रमेश ऋतंभर की कविताएं
रमेश ऋतंभर |
मनुष्य ने अपनी सामाजिकता का विकास कर खुद को दुनिया के सबसे बौद्धिक प्राणी के रूप में ढाल लिया है। यह एक दिन में नहीं हुआ, बल्कि इस सामूहिकता को विकसित करने में शताब्दियां लग गईं। जीवन की शुरुआत से ही यह क्रम शुरू हो जाता है और जीवनोपरांत यह प्रक्रिया चलती रहती है। रमेश ऋतंभर ऐसे कवि हैं जो एकाकी हो चले समय में इस सामूहिकता को अपनी कविताओं में शिद्दत से रेखांकित करते हैं। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं रमेश ऋतंभर की कुछ नई कविताएं।
रमेश ऋतंभर की कविताएं
शीशे का
शहर
आजकल मेरे
शहर का मिजाज
कुछ अच्छा
नहीं दिखता
मेरे शहर
में
अन्धेरे
की साजिशें
रोज-ब-रोज
बढ़ती ही जा रही हैं
और उजाले
की कोशिशें
निरंतर
नाकाम होती जा रही हैं
मुझे
शहर के
मिजाज के बिगड़ने का अन्देशा
उसी दिन
से हो गया था
जिस दिन
से शहर के तमाम पत्थर
किसी के
दास हो गये
जब से
पत्थरों ने दासत्व स्वीकारा है...
तब से
शीशे के घरों के लिए खतरा बढ़ गया है
और यह
खतरा तब और ही बढ़ जाता है...
जब सारा
का सारा शहर शीशे का बना हो.
भला, शीशे का शहर
कब तक
अपने-आप को पत्थरों से बचा पायेगा...
मेरा शहर
भी तो शीशे का शहर है
और जब कोई
मेरे शहर पर पत्थर फेंकता है
तो वह
टूट-टूट कर अनगिन किरचों में बिखर जाता है.
मैं अपने
शहर के टूट कर बिखरे हुए उन्हीं किरचों को
अपने
हाथों से चुनता हूँ
क्योंकि
मैं अपने शहर को कभी टूट कर बिखरा हुआ
नहीं देख
सकता.
मेरे टूटे
शहर को देख कर हँसने वालो!
यह शहर तो
कल फिर बन-संवर जायेगा
लेकिन मैं
उस दिन से डरता हूँ
जब कोई
पत्थर तुम्हारा भी शहर तोड़ेगा
तब तुम
रोने के सिवा कुछ भी नहीं कर पाओगे
क्योंकि
टूटे शीशे को चुनना तो
तुमने कभी
सीखा ही नहीं!
रेत का
कथ्य
रेत,
रेत के
विस्तार की मृगतृष्णा मत पालो
रेत, हमेशा रेत ही होती है...
उसमें कोई
सभ्यता पनप नहीं सकती
उसकी
रचना-प्रक्रिया को भरसक टालो
मरुस्थल
साक्षी है
उस सत्य का
जो
सभ्यताओं के मलबे से उपजता है.
एक पेड़
जो अपनी
छाया और हरेपन को विस्तार
देने के
क्रम में बरसों जूझता है
और रेत
उसे पल-भर
में निगल लेती है
पर वह यह
भूल जाती है कि
हरेपन से
ही सभ्यताएँ जिन्दा रहती हैं.
जब
सभ्यताओं पर रेत के इरादे
हावी होने
लगते हैं
तब उनका
अस्तित्व खतरे में दिखाई देता है
तब रेत के
विस्तार का भय उन्हें सालता है
और जब
हरेपन की सभ्यता की कब्र पर
रेतों की
रचना शुरु होती है
तब कहीं
जा कर एक रेगिस्तान
अस्तित्व
में आता है.
ओ नीति-निर्माणकों
तुम कभी
भी
रेत को
अनदेखा मत करो
कम से कम
उससे यह
तो सीख मिलती ही है कि
हरेपन से सम्बध कभी तोड़ा नहीं जा सकता।
तुम
रेत के
कथ्य पर पर्दा मत डालो
उसे कहने
दो
उसे उड़ कर
आँखों में पड़ने दो
ताकि
तुम्हें यह आभास हो सके कि
हरेपन और
छाया का जीवन में कितना महत्व है
और फिर कल
तुम हरेपन
की सभ्यता को समाधिस्थ
करने की
सोच न सको।
सारी
नश्वरता के बीच
एक दिन
सब कुछ
खाक में मिल जायेगा
कुछ भी
शेष नहीं रहेगा
यह रुप
यह
सौंदर्य
यह देह
यह दुनिया
कुछ भी
नहीं
हाँ, कुछ भी नहीं।
पर फिर भी
सारी
नश्वरता के बीच
एक 'शब्द'
बच रहेगा
समूचे
ब्रह्मांड में भटकता कहीं
जो
भटकते-भटकते पहुँच जायेगा
एक दिन
किसी कवि
के पास
अपने सही
ठिकाने पर
भाव की
एक
भरी-पूरी दुनिया बनाने के लिए
सब कुछ
खत्म होने के बाद भी।
ईश्वर को
याद करता एक बूढ़ा
(पिता के लिए)
पिता काली
चट्टान थे
जो
विपत्तियों में भी नहीं टूटे थे कभी
जो हमे
चिन्तित देख कह उठते थे
बेटा! जब
तक मैं जिन्दा हूँ,
तुम्हारी
खुशी के लिए
अपनी देह
की सारी हड्डियाँ गला दूँगा
तुम आश्वस्त
रहना
लेकिन
बहनों के हाथ पीले करते-करते
वह
जगह-जगह से दरक गये
और उनके
भीतर फूट आयीं सहसा
ढेर-सारी
झुर्रियाँ
जो एक
पूरी उम्र गुजार देने के बाद भी
नहीं फूटी थी उनमें।
पिता काले
खरगोश थे
जिनके
अन्दर हमेशा ठाठे मारा करता था
एक
हँसता-खेलता बच्चा
जो उदासी
के दिनों में बदल जाता था
ईश्वर को
याद करते हुए
एक
भोले-भाले बूढ़े में
जो अपने
दुःख भरे दिनों को
यह कहते
हुए गुजार देता-
'प्रभु तेरी माया, कहीं धूप, कहीं
छाया।'
अवज्ञा
अवज्ञा से
ही शुरू होता है ज्ञान का पहला पाठ
हमारे
आदिम पुरखे आदम और हव्वा ने
यदि अवज्ञा
कर चखा न होता ज्ञान का सेव
और हुए न
होते स्वर्ग से निर्वासित
तो हमारी
ज्ञान की यात्रा शुरू ही नहीं हो पाती
और हम तब
रच नहीं पाते इस दुनिया का इतना संरजाम.
यदि आदि
शिशु ने अवज्ञा कर
नहीं
जलाये होते आग में अपने कोमल हाथ
तो आग का
धर्म क्या है
यह हम कभी
नहीं जान पाते
यदि
कोलम्बस ने परम्परित मान्यताओं की अवज्ञा कर
शुरू नहीं
करता समुद्री यात्राओं का अनवरत सिलसिला
तो इस
दुनिया का नक्शा
इतना सुन्दर और प्यारा नहीं होता।
यदि जङ
शास्त्र की अवज्ञा कर
ब्रूनो ने
नहीं किया होता अग्नि-मृत्यु का वरण
सुकरात ने
नहीं पिया होता जहर
गाँधी ने
नहीं खाई होती लाठियाँ व गोलियाँ
तो हम अभी
तक पड़े होते
अज्ञान और
गुलामी के अन्धे युग में.
यदि भीषण
कष्ट से घबरा कर
तुम कभी
भी नहीं करोगे अवज्ञा
बने रहोगे
हमेशा लकीर का फकीर
तो तुम
कभी भी नहीं हो पाओगे ज्ञानवान
और न कभी
कहला ही पाओगे
आदम-हव्वा
की असली सन्तान।
कहाँ से
लाऊं लोहे की आत्मा?
एक
छोटी-सी गलती पर
मेरा
कलेजा कांपता है
एक
छोटे-से झूठ पर
मेरी
जुबान लङखङाती है
एक
छोटी-सी चोरी पर
मेरा हाथ
थरथराता है
एक
छोटे-से छल पर
मेरा
दिमाग़ गङबङा जाता है
कैसे कुछ
लोग
बङा-सा
झूठ
बङी-सी
चोरी
बङा-सा छल
कर लेते हैं
और विचलित
नहीं होते
क्या उनका
कलेजा पत्थर का है
या आत्मा
लोहे की?
अब मैं
कहाँ से लाऊं लोहे की आत्मा
और कैसे
बनाऊं पत्थर का कलेजा??
हर बार
हर बार
कसम खाता हूँ
कि अगली
बार किसी के बीच में नहीं बोलूंगा
लेकिन किसी
को ग़लत बात करते सुन
चुप नहीं
रह पाता
हर बार
कसम खाता हूँ
कि अपने
काम से काम रखूंगा
लेकिन कुछ
उल्टा-सीधा होता देख
हस्तक्षेप
कर बैठता हूँ
हर बार
कसम खाता हूँ
कि चुपचाप
सिर झुकाए अपने रास्ते पर जाऊंगा
लेकिन
लोगों को झगङा-फसाद करते देख
अपने को
रोक नहीं पाता
हर बार
कसम खाता हूँ
कि किसी
की मदद नहीं करूंगा
लेकिन
किसी को बहुत मजबूर देख
आगे हाथ
बढ़ा देता हूँ
हर बार
कसम खाता हूँ
और वह हर
बार टूट जाता है।
अपने शहर
पर
अपने शहर
पर कभी-कभी बहुत गुस्सा आता है
जहाँ हर
कोई हर किसी के बारे में बेमतलब जानकारी रखता है
हर तीसरा
व्यक्ति रोक कर पूछता है
कि आजकल
क्या कर रहे हो?
(जबकि उसे सामने वाले से कोई सहानुभूति
नहीं होती)
हर किसी
के पास बहुत सारा खाली समय होता है
और हर कोई
हर-दूसरे की प्रगति से जलता है
अपने शहर
पर कभी-कभी बहुत गुस्सा आता है
हर कोई हर
किसी में अनावश्यक दिलचस्पी लेता है
हर कोई हर
किसी के खाने-पहनने को ले कर सवाल करता है
हर किसी
की बात सुनते-सुनते आदमी का कान पक जाता है
'और लोग क्या कहेंगे' में ही
हर किसी
का जीना मुहाल हो जाता है
सचमुच
अपने शहर
पर कभी-कभी बहुत गुस्सा आता है
कभी-कभी
बहुत।
एक पिछड़ा हुआ आदमी
कभी वह
किसी अन्धे को सड़क पार कराने में लग गया
कभी वह
किसी बीमार की तीमारदारी में जुट गया
कभी वह
किसी झगडे के निपटारे में फंसा रह गया
कभी वह
किसी मुहल्ले में लगी आग बुझाने में रह गया
कभी वह
अपने हक-हकूक की लङाई लड़ रहे लोगों के जुलूस में शामिल हो गया....
और अन्ततः
दुनिया के घुड़दौड़ में वह पिछङता चला गया....
मानव-सभ्यता
के इतिहास में दोस्तों
वही पिछङा
हुआ आदमी कहलाया।
(दुनिया के तमाम अनाम-अजनबी मेहनतकशों; जो हमारी जिन्दगी को रोज बचाते-संवारते हैं; को समर्पित)
मेरा
रोम-रोम जिन्दगी की जद्दोजहद से जूझते
अनाम-अजनबी
लोगों का कर्जदार है
घनघोर
बारिश में पानी में डूबी सड़क पर
मुझे
गंतव्य तक पहुँचाते उस अनाम रिक्शे वाले का
जिसका
किराया मैं चुका नहीं पाया
उस अनजान
राहगीर का
जिसने सफर
में बुखार से बेहोश
मुझको
सहारा दे कर घर तक पहुँचाया
उस अजनबी
दुकानदार का
जिसने
महानगर में मुझ भटकते को
दोस्त के
घर का सही रास्ता बताया
उस बेनाम
चाय वाले का
जिसने मुझ
प्यासे को प्यार से पानी पिलाया
उस
अपरिचित दम्पति का
जिसने तेज
बारिश में मुझ भींगते हुए को
अपने घर
में शरण दिया
मेरा
रोम-रोम मिट्टी, हवा, धूप, पानी के साथ-साथ
उन
अनाम-अजनबी लोगों का शुक्रगुज़ार है
जिनका
चाह कर भी मैं कभी कर्ज चुका नहीं सका।
इसी दुनिया में
(जिन्होंने अपने प्यार से मुझे बचाये रखा, उनके लिए)
मेरा होना
इसी दुनिया
में निर्भर करता है
इस दुनिया
के बाहर नहीं
जब मैंने
आँखें खोलीं
तब किसी
दूसरे की गोद में
अपने को
पाया
दूसरे के
हीं हाथों मेरी नार कटी
दूसरे के
ही हाथों
मेरा
जातकर्म-संस्कार हुआ
मैं अपनी
माँ के दूध पर नहीं
दूसरों के
दूध पर पला
मुझे चलना
दूसरों ने ही सिखाया
मुझे
स्लेट पर लिखना
जिस
मास्टर ने सिखाया
उसका भी
मेरे कुल-गोत्र से
कोई
सम्बन्ध नहीं था
अपनी
जिन्दगी के सबसे कठिनतम दिनों से
जब मैं
गुजर रहा था
तब मुझे
दूसरों ने ही सहारा दिया
दूसरों ने
ही मेरी भूख-प्यास मिटाई
मेरे होने
में
दूसरों के
प्यार, पानी और प्रार्थना का हाथ है
मेरा कुछ
नही
मेरा होना
इसी
दुनिया पर निर्भर करता है
इस दुनिया
के बाहर नहीं।
मेरा बयान
किसी के
सपने में मेरा सपना शामिल है
किसी की
भूख में मेरी भूख
किसी की
प्यास में मेरी प्यास शामिल है
किसी के
सुख में मेरा सुख
इस दुनिया
में करोड़ों आँखें, करोड़ों पेट, करोड़ों कंठ
और हृदय
ऐसे हैं
जो एक
सपना, एक भूख और एक प्यास
लिए जीते
हैं
और मर
जाते हैं
उन्हीं के
बयान में मेरा बयान शामिल है
उन्हीं के
दुख में मेरा दुख।
कितना अच्छा होता तब...
कितना
अच्छा होता कि
हम रहते
आपस में प्रेम से
नहीं करते
झगड़ा-फसाद कभी
रहते सदा
आपस में हँसी-खुशी
कितना
अच्छा होता कि
हम बाँटते
आपस में एक-दूसरे का दुःख
नहीं रहते
अपनी दुनिया में मस्त
होते
दूसरों के दुःख से दुखी
होते
दूसरों के सुख से बहुत खुश
कितना
अच्छा होता कि
हम होते
हमेशा बच्चे
नहीं होते
कभी बङे
होती
हमारी अपनी दुनिया
होता जहाँ
सिर्फ प्रेम
कितना
अच्छा होता तब...
सुन्दर
कितनी होती तब दुनिया हमारी दोस्तों!
संपर्क :
मोबाइल : 9431670598
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