हरीश चन्द्र पांडे की कविताएं

 

हरीश चन्द्र पांडे 


एक वस्तु, समय या स्थिति के कई आयाम होते हैं। ये आयाम तब सशक्त रूप से प्रतिध्वनित होते हैं जब एक कवि इन्हें सूक्ष्म दृष्टि से देखता है। हरीश चन्द्र पाण्डे हमारे समय के ऐसे दुर्लभ कवि हैं जिनकी कविताएं पढ़ते हुए वस्तु, समय या स्थितियों के तमाम अर्थ और आयाम खुलते हैं। यह सब कविता के अन्दर ही होता है। यहां अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता। हरीश चन्द्र पाण्डे का हाल ही में एक नया कविता संग्रह कछार कथा राजकमल प्रकाशन से आया है। आज उनका जन्मदिन भी है। प्रिय कवि को जन्मदिन की बधाई देते हुए आज हम पहली बार ब्लॉग पर प्रस्तुत कर रहे हैं इस नए संग्रह से उनकी कुछ चुनिंदा कविताएं। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएं।



हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएं


हरीश चन्द्र पाण्डे की कविता


कछार-कथा 


कछारों ने कहा 

हमें भी बस्तियां बना लो ...

जैसे खेतों को बनाया, जैसे जंगलों को बनाया 


लोग थे 

जो कब से आंखों में दो-एक कमरे लिये घूम रहे थे 

कितने-कितने घर बदल चुके थे फौरी नोटिसों पर 

कितनी-कितनी बार लौट आए थे जमीनों के टुकड़े देख-देख कर 


पर ये दलाल ही थे जिन्होंने सबसे पहले कछारों की आवाज सुनी 

और लोगों के हसरतों की भी थाह ली, उनकी आंखों में डूब कर 


उन्होंने कछारों से कहा ये लो आदमी 

और आदमियों से कहा ये लो जमीन 


डरे थे लोग पहले-पहल 

पर उन्हें निर्भय करने कई लोग आगे आ गए 

बिजली वालों ने एकांत में ले जाकर कहा, यह लो बिजली का कनैक्शन 

जल-कल ने पानी की लाइनें दौड़ा दीं 

नगरपालिका ने मकान नम्बर देते हुए पहले ही कह दिया था

...जाओ मौज करो 


कछार एक बस्ती है अब 


ढेर सारे घर बने कछार में 

तो सिविल लाइंस में भी कुछ घर बन गए 

लंबे-चौड़े-भव्य 


यह कछार बस्ती अब गुलो-गुलजार है 


बच्चे गलियों में खेल रहे हैं 

दुकानदारों ने दुकानें खोल ली हैं 

डाक विभाग डाक बांट रहा है 

राशन कार्डों पर राशन मिल रहा है 

मतदाता सूचियों में नाम बढ़ रहे हैं 


कछार एक सर्वमान्य बस्ती है अब 


पर सावन-भादो के पानी ने यह सब नहीं माना 

उसने न बिजली वालों से पूछा न जल-कल से ना नगरपालिका से न दलालों से 

....हरहराकर चला आया घरों के भीतर 


यह भी ना पूछा लोगों से 

तुमने तिनके-तिनके जोड़ा था 

या मिल गया था कहीं एक साथ पड़ा हुआ 

तुम सपने दिन में देखा करते थे या रात में 

लोगों ने चीख-चीख कर कहा, बार-बार कहा 

बाढ़ का पानी हमारे घरों में घुस गया है 

पानी ने कहा मैं अपनी जगह में घुस रहा हूँ 

 अखबारों ने कहा 

जल ने हथिया लिया है थल 

अनींद ने नींद हथिया ली है 


अब टीलों पर बैठे लोग देख रहे हैं जल-प्रलय 


औरतें जिन खिड़्कियों को अवांछित नजरों से बचाने 

फटाक से बंद कर देती थीं 

लोफर पानी उन्हे धक्का देकर भीतर घुस गया है 

उनके एकांत में भरपूर खुलते शावरों के भी ऊपर चला गया है 

जाने उन बिंदियों का क्या होगा 

जो दरवाजों दीवारों शीशों पर चिपकी हुई थीं जहां-तहां 


पानी छत की ओर सीढ़ियों से नहीं बढ़ा बच्चों की तरह फलांगते 

न ही उनकी उछलती गेंदों की तरह टप्पा खाकर ...

अजगर की तरह बढ़ा 

रेंगते-रेंगते, मकान को चारों ओर से बाहुपाश में कसते 

उसकी रीढ़ चरमराते 


वह नाक, कान, मुंह, रंध्र-रंध्र से घुसा 

इड़ा-पिंगला-सुष्मन्ना को सुन्न करते 


फिलहाल तो यह टीला ही एक बस्ती है 

यह चिंताओं का टीला है एक 

खाली हो चुकी पासबुकों का विशाल जमावड़ा है 

उऋणता के लिए छ्टपटाती आत्माओं का जमघट है 

यहां से लोग घटते जलस्तर की कामना लिए 

बढ़्ता हुआ जलस्तर देख रहे हैं 


वे बार-बार अपनी जमीन के अग्रीमेंट पेपर टटोल रहे हैं 

जिन्हे भागते-भागते अपने प्राणों के साथ बचा कर लाये थे।





यमुना इलाहाबाद में, संगम होती हुई


यमुना इलाहाबाद में


कभी-कभी मुझे यह साफ़ आसमान से काटी गई एक हल्की

नीली पट्टी लगती है।

कभी-कभी दोआबी ज़मीन लिए साड़ी का किनारा

और कभी-कभी जमुना पार गाँव की जमना देवी 

जिसने औरत होने के क्रम में अपना पूर्व उपनाम गँवा दिया है।



कभी-कभी मुझे लगता है यह सागर की बेटी हैं।

यह प्रशान्तता और गहराई इसने और कहाँ से पाई होगी

यह बात अलग है इसकी गहराई को लोग आत्महत्या के लिए

अधिक चुनते हैं

और शायद आत्महन्ताओं के अन्तिम पलों की छटपटाहट का 

सबसे बड़ा जखीरा इसी के सीने में होगा



कभी-कभी इच्छा होती है कह दूँ समुद्र से जाकर

कि वह अपनी समुद्रता वापस ले ले

पर तब उस उथलेपन में डूब जाता हूँ 

जिसके रेतीले ढेर में माफ़िया बन्दूकें रोप दी गई हैं


कभी जब किनारे बैठ इसके जल को हथेलियों से उलीचता हूँ तो लगता है

ये जो नसों का जाल बिछा हुआ है मेरे शरीर में 

नसें नहीं, यमुना से निकाली गई नहरें हैं


इसे देखने महसूस करने की सबकी अपनी-अपनी दृष्टि है अपने-अपने कोण 

इसे अकबर के किले के झरोखे से रानी की आँख बनकर देखा जा सकता है

इसे अक्षय बट की जड़ें बन कर छुआ जा सकता है 

इसमें गोता लगा कर किसी मिथकीय गेंद को हेरा जा सकता है देर तक


कभी-कभी यह जानना मुश्किल होता है यह किधर से किधर यह रही है 

ऐसे में निर्जीव पदार्थ बताते हैं इसकी बहाव दिशा...



संगम होती हुई


एक नाव जो चली है अभी-अभी क़िले के पास से संगम के लिए 

उसमें बैठी सवारियों के हाथों में फूली मकई के पैकेट हैं 

कुनकुनी धूप में नीली छतरी के नीचे उछल रहे हैं फूले सफ़ेद दाने 

ऊर्ध्वमुखी चोंचों की खेपें उभर आई हैं हवा में 

असमिया भाषा में उछाला गया एक दाना जा गिरा है स्थानीय जलपाखी की चोंच में

तमिल में उछाला गया दाना एक साइबेरियन चोंच में जा समाया है

नाव धीरे-धीरे पहुँच रही है संगम पर


अगर जाननी हो परकाया प्रवेश पूर्व की मनःस्थिति 

तो इसे अभी मल्लाहों के हवाले से समझा जा सकता है 

एक मल्लाह ही पा सकता है नदी के अन्तर्मन की थाह 

मल्लाहों के चूल्हे की आग का रास्ता नदी के पानी से हो कर गुज्जरता है।


'संगम आइ गवा साहेब'

ऊँची आवाज में बोलता है नदी की पाठशाला में पढ़ा-बढ़ा मल्लाह 

आवाज़ का भी अपना एक धर्म है

वह उसी तक नहीं पहुँचती जिसके लिए उठाई गई है

सो मल्लाही भाषा की आवाज़ पहुँच गई है गोदान-पिंडदान भाषा तक


पर भाषाएँ पानी नहीं कि आलिंगनबद्ध हो जाएँ मिलते ही

मिलें भी तो कैसे

एक भाषा का उदर बाहर निकला है 

दूसरी भाषा का भीतर धँसा हुआ 

एक भाषा नदी पार करा रही है 

दूसरी भाषा योनियाँ


पानी एक हो गया है भाषाएँ ठिठक गई हैं

यमुना बृहद् धारा होकर आगे बढ़ गई है

मल्लाह धारा के विपरीत तैरते वापस आ रहे हैं यमुना किनारे


मल्लाह ही हैं वे साक्ष्य जो कह सकते हैं 

कि हमने यमुना को उसके अन्तिम चरण में देखा है 

वही कह सकते हैं हमने यमुना को संगम होते देखा है 

और वही कह सकते हैं 

कि सभ्यताएँ संगमों का इतिहास हैं 

अकेले अकेले का खेल नहीं...



मैं इक्कीसवीं सदी का एक दृश्य हूँ

(पत्नी के शव को अकेले कन्धे पर ले जाते हुए दाना माँझी को टीवी पर देखते हुए) (1)


मैं बहुत देर तक अपने कन्धे के विकल्प ढूँढ़ता रहा 

पर सारे विकल्पों के मुहाने पैसे पर ही जा कर गिरते थे


मेरे पास पैसों की जमीन थी न रसूख की कोई डाल

हाथ-पाँव थे मगर उनमें गुंडई नहीं बहती थी

हाँ, अनुभव था लट्ठों को काट-काट कर कन्धे पर ले जाने का पुराना 

मेरी बेटी के पास यह सब देखने का अनुभव था


मुझे जल्दी घर पहुँचना था 

अपने घर से बाहर छूट गए एक बीबी के प्राण 

चर के जालों कोनों में अटके मिल सकते थे


मेरा रोम-रोम कह रहा था यहाँ से चलो

मैं जैसे मणिकर्णिका पर खड़ा था किंकर्तव्यविमूढ़ 

और कोई मुझसे कह रहा था 

तुम्हारे पास देने के लिए अभी देह के कपड़े बचे हुए हैं


मेरी आँखों ने कहा तुमने मोर्चे पर लड़ रहे सिपाही को

अपने हत साथी को शिविर की ओर ले जाते देखा है ना 

मेरे हाथ पैर कन्धे समवेत स्वर में बोल उठे थे

यह हमारा साख्य-भार है बोझ नहीं


मैंने पल भर के लिए अपनी बेटी की आँखों में शरण ली 

उपग्रह-सी नाचती वह लड़की अभी भी अपनी पृथ्वी को निहार रही थी


मैं बादलों-सा फट सकता था

पर बिजली बेटी के ऊपर ही गिरनी थी

उसने भी अपने भीतर एक बाँध को टूटने से रोक रखा था

उसके टूटने ने मुझे जाने कहाँ बहा ले जाना था


हम दोनों एक निःशब्द यात्रा पर निकल पड़े.. 

यात्रा लम्बी थी मेरी बच्ची के पाँव छोटे

तितलियों के पाँव चलने के लिए होते भी कहां हैं 

वे तो फूलों पर बैठते वक्त निकलते हैं बाहर 


मेरी तितली मेरे कन्धों के छालों की ओर देख रही थी बार-बार 

पर ये सब तो वे घाव थे जिन्हें उजाले में देखा जा सकता है और अँधेरे में टटोला 


हम दोनों चुप थे मौन बोल रहा था

मौन का कोई किनारा तो होता नहीं 

सो कन्धे पर सवार मौन भी बोलने लगा था


-महाराज! आज इतनी ऊँचाई पर क्यों सजाई गई है मेरी सेज? 

शबरी के लाडले क्या इसी तरह जताते हैं अपना प्यार?

आज ये कहाँ से आ गई इन बाजुओं में इतनी ताकत?

तुम्हारा गया हुआ अंगूठा वापस आ गया क्या?


सभी काल अभी मौन की जेब में थे

रस्ता बहुत लम्बा था

मेरे हाथ पैर कन्धे सब थक रहे थे

याद आ गए वे सारे हाथ

जो दान पात्रों के चढ़ावों को गिनते-समेटते थकते नहीं 

मेरे जंगल के साथी पेड़-पौधों ने मेरी थकान को समझ लिया था

उन सबने मेरे आगे अपनी-अपनी छायाएँ बिछा दीं


मैं गमजदा था मगर आदमी था अस्पताल से चलते समय 

पर रस्ते में ये कौन कैसे आ गया

कि मैं दुनिया भर में एक दृश्य में बदल दिया गया


.... हाँ मैं अब एक दृश्य था 

मैं सभ्यता के मध्याह्न में सूर्यग्रहण का एक दृश्य था

इस दृश्य को देखते ही आँखों की ज्योति चली जानी थी 

अनगिनत आँखों का पानी मर जाने पर एक ऐसा दृश्य उपजता है

यह आँखों के लिए एक अपच्य दृश्य था 

पर इसे अपच भोजन की तरह उलटा भी नहीं जा सकता था बाहर


यह हमारी इक्कीसवीं सदी का दृश्य था 

स्वजन-विसर्जन का आदिम कट पेस्ट नहीं 

जब धरती पर कोई डॉक्टर था न अस्पताल न कोई सरकार


यह मंगल पर जीवन खोजने के समय में 

पृथ्वी पर जीवन नकारने का दृश्य था


ग्रहों के लिए छूटते हुए रकिटों को देख हमने तो यही समझा था

कि अपने दिन बहुरने की उल्टी गिनतियाँ शुरू हो गई हैं

पर किसी भी दिन ने यह नहीं कहा कि मैं तुम्हारा कन्धा हूँ 

पता नहीं मैं पत्नी का शव ले कर घर की ओर जा रहा था 

या इंसानियत का शव ले कर गुफा की ओर


मैंने सुना है नदियों को बचाने के लिए 

उन्हें जीवित आदमी का दर्जा दे दिया गया है (2)

जिन्होंने ये काम किया है उन्हें बता दिया जाय 

कि दाना मांझी भी एक जीवित आदमी का नाम है



(1). आदिवासी दाना मांझी की पत्नी अमांग ओडीशा के कालाहांडी जिले के भवानीपटना के एक अस्पताल में टीबी के इलाज के लिए भर्ती थी। उसके इलाज, उसकी मृत्यु व उसको ले जाने के लिए गाड़ी की व्यवस्था को ले कर तमाम आरोपों-सफ़ाइयों के बावजूद यह एक निर्विवाद सत्य है कि दाना मांझी को अपनी पत्नी के शव को कई किलोमीटर तक अपने कन्धे पर ले जाते हुए दुनिया ने देखा। साथ में 11 वर्षीय बेटी चौला थी।


(2). न्यूजीलैंड सरकार ने वानगुनई नदी को जीवित आदमी का दर्जा दिया है। यानी नदी को पहुँचाई गई क्षति को क़ानूनन, व्यक्ति को पहुँचाई क्षति माना जाएगा।





क़र्ज़-गाथा


नई स्वेटर क्या पहनी कि लगा 

एक नए कर्ज से लद गया हूँ


कई लोग एकाएक सामने आ गए


भेड़ों का क़र्ज़ सबसे बड़ा था

वे एक-दूसरे को ठेलते-धकेलते चले आ रहे थे मुंडियाँ घुमाते


फिर हरे-भरे बुग्याल आ गए 

उनमें बिछी हरियाली का अपना दाय था


फिर वे औरतें आ गईं

जिन्होंने गोले बना-बना कर पन्द्रह-बीस दिन का काम 

मिल-बाँट कर दिन में पूरा कर दिया था


कितनों का क़र्ज़दार हूँ मैं 

मगर एक बड़े शीशे के सामने मुस्करा रहा हूँ।

स्वेटर खींच-खींच कर

जैसे यह क़र्ज़दारों के मुस्कराने का समय है।


यूँ तो मैं पहले ही उतार आया हूँ अपना कर्ज दुकानदार के पास

ऊन बनाने में उसकी कोई हिस्सेदारी नहीं थी

उससे ऊन के दाम को लेकर ऐसी किच-किच कर बैठा 

जैसे वह मछली नहीं, घड़ियाल था तिजारती दुनिया का 

और उसके गलफड़े नहीं जबड़े देखे जाने चाहिए


भेड़ों के बदन का ऊन भेड़ों के लिए था मेरे लिए नहीं 

उन्हें तो मालूम ही नहीं 

उन्होंने किस-किस पर मेहरबानी कर डाली है

जैसे बुग्यालों ने की भेड़ों को अपनी हरी घास दे-दे कर

और उन औरतों का क्या कहना

जिनकी बुनाई के फंदों में जाड़ों की धूप 

और बतियाहट की मिश्री घुली हुई थी 


मुझ पर वास्तव में जिनका क़र्ज़ है उनमें कोई भी साहूकार नहीं 

मुझसे जो वसूल कर ले गए हैं उनका मुझ पर कोई क़र्ज ही न था


जिनको वास्तव में देना था उन्हें कुछ नहीं दिया मैंने 

जिनका ऊन ही उनका ख़ून था वे आज भी मैंऽऽ मैंऽऽ करते 

नंगे हो रहे हैं 

कतारों में



श्मशान


दूसरे को राख कर 

ख़ुद बची हुई है गठीली लकड़ी


श्मशान सब कुछ राख नहीं कर पाता


जो राख है उसमें भी

ढूँढ़ रहे हैं कुछ लोग जीवन के जेवर

कुछ अधजली लकड़ी के बचेपन पर निगाहें गड़ाए हुए हैं


एक गूँगा बची हुई लकड़ी को 

अपनी अव्यय आवाज़ से उठा कन्धे पर लाद लेता है


श्मशान सबको राख नहीं कर पाता


कुछ लोग तो इसे 

ठंडी रातों में लिहाफ़ बना ओढ़ लेते हैं


अमंगल छाया


वह अमंगल छाया है

वह व्रतों को ओढ़ती बिछाती-तहाती है


वह पति के चित्र पर पुष्पांजलि अर्पित करते हुए 

उसकी आत्मा के लिए शान्ति 

और बच्चों हेतु दीर्घायु माँगती है।


लोक और लोकोत्तरता के बिन्दुओं को स्पर्श करती एक चाप है वह


... यम थमा गया है उसके हाथ में एक लम्बी अदृश्य बटी रस्सी 

उसी अदृश्यता से बाँधना है दृश्य-दृश्यों-दृश्यावलियों को 

शब्द-गंध-स्पर्श को भी

अमृत कलशों से कह देना है शेष हो जाओ


कामनाओं की अजीर्ण पंखुड़ियों से कहना है-सावधान !

नाल ठुके घोड़ों की टापें इसी ओर आ रही हैं


ग्रहों से लटकती निषेध-झोली उसके माथे से टकरा रही है रह-रह कर


ऋतुएँ उसके व्रतों से एक वृत्त बना रही हैं

उसका अस्थिर रक्तचाप कहते फिरता है। 

- मैं ही तुम्हारा वसन्त हूँ

मैं ही शिशिर हेमन्त


यहाँ से


जो भी गया

जंगल, गाड़-गधेरे, धुनें सब लेता गया साथ 

पर यहाँ जरा भी कम नहीं हुआ कुछ 

पूरे में से पूरा निकल कर पूरा बचा रहा


जो आया

उसने एक भी फूल गाँव-जवार के जूड़े में नहीं खोंसने दिया 

एक भी फल जमीन का गुरुत्वाकर्षण नहीं पा सका 

जो भी आया थन के लिए आया मुख के लिए कोई नहीं


भाषा-बोली

संस्कृति-डोली के अग्रिम कहारों में थी 

वह आठवीं अनुसूची के दरवाजे को पीट रही है

देर से...



पहाड़


दुनिया भर के प्रशिक्षण शिविर जताते हैं 

सारे पहाड़ हारने के लिए खड़े हैं


पर जीत-जीत कर भी चुक जाएँगे सारे विजेता 

हार-हार कर भी जीवित रहेंगे विजित


पल से हारना 

युग से हारना नहीं



कहानी में बच्चे


पहले कहानियों में बच्चे

अक्सर अपनी नानी के घर जाया करते थे


बाद के दिनों में वे

दादी के घर जाने लगे


अब तो अपने माँ-बाप के घर जाने लगे हैं बच्चे 

आगे भी किसी एक के घर अवश्य जाएंगे वे


कहानी के बाहर बच्चे बच्चे रहे तो



बाघिन नहीं


अभी माँ कहो उसे बाघिन नहीं 

बच्चे को दूध पिलाते हुए हर माँ विदेह हो जाती है


उसकी अधमुँदी आँखों के तरल अवकाश में 

एक क्षितिज तैर रहा है 

एक-दूसरे को अपदस्थ करते हुए शावक 

जाने सिम्फनी सिरज रहे हैं देह-सन्तूर पर


अभी कोई भी कह सकता है

बाघिनों के बघनख नहीं हुआ करते


किसी ढाल को तलवार में बदलते देखना हो तो 

एक पत्ता खड़का दो अभी


सम्पर्क


मोबाइल : 9455623176


टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'