उमाशंकर सिंह परमार का आलेख 'महेन्द्र भटनागर का जाना एक युग का जाना है'।

महेन्द्र भटनागर


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बीते 27 अप्रैल 2020 को कवि कथाकार महेन्द्र भटनागर का निधन हो गया। एक लम्बे समय तक वे रचनात्मक रूप से सक्रिय रहे। यह अलग बात है कि उनकी नोटिस जिस तरह ली जानी चाहिए थी, वैसी नहीं ली गयी। आलोचकों की सूचियों से वे प्रायः अलग ही रहे। महेन्द्र भटनागर को श्रद्धाजंलि देते हुए आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार का आलेख 'महेन्द्र भटनागर का जाना एक युग का जाना है'


महेन्द्र भटनागर का जाना एक युग का जाना है

उमाशंकर सिंह परमार


27 अप्रैल की 2020 रात 2 बजे सुबह वरिष्ठ़ गीतकार महेन्द्र भटनागर के छोटे पुत्र सुशील जी का फोन आया कि दादा महेन्द्र भटनागर जी अब नहीं रहे। रात में एक बज कर तीस मिनट पर उन्होंने अन्तिम साँस ली। तीन दिन से वे वेन्टिलेटर पर थे। झाँसी में  26 जून 1926 को जन्मे भटनागर जी का कर्म-क्षेत्र ग्वालियर रहा। इस समय बलवन्त नगर, गाँधी रोड ग्वालियर में रह रहे थे। लगभग 94 वर्ष के कवि महेंद्र जी मेरे अज़ीज मित्र ही नहीं, मेरे शुभचिन्तक भी थे। लाकडाऊन के कारण मैं और उनके  रचना समग्र के प्रकाशक अनिल तिवारी  ग्वालियर नहीं जा पाये। दादा यही कहते रहे उमा अब मेरी सान्ध्य वेला है, एक बार तुम्हे देखने की इच्छा है। दीपक हूँ किसी भी समय बुझ सकता हूँ।


वर्ष 2018 के मानबहादुर सिंह लहक सम्मान से सम्मानित यह कवि शुरुआती दौर में छायावादी वैयक्तिकता के भाव से बेतरह प्रभावित था। तारों के गीत, विहान, ‘अन्तराल लिख कर चर्चा में आये थे। तत्कालीन आलोचकों हजारी प्रसाद द्विवेदी, डा. नागेन्द्र,  सुमित्रा नन्दन पन्त, हरिवंश राय बच्चन, रामधारी सिंह दिनकर, शिव कुमार मिश्र, रामविलास शर्मा, विश्वम्भर मानव जैसे आलोचकों ने इन पर लिखा। महेंद्र भटनागर ग्वालियर मे ही पढे और वहीं पर रहे। पूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी बाजपेयी से पढाई के दौरान मित्रता रही। बाद में दोनो के वैचारिक पथ अलग हो गये। भटनागर जी का दूसरा पडाव प्रगतिवाद था जिस आन्दोलन मे रहते हुए जनवादी गीत अभियान, ‘टूटती श्रंखलायें, बदलता युग, जिजीविषा, नयी चेतना जैसे उनके गीत संग्रह सामने आए। प्रलेस के विभाजन के बाद वे जलेस मे चले आए और उस दौर में अंग्रेजी साहित्य और आलोचना विषयों पर किताबें लिखीं। मुंशी प्रेमचन्द पर उनकी आलोचना कृति बेहद प्रसिद्ध रही। मधुरिमा और जूझते हुए उनके गीत संग्रह थे । 2010 तक वे निरन्तर लिखते रहे और इसके बाद बीमारी ने उन्हें घेर लिया। घर मे रहते हुए 2018 तक तक लिखते-पढते रहे। उनका कहीं आना-जाना 2010 से ही बन्द था। लिहाजा लेखक संगठन की सदस्य सूचियों मे उनका नाम भी नहीं पढ़ने को मिला। वह खुद कन्फर्म नहीं थे कि मैं लेखक संगठन में हूँ कि नहीं हूँ। मेरा भटनागर जी से परिचय 2013 में हुआ था। उन्होंने मेरा एक लम्बा आलेख जो कैलास गौतम जी पर था, उसे पढ कर उन्होंने फोन किया था। मैं नाम से परिचित था मगर संवाद की शुरुआत 2013 से आरम्भ हुई। संवादों के सिलसिले इतने बढ गये कि लगभग हर रोज कम से कम दो बार बगैर किसी कारण के भी बात होती थी।


निरन्तर सम्वादों के मध्य उनकी किताबों का भी आना जाना लगा रहा। मेरे पास उनकी कविताओं का सबसे बडा संग्रह कविता गंगा आया। यह संग्रह सात खण्ड में था और काफी अव्यवस्थित भी था। महेन्द्र भटनागर की उत्तरवर्ती कवितायें भी इसमें नहीं थी। मैंने कविता गंगा और बाद की नयी कविताओं में दो सौ कविताओं का चयन कर 2017 में लम्बी लगभग 100 पेज की भूमिका के साथ "कविता पथ" का सम्पादन किया था। इस वर्ष उनकी रचनावली का सम्पादन और प्रकाशन हो चुका है जो कुल छः खण्डों में है। इस रचनावली को माया प्रकाशन, कानपुर ने प्रकाशित किया है। अभी-अभी उनके साक्षात्कार और उनके पत्रों का संपादन पूरा किया है। लाकडाऊन खत्म होते ही यह माया प्रकाशन से प्रकाशित होगा जो रचनावली का सातवाँ खण्ड होगा। इधर साल भर से उनके रचना समग्र के संपादन पर काम कर रहा था तो उनसे बातचीत का सिलसिला और समय दोनों बढ़ गया था। पाठ निर्धारण और रचनाक्रम पर उनसे सलाह लेता रहता था। मानबहादुर सिंह लहक सम्मान के दो तीन साल पहले उन्होंने मुझे अपनी समस्त किताबें दे दी थीं। सम्मान दे कर जब मैं और पी के भाई लौट रहे थे तब उन्होंने अपने पुराने कविता संग्रहों, सम्पादित किताबों और उन सभी किताबों और आलेख, जो उन पर लिखे गये थे, जो उनके पास शेष थीं, मुझे देते हुए कहा था कि मेरे लिखे पर तुम्हारा अधिकार है उमा, मैं तो खत्म हो गया। मैंने देखा कि सन् 1950 से वर्ष 1970 तक भटनागर जी पर बडे लोगों ने लिखा। और उस समय के साहित्य इतिहासों में नये कवि के रूप में उनका नाम था। विश्वम्भर मानव इलाहाबाद के थे। उन्होंने दो भागों में हिन्दी साहित्य का सर्वेक्षण लिखा था। उसमें उन्होंने भटनागर जी को गीत परम्परा मे वाजिब जगह दी थी। डा. मोहन अवस्थी ने भी उनकी चर्चा की थी। सत्तर के दशक तक भटनागर जी की उस समय के दिग्गज लेखकों ने चर्चा की और उन पर लिखा भी। मगर अस्सी के दशक और और उसके बाद डा. शिव कुमार मिश्र को छोड़ कर किसी भी बडे आलोचक ने उनको याद तक नहीं किया।


शिव कुमार मिश्र भटनागर जी को केदार, नागार्जुन, त्रिलोचन और शील की परम्परा में रखते थे। मैंने देखा दिल्ली में अजय तिवारी, मैनेजर पाण्डेय, सुधीश पचौरी, पुरुषोत्तम अग्रवाल, मंगलेश डबराल, राजेश जोशीविष्णु खरेकेदार नाथ सिंह, नामवर सिंह, शम्भु नाथ, विजय बहादुर सिंह, अशोक बाजपेयी मतलब पूरी की पूरी आलोचक पीढी ने भटनागर पर कभी भी एक शब्द नहीं लिखा। यहाँ तक कि उनके लेखक संगठनों में भी उन्हें कभी याद नहीं किया जबकि वह चाहते तो अटल बिहारी बाजपेयी से मित्रता थी, वह संघ की तरफ़ जा सकते थे। मगर नहीं गये। इस बात की वह चर्चा करते थे, उनको पीडा थी। मैं अभी जिन्दा हूँ, लोग शायद नहीं जानते होंगे। महेन्द्र भटनागर अकेले नहीं हैऐसे लेखकों की बडी लम्बी लिस्ट है, जिन्हें परम्परा से अपदस्थ किया। चर्चा न हो, इसकी साजिश की गयी। अपने पुरखों के विस्थापन के गहरे अवसाद मे ढकेल दिया गया। भटनागर का लेखन उत्तरछायावादी दौर से प्रारम्भ हुआ और 2010  तक चला। लगभग सत्तर साल का रचनात्मक जीवन उन्होंने जिया। 


छायावादी भाव-चेतना के उपरान्त हिन्दी कविता का विस्तार किस कोटि का हुआ तथा छायावादी भावुकता, काल्पनिकता एवम प्रकृति का मानवीयकरण हिन्दी कविता को कब तक प्रभावित करता रहा, महेन्द्र भटनागर की शुरुआती रचनायें इसका साक्ष्य हैं। इन गीतों में प्रकृति की चेतन उपस्थिति तथा प्रकृति का आत्मसातीकरण, मानवीयकरण सूक्ष्म भावानुभूतियाँ तत्कालीन युग की स्वच्छन्दतावादी धारा को परिपुष्ट करती है। यह काव्य प्रवृत्ति हमें छायावाद से ही देखने को मिल रही थी। इन गीतों में यह बताया गया है कि बीसवीं सदी की हिन्दी कविता किन स्रोतों से अपनी ऊर्जा अर्जित कर रही थी एवं उनका ताल्लुक मनुष्य की रागात्मक वृत्ति से था। कविता के आभिजात्य व युगीन पौराणिक प्रतिमानों का बदलाव करते हुए महेन्द्र ने अपने युग में प्रकृति और मनुष्य के भावात्मक सम्बन्धों को काव्य की नयी वस्तु बनाया और अपने इलाके की धरती, पेड, पौधे, हरियाली, रात, चाँदनी, तारे, पपीहा, पशु, पक्षी सबको अपनी कविता में स्थापित कर मानवीय एवं चेतन सरोकारों से गीतों को युक्त किया।


महेन्द्र भटनागर का दूसरा पडाव रचनात्मक तौर प्रयोगवादी दौर की कविताओं का काल खण्ड है। प्रगति और प्रयोग का सन्तुलन समझते हुए वह इस दौर की कविताओं में जन-संघर्ष और आत्म-संघर्ष की दो भिन्न परिस्थितियों से मुठभेड करते दिखाई दे रहे हैं। यह आत्म-संघर्ष उनकी कविताओं मे दुखवादी नहीं है, न ही अस्तित्ववादी है। बल्कि जमीनी परिस्थिति व लोक से आत्मीयता के कारण यहाँ वैयक्तिकता भी सार्वजनिकता में तब्दील होते दिख रही है। पीडा बोध का आधार जन है और इस बोध का रचनात्मक विस्तार वास्तविक जीवन है। प्रयोगवादी फार्मेट को प्रगतिशील रचनात्मकता से जोड़ कर महेन्द्र ने इस युग की दो परस्पर विपरीत धाराओं का समन्वय किया और दोनो धाराओं की सीमाओं का बोध भी कराया है। इस समय की कविताएँ चूँकि प्रगति प्रयोग के संक्रमण की कविताएँ हैं इसलिए कलात्मक अनुप्रयोग भी खूब हैं। व्यंजना, अभिव्यंजना, तनाव, अवसाद, अनुभूति की तरलता और मनुष्य को प्रकृति की सबसे छोटी इकाई मान कर लघुतम मानव की प्रतिष्ठा करने वाले गीतों का सुन्दर प्रवाह इस दौर की कविताओं में देखा जा सकता है। कविताओं की लय और गति में कवि की साँसों का ताप और और उनके जीवन को बडी शिद्दत महसूस किया जा सकता है। यहाँ समय की प्रतिहिंसक मुद्राएँ और इन मुद्राओं के विरुद्ध कवि की उभरती नसों और रक्त का आवेग भी चिन्हित किया जा सकता है। यह दौर छायावादी चेतना के अवसान तथा जनवाद की दस्तक का समय था।


मूर्त बिम्ब और संवेदन का सम्मिलन महेन्द्र की कविताओं में है ही, साथ ही हम देखते हैं कि सत्तर के दशक में यह कवि काल्पनिकता और भावुकता की टीस को छोड कर सहानुभूति तथा संवेदन की तरफ़ बढ रहा है। वह वैयक्तिकता की जगह निजता और व्यक्ति की जगह सामूहिकता का प्रतिपादन कर रहा है। निजता और सामूहिकता का यह समावेश उस युग की काव्यात्मक परिणिति थी जिसका निर्वहन महेन्द्र कर रहे थे। यहाँ कवि की भाषा भी पोयटिक भाषा की बजाय लोक-भाषा हो गयी है। एक ऐसी भाषा जो संघर्षशील लोक की आमफहम भाषा है। क्रिया व्यवहार की भाषा है। वह भाषा जो समूह और अस्मिताओं की जीवन-भाषा है। ऐसी भाषा प्रगतिशील मूल्यों की तथा काव्य सैद्धांतिकी की भाषा होती है। इन कविताओं में दर्ज अन्तर-पीडा वैयक्तिकता की सीमाओं को तोड़ कर सामूहिकता का प्रतिसंसार रचती प्रतीत होती है। तथा कवि जीवन के प्रति अपनी आत्मीयता का विस्तार करता हुआ जीवन के समक्ष व्याप्त खतरों से रचनात्मक आत्म-संघर्ष करता दिखाई देता है। वह एक भाषा की खोज कर रहा है एक ऐसी भाषा जिससे समाज को संकटों की तरफ़ ले जानी वाली बर्बर शक्तियों का मुकम्मल जवाब दे सके। यही कारण है वह जागरण गीत और अन्धेरे का बार-बार उल्लेख करते हैं तथा अन्धेरे के विरुद्ध संघर्ष का विगुल फूँक कर भी अपनी असमर्थता का काव्यात्मक विधान करते हैं। महेन्द्र भटनागर की बाद की कविताओं में खास बात यह कि जिस प्रगतिवाद और प्रति्वाद की भाषा को भारतीय वामपंथ स्वीकार करता रहा है ये कवितायें  उस प्रतिवाद का विधान और विस्तार हैं। साठ सत्तर के दशक मेँ जब कविता पुराने फार्मेट को छोड़ प्रतिरोधी नारेबाजी में उलझ कर गद्य की तरफ़ बडी तेजी से कदम बढा रही थी उस दौर मे कविता को मानवीय और वैयक्तिक जीवन से जोड कर तमाम वस्तु विधानों - जागतिक सत्यता, निरन्तरता और मनुष्य का मनुष्य के प्रति लगाव व समर्पण का विस्तारित परिवेश उकेरने का काम महेन्द्र भटनागर के इन गीतों ने किया। यही कारण है वह एक बार पुनः अपने पुरानेपन की तरफ़ लौटते हैं और कविता की जमीन को अतीत से जोड़ कर वर्तमान तक आशाओं और विश्वासोँ का त्यागमयी प्रतिसंसार रचते हैं। ऐसी कविताएँ उस दौर की कविताएं थी, सहसा कोई विश्वास नहीं करेगा लेकिन महेन्द्र भटनागर ने लिखा यह सच है। वामपंथी सौन्दर्यशास्त्र में जीवन के सुन्दरतम पक्ष के निषेध के कारण ही कविता शुष्कता की ओर बढी। लगभग सभी कवि इस शुष्कता को पोषित कर रहे थे ऐसे समय मे महेन्द्र जैसे रचनाकार का कविता के पक्ष में कविता को बचाने के लिए मानवीय सम्बन्धों और आत्मीयता का सघन विस्तार करना वाम सौन्दर्यशास्त्र के आलोचकीय मूल्यों की चुनौती थी। इस चुनौती को महेन्द्र ने अपने जीवन भर ढोया और इसी पथ पर अनवरत चलते रहे।


अविश्वास के अतार्किक ढाँचे का प्रतिवाद यथार्थ के तार्किक विधान से ही सम्भव है और महेन्द्र ने इसे सम्भव कर दिखाया। कुल मिला कर कहा जाए तो बाद की इन कविताओं की सृष्टि पूरी तरह जनवादी है। नब्बे के दशक और उसके बाद तक भटनागर जी जनवादी गीत लिखते रहे। इसी दौर मे भारतीय राजनीति, समाज व अर्थनीति में व्यापक बदलाव भी हुए जिनका प्रभाव भटनागर के गीतों पर भी देखा जा सकता है। संवर्त संकल्प और जूझते हुए कविता संग्रहों का दौर  मोहभंग व अनास्था का दौर था। यही कारण है महेन्द्र इन कविताओं में युद्धक भंगिमा के साथ अपना रचनात्मक विस्तार करते हैं। वह समाज में परिव्याप्त अनाचार, दुराचार, शोषण तथा लूट के खिलाफ और हक तथा अधिकार की लडाई लडने वाले समुदायों के पक्ष में खुले तौर पर खड़े होते हैं। पूँजीवादी तन्त्र और लोकतन्त्र में काबिज बुर्जुवा वर्ग का सन्तुलित प्रतिरोध और समाज के प्रति तार्किक नजरिया अपना कर सत्ता के प्रतिरोध का विधान करते हैं। महेन्द्र भटनागर की कविताओं का सच यही है कि वह जिन्दगी के तापमान को महसूस करती हैं। यहाँ दमित अस्मिताओं के ज्वलनशील अंगार भी हैं और जनशक्ति पर अपराजेय आस्था भी। आस्था और अनास्था दोनो का द्वन्दात्मक संघर्ष है और अन्त मे आस्था की विजय इन कविताओं को ठेठ समकालीनता के रचनात्मक खतरों के बरक्स लोकधर्मी जमीन में खडा करती है। जनवादी कविता में ये कविताएँ कितना जोड़ती हैं,  कितना घटाती हैं, इसका हिसाब किताब मैं नहीं जानता लेकिन यह जरूर जानता हूँ कि महेन्द्र  द्वारा अपने आस-पास जो देखा महसूस किया गया,  जितना कुछ घटित हुआ, वह सब इन कविताओं में हूबहू दर्ज है। यही कारण है कि उनकी हर एक कविता अपने एक पृथक पाठ की माँग करती है। सपाट कथन खूब हैं लेकिन तंज इन बयानों को नारेबाजी नहीं बनने देता है। बिम्ब भी हैं और उनके तमाम आसबाब भी हैं लेकिन सब मूर्त हैं। अमूर्तन क्लिष्टता और अस्पष्टता गूढार्थ का किसी भी कविता नामोनिशान नहीं है। कविताएँ ऐसी हैं  मानो पाठक से बतिया रही हैं। सहजता सरलता, भाषा का रचाव और मानवीय सरोकारों की स्पष्ट पक्षधरता शब्दों के गाम्भीर्य व अर्थ-गौरव को साफ़-साफ़ कह देते हैं और पाठक अपनी तारतम्यता नहीं खोता। क्योंकि इनमें एक तरफ बुर्जुवा वर्ग द्वारा दमित शोषित जनता के प्रति भावुक सहानुभूति है तो दूसरी तरफ़ जनशक्ति में प्रबल आस्था है जो वर्चस्ववाद को तोड़ने की प्रबल हिमायत करता है। पाठक दोनो भाव स्थितियों से गुजरते हुए किसी न किसी निष्कर्ष तक स्वतः पहुँच जाता है। क्योंकि यहाँ गरीब आदमी से जोडने वाला दर्द भरा अहसास है और मार्क्सवादी चिन्तन-धारा की परिवर्तनकारी आस्था भी है। गीतों की शब्दावली में कवि की रचनात्मक मुठभेड और उसके अन्तर्संघर्ष की प्रतिच्छाया दिखाई दे जाती है। और सबसे बडी बात यह है कि इन कविताओं के कवि ने अपने बोध के अनुरुप अप्रस्तुत विधानों की एक श्रंखला भी तैयार की जो समय  के अनुसार इनकी उपादेयता प्रासांगिकता और गम्भीरता को विवेचित करते हैं। सन 2000 से ले कर 2010 तक की कविताओं में दर्ज भाव और बोध ऐसे व्यक्ति का भाव बोध है जो जीवन संग्राम की अन्तिम वेला में मृत्यु की उत्सुक प्रतीक्षा कर रहा है। यह प्रतीक्षा ऊब खीज और पराजय बोध की प्रतीक्षा नहीं है, अपितु जीवन के प्रबोध की प्रतीक्षा है। वह धरती को खूबसूरत देखते हुए इस संसार को छोड़ना चाहता है। वह चाँद और तारों, प्रकृति और जन को उनके समूचे सौन्दर्य के साथ भावी पीढी को सौंपना चाहता है। यहाँ मृत्युबोध या मुमुक्षा की आवना अपने अस्तित्व के बचाने की जद्दोजेहद से रहित है मगर जीवन की खूबसूरत भंगिमाओं को बचाए रखने की अपील जरूर करती है। कवि की यह प्रतीक्षा और असमर्थता उसे जीवन के प्रति उदार बनाती है। वह अपनी उदारता के साथ अपने आपको जन के प्रति समर्पित करता है। यह समर्पण निराला की आत्महंता आस्था जैसा त्याग है।


महेन्द्र भटनागर जीवन के उस मोड़ पर खडे दिखायी पडते हैं, जहाँ से उनका अतीत दिखाई देता है। यह अतीत धूमिल नहीं है बल्कि आनुभविक रूप में चटखदार है। इस अतीत बोध की परिणिति कभी भी आत्मघात मे नहीं होती बल्कि पुनः निर्मिति में होती है। यही कारण है वह मृत्यु बोध को नवजीवन का द्वार कह कर तनिक भी आतंकित नहीं होते बल्कि अपनी पूरी ऊर्जा त्याग और समर्पण के साथ स्वयं को सौंपने का आवाहन करते हैं। उनकी आखिरी कविताएँ महेन्द्र की जीवनधर्मी आस्था का दिपदिपाता प्रमाण है कि वह  जीवन के आखिरी क्षणों में भी मनुष्य की कुरुपता का विनाश और प्रकृति की सुन्दरता का विकास देखते हुए धरती को और सुन्दर बनाने के लिए आत्मसमर्पण करने की मुद्रा में दिखाई देते हैं।

महेन्द्र भटनागर के साथ उमाशंकर सिंह परमार

अब भटनागर जी हमारे बीच नहीं हैं। उनका जाना हिन्दी के उस युग का जाना है जिसे हमारी पीढी और आने पीढी इतिहास कहेगी। मुझे गर्व है मै उनका प्रिय रहा। मुझे स्नेह दिया और अपने समूचे रचना कर्म की पुरानी किताबों को मुझे सौंपते हुए कहा था उमा अब यह तुम्हारा हैमैं तुम्हारा हूँ। मेरा कोई ठिकाना नहीं है। वह जीते जी वह इतिहास थे। बीते 22 अप्रेल को उनसे मेरा संवाद हुआ उनकी आवाज बदल चुकी थी। उनको बोलने मे तकलीफ़ हो गयी थी। वह अचल थे ही, आवाज और साँसों ने भी 27 अप्रेल 2020 को अंतत उनका साथ छोड दिया। 
  

 
उमाशंकर सिंह परमार



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