ललन चतुर्वेदी की ताजा कविताएं
स्त्री पुरुष समानता एक लुभावना टर्म है। लेकिन यथार्थ के धरातल पर इस टर्म का चेहरा विद्रूपता से भरा हुआ है। हमारे भारतीय समाज में जब शादी की बात आती है तो लड़कों और उसके घर परिवार वालों की पसंदगी पर लड़की को खरा उतरना पड़ता है। चेहरा, चाल, शिक्षा दीक्षा, घरेलू कार्यों में कुशलता आदि आदि जैसे अंतहीन तुलाओं पर लड़की को परखा जाता है। लड़कों के लिए यह कोई बात मायने नहीं रखती। परख की तुला पर लड़कियों को एक सामान की तरह बार बार तौला जाता है। बार बार खारिज होने की त्रासदी से गुजरना पड़ता है। यह प्रक्रिया अनवरत चालू है। ललन चतुर्वेदी एक ऐसे संवेदनशील कवि हैं जो इस त्रासद प्रक्रिया को अपनी कविता में कुशलता से उकेरते हैं। ललन जी बिना किसी प्रचार प्रसार के चुपचाप लिखते रहते हैं। उनकी कविताएं सघन अनुभूति और संवेदनाओं की कविताएं हैं। भले ही वे कम छपे हों, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि वे एक जरूरी कवि हैं। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं ललन चतुर्वेदी की कुछ नई कविताएं।
ललन चतुर्वेदी की कविताएं
कुछ न कुछ बचा रहेगा
गहन अन्धकार
में जब डुबी होगी धरती
किसी कोने में
ज़रूर बचा रहेगा प्रकाश का एक कतरा
वृक्ष के तने
पर अंतिम सांस गिनता पीतवर्णी पता
गिरते - गिरते
आवाज दे रहा होगा वसन्त को
जब शोकाकुल
स्त्रियां रो रही होंगी किसी प्रिय की मौत पर
दूधमुंहे
बच्चे पर पड़ते ही नजर बंद हो चुकी होंगी उनकी रुलाई
और जैसा कि
कुछ लोग सोचते हैं कि सब कुछ नष्ट हो जाएगा
धीरे - धीरे
वैसा तो शायद
आज तक कभी नहीं हुआ और नहीं होगा आगे भी
सब कुछ कभी नष्ट नहीं होता, कुछ न कुछ बचा रह जाता है
जैसे वृद्ध -
कंठ में बचा रह जाता है बचपन का थोड़ा सा संगीत।
फटी हुई कमीज से पेश आता हूं तमीज से
यह जो मेरी
पुरानी कमीज है, खूंटी पर टंगी हुई
इसे डालकर मैं
हर सुबह दफ्तर निकल जाता हूं
ऐसा नहीं कि
एकमात्र यही कमीज है मेरे पास
दो- तीन और रखी
हुई हैं आलमारी में
पत्नी की
शिकायत के बावजूद मैं रोज़-रोज़ कमीज नहीं बदलता
दफ्तर में कुछ
लोग मुझे समझते होंगे कंजूस
पर कोई फर्क
नहीं पड़ता
यही बर्ताव
मैं अपने जूते और गमछे के साथ भी करता हूं
मैं अपनी कलम
तो बिलकुल बदलना नहीं चाहता
दोस्त जो हैं
सब पुराने बने हुए हैं
ये जितने
निर्जीव समझे जाने वाले मेरे संगी हैं
सब मुझसे बहुत
घुले-मिले हुए हैं
मैं इनके
स्पर्श मात्र से सहज पुलकित हो उठता हूं
मुझे नयापन से
कोई विरोध या दुश्मनी नहीं है
जो मेरा साथ
निभाने के लिए प्रस्तुत है हरदम
उसे नयापन के
नाम पर बदलना उचित नहीं है
क्या आपने
परायी हो चुकी अपनी
प्रेयसी से
अब तक मोहब्बत
कायम रखा है ?
क्या आप अब भी
उससे मानस - संवाद करते हैं ?
यदि आप उसे
भूल चुके हैं
और सरेआम उस
पर लगाते हैं आरोप बेवफाई का तो आप मनुष्य कहलाने के काबिल नहीं है
मैं अपनी फटी
हुई कमीज से भी पेश आता हूं पूरे तमीज से
यकीन मानिए
मोहब्बत चीजों को प्राणवान कर देती है।
मुझे भी कुछ पूछने का हक है
जानता हूं कि मैं विधायक, सांसद, मंत्री
नहीं हूं
यहां तक कि पार्षद या मुखिया भी
नहीं हूं
केवल एक अदना सा आदमी हूं
पर मामूली आदमी होने के कारण
मुझे कुछ भी पूछने का हक नहीं
है?
मसलन - इस देश से जाति प्रथा कब
खत्म होगी?
हमारे ही परिवार के सदस्य जो काबिज
हैं विभिन्न महकमे में
घूस लेना कब बंद करेंगे?
कब लोकसेवकों से छीना जाएगा
साहब का तमगा?
कब तक डाक्टर लिखते रहेंगे
मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव के
सुझावों पर नुस्खे?
कब तक चमचामाते स्कूलों के गेट
से बाहर कर किए जाते रहेंगे गरीबों के बच्चे?
कब तक थानेदार दर्ज नहीं करेंगे
गरीबों की प्राथमिकी?
कब तक दहेज के लिए जलती रहेंगी
कन्याएं?
कब तक प्रेम के नाम उनके टुकड़े
किए जाते रहेंगे?
ऐसे अनगिनत प्रश्नों से टकराते
हुए
मेरा सिर हो चुका है लहूलुहान
इन प्रश्नों पर उच्च सदनों में
कभी होगी चर्चा भी?
मुझे मालूम है माननीय नहीं
पूछेंगे ऐसे प्रश्न
पर मैं पूछना चाहता हूं श्रीमान
इसलिए कि यह केवल मेरा प्रश्न
नहीं है
इन प्रश्नों के उत्तर दिए बिना
लोकतंत्र बेमतलब है।
प्रयोग, निरीक्षण और निष्कर्ष
एक बार वह फिर
देखी जाएगी
पैरों से लेकर
मस्तक तक
बार- बार उसे
निहारा जाएगा
देखी जाएगी
उसकी लंबाई, चौड़ाई
वजन पर भी
होगा दर्शकों का ध्यान
शायद घर पहुंच
कर निकालना हो आयतन!
पुरुष से ले कर
महिलाएं तक
लेंगे देर तक
मौखिकी
हर प्रश्न के
बाद देहभाषा परखी जाएगी
वस्तुनिष्ठ से
वैकल्पिक प्रश्नों की वहअकेले झेलेगी बौछार
साथ में बैठे
लोग जो हुआ करते हैं मार्गदर्शक
आज मूकदर्शक
की भूमिका में होंगे
पहले ही दे दी
गई होगी सीख -
बेटी! शीश
झुकाए ही सवालों का जवाब देना
आज देनी होगी
शील, विनय, ज्ञान और संस्कार की
कठिन परीक्षा
रखना तुम्हें
ही है पिता की पगड़ी की लाज
आज तलाशी
जाएगी उसमें अर्थागम के स्रोत
फिर देखी
जाएगी उसके मां-पिता की हैसियत
जो मन ही मन
लगा रहे होंगे कुलदेवता की गुहार
किसी तरह बेटी
का इस बार हो जाए उद्धार
तरह - तरह से
किया जाएगा आगत देवी-देवताओं का सत्कार
फिर कर जोड़कर
दी जाएगी उन्हें भावभीनी विदाई
भूल- चूक के
लिए मांगी जाएगी माफी
अकेले कमरे
में गुमसुम बैठी बेटी सोच में डुबी होगी -
कब तक किया
जाता रहेगा उस पर प्रयोग
कब तक और
कितने लोग करेंगे
उसका बार -बार निरीक्षण
इस प्रयोग का
कोई निष्कर्ष भी निकलेगा क्या?
रसायन की प्रयोगशाला में वह भी करती थी प्रयोग
और कुछ मिनटों
में बना देती थी आक्सीजन
यह सोचते हुए
कितना घुटता होगा उसका दम
कुछ दिनों तक
अनमना सा दिखेगा उसका परिवार
अगले कुछ
दिनों तक रहेगा वर-पक्ष के फोन का इंतजार
कोई सूचना
नहीं मिल पाने की आकुल प्रतीक्षा में
पिता ने बड़ी विनम्रता से पूछा होगा उनका
विचार
इस बार भी
देवताओं की सभा ने
ध्वनि मत से
पारित कर दिया होगा उसकी अस्वीकृति का प्रस्ताव।
गुलाम की मौत मरते हुए देख कर ...
धरती का हर
आदमी बेचैनी में मरता है
पर बहुत कम
लोग होते हैं जो बेचैनी में जीते हैं
जिनके नाम
शुमार किए जाते हैं निर्माताओं में
वे सबसे बड़ी
विध्वंश लीला रचते हैं
सफ़ेदी के
नीचे कालिख की अमिट परतें बिछी हैं
सब कुछ सफेद
दिखे इसलिए हमें नजरबंद किया गया है
जादूगर वह
नहीं जो भेष बदले
जादूगर वह जो
देश बदले
वह सब कुछ देख
रहा है साफ-साफ
मगर वह क्यों
कुछ बदले
वह कोई पागल
नहीं है कवि की तरह
जो
परिवर्तनकामी है, मुक्तिकामी है
उसे बिलकुल
पसंद नहीं है बेचैनी में जीना
उसे अपनी
ज़िन्दगी की बहुत परवाह है
सुकून से जीने
के लिए वह कुछ भी कर सकता है
अफवाह भी फैला
सकता है अपनी मौत का
वह अपनी
रणनीति में कामयाब है
हमें गुलामी
की लड़ाई में उलझा कर
हम,आप गुलामी के लिए लड़ते रहेंगे
वह लुत्फ़
उठाता रहेगा हमारी पराजय
का
और अपनी जीत
का जश्न मनाता रहेगा
हम
विस्मृतियों के शिकार हैं
भूल गए हैं
आज़ादी के लिए लड़ना
भूल गए हैं आजादी और गुलामी में फर्क करना
और भूल गए हैं
तर्क करना
हम भोले, भले मानुष!
हमारे खिलाफ
उसकी ओर से लड़ रहा है
हमारा अपना ही भाई
और हम बड़े
गर्व से कहते हैं स्वयं को
स्वतंत्र देश
का नागरिक
जो समझता है
यह अर्धसत्य
वह हर पल जीता
है बेचैनी में
एक स्वतंत्र
देश के नागरिक को
गुलाम की मौत
मरते हुए देख कर
अकसर फूट पड़ती है उसकी रुलाई।
अर्धसत्य का अभिशप्त समय
मुझे खुली हुई
आंखें भी बंद सी लगती हैं
हमने आंखों पर
यकीन करना छोड़ दिया है
आंख के कामों
को कानों पर छोड़ दिया है
हम कमरे में
कैद लोग ताजमहल चाय की चुस्कियों के बीच कहकहे लगाते हुए
सोफे में
धंस कर कैमरे की नजर से
दृश्यों को देख रहे हैं
और मान कर चल
रहे हैं कैमरा झूठ नहीं बोलता
हम अर्द्धसत्य
के अभिशप्त समय में जीने वाले लोग हैं
हमें जीने और
मरने का फर्क मालूम नहीं है।
दो पेड़
एक पेड़ यहां, एक पेड़ वहां
दोनों के बीच
लगभग दस गज की दूरी
एक-दूसरे को
निहारते
बीत रहे बरस-दर-बरस
लगता है
निरन्तर रहते हैं संवादरत
एक दूसरे से
मिलने की इच्छा
शाखाओं के रूप
में फलती- फूलती रही
बरसों बाद
टहनियों ने एक दूसरे को गले लगा लिया
जड़ें जमीन से
जुड़ी रहीं
दोनों ने आकाश
में एक दूसरे को पा लिया।
यहां कोई बैठा
नहीं है
(एक)
यह जगह ख़ाली
है
ऐसा मत सोचिए
इस सीट पर
गमछा रखा हुआ है
जब तक कोई
नहीं आएगा
गमछा उसके आने
की प्रतीक्षा करता रहेगा
और बगल वाला
करता रहेगा गमछे की रखवाली।
(दो)
यहां लोग बैठे हुए हैं
ऐसा मत सोचिए
किसी से पूछ
लीजिए-सब व्यस्त हैं
मगर मत पूछिए
कि मस्त हैं कि त्रस्त हैं?
(तीन)
यहां सब कोई
कहीं न कहीं बैठा हुआ है
कुछ लोगों को
बैठना पड़ा है,
कुछ लोगों को
जबरन बिठाया गया है
जिसकी जगह
जहां होनी थी
उसे अपनी जगह
से अलगाया गया है।
(चार)
यह मत सोचिए
कि आप कहां बैठे हैं
बैठे हैं, यही क्या कम है ?
तब तक आप बैठे
रहेंगे जब तक मौन हैं
मुंह खोलिएगा
तो पूछा जायेगा
आखिर आप कौन
हैं?
(पांच)
शुक्र है कि
सब यहां पर कहीं न कहीं बैठा है
यह मत पूछिए
कि किस शाख पर कौन उल्लू बैठा है?
(छः)
बैठना भी एक कला है
जब बैठते हैं तो बैठे रहने की आदत हो जाती है
पूरी महफिल भले ही उठ जाए
जो सच में बैठे हैं,
बैठे ही
रहेंगे।
(सात)
मुझे मालूम
नहीं
कैसे लोग किसी
को सर आंखों पर बिठा लेते हैं
कुछ लोग तो
अपने चरणों में भी किसी को स्थान नहीं देते।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्वर्गीय कवि विजेंद्र जी की हैं।)
संपर्क:
ई मेल - csb@gmail.com &
मोबाइल : 9431582801
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