चैतन्य नागर का आलेख 'प्रकृति के प्रति मेत्ता भावना'।


चैतन्य नागर

समूचे ब्रह्माण्ड में यह पृथिवी अपनी अनूठी प्रकृति, जल और जीवन के कारण विशिष्ट है। यह प्रकृति इतनी सन्तुलित है कि यहाँ एक तृण भी अधिक नहीं। सबकी अपनी विशिष्ट पहचान है और सबकी अपनी एक अलग भूमिका है। इसमें कोई दो राय नहीं कि मनुष्य इस सृष्टि में सर्वाधिक बुद्धिमान प्राणी है और इस नाते वह अपने को सबसे ऊपर समझता है। इसी क्रम में वह अनजाने ही उस राह पर चल पड़ा है जिसमें किसी भी जीव जन्तु, पेड़ पौधे को नष्ट कर डालता है। इससे पृथिवी की जो जैविक संरचना है वह असंतुलित होती जा रही है। यह मानव अस्तित्व के साथ साथ समूची पृथिवी के लिए घातक है। सबके बीच समन्वय आवश्यक है' जिसे सहजीविता का नाम भी दिया जाता है। चैतन्य नागर ने अपने आलेख में इसको विश्लेषित करने का प्रयास किया है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है चैतन्य नागर का आलेख 'प्रकृति के प्रति मेत्ता भावना'

प्रकृति के प्रति मेत्ता भावना
 

चैतन्य नागर 



करोना वायरस के कारण फ़ैली महामारी ने करीब करीब पूरी मानवता को अपनी चपेट में ले लिया है। कई लोग सोचते हैं कि प्रकृति के साथ हमारे उपयोगितावादी सम्बन्ध भी इस तरह के संकट के लिए ज़िम्मेदार हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि इस महामारी से उबर कर आने वाला इंसान क्या प्रकृति के साथ अपने संबंधों का अवलोकन करेगा और उनमे गुणात्मक परिवर्तन की सम्भावना पर विचार करेगा, या फिर प्रकृति के प्रति उसकी क्रूरता, संवेदनहीनता पहले जैसी ही बनी रहेगी।     



मित्रता के भाव में लिए बुद्ध ने मेत्ता शब्द का प्रयोग किया। मेत्ता भावना में सजग प्रेम, मैत्री और स्नेह शामिल होता है। उन्होंने हमेशा अपने शिष्यों से कहा कि वे सभी जीवधारियों के प्रति मेत्ता का भाव रखें। बुद्ध को मैत्रेय भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है मित्र, कि गुरु या पैगम्बर। मित्रता के भाव में अहिंसा और प्रेम भी शामिल है। इसमें करुणा का भी गहरा स्पर्श है। हम कभी भी उनकी हानि करना नहीं चाहते जो हमारे मित्र होते हैं। ही उनका अपमान करते हैं ही उनके साथ कोई लेन-देन का सम्बन्ध रखते हैं। लेन देन रहा भी, तो वह गौण होता है। बिना संकोच कहा जा सकता है कि  मित्रता का सम्बन्ध मानवीय संबंधों में सबसे पवित्र होता है।


कुदरत के प्रति हमारा एक इस्तेमालवादी रवैया है और यह दिन--दिन बढ़ता जा रहा है। हम इसे एक ऐसी वस्तु समझते हैं जो हमारे बड़े काम की है। हम यही मानते हैं कि प्रकृति हमसे अलग कोई वस्तु है और हम इसके स्वामी या मालिक हैं। हमें इसे समझना है, ठीक उसी तरह जैसे कोई अपने सेवक को समझना चाहता है, उसकी उपयोगिता और उसकी कार्यक्षमता का आकलन करता है जिससे वह उसका इस्तेमाल अच्छी तरह कर सके। हम स्वयं को प्रकृति के जिम्मेदार प्रबंधक या खिदमतगार की तरह नहीं देखते। यदि हम ऐसा कर पाते तो प्रकृति के प्रति हमारा रुख जिम्मेदारीपूर्ण होता। हम उसकी फिक्र करते और उसके मालिक बन  कर उसका शोषण नहीं करते, ही उसका निर्ममता के साथ उपयोग करते। धरती पर बनते इस मानव-केन्द्रित सम्बन्ध ने बहुत अधिक नुकसान किया है। बार-बार आने वाली प्राकृतिक विपदाएं और संकट इस बात का सबूत हैं। इंसान कुदरत का हिस्सा है, उतना ही जितने कि बाकी पेड़ पौधे, जीव जंतु। जैसे ही हम खुद को सृष्टि के केंद्र में देखते हैं हम खुद को एक बेहतर, ज्यादा सम्मानजनक स्थिति में रख लेते हैं और वहीं से अपने स्व-निर्मित सिंहासन पर बैठ कर हम बची हुई दुनिया का अवलोकन करते हैं, उसके उपयोग और अधिक से अधिक शोषण के तरीकों पर विचार करते हैं। यह सच है कि मनुष्यों के पास कुछ ख़ास गुण हैं जो प्रकृति में अन्यत्र देखने को नहीं मिलते। उसकी सोचने और खुद को व्यक्त करने की क्षमता उन गुणों में शामिल है, पर साथ ही हमे इसे नहीं भूलना चाहिए कि धरती, आसमान और जल में रहने वाले कई जीव-जंतुओं में ऐसे कई गुण हैं जिनकी हम कहीं से भी बराबरी नहीं कर सकते। मनुष्य के अलावा हर जीव जंतु अपने अपने तरीके से अस्तित्व की समग्रता में अपना योगदान कर रहा है। उसे नकार कर हम सिर्फ अपनी सीमित दृष्टि का परिचय दे रहे हैं बल्कि अपनी कमजोरी और लोलुपता भी दर्शा रहे हैं क्योंकि जैसे ही हम उन्हें कमतर आंकते हैं हमारे भीतर उनका उपयोग करने की प्रवृत्ति को बल मिलने लगता है। मानव-केन्द्रित सोच पर्यावरण के प्रति एक छिछली और अगंभीर सोच का सूचक है। इससे बाहर निकलने की कोशिश की जानी चाहिए। बुद्ध का शब्द मेत्ता यहाँ बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। क्या हम सबके प्रति मेत्ता के भाव से रह सकते हैं? जैसे उदार लोकतान्त्रिक देशों के संविधान सभी को समान रूप से जीने, रहने और काम करने के अधिकार देते हैं, क्या ठीक उसी तरह हम धरती पर रहने वाले सभी जीवधारियों के प्रति उदारता बरत सकते हैं? यदि नहीं, तो क्यों? इसकी पड़ताल करने की जरुरत है। 




प्रकृति से प्रेम करने का अर्थ है उस अंतर्संबंध को समझना जिसके आधार पर समूची धरती का अस्तित्व टिका हुआ है। इस अंतर्संबंध के महत्व को बुद्ध ने एक वृक्ष के नीचे बैठ कर उसका अवलोकन कर के ही सीखा था।  उन्होंने देखा कि किस तरह हर वस्तु अपने अस्तित्व के लिए किसी और पर निर्भर करती है। फल आता है फूल से, फूल शाखाओं से, शाखाएं और पत्तियां तने पर उगती हैं, तना मिटटी से जन्मता है और मिटटी को पोषण देती है बारिश। बरसात बादलों से आती है, और समुद्र बादलों को बनाता है, समुद्र नदियों से खुराक लेता है और नदियों को धरती थामे हुए है। धरती को समुद्र जीवन देता है और धरती समुद्र को। एक अद्भुत गणितीय व्यवस्था के तहत समूचा अस्तित्व चल रहा है। सभी एक दूसरे का हाथ थामे हुए हैं और अपनी समग्रता में जीवन भले ही अलग अलग दिखता हो, वह एक ही है, एक ही समेकित, समन्वित गति। हम इसी व्यवस्था का एक हिस्सा हैं। यदि यह व्यवस्था दिख जाए, प्रत्यक्ष अवलोकन के माध्यम से, कि बौद्धिक विश्लेषण के द्वारा, तो एक साथ अपनी क्षुद्रता और धरती की विराटता का अनुभव होता है। तभी इस व्यवस्था में अपना सही स्थान भी स्पष्ट होता है। यही एक ऐसी अवस्था है जिसमे प्रकृति के प्रति एक स्नेहपूर्ण मित्रता का भाव जन्म लेता है, जो सिर्फ एक भावुक और रोमांटिक कल्पना मात्र नहीं, बल्कि गहरी समझ पर आधारित होता है। यह सम्बन्ध वैज्ञानिक भी है, कलात्मक और काव्यात्मक भी।

  


कुदरत से मिलने वाले हर वस्तु एक उपहार होती है। उसकी कीमत नहीं होती, पर मूल्य बहुत होता है। ये तो हमारी विकृत सोच है जिसने प्रकृति को एक खरीदे, बेचे जाने वाली चीज़ में तब्दील कर दिया है। यदि हम कुदरत को एक उपहार के रूप में देखें, तो उसके प्रति खुद खुद प्रेम और कृतज्ञता उपजेगी। जैसे उपहार के बदले में लोग उपहार देना चाहते हैं, वैसे ही हम प्रकृति को उपहार के बदले में अपना प्रेम देने की सोचेंगें, कि उसका इस्तेमाल करने और उसका शोषण करने की। इस सम्बन्ध में एक ख़ास तरह की विनम्रता को जगह मिलेगी जो अभी नहीं है, बस इसलिए क्योंकि हमने प्रकृति के साथ एक तरह का स्वामी-सेवक का सामंतवादी सम्बन्ध बनाया हुआ है। इसके स्थान पर सम्मान पर आधारित सम्बन्ध की संभावना तलाशना अब बहुत जरुरी लगता है। जैसे ही हम जीवन की उस ऊर्जा को चिन्हित कर लेते हैं जो समान रूप से छोटे से छोटे जीव से लेकर समूची सृष्टि और प्रत्येक इंसान की रगों में प्रवाहित हो रही है, अचानक हमारे आपसी संबंधों में सम्मान, प्रेम, उदारता, करुणा और सकारात्मकता का आगमन होता है और फिर हम प्रकृति के साथ मिल कर अपने सह-अस्तित्व का जश्न मनाने लगते हैं। लूट खसोट करने की हमारी प्रवृत्ति पर अपने आप ही, बगैर किसी प्रयास के, अंकुश लग जाता है। पर्यावरण की रक्षा करने के हमारे प्रयासों में भी एक गुणात्मक परिवर्तन आता है। सम्पूर्ण जीवन की एक सौन्दर्यपूर्ण संरचना निर्मित होती है और हम सभी स्वाभाविक रूप से उसका हिस्सा बन जाते हैं। प्रकृति के प्रति ‘मेत्ताका भाव ही एक बेहतर, सौम्य और  शालीन सामाजिक जीवन का आधार बन सकती है।    



वैज्ञानिक विषयों के मशहूर लेखक जेनीन बेनस ने मकडी के जालों और शंखों को बहुत बारीकी से देखा था और उनके बारे में उन्होंने लिखा है: जैसे प्रकृति अपनी प्रोद्योगिकी और उपकरणों का अध्ययन करती है, वैसे ही हम इंसान क्यों नहीं करते?”। वह आगे लिखते हैं: यदि हम प्रकृति के तौर तरीकों को समझ सकें, तो कभी कोई अभाव ही नहीं होगा। हर ओर प्राचुर्य होगा। एक बीज में भी कितनी ऊर्जा होती है। एक छोटे से बीज से अंकुर फूटता है, उससे पौधा तैयार होता है, पौधे से वृक्ष और वृक्ष एक सेब के पेड़ में बदल जाता है। हर सेव के फल से निकलने वाले बीज कई वर्षों तक और कई पेड़ों को जन्म दे सकते हैं। पेड़ों की पत्तियां धरती पर गिरती हैं, सड़ती हैं और खाद बन जाती हैं; यही खाद पेड़ों को पोषण देती है। हर ओर प्राचुर्य है, प्रकृति में कोई अभाव नहीं होता प्रकृति के साथ हमारे टूटते हुए संबंधों को इसी तरह से देख कर फिर से उसे एक नया जीवन देखने की आवश्यकता है।    



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