रुचि बहुगुणा उनियाल की कविताएं

 

रुचि बहुगुणा उनियाल


दुनिया में हरेक बिम्ब का अपना प्रतिबिम्ब होता है। यानी जो कुछ भी है उसका एक और अक्स प्रतिबिंब के रूप में होता है। यह दृश्यमान होने के साथ साथ अदृश्य भी होता है। दृश्य का प्रतिबिंब तो सभी सहज ही देख सकते हैं लेकिन अदृश्य का प्रतिबिंब देख पाना रचनाकार के लिए ही सम्भव है। यह रचनाकार की अंतर्दृष्टि के चलते ही सम्भव हो पाता है। रुचि बहुगुणा उनियाल अपनी कविताओं में ऐसे बिम्ब रचती हैं जो सहज ही अपनी तरफ ध्यान आकृष्ट करते हैं। रुचि छुवन का प्रतिबिंब रचती हैं। वह छुवन जो अपने प्रिय जनों के लिए हम सहज ही महसूस करते हैं। वह छुवन जो दिल दिमाग पर हमेशा के लिए टंक सी जाती है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं रुचि बहुगुणा उनियाल की कुछ नई कविताएं।



रुचि बहुगुणा उनियाल की कविताएं




पिता का मिलना 


जन्मदिन पास आने पर
अक़्सर ही आने लगते हैं पिता सपनों में
मुझे कई-कई बातें समझाते हुए..... लाड़ से दुलारते पिता
स्वप्न में भी महसूस कर लेती हूँ
पिता के स्नेहिल स्पर्श को


उनके इस संसार से जाने के बाद
कितने ही महीनों तक
कान किसी और आवाज़ को सुनने से इंकार करते रहे थे
मैं उनके स्वर को ही उनका स्पर्श मान
अपनी आत्मा को फुसलाती /दुलारती 
थपकी दे कर सुलाने का प्रयास करती रहती


छुटपन में जब भी कोई डांटता 
पिता होते मुझे संभाल लेने के लिए
माँ की डांट से बचने, भाईयों से झगड़े में जीतने
और मेरी हर ख़्वाहिश को पूरा करने के लिए
पिता की ओर देखती तो वो मुस्कुरा के मेरी हर इच्छा पूरी करते।


अचानक दुनिया छोड़ गए पिताओं की आत्मा जानती है
कि दूर किसी पहाड़ पर सर्दियों की आहट होते ही
उनकी लाड़ली 'चखुली' का जन्मदिन आने वाला है


खिलने वाला है हरसिंगार जो उनकी लाड़ली का पसंदीदा है


उन दिनों में पिताओं की आत्मा पितृ पक्ष का नियम तोड़ती है
आते हैं पिता रोजाना सपने में अपनी 'पोथली' के!


अपने बच्चों के पिता को घर लौटते देखती हूँ
तो जैसे अपने पिता से होता है मिलना फिर-फिर


पति जब अपनी जेबों से निकालते हैं बच्चों के लिए लायी टॉफियां
बरबस ही पिता आ कर सामने खड़े हो जाते हैं
पति से छुपी नहीं है ये बात कि बिना पिता की बेटी को अधिक प्रेम की आवश्यकता होती है


मैं रोजाना से अधिक उत्साह से देती हूँ पति को पानी का गिलास 
चाहती हूँ लौटते रहें सब बेटियों के पिता
शाम ढलते ही अपनी बच्चियों के पास
ताकि उन्हें पिता से मिलने के लिए 
सपने का इंतज़ार न करना पड़े!



आँखें और कान


आँखों में हुई बातचीत
जब-जब भी स्पष्ट नहीं हो सकी
तब-तब ओंठो ने दोहराई
और उन बातों को सुनने का सुख
कानों को मिला!


लिखी गई बातों से
उतना कष्ट नहीं हुआ हृदय को
जितना कही गई बातों का असर हुआ
क्योंकि आँखों के पास सीधा हृदय का पता था
जबकि कानों के पास था मस्तिष्क का पड़ाव! 


जब-जब भी कोई संदेश देना चाहा प्रेमियों ने
तो आँखों ने बंद हो कर कानों को वरीयता दी
क्योंकि कान आँखों सा व्यवहार करना जानते थे
लेकिन आँखें ऐसा हुनर नहीं रखती थीं!


कानों ने निभाई जिम्मेदारी
किसी डाकिए की तरह
जब खुशी सुनी तो पैरों ने उछलकर जताया
हाथों ने अभिवादन करके जताया
और आँखों में आए आँसू बेसाख्ता!
बस कान ख़ुद नहीं जता पाए खुशी, ग़म, ग़ुस्सा किसी भी तरह!


अबोध शिशु को सबसे मीठा संगीत
माँ की छाती से लग कर सुनाई देता है
जिसे सुनते ही उसकी आँखों में
नींद की आमद होती है 
कानों ने माँ के हृदय से शिशु को
जन्म के बाद तुरंत ही जोड़ दिया
गर्भनाल के बाद कान ही रहे
जिन्होंने वात्सल्य और प्रेम की जड़ों को सींचा!






छुअन का प्रतिबिम्ब 


तुमसे प्रेम करने के क्रम में
मैंने न जाने कितनी ही मन्नतों के कलावे बांधे हैं
तुम्हारी आवाज़ की छुअन को ही बना
तुम्हारा प्रतिबिम्ब
मैंने हमेशा चाहा कि हम दोनों दो ध्रुवों की भांति न रहें
बल्कि मिलें क्षण भर को ही सही
दिन और रात के बीच मिलन की संधि बेला समान...... 
कंपकंपाती है मेरी आवाज़ और कंठ रुंध जाता है
तुम जानते हो?
मेरी यह इच्छा परमपिता सिरे से नकार देते हैं


पहाड़ी की सबसे ऊंची धार पर खड़ी मैं तुम्हें पुकारना चाहती हूँ
तो मुझे मेरी ही लाज बरज देती है
लज्जा की एक मीठी झिड़की से गाल बुरांश हो जाते हैं
भीतर से आत्मा की दुंदुभी के स्वर
तुम्हारा प्रेमिल साहचर्य चाहते हैं
बाहर मैं तुम्हें न पुकार सकने की विवशता के साथ 
लजाती मौन खड़ी हूँ


इस घोर नैराश्य से व्यथित हो
थरथराती हैं डांडी-कांठी बेतरह और एक नया राग जन्मता है 
तुम्हारी आवाज़ मानो मेरी अमूल्य निधि हो
मैं किसी अन्य स्वर की तरंग भी 
कानों तक नहीं पहुँचने देना चाहती
दोनों हाथों से ढक लेती हूँ अपने कान


मेरी वेदना का अनुमान लगा 
एकाएक नदी की धारा का वेग थम सा जाता है
मछलियाँ मुझे इसके लिए दोषी करार देती हैं
धूप की किरणें मेरे पीले पड़ चुके मुख पर आ कर
मेरी पीड़ाओं का ग्लेशियर पिघलाने ठहर जाती हैं
और टूटता है सृष्टि का नियम
पुनः दोषी बन मैं अपराधियों की भांति 
सिर झुकाए खड़ी हूँ यथावत्
फूल-पत्तियाँ /ऋतुएँ-मौसम/खेत-किसान 
सबकी वक्र दृष्टि से सहम जाती हूँ
समय की सीमाओं को लांघ मैं तुम्हारे लिए प्रतीक्षारत हूँ रे!


अरे ओ लाटे......
क्या तुम जानते हो मैं तुम्हारे लिए ही ध्यानस्थ हूँ प्रतिपल?



चुप्पी और संवाद


1)

नदी के बीच बने छोटे एकांत टीले 
असल में संवाद के मध्य उभर आई
अहम की चुप्पियाँ होती हैं
जो दिखने में दूर से
जितनी खूबसूरत लगती हैं
उतना ही कष्टदायक होता है उनमें रुकना!


2)

प्रेम के संवाद में
छूटे बातों के सिरे
दरअसल वो नावें हैं
जो तट के किनारे लगने की
राह देख रही हैं!


3)

किनारे उल्लास मनाते हैं
नदी के बहाव का
नदियों के प्रवाह के अस्तित्व का महत्व
नावों से अधिक
किनारों को पता होता है!


4)

मन का अहंकार और असहमति
असल में गहरी नदी में विलीन
उन बड़े-बड़े पत्थरों की भांति होते हैं 
जो नदी का प्रवाह
रोकने या बदलने के प्रयास में
डूब जाते हैं
परन्तु संवाद की नदी का जलस्तर घटते ही
अस्तित्व में आ जाते हैं!





रिश्ते और संदेह 


विश्वास की डोर थामे चलती हैं सांसे रिश्ते की
टूटने के बाद जोड़ भी दो तो गाँठें आ ही जाती हैं अस्तित्व में


संबंधो के खुले आकाश में उन्मुक्त उड़ान भरता प्रेम का पाखी
हो जाता है घायल संदेह के धारदार मांझे में लिपट कर।


एक चुप्पी थरथराती है हवा में
और घेर लेती है अपनी सर्द आगोश में रिश्ते की गर्माहट


चुपचाप फुसफुसा कर उपस्थिति दर्ज करा देता है संदेह
रिश्ते की रीढ़ में कूबड़ उभर आता है तुरंत


डबडबायी आँखों से देखता है प्रेम रिश्ते की ओर
संदेह के घाव से लड़खड़ा के गिरती है संबंध की घायल देह।



तुम्हारा होना


सुखों ने केवल देह की देहरी छू कर विदा ले ली थी
जैसे कोई ऊँची जाति वाला अपनी श्रेष्ठता के झूठे दंभ में
दूरी रखता है निचली जाति के लोगों से 
जबकि दुःखों ने बरता  मन  जैसे पंछी के लिए जहाज
फिर-फिर लौटते थे दुःख
मानो दूसरा ठौर न हो उपयुक्त अलावा  मन के


तुम्हारा होना दिहाड़ी मजदूर की रोटी के ऊपर रखा
पीसा हुआ हरी मिर्च का नमक और कच्चा प्याज़ था
जिसपर सरकार और साहूकार दोनों की वक्र दृष्टि सदा से थी


तुम्हारे बिना मेरा जीवन मिट्टी के चूल्हे पे चढ़े 
डेग में खदबदाता /धीरे-धीरे सीझता भात था
या कि कविता का सौंदर्य बढ़ाने की कोशिश में 
बार-बार लिख कर काटी गई पंक्ति

तुम्हारे प्रेम को पाने के क्रम में 
मेरा जीवन जैसे किसान के लिए महाजन का उधार था

जिसे न चुका पाने पर अपनी हंसी की फ़सल 
रख दी थी गिरवी दुःखों के पास। 


प्यार मेरे......


तुम्हारा होना ठीक ऐसा है
जैसे किसी कविता की पंक्ति में तिक्त शब्दों के बीच से प्रस्फुटित होता
एक विरोध का स्वर हो।





ख़ारिज कर दो


अगर तुम्हारा लिखा
बारूद से ज़्यादा विस्फोटक
और लावे से ज़्यादा खौलता
नहीं होता महसूस
निश्चेतन समाज को,


अगर किसी भूखे बच्चे को देख तुम
कविताई तो कर सकते हो
लेकिन अन्न के बिना नहीं
काट सकते एक भी बेला,


अगर भ्रष्टाचार के विरुद्ध
लिखते हो काग़ज़ों पर नारे
और अपना काम करवाते हो
"अंडर द टेबल",


अगर सूखे से आत्महत्या करते
किसानों पर लिखते हो कविता, 
मार्मिक आलेख....
और अपने डायनिंग की प्लेट को
सोशल मीडिया पर डालते हो
टैग लाइन के साथ कि...
"हैविंग डीलिशियस फूड टुडे",


अगर स्त्री अस्मिता पर लिखते हो कविताएँ
स्त्री विमर्श के शीर्षस्थ कवि कहाते हो
और मौका मिलते ही
लगाते हो घात किसी दुहिता पर,


अगर तुम लिखते हो 
नदी, झरने, पेड़, जंगल, पहाड़ अपनी कविताओं में
पर रहते हो कंक्रीट के जंगल में किसी
आलीशान बंगले में एसी की हवा में,


अगर तुम लिखते हो जीवन और मृत्यु
पर भय रखते हो जीवन खो जाने का,


अगर तुम लिखते हो सर्वधर्मसमभाव पर 
नहीं आने देते गली के बच्चों को.. 
देहरी के भीतर एक गेंद की ढूँढ में भी,... 
और ऊँच-नीच, जात-पात के
बंधन से मुक्त नहीं हो अभी तक,


अगर तुम नहीं जानते कि
कवि केवल शब्दों का जादूगर नहीं
बल्कि वह एक चेतना है समाज की,
वह एक विरोध है भ्रष्टाचार का
वह एक आंदोलन है सीमाओं की
कँटीली बाड़ के खिलाफ़
वह एक शब्द योद्धा है जो
हिला सकता है सत्ताओं की चूलें
ला सकता है परिवर्तन
रह सकता है भूखा, प्यासा, उनींदा
और बांध सकता है दो विपरीत ध्रुवों को
शब्दों के अनदेखे पुल से!
यदि तुम नहीं जानते कि कवि है
जो लिख सकता है तितली के
नाजुक पंखों पर समस्त वेद,
कि कवि है जो आकाश के अनन्त विस्तार को
लिपिबद्ध कर सकता है,
कि कवि है जो पानियों पर लिखी भाषाएँ पढ़ना जानता है,
कि कवि ही है वो चितेरा चित्रकार
जो रेगिस्तान में भी रंगों के फूल खिला सकता है,
कि कवि है जो
सूरज को जुगनुओं के घर
द्वारपाल नियुक्त कर सकता है,


तो........


तुम अपना कवि होने का भ्रम अभी फ़ौरन ख़ारिज कर दो!
 


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्व. विजेंद्र जी की हैं।)
 


परिचय

* नाम : रुचि बहुगुणा उनियाल
* जन्म स्थान : देहरादून
* निवास स्थान : नरेंद्र नगर, टिहरी गढ़वाल
* प्रकाशन : प्रथम पुस्तक - मन को ठौर, 
(बोधि प्रकाशन जयपुर से प्रकाशित)
  प्रेम तुम रहना, प्रेम कविताओं का साझा संकलन 
  (सर्व भाषा ट्रस्ट से प्रकाशित) 

* पिछले तीन सालों से समय-समय पर दूरदर्शन व आकाशवाणी पर रचनाओं के प्रसारण के साथ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरंंतर लेख व कविताएँ प्रकाशित, विभिन्न ऑनलाइन पोर्टल पर सतत रूप से लेख व कविताओं का प्रकाशन, पहलीबार ब्लॉगस्पॉट व अमर उजाला काव्य पेज के प्रतिष्ठित वेब पेज पर रचनाएँ प्रकाशित 


संपर्क 

ई मेल - ruchitauniyalpg@gmail.com
मोबाइल नंबर - 9557796104 

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