्वर दिया गया है –

"सारी जिंदगी हमारी तार-तार हुई
रद्दी अखबार हुई ना।
कैसा आया है सुराज
नहीं मिलता काम-काज
सब पढ़ाई और लिखाई है बेकार हुई
रद्दी अखबार हुई ना।"

आगे देखिए-

"जब भी उठती हक की बोली
हम पे चलती लाठी-गोली
हम गरीबों की है बैरी सरकार हुई।"

इस कजरी में भी हक़ के खातिर लड़ने का संकल्प है। वे महँगाई पर 2016 में एक गीत लिखते हैं- 'अजब महँगाई बढ़ी है'
         


कुछ गीत तो कई अन्य मानवीय भावों और मूल्यों वाले हैं। प्यार-मनुहार भरी गुफ़्तगू भी कम नही है। अपने प्रियजनों से कुछ निवेदन भी। किसी के लिए पुकार भी है। फूलों पर इतराती शोख तितलियों और फुदक-फुदक गाती रहने वाली चिड़ियों के गायब होते जाने की व्यथा भी है। बहुत सारी स्मृतियाँ भी गीतों में ढली हैं। यहाँ सब पर बात करना सम्भव नहीं है। हाँ, यह कहना जरूरी है कि वशिष्ठ अनूप के गीत व्यापक मानवीय भावों और सरोकारों के हैं। वरिष्ठ गीत-गजलकार और इन विधाओं के मर्मज्ञ नचिकेता के संपादन में प्रकाशित गीतकोश में वशिष्ठ जी के भी कुछ गीत हैं। इस कोश में नचिकेता की एक वृहद गम्भीर भूमिका है। हिंदी के गीत, नवगीत, जनगीत के ऐतिहासिक विकास-क्रम, पृष्ठभूमि और आलोचनात्मक मानदंडों को समझने के लिए यह एक जरूरी ग्रंथ है।

बलभद्र




सम्पर्क



मोबाईल : 08127291103

टिप्पणियाँ

  1. बहुत शानदार लेख है चाचा जी पढ़ कर बहुत अच्छा लगा | इस लेख के माध्यम से आपके और दूसरे किताबों के बारे में भी जानने का मौका मिला |

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत संतुलित समीक्षा लिखी है बलभद्र ने। उन्हें बधाई और आपको भी।

    जवाब देंहटाएं
  3. आप के द्वारा लिखित गीतों, गजलों का बहुत सुंदर मूल्यांकन एवं समीक्षा।

    जवाब देंहटाएं
  4. शानदार ।बलभद्र जी को इस अद्भुत आलेख के लिए हार्दिक बधाई । वाकई वशिष्ठ अनूप जी की रचनाएँ ऐसी ही होती हैं कि आप लिखें तो बस लिखते चले जाएँ ।

    जवाब देंहटाएं
  5. Very fine article, Many congratulations Balbhadraji, Good morning

    जवाब देंहटाएं
  6. सीमाएँ कभी-कभी टूटती हैं, चमत्कार कभी-कभी होता है ।वशिष्ठ अनूप के काव्य-कोश में लगभग वह सबकुछ है, जो महाकवि व्यास की वाणी में था ।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'