सुभाष राय की कविताएँ
सुभाष राय की कविताएं पढ़ते हुए दृष्टि बोध का अहसास होता है। यह दृष्टि बोध समय और समाज से जुड़ा हुआ है। इसीलिए यह खुद की जीवन्तता पाठक में भर देता है। यह कवि की दृष्टि ही है जो अपनी एक कविता में कहता है कि "जीतेंगे वे जो लड़ेंगे युद्ध टालने के लिए/ भूख, बीमारी और मौतों से लोगों को बचाने के लिए/ कल सिर्फ वही जियेंगे जो आज/ मरेंगे दूसरों के लिए।" ये कविताएं आश्वस्त करती हैं कि आखिरकार जीत मनुष्यता की ही होगी। सुभाष राय का हाल ही में एक कविता संग्रह प्रकाशित हुआ है 'मूर्तियों के जंगल में'। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं सुभाष राय के हालिया प्रकाशित संग्रह की कुछ उम्दा कविताएं।
सुभाष राय की कविताएँ
तस्वीरें
तस्वीरों में जितना दिखता है
उससे ज्यादा रह जाता है बाहर
तस्वीरें कहां बताती हैं कि कभी भी
बदल सकती है तस्वीर
रात-दिन चलते मजदूरों के
चेहरों पर गहरी थकान
और रास्तों पर जगह-जगह मौत के निशान
तस्वीरों में दिखते हैं
पर कोई भी तस्वीर कहां बताती है
कि सारा दुख गुस्से में बदल जाय
तो दरक सकते हैं बड़े से बड़े किले
तस्वीरें अधूरी रहती हैं हमेशा
जरा सोचो उन तस्वीरों के बारे में
जो अब तक किसी फ्रेम में
आईं ही नहीं
23/5/2020
23/5/2020
सड़क एक संभावना
उन्होंने अचानक शहर
पर ताला लगा दिया
हजारों लोग सड़क पर आ गए
जितने लोगों को रोका गया
उन्होंने अचानक शहर
पर ताला लगा दिया
हजारों लोग सड़क पर आ गए
जितने लोगों को रोका गया
उससे ज्यादा निकल आये सड़कों पर
दुनिया भौचक रह गयी
अनगिन पांवों को दुख भरी लय में
एक ही दिशा में चलते देख कर
दुनिया भौचक रह गयी
अनगिन पांवों को दुख भरी लय में
एक ही दिशा में चलते देख कर
कुछ थकान में, कुछ नींद में मारे गये
रोटियां टूटे हुए सपनों की
मानिंद बिखर गयीं पटरी पर
लोग मरते गये और जीने की
जिद बढ़ती गयी
जो सड़क पर होंगे
एक न एक दिन समझ ही जायेंगे
कि सड़क एक संभावना है
वे समझ जायेंगे कि जैसे
सड़कें तमाम मुश्किलें पार
करती चली जाती हैं गांव तक
बिलकुल वैसे ही जा
सकतीं हैं संसद तक
9/5/2020
शिकारी कौन है
वे भूखे थे
वे बस जिंदा रहना चाहते थे
जिंदा रहने की आकांक्षा कोई अपराध नहीं है
जब उनके पास खाने को कुछ नहीं बचा
वे निकल पड़े गांवों के लिए
वे रास्ते में मारे नहीं गये
वे शिकार हुए किसी हिंस्र पागलपन के
उनके साथ शिकार हुए उनके बच्चे
उनकी कई पीढ़ियां
साथ में थोड़ा देश भी
किसको पता नहीं, शिकारी कौन है
लेकिन आजकल बोलता कौन है
4/6/2020
मां उठेगी
अभी अभी उसने दोनों
पांवों पर खड़ा होना सीखा है
अभी वह दौड़ना चाहता है
अभी वह खेलना चाहता है
अभी वह भूखा नहीं है
अभी उस पर कोई डांट नहीं पड़ी
अभी उसके रोने की कोई वजह नहीं
अभी उसकी मां सोई है प्लेटफार्म पर
अभी उसे नहीं पता कि मां की ट्रेन छूट चुकी है
अभी वह इतना ही जानता है कि मां जल्द उठेगी
अभी वह मां की चादर से खेल रहा है
अभी उसे क्या मालूम कि कोई
उसकी जिंदगी से खेल रहा है
6/6/2020
वही जियेंगे कल
एक युग बाद नदी की
देह में उतरी है धूप
उसके भीतर चमक रहीं हैं
मछलियों की आंखें
वह नहा रही है अपने ही जल में
आसमान का रंग निखर आया है
बादल और सफेद हो गये हैं
हिमालय काफी दूर से दिखने लगा है
मानो वह सैकड़ों मील दक्षिण खिसक आया हो
मानो वह सैकड़ों मील दक्षिण खिसक आया हो
परिंदों की आवाजें तेज हो गयी हैं
जिन्हें जंगल के भीतर खदेड़ दिया गया था
वे अपनी सरहदें लांघ निकल आये हैं
गांवों, कस्बों और शहरों की सीमाओं तक
जंगल पास आना चाहता है आगे बढ़ कर
अचानक बहुत चौड़ी हो गयी हैं सड़कें
सारा बोझ सिर से उतार कर
अनकहे सुनसान में भागती हुईं
कई खूबसूरत जगहें लाशों से पटी पड़ीं हैं
मुर्दाघरों और कब्रिस्तानों के बाहर
अपनी बारी के इंतजार में हैं लाशें
लोगों को गले लगाना चाहती हैं लाशें
लोग लाशों से बचकर निकल रहे
लोग लाशों से बचकर निकल रहे
लोग जिंदा लोगों से और भी बच कर निकल रहे
गहरी बहसें हो रहीं चारों ओर
कितना फासला रखा जाय मृत्यु से?
मनुष्य से बच कर क्या मृत्यु से बचना संभव है?
क्या अकेले रह कर मृत्यु को टाला जा सकता है?
किन चीजों में छिप कर आ सकती है मृत्यु?
क्या वह हवा में उड़ कर भी आ सकती है?
इस बहस से बिलकुल अलग
जान हथेली पर लिये मृत्यु का पीछा करते
कुछ साहसी लोग आ गये हैं सामने
पर वे जिनकी मुक्ति के लिए लड़ रहे
उन्हीं के हाथों पत्थर खा रहे
हाथ भी कटवा रहे
पर वे जिनकी मुक्ति के लिए लड़ रहे
उन्हीं के हाथों पत्थर खा रहे
हाथ भी कटवा रहे
बड़े-बड़े तानाशाह हांफ रहे
एक मामूली वायरस का कुछ नहीं
बिगाड़ सकते ताकतवर परमाणु बम
असहाय हैं मौलवी, पादरी, पुजारी और धर्माधिकारी
ईश्वर बेमियादी क्वारंटीन में चला गया है
सारी क्रूरताएं और बर्बरताएं
याचना की मुद्रा में खड़ी हैं निरुपाय
जो जीतना चाहते हैं इसे युद्ध की तरह
उनसे पूछो, पांडव भी कहां
जीत सके थे महाभारत
जीतते तो हिमालय से अपनी ही
मृत्यु का वरदान क्यों मांगते
युद्ध जब भी होगा, लोग मारे जायेंगे
और मौतों पर कोई जीत का उत्सव
आखिर कैसे मना पायेगा
जीतेंगे वे जो लड़ेंगे युद्ध टालने के लिए
भूख, बीमारी और मौतों से लोगों को बचाने के लिए
कल सिर्फ वही जियेंगे जो आज
मरेंगे दूसरों के लिए
12/4/2020
कोई रास्ता नहीं
एक समय था
चारों ओर घना अंधेरा था
भीतर कुछ जल उठा
और सारे रास्ते नजर आने लगे
एक समय है
चारों ओर घना अंधेरा है
बाहर सब कुछ जल रहा है
पर कोई रास्ता नजर नहीं आता
27/12/2019
एक सपना
मैं बहुत सपने देखता हूँ
आजकल सपनों का भी हिसाब देना पड़ता है
डर लगता है अगर मैं कभी सपने देखते
पकड़ा गया तो कैसे साबित कर पाऊंगा
कि मेरे सपने नाजायज नहीं हैं
सरकार सपने नहीं देखतीं
वह जमीन पर ठोस काम करती है
उसे सपने देखने वालों से चिढ़ है
वे कोई काम ठीक से होने नहीं देते
वे अपने सपनों की बात करते-करते
सौ बरस पुराने सपनों की बात करने लगते हैं
हर काम में मीन-मेख निकालते हैं
वे बहुत जिद्दी हैं, कोई बात नहीं सुनते
वे चाहें तो सरकार उनके सपने
खरीद सकती है और उन्हें कूड़ेदान में
डाल कर निश्चिंत हो सकती है
उन्हें मुंहमांगे पुरस्कार भी दे सकती है
ताकि वे कम बोलें, संजीदा रहें
और सपने देखने से बाज आयें
पर कुछ पाने की बात तो दूर
वे सरकार को सरकार ही नहीं मानते
मुझे अब अपने ही सपनों से डर लगता है
हालांकि वे निजी हैं लेकिन सरकार कभी भी
उन्हें निजी मानने से इनकार कर सकती है
उन्हें निजी मानने से इनकार कर सकती है
वह कह सकती है कि जिन पर दंगे भड़काने के
आरोप हैं, उन्होंने भी ऐसे ही सपने देखे
कुछ नक्सल भी ऐसे सपने देखते पकड़े गये
सरकार मेरे सपनों को जुर्म ठहरा सकती है
वह डुगडुगी पिटवा सकती है कि मेरे सपनों से
राष्ट्र की अखंडता को खतरा है
सरकार के लिए यह बताना कोई मजबूरी नहीं
कि वह संविधान की किस धारा में जुर्म है
मैं चाहता हूँ कि मैं गहरी नींद सो सकूं
देश-दुनिया से बेपरवाह सुकून से जी सकूं
मैं चाहता हूं कि मुझे सपने न आयें
आयें भी तो नदी, फूल, स्वाद, सुगंध के आयें
गरीबों की मुश्किलों के बिलकुल न आयें
बेरोजगारों के दर्द के भूल के भी न आयें
किसानों की आत्महत्याओं के कभी न आयें
पर क्या करूं अपने सपनों पर
कोई वश चलता ही नहीं
11/8/2020
जड़ें
मिट्टी और जीवन के बीच पुल की तरह होती हैं जड़ें
जड़ें कहीं भी हो सकती हैं तने में, फूल में, बीज में
बिना जड़ों के मनुष्य भी नहीं उगता
अपनी जड़ों से पहचाना जा सकता है आदमी
जड़ों में इतिहास दबा होता है बीज का
उसके सुख का, दुख का, उसकी बीमारियों का
इसीलिए इलाज के लिए भी जड़ों तक जाना पड़ता है
कभी पानी तो कभी मट्ठा डालना पड़ता है
4/1/2020
भविष्य बजता है साहस में
घड़ियों में नहीं बजता है समय
समय में बजती हैं घड़ियाँ
घड़ियाँ दर्ज नहीं करतीं कुछ भी
न अतीत, न ही वर्तमान
घड़ियों में नहीं बजता है समय
समय में बजती हैं घड़ियाँ
घड़ियाँ दर्ज नहीं करतीं कुछ भी
न अतीत, न ही वर्तमान
भविष्य बजता है साहस में
जब कोई साधारण मनुष्य जुल्म
के सामने झुकने से इनकार कर देता है
भविष्य बज उठता है वर्तमान में
6/2/2020
चीटियां
अकेली चींटी को
कुचल देना बहुत आसान है
पर जब एक साथ निकल पड़ती हैं
करोड़ों करोड़ चींटियाँ
जंगल का राजा भी
खाली कर देता है रास्ता
12/2/2020
शैतान
जिन लोगों को बहुत प्यार किया है मैंने
वे भी बदले-बदले से नजर आते हैं आजकल
वे लान में खिले फूल की बात करते-करते
अचानक हाथों में पत्थर उठा लेते हैं
फिर सर बचाना मुश्किल हो जाता है
जबसे मौसम खराब हुआ है
सारे दरवाजे बंद रखता हूँ एहतियातन
मेरे अलावा किसी को पता नहीं
कि खिड़कियां कहां-कहां खुलती हैं
हवा भी अंदर नहीं आ सकती
हवा भी अंदर नहीं आ सकती
मुझसे पूछे बगैर
फिर भी शैतान घुस आया है मेरे घर में
मैं ढूंढ रहा हूँ उसके चोर दरवाजे
उसने कई सूराख बना लिये हैं दीवारों में
मुझे अंदाजा नहीं था कि वह
उन रास्तों से भी आ सकता है
जो चींटियों ने बनाये थे कभी
2/1/2020
अस्ति-नास्ति के पार
शून्य में सिर्फ शून्य नहीं है
शून्य में भरी हुई है आग
शून्य में भरी हुई है आग
मुझे बचपन से ही शून्य
खींचता रहा है अपनी ओर
सफेद दीवार पर एक शून्य लिख कर
जब कभी टिका देता था उस पर आंखें
केंद्र की आग छिटकने लगती थी
परिधि पर एक रिंग की तरह
घंटों झांकता रहता था आसमान में
जैसे कोई तारा टूटेगा और
मेरी हथेली पर आ गिरेगा
चांद चुपचाप उतर आयेगा मेरे पास
और अंतरिक्ष में बिखरी कहानियां सुनायेगा
शून्य से ही मैंने जाना
गोलाई को और सौंदर्य को भी
सवाल उठा हर खूबसूरत चीज में
गोलाई आखिर क्यूं होती है
शून्य में जितना देख पाता हूं
वह शून्य का शून्य भी नहीं है
गणित से बहुत आगे जाता है शून्य
अस्ति-नास्ति के पार भी
कई बार किसी बड़ी दुर्घटना में
या अप्रतिहत सहजता में
एक विशाल शून्य में समा जाती है चेतना
रह जाता है सिर्फ होने का होना
और ऐसे में ही कभी- कभी
एक स्वतःस्फूर्त स्फुलिंग की तरह
किसी बुद्ध या किसी न्यूटन के भीतर
चमक उठता है एक
अनाविष्कृत युगांतर
20/ 9/ 2018
20/ 9/ 2018
पतन की संभावना से परे
संघर्ष में फूटती है
पसीना बन कर
प्रेम में मिट जाने
का साहस बन कर
पसीना बन कर
प्रेम में मिट जाने
का साहस बन कर
पतन की संभावना से परे
आकाश की ओर उठती है हमेशा
गिरती नहीं, मरती नहीं
आंसू के ठीक पीछे
खड़ी रहती है आग
रोटियां गरम होती हैं आग में
बहुत स्वादिष्ट होती है आग
बहुत स्वादिष्ट होती है आग
जब तक जुल्म के खिलाफ
फूटती हैं चिनगारियां, हम जिंदा हैं
जब तक हम खुद नहीं चुनते
बुझ जाना, हम जिंदा हैं
24/ 9 2018
जो डराते रहते हैं लोगों को
वे भी डरते हैं आग से
वे भी डरते हैं आग से
जिनके जबड़े खून से
तर रहते हैं हमेशा
जो आहट नहीं लगने देते
शिकार चुनने के पहले
जो विरोधी को मांस के टुकड़े से
ज्यादा कुछ नहीं समझते
जो निर्मम, निर्विरोध
जीने के अभ्यस्त हैं
वे भी डरते हैं आग से
उन्हें पता है, पेड़ कभी भी
धधक सकते हैं और लील सकते हैं
उनके ऐशगाह, उनके वधस्थल
इसलिए वे सारे जंगल की राख
अपनी देह पर मल लेना चाहते हैं
ताकि फिर कोई चिनगारी न भड़के
उन्हें पता है, पत्थरों से भी
फूट सकती है चिनगारी
इसलिए वे बहा देना चाहते हैं उन्हें रेत की तरह
धरती का सारा लोहा पिघला कर
उसे त्रिशूल में बदल लेना चाहते हैं
ताकि कोई और हथियार न बन सके
उनके मुक़ाबले के लिए
वे नहीं चाहते कोई उल्का अचानक गिरे
और एक पल के लिए मिट जाए सारा अँधेरा
वे चाहते हैं लोग नींद में गाफ़िल रहें
वे रोशनी के खात्मे की हर
सम्भावना पर गौर फरमा रहे हैं
वे नहीं चाहते कि लपट का कोई
अर्थ बचा रह जाय शब्दों में
वे देख रहे हैं भाषा में जल उठने की
कितनी सम्भावना बची है
अर्थ बचा रह जाय शब्दों में
वे देख रहे हैं भाषा में जल उठने की
कितनी सम्भावना बची है
वेेे नहीं चाहते कोई जलता हुआ रूप
कोई तपता खदबदाता रस
कोई सुलगता हुआ स्वाद
कोई धू-धू करती गंध
बची रह जाय किसी पन्ने पर
16/ 10/ 2018
मां
बड़ा हो कर भी
बच्चा ही रह गया हूँ
मां नहीं चाहती
बड़ा हो जाऊं
वह जानती है बड़े होते ही
बच्चे चले जाते हैं
मांओं से दूर
बच्चा ही रह गया हूँ
मां नहीं चाहती
बड़ा हो जाऊं
वह जानती है बड़े होते ही
बच्चे चले जाते हैं
मांओं से दूर
जब कभी बाहर जाता हूँ
देहरी पर बैठी रहती है चुपचाप
मेरी राह तकते
मेरे पास प्रेम है
मां का दिया हुआ
आंसू हैं उसकी आंखों से
ढुलके हुए
मां मुझे छोड़ कर
गयी नहीं कभी
जब तक मां है
मैं बड़ा कैसे हो पाऊंगा
6 /6 /2019
पिता तुम्हीं हो
एक गुरु की तरह मेरी आत्मा गढ़ी आप ने
मृत्यु से किया दो-दो हाथ, मुक्ति टाल दी
संशय के चलते पत्थरों से कुचले गये
सवालों के लिए सूली पर चढ़े
एक गुरु की तरह मेरी आत्मा गढ़ी आप ने
मृत्यु से किया दो-दो हाथ, मुक्ति टाल दी
संशय के चलते पत्थरों से कुचले गये
सवालों के लिए सूली पर चढ़े
ज्ञान की अनंत चाह में
स्वर्ग से बहिष्कृत हुए
ढाई आखर का पहला पाठ पाया आप से ही
आप की अनगिनत छायाएं बसी हैं मेरी देह में
धन्य मैं, जो आप को पाया पिता की तरह
उससे भी ज्यादा एक गुरु की तरह
4 /2 /2020
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स विजेन्द्र जी की हैं।)
(कवि सुभाष राय आजकल जनसंदेश टाइम्स के प्रधान संपादक के रूप में कार्यरत हैं।)
संपर्क
9455081894
सभी कविताएँ उम्दा हैं। सुभाष राय मेरे पसंदीदा कवि हैं। बधाई।
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