सुरेन्द्र प्रजापति की कविताएं

 




सुरेन्द्र प्रजापति

जन्म-8 अप्रैल 1985

शिक्षा-मैट्रिक

शौक-साहित्य की पुस्तकें पढ़ना, कहानी कविताएं लिखना,

ग्रामीण चहल-पहल, धरती, इंद्रधनुष, लोकमंच, हिंदी कविता,

हिंदी रचना, लोकसाक्ष्य, समालोचन, पुरवाई एवं कुछ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित



मनुष्य ने अपनी सभ्यता के विकास क्रम में ईश्वर की खोज किया। उसका विश्वास था कि यह ईश्वर दिक्कतों, परेशानियों, आपदाओं, दुखों आदि से उसकी रक्षा करता है और उसकी बेहतरी के लिए प्रयास करता है। हालांकि तब भी एक ऐसा तबका हुआ करता था जो नास्तिकतावाद के पक्ष में होता था। आगे चल कर विज्ञान का विकास हुआ और कई भ्रम टूटे। तमाम मिथकों के रहस्य उद्घाटित हुए। हालांकि आज हम डिजिटल युग में हैं फिर भी ईश्वर का ईश्वरत्व कायम है। हालांकि घृणा, नफरत, हिंसा, दंगे, नस्ल भेद, ऊंच, नीच का बाजार आज भी कायम है। कवि इसी बिना पर ईश्वर और उसके अस्तित्व को कटघरे में खड़ा करता आया है। कवि सुरेन्द्र प्रजापति ने ईश्वर को केन्द्र में रखकर कुछ अच्छी कविताएं लिखी हैं। सुरेन्द्र प्रजापति की रचनाओं का पहली बार पर आगाज हो रहा है। कवि का स्वागत करते हुए हम उनकी कविताएं प्रस्तुत कर रहे हैं। तो आइए आज पहली बार ब्लॉग पर हम पढ़ते हैं सुरेन्द्र प्रजापति की कविताएं।



सुरेन्द्र प्रजापति की कविताएं

 


पहचान


आसमान में 

झिलमिलाते सहस्रों तारों में

ध्रुवतारा सा, पहचान दे दो!


स्वर्गिक चुभन देने वाली अहसासें

मीठे खुश्बुओं से, तरबतर

सघन हो रही रात्रि में

जुगनुओं की चमक में

सिर्फ नाम दे दो मुझे


चहकती इच्छाओं के साथ

धवल मुस्कुराहटों में

रेशमी स्पर्शों में लिपटी

निर्मल स्नेह में पली हुई

सागरों की गुह्यतम गहराइयों सा विस्तृत

पर्वतों की महानता, और दृढ़ता भी

सबसे अलग थलग

दुनियां के पीछे

एक टापू सा नाम दे दो


देहाती अंचल में कर्मशील बालिका

पगडंडियों को लांघती

अपने सौंदर्य को तिल-तिल नोचती

एक धातुई सच की रखवाली करती

मृत्यु के द्वार तक

प्रलय के काल तक

जीवन के अंतिम छोर तक

पर्वत के दुर्गम चढ़ाइयों पर भी

जीने को......…..!

मुझे मेरा अपना, विज्ञान दे दो

थोड़े ही स्नेह का ज्ञान दे दो।



बुद्ध से


बुद्ध...!

तुमने अहिंसा का पाठ क्यों पढ़ाया?


तेरी धरती के सुरभ्य सीने पर

एक तीक्ष्ण वाण छूटा और

गहरे अंतर तक धसक गया

जमीं से आसमां तक थर्रा देने वाला गूँज

वह गूँज, धधका दिया 

एक भयंकर ज्वालामुखी


तेरा सुधामय समीर

विषों से भर गया लबालब

और टहनियों पर लाल पीले फूल

जुदा हो कर कुम्हलाने के निमित


जीवनदायनी नदी के जल का

खौलने का चीत्कार

अंतिम साँसों का संगीत

जो वृन्दो ने गाया था


जलते तरु शिखाओं पर

पतियों की धू-धू

और लपलपाते तापों से झुलसे

शावकों की कातर चीखें


देखो! बुद्ध, देखो!!

तुम्हारे पवित्र धरती पर

एक नग्न दुधमुंहा बालक

उसके आखिरी हिचकियों की निर्मम हत्या

वायुमंडल में तैरते उसके मांस गोश्त

सर्वत्र दहशत, आतंक और भय

विनाश और मृत्यु का राग-नृत्य



बुद्ध!

तुम्हारी अहिंसा की पोथी कहाँ है?

यह उस महत्वाकांक्षा और समृद्धि का शिखर है

या उस महफ़िल का साज

जो लाल ताजे खूनों से पटी होगी

और जीवन मरघट में बदल चुका होगा।






तुम्हारा धर्म


देव ! तुमने तो,

नैतिकता, आदर्श और श्रद्धा की रोशनाई से

धर्म का सृजन किया था

ताकि मनुष्य शांति, प्रेम

और सभ्य जीवन को जीता रहे


और तेरी ही धरती पर

एक तप्त दावानल वाण उत्तर पड़ा

तुम्हारे बच्चे--

विभिन्न झंडों और खेमों में बंट गए

राम और रहीम में

हिन्दू और मुसलमान में


मंदिर और मस्जिद की टकराहट

धार्मिकता का एक उधात कट्टरवाद

अलगाववाद बन गया

बर्बरता ने सरगम लिखा

क्रूरता ने राग छेड़ा

और खून से परचम फहरा दिया


शांति नीड़ नष्ट होता हुआ

वेबस और असहाय

कि उसके बच्चे काटे जा रहे हैं

प्रतिनिधित्व की बातें होती है

हम हिंदुत्व का प्रतिनिधित्व करेंगे

हम मुस्लिम का प्रतिनिधित्व करेंगे

लेकिन मानवता के अस्तित्व का...!

जो आज खतरे में है


ईश्वर! 

तुम्हारे विस्तृत आँगन का फूल

मंदिरों में चढ़ता है

मस्जिदों में सेहरा बनता है

राम को रिझाते हैं

अल्लाह को मानते हैं


तुम्ही राम हो, तुम्ही रहीम

तो फिर भागो मंदिरों से

भागो मस्जिदों से

जाओ आसमान की ऊँचाइयो पर

दिनकर, शशि सितारों के संग

बसो , गिरिवन, नदियों की तरंगों पर

सागर की लहरों पर।



मेरा ईश्वर


मै तुम्हे क्यों मानूँ

कि तुम मेरा ईश्वर हो?

तुमने तो मिलने या सामने आने का

विश्वास भी नहीं दिलाया


देखा भी नहीं मैंने

तुम्हारा रूप रंग, आकार,  प्रकार

सुना भी नहीं, तुम्हारे शब्द की खनक

द्रुपद, ताल, विस्तार


रोज मंदिरों में कीर्तन करता रहा

फूल पान और दूध का अर्घ्य चढ़ाया

सेवा और उपासना का व्रत लिया

मेरे नैन तुम्हारी एक झलक पाने को

जार-जार होते रहे 


शीतल समीर के एक-एक नाद पर

कुतूहल नेत्रों से देखता रहा

चारों ओर, दुराकाश तक

फिर भी तुम सिरे से गायब रहे 

फिर तुम, ईश्वर हो ही नहीं


मैं फिर भी विश्वास करता हूँ

नहीं, जो मेरे अंतर में

हृदयाकाश में विश्वास करा ही जाता है

सूर्य, चाँद, सितारे

वन, उपवन, पर्वत, शिखर


कोमल धरती का राग रंग

विस्तृत समीर का झोंका

प्राणमयी जलधारा

सरिता, सागर की लहरें

तरुओं की छाया, वृन्दो का पाठ

प्राणियों का स्वतंत्र विहार


मैं उसी का कोरस गाऊंगा

वह मेरा ईश्वर है 

वही मेरा दाता...!



संस्कार


जब वे अपने कुंज में विश्राम पूरा कर

एक और चिर विश्राम गृह में जा रहे थे

सदा सदा के लिए!


मृत्यु के सुगबुगाहटो के साथ

अपने विश्वास का रथ दौड़ा कर

अपने अलंकारों 

और गाथामय सम्मानों के निमित

सकल भुवन को बतला गए थे

कि अपने अध्यात्म बल से

जो बनाया हूँ महिमामंडित पोत

गौरव, स्वाभिमान, बीते युग का अरमान

संचित धन, स्वध्याय का दान

आशा कर, मृदुल सौम्य राग

सिरज कर रखोगे

पहरे पर लोग लगेंगे

सतर्क स्वेदकन बन गंगा की धारा


इस सृजन को और खीचेंगे

और बढ़ेगी हरियाली

और चमकदार विस्तार

और निहाल होगी सभ्यता

लेकिन आदर्श के विवर से

नियति का वाण, हतप्रभ हम

रचना लुप्त, भावनाहीन, संज्ञा शून्य


सीप को अगम्य सागर में खोने का रंज

तृष्णा से अट्टहास लगाते दैत्यों का भय

प्रतिवाद के एक भी शब्द कहने भर से

पहले ही, उसे तबाह हो जाने का शोक


तो हे उद्धात पुरुष! गौरव लक्ष्य...

कला, साहित्य के महान रचनाकार

तुमने कैसे सोच लिया था कि

तेरे अंतिम साँस पूरा होने के साथ ही

तेरा अद्वितीय शिल्प, काव्य सृजन

बचे रहेंगे युगों-युगों तक


उस शांत सरोवर में उन्मेष नहीं आएगा तनिक भी

क्या तुम्हें विश्वास नही था

कि उसका भी मृत्यु होगा एक दिन

कि उसे भी जीवन की परिधि में

सिमट जाना होगा


नहीं जानते थे तुम!

कि यहाँ रोज आदर्शों का कत्ल किया जाता है

गौरवशाली इतिहास और पवित्र ग्रंथों को जला कर

पेट भरने का सामान तैयार किया जाता है


अच्छा होता यदि तुम, प्रस्थान करते समय

साथ ले जाता अपना तमाम अलका नगरी

जैसे सलिल बिना ठहरे

अपने उर्वरकों को ढोते

सागर में उतरकर खो जाता है

अपरिमित जल समूह में





पिटी हुई औरत


डर और पीड़ा से तरबतर

वह जीवन को जीती जाती है

कुछ गम, थोड़ा अवसाद

छलावा, पछतावा, लुटे जाने का रंज

विलाप करती, करुणा बलखाती


मूर्छित सा चेहरा

एक खामोशी

तालुओं से चिपकी हुई

कंठ अवरुद्ध और बेजान

मुक्त और कोमल शब्द अनजान

शरीर में एक कंपन होता है

और वह बस पीड़ाओं में जी रही है

घुटन भरी एक निर्बल सी जिंदगी


संकेत, आदेश के वर्जनाओं में दम तोड़ती

नित्य लूटी जा रही है

भूखी, नंगी, सिसकती

गलियों की क्षीण होती रोशनी में,

भटकती ठोकर खाती,

चेहरे पर नकाब है

और वह पिटी हुई है।



जनता को बदल डालो


जनता को बदल डालो

क्योंकि, प्रतिवाद का एक लहर

तुम्हें निरंकुश बनाने में

बाधा पहुंचाएगा


बीते युग का आश्वासन

गायब हो गया, नीलगायों की सींग की तरह

यहाँ चीखें और चीत्कार गूंजती रही

भय से वात कांपता रहा

और तुम मस्त रहे राम रसायन पीने में


दंगा, फसाद, तीर्थों पर धमाका

हवा में तैरते इंसानी गोश्त

जीवन को मरघट में बदलने का प्रयोजन

तुम नीति की गाथा अलापते रहे


नंगे भूखे बच्चे

धरती पर आखिरी नींद पूरा करता

मौत ही उसका विकल्प

खून से लथपथ काया

माता का क्रंदन, वधु का श्रृंगार

जलता हुआ, सुहाग का वसन

तुम मानवता का कोरस गाते रहे


प्रतिहिंसा की धधकती हुई आग

अनंत कांपता हुआ

इधर लूट, उधर डकैती

दैत्याकार अट्टहासों के बीच

सौम्य, विनीत चीत्कार

उधर तुम्हारा तंत्र

एक-एक पहरेदार

ऊंघता रहा रात भर

और तुम नीरो के संपोषक

जार की औलाद

विकास पुरुष कहला 

निकलता रहा विजय रथ


फिर सिंहासन की पुकार

तुम्हें जाने होंगे राजतंत्र

तो बदलो लोग 

बदलो भूखंड

क्योंकि तुम्हें

नई प्रशस्तियां दुहराने होंगे

गढ़ने होंगे,जय जन मन का साम्राज्य।


दासत्व


मैं पूरी जिंदगी संघर्षों में गुजर दी

जिसमें उन्मेष था

उसके गर्भ में, हर काल में

डर, क्रंदन, पीड़ा और घुटन था

जैसे शीलन भरी कोठरी में

जी रहा हूँ, जबरन जिया जा रहा हूँ


रोजों देखता पंक्षियों का मुक्त विहार

स्वतंत्र कलरव..... .

और मेरे मुख पर

उद्धत और पवित्र लफ्ज

बोलने की भी शख्त मनाही थी


टहनियों पर खिले फूलों की लहलौक

और मेरे मुख पर ताले पड़े हैं

दासत्व की बेड़ियां

पूरे वजुद को कड़कड़ा रही है

गौरैयों की ची-ची उसका अधिकार है


मैं अपना अधिकार तलाशता हूँ

दीन में, श्रम में, शून्याकाश में

सामने विशाल काली दानवी शिलाओं के पीछे से

एक आवाज आती है


जैसे कुछ खोये जाने की तड़प

लुटे जाने का आतंक

जलने की धूं-धूं 

मैं विचार करता हूँ 


अचानक चलचित्र की तरह एक तस्वीर उभरता है

एक सौम्य सुडौल मटमैली युवती

शायद उसके अरमानों की चिता जल रही है

उसके अनमोल वस्तु पर डाका डाला जा रहा है


गुदड़ी की शक्लों में

उसके वस्त्र फाड़े जा रहे हैं

फिर एक जोरों का अट्हास

मर्माहत पीड़ा के स्वर दब गए


मैं अपने को उकसा रहा हूँ

सार्वजनिक विद्रोह को आत्मस्वीकार करने के लिए

अपने को गुस्सा दिला रहा हूँ

कि उन दैत्यों से चार-चार हो जाऊं

कपट-छल को जाहिर कर दूं

अपने युग और काल में


लेकिन फिर ख्याल आता है

मैं तो विवश हूँ, भय की त्रासदी है

फिर बेड़ियों की फड़फड़ाहट

दासत्व का कसैला स्वाद

आँखे लज्जा से झुकी आती हैं


यहां तो मानवीय हितों की बात करना वर्जित है

हमें तो बोलने दिया जाता है, दानवों के साथ

हँसने दिया जाता है, एक पैचासिक हंसी

और ऐसे विद्वान के शर्त के विरुद्ध

जो बोलने की कोशिश करता है

वह पहले ही स्वयं को बर्वाद पाता है।

 


 


सोया हुआ विद्रोह


मेरे विपुल आशा की रचना

तुम काँप क्यों रहे हो?

मेरे अधिकार

तुम कहाँ भागे जा रहे ही?


मुझे क्यों खो देना चाहते हो?

मैं  डरते,  भय से कांपते

जीवन गुजार रहा हूँ


अपशब्द मुख को कातर बनाता

मैं पवित्र शब्दों को थोड़ा सा ऊर्जावान बनाता हूँ

और पागल करार दिया जाता हूँ


लोग तालियां बजाते हैं

उपहास करते हैं मेरा और मेरे स्वाभिमान का

सीलन भरी अंधेरी कोठरियों में कैद

कोयल की तान के साथ

सुनना पड़ता है पहरेदारों के तीखे कड़वे वाक्य

घृणित, असभ्य, कुशासन के शब्द


अट्हास लगाते दानवों का शोर 

पवित्र और कोमल शब्द

तू मेरे अंतर में क्यों नही बसती

क्या इसीलिए कि मेरी तबाही होगी

तूफान मुझे दबोचेगा

अपने कठोर जबड़ो में

और तुम खून के आँसू रोओगी


अहिंसा, तुम दहशत में क्यों पड़ी हो

साहस, नीति, न्याय क्यों छोड़ती हो

मैं पीड़ा से तप्त हो कर

ईश्वर की दुहाई देता हूँ


तब मेरे कर्तव्य

शिखर पर दीप्तमान लक्ष्य

तुम क्रंदन के कितने स्वर सुनोगी 

कब तक मनाओगी रंज

मेरे अरमानो की चिता जल रही है

और मैं बेवस हूँ 


मेरे ही श्रम से महल बनते हैं

मैं भूख से व्यग्र हूँ

मेरे बच्चे काटे जा रहे हैं

खुलेआम सड़कों पर

मैं चीख चिल्ला कर खामोश हो जाता हूँ


दासत्व की कड़ियाँ पूरे वजूद को जकड़ रही हैं

मैं कसमसा कर रह जाता हूँ

मेरे मन तू विद्रोह क्यों नही  करता

खिलाफत क्यों नहीं करता?


विरोध का एक शब्द भी नही कहना 

मेरी बेमानी है

मेरा ही शोषण है

मेरे ही पाशविकता का आहार।



क्या गाओगे


क्या गाओगे

प्रेमगीत या जयगान


डर  से कांपता हुआ जीवन

कुछ वेदना, कुछ पछतावा

तपन,  कुछ विराग

क्या पाओगे।


जगत में जो मिला सो मिला

उसी में कुछ पा लिया, कुछ खो दिया

थोड़े से उमंग में कुछ तत्व पा

कभी हंस दिया कभी रो लिया


नियति का धमाका

पुत्र  का आत्मदाह

चिता की धू—धू

पिता का पुत्र शोक

वधु का विलाप

अब नहीं कोई कृष्ण

क्या समझाओगे तुम


गिरती दीवारों की आहट

वीराना सा खंडहर 

बेदम होती जिंदगी

आकाश उसका छत

धरती ही उसका आश्रय

नही कुटीर भी शेष 

क्या बनाओगे


बंजर होती धरती

सूखती हुई नदी 

उड़ते रेत के बगुले

पानी की गुहार

कहो प्यासे कल्प बीज

क्या उगाओगे



एक दुर्लभ जीव हूँ मैं


मेरे दोस्त, माफ करना

ध्वस्त करता तुम्हारा जीवन

जब वजूद से उखड़ चुके होंगे तुम

तुम्हारी निर्ममता से हत्या होते समय

तुम्हारी बर्बादी पर जश्न मनाते

नरपिशाचों की पंक्ति में मैं भी शामिल मिलूँगा


नवजात बालकों, क्षमा कर देना

तुम्हारा भूख से तड़पना मुझे रूला देता है

अंतिम हिचकियों के साथ तुम्हारा दम

टूट रहा  है

और मैं  हारे जुआरियों की तरह

बेबश, लज्जित  हूँ

अपने ही घृणित घोर  तिरस्कार पर


प्रिय, कम से कम तुम तो माफ ही कर देना

तुम्हारे यौन शुचिता पर प्रहार होगा

बेआबरू, तुम हवस की बलि चढ़ोगी

और कायरों की तरह वेबस मैं

परम उच्छवास के साथ तमाशा देखूँगा


धरती, प्रश्रय देना मुझे

तुम्हारे दर्प छाती पर रेंगने वाला

एक दुर्बल जीव हूँ मैं

जर्जर रुग्नकंठ फुट पड़ो ऐसे

लज्जातुर इतिहास के स्पंदन में

सब कुछ प्रलय के साथ भस्म हो जाए।





मेरा चाँद लौटा दो


मुझे मेरे तन पर 

कपड़े नहीं दे सकते तुम

तो मेरा सारा आकाश लौटा दो

तुम रहते रहो बिजली की चकाचौंध में

मुझे मेरा चाँद लौटा दो


तुम सोते रहो गर्म मखमली बिस्तरों में

घमंड मत करना कि जंगल तेरा है

और न ही अधिकार बतलाना

कि, सूर्य की गर्मियों में सिर्फ मेरा ही हक है

लौटा सको तो, लौटा दो मेरी घृणा,

तिरस्कार, अपमान, कुशब्द

मेरे सारे-सारे अपराध

क्रूरता, बर्बरता, चीखें, पुकार


लौटा दो मेरी मलिन एल बस्तियों के

बजबजाते सड़ांध दमघोंटू दुर्गंघ

मेरे छूते ही, पाप को बहती गंगा में  मत धोना

लौटा दो मेरा नरक


मेरे ऊपर किए घृणित कुकर्मों को

तुम  अपने पवित्र यज्ञ मंडप में

शुद्ध मंत्रोच्चारण से पवित्र  नही कर पाओगे

तुम्हारे  व्रत  त्योहार गंदे हो जाएँगे

घिनौने लगने लगेंगे तुम्हारे वेद पुराण

गूंगी बहरी हो जायेगी तुम्हारी मनुस्मृति।



श्लोक पढ़े जाएंगे


गोली, क्यों बनाया

बनाया किसने, जो जीवन को हर लेता है

जीवन तो देता नहीं

देता है अशांति, आक्रोश, घृणा

चीख पुकार  

चीथड़ों की शक्ल में तबाही का संगीत

किसने बनाया होगा गोली


एक नवजात को सींचने संवारने में

लग जाते हैं वर्षों-वर्षों

कितनी संजीवनी जुटानी पड़ती है

माँ की उमीदों से भरी लोरियाँ

पिता के सपनो के धरोहर की तरह

संगृहित, संरक्षित

और कितनी कुशलता से खामोश कर दिए जाते है

बस पल भर में,


ये नफरत की गहराती खाइयां

इन्सानियत को दफ़नाती ये  घृणित गंध

सुनहले पंखो को लहूलुहान करती, 

ये कुत्सित प्रवित्तियां

आखिर जीवन हरण का खेल

कब खत्म होगा?


कब निकलेगा वो उजाला

कब धरती के सारे प्राणी रहेंगे घुलमिल

जहाँ कोई जाति नहीं

कोई धर्म नहीं, कोई भेद नही


हाँ, वो उजाला

आएगा एक दिन

नया सवेरा होगा

श्लोक पढ़े जाएँगे

जीवन के, दर्शन के,

इन्सानियत के

 


 


कोहरा


जनवरी के इस कहर बरसाती ठंड में

जबकि कोहरे के भयंकर धातुई जबड़े ने

अपने पूरे विराटता के साथ

जिंदगी की जंग को परास्त कर

विजय गर्व से ठहाके लगा रहा है


सूर्य नतमस्तक हो दुबक गया है कही

पूरे-पूरे दिन भर के लिए

और मैं कविता, लिखने की ज़िद पर अड़ा हूँ


कपटी हवाएं पूरे वजूद को झनझना रही हैं

मोहक, संतुर की भाँति

रक्त ठिठुर कर शिराओं में ही जमने को विवश

हड्डियां सिकुड़ कर कोई और ही शक्ल

ईजाद कर रही है जिन्दगी का


मैं  कपकपाते हुए जनतंत्र को

उजागर करना चाहता हूँ  पूरी  दृढ़ता के साथ

उसके पाषाणी चेहरे, विकृत मुखों, को

लेकिन, लंगड़ी लूली  अंगुलियां आक्रांत है

लेकिन” को पकड़ने से-षड्यंत्र रचते शब्द

आ-जा  रहे हैं


लेकिन करूँ क्या, मैं निसहाय, नि:श्वास

अखबार के पन्ने मुश्किल से ही देख पाता हूँ

एक इश्तेहार झकझोरता है कि

सामान्य से सामान्य मानव

अपनी जिंदगी की जंग हार रहें हैं

बेआवाज, बेआबरू, दास्तां कहते-कहते



आत्मग्लानि


मैं  बनारस के एक इंटरनेशनल हॉटल के सामने

तारों की व्यापक उदासीनता के साथ खड़ा हूँ

और देख रहा हूँ  पार्किंग में खड़े

चमचमाते कारों के काफिले को

पूरी आत्ममुग्धता के साथ

और अपनी उपस्थिति को भूल जाता हूँ


साथ आए हुए बुजुर्ग व्यक्ति मुझे इशारा करते हैं

और मैं आलीशान इमारतों को

सिर्फ निहार भर रहा हूँ

दूधिया प्रकाश में नहाए

सैकड़ों बल्बों के साथ

रईस लोगों के जमावड़े

हंसी ठहाकों के मध्यस्त

पल-पल मैं भी कर रहा हूँ विनोद


आश्चर्य, अविश्वश्त,  हतप्रभ,,

चकित... मैं अपनी उपस्थिति देखता हूँ

तन पर मैले-कुचैले बेतरतीब लिबास

ठंढ से सिकुड़ता काँपता

भय और करुणा से  आस-पास ताकता हूँ

और खुद को दीन-हीन  लाचार पाता हूँ 

डरता हूँ आगे बढ़ने से।


तुमने क्या दिया


मैं विद्रोही ज्वाला हूँ

आया हूँ आग की तपिश ले कर तो

जगत को झुलसा ही दूंगा


मेरा उर है विकराल और भयंकर

लहराऊंगा जन मन को नित्य निरंतर

फिर अकुलाऊंगा नित्य प्रखर 

भूख के काले बरछे बरसेंगे

करूँगा बेवस और लाचार

बन जाऊंगा बेवस, आँसू का पारावार


वो तड़प उठेगा

बिलखेगा, रोएगा, पछताएगा

और मैं लगाता जाऊंगा

जोरों का अट्टहास


और उसे चीत्कार की तपिश दे कर

मौत की गहरी नींद सुलाता जाऊंगा

जो श्रम से थक चुके हैं

उन्हें मैं विश्रांति दूंगा

जो पा न सका अधिकार

उसे ज्वालामुखी की कांति दूंगा

क्योंकि तुम्हारा महान जनतंत्र

उसे क्या दिया आज तक।



सम्पर्क

 

घर-असनी, पोस्ट-बलिया

थाना-गुरारू, जिला-गया, 

बिहार

पिन न. 824205

 

ईमेल-surendraprar01@gmail.com

Mob. 7061821603

          9006248245


 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं