नाम - जावेद आलम खान
जन्म - 15 मार्च 1980
जन्मस्थान - जलालाबाद, जनपद- शाहजहांपुर (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा - एम. ए. हिंदी , एम. एड, नेट (हिंदी)
प्रकाशन - हंस, कथादेश, आजकल, वागर्थ, बया, कथाक्रम, पाखी, पक्षधर, परिकथा,
मधुमती, गगनांचल, नई धारा, उदभावना, मुक्तांचल, बहुमत, अक्षरा, जनपथ, वीणा,
कविता कोश, परिंदे, विभोम स्वर, छत्तीसगढ़ मित्र, कविकुंभ , किस्सा कोताह,
सोच विचार, सृजनलोक , विश्वगाथा, अग्रिमान, ककसाड़, समहुत, सेतु, अविराम
साहित्यिकी, सुखनवर, समकालीन स्पंदन, साहित्य समीर दस्तक,हिमतरू,प्रणाम
पर्यटन, गुफ्तगू, मैत्री टाइम्स, समकालीन सांस्कृतिक प्रस्ताव, हस्ताक्षर,
डिप्रेस्ड एक्सप्रेस, प्रतिबद्ध, समय सुरभि अनंत, अनुगूंज आदि पत्रिकाओं
में रचनाएँ प्रकाशित
सम्प्रति - शिक्षा निदेशालय दिल्ली के अधीन टी जी टी हिंदी
जिंदगी एक अजीब सा फलसफा है। कुल मिला कर यह एक खूबसूरत सा एहसास भी है। जिंदगी के हर पल को प्यार और खुशी के साथ जीना चाहिए। वैसे भी घृणा और नफरतों की उम्र काफी छोटी होती है। युद्ध छिड़ते हैं और उनकी नियति जल्द समाप्त होने की होती है। घृणा हो, नफरत, हिंसा हो या युद्ध का उन्माद यह सब लंबे समय तक अस्तित्व में नहीं रह पाते। कवि जिंदगी के खूबसूरत एहसास को भली-भांति जानता समझता है और इसीलिए वह हमेशा मनुष्यता के पक्ष में रहता है। वह जानता है कि खूबसूरती बचेगी तो मनुष्यता बचेगी। जावेद आलम खान हमारे समय के ऐसे महत्वपूर्ण और जरूरी कवि हैं जो अपनी कविताओं में अपने वक्त के सवालातों से गुजरते में नहीं हिचकते और गांधी जी को याद करते हैं। वह जिंदगी को पायल की महीन आवाज जैसी तो पाते ही हैं साथ ही वह उसे उस किसान के जैसी भी पाते हैं जो सर्द रातों में भी अलाव जला कर खेत की रखवाली करता है। यह भी जिंदगी को बचाए रखने की एक जद्दोजहद ही है जिस पर इस युवा कवि की सतत नजर है। आइए आज पहली बार ब्लॉग पर हम पढ़ते हैं जावेद आलम खान की कविताएं।
जावेद आलम ख़ान की कविताएं
एक अराजक कविता
झूठे हैं तुम्हारे दावे
अगर प्रेम की भाषा मौन होती
तो दुनिया गूंगों पर लुटाती सबसे ज्यादा प्यार
अगर अहसास ही वाहक होते प्रेम के
सचमुच होते आत्मा के आंख कान आवाज
तो जोकर कभी प्यार से महरूम न रहते
तो क़ाबील ने हाबील का कत्ल न किया होता
तो दुनिया को गले लगाने के लिए फैली बांहे
कील ठोक कर सलीब पर नही चढ़ाई जाती
तुम्हारा महापुरूष होना तुम्हारी सफगोई से ज्यादा
हाथ की सफाई से तय होता है
तमाम मोजज़े इत्तिफाक की बुनियाद पर खड़े हैं
अपनी हवस को जरूरत का नाम देना
मानव विज्ञान का प्राथमिक सिद्धांत है
दुनियावी तहजीब की पहली शर्त है
और दुनिया का सबसे आसान काम
यह कहना कि जानवरों से हिफाजत के लिए
संगताराशी पर हसीनतरीन मुजस्समे गढ़ने वाले
हाथों ने पत्थरों के नुकीले हथियार बनाए थे
पहचान लेना इसे कहने वाले धूर्त हैं
यह उतना ही बड़ा झूठ है
जितना गांधी हत्या को वध कहना
अराजकता के दौर में
जब कविता कह कर कत्ल हो रही थी कविता
तब प्रतिभाओं को निगलते हुए अजगरों के वंशज
भाव और भाषा में संबंध जोड़ने के बजाय
मंचों से संबंध बिठाने में लगे थे
वे कविता के नही मंचों के सगे थे
जो लिख रहे थे वे दर्शक थे चुप थे ठगे थे
न प्रेम की भाषा मौन है
न सच बोलने वाला महापुरूष है
न भावों का उच्छलन कविता है
जिनके लिए गीत उपन्यास हैं गजल मर्सिया हैं
उनके लिए प्रेम, महानता, कवि और कविता
दरअसल रिश्तों और शब्दों में
जोड़ तोड़ की अंतहीन प्रक्रिया है
कवि का बयान
हतकांत नर्तकी के क्षत नूपुरों से
आहत पगों का अंतराल चीन्हता समय हूं मैं
मृदभांड सी काया वाली गणिका की मृदु स्मित में रूपजीविता अहंकार और लास्य का प्रस्फोट हूं मैं
रक्तप्रभ सांध्य गगन से तमस के सागर में
समाधि लेता आज का जनवाद हूं मैं
उजले कपोत के सजल चक्षुओं में झांकता मूक संवाद हूं मैं
मनुष्यता के घावों से रिसते मवाद पर रखे
उम्मीदों के फाहों में मैं ही हूं
स्वर्ग की अमर विलासिता को ठोकर लगाने वाली
क्रोधित मुनि की उद्दंड खड़ाऊ सी
तलवों को जमीन से दो इंच ऊपर रखती
प्रगतिशील परंपरा की निगाहों में मैं ही हूं
मृग नाभि के स्पर्श से सुगंधित वायु में उड़ते
कस्तूरी कणों में प्रस्रत अप्सरा की आहों में मैं ही हूं
प्रस्तर खंड पर अंकित सभ्यताओं की दास्तान का पहला शब्द मैने ही दिया
युद्ध की दुंदुभी में नकार का भाव लिए
अवांछित मृत्यु का उद्घोष मैने ही किया
क्षत्रियों को अठारह वर्ष जीने की ललकार सुनाने वाला अभिशाप भी मैने ही जिया
वासुकी की कुंडली में फंसा पर्वत
मेरी छाती कुचलता है
मेरे मस्तिष्क में रोज होता है समुद्र मंथन
मेरी अकर्मण्य देह में लपलपाती जिह्वा में
घुले हैं अमृत और हलाहल
हे कालचक्र!अपनी परिभाषा को सुधारो
मेरे विषय में पुनः सोचो पुनः विचारो
मेरी खूबियों को समझो सीमाओं को स्वीकारो
इतिहासविदों मुझे मात्र कवि न पुकारो
आदिवासी
जिन्होंने झूठ फरेब को ओढ़ने से इंकार किया
जिन्होंने प्रकृति को मां की तरह प्यार किया
जिन्होंने धरती का श्रंगार किया
जिन्होंने जंगल को घर बार किया
वे आदिवासी कहलाए
उन्होंने जातियों संप्रदायों को नकार दिया
तुम्हारे झूठे राष्ट्र की डुगडुगी को धिक्कार दिया
जंगल उजाड़ने वाले विकास को तीरों की नोक से लाचार किया
घर बचाने के लिए जीवन को वार दिया
तुम्हारी सभ्यता को ठेंगे पर मार दिया
वे आदिवासी कहलाए
वे तुम्हारी गोलियों से नहीं डरे
महुए की गंध में सारी चिंताओं को धरे
मादल पर थिरके मृदंग पर नाचे उल्लास में भरे
वे बादल से उठे वर्षा से झरे
सोने और हीरों के मोह से परे
खिली चांदनी में चमके खुली धूप में निखरे
वे खुशबू की तरह उठे फूलों की तरह बिखरे
और आदिवासी कहलाए
हां वे आदिवासी कहलाए
वे आदिवासी हैं
उनका आदिवासी होना प्रमाणिक मखौल है
धर्म, राष्ट्र और सभ्यता की प्राचीनता के दावे करते
तुम्हारे सदियों से परोसे गए झूठ का
यह नैसर्गिक प्रतिरोध है
जल जंगल और जमीन की लूट का
प्रगति की परंपरा
प्रगतिवाद मेट्रो की स्वचालित सीढ़ियों की तरह है
जिस पर हर आस्तिक मन चढ़ना चाहता है
मगर गांव से आए किसी नए आदमी की तरह
पैर रखने से बहुत डरता है
अब समझ गया हूं कि जबान का प्रगतिवाद
आस्था के प्रगतिवाद से बिल्कुल जुदा होता है
अकीदा भाषा की हद से हमेशा बाहर रहा
इसीलिए इसके दायरे में देवा अजमेर तो शरीफ हैं
मगर अकबरपुर इलाहबाद मोहम्मदाबाद
खुदा और पैगंबर के नाम होते हुए भी
आपकी तशरीफ
और भाषा में शरीफ होने से हमेशा महरूम रहे
हमे परंपरा को अकीदे से पहचानना था
और प्रगति को पुरूषार्थ से
जबकि हमने उसे जबान के भरोसे छोड़ दिया
हम उतने परंपरावादी हैं जितना हमारा दंभ
उतने प्रगतिवादी हैं जितना सुख का दायरा
अलग होने से पूर्व
अलग होने से पूर्व
उन्होंने आखिरी बार मिलने का निर्णय लिया
दोनो के अलग दुख थे और अलग शिकायतें
लड़के की प्रतीक्षारत आंखें
उलाहने और गुस्से से उबल पड़ना चाहती थीं
यह शाम की नीरवता में
उफनते ह्रदय की अकुलाहट थी
कि जिसमे सब कुछ डूब रहा था
पदचाप के साथ एक सन्नाटा गिरा
सागर की खामोशी ने जैसे चांद को देखा
और एक ज्वार उठा
वह उठा
जैसे धर्म की अफीम सूंघा उन्मादी समाज
धीरे धीरे उठता है भेड़ों की भीड़ बन कर
और दो बांहें फैल गईं
वह बढ़ा
जैसे रक्तपिपासु दांत और जीभ के षड्यंत्र से अनजान
ड्राकुला के होंठ बढ़ते हो किसी को चूमने के लिए
और दो आंखें सहम गईं
वह रुका
जैसे सूर्यास्त के सौंदर्य पर रीझा समय
कुछ पल के लिए ठहर जाता है सागर तट पर
और चार आंखें डबडबा गईं
खारे पानी में घुलते नमक ने सोख ली सारी मिठास
एक एक कर सारे सपनो ने ले ली जल समाधि
दो पंछी अपनी आत्माएं समुद्र को सौंप कर
विपरीत दिशाओं में घोंसलों की ओर लौट रहे थे
खोखली काया के साथ
इस तरह एक रिश्ते को
विवाह के न्यायालय में मृत्युदंड दिया गया
और जारी किया गया
श्रद्धांजलि न देने का सख्त फरमान
ज़िंदा चीखें
मुझे खुशबुओं से प्यार है तो क्या
अपने आसपास बजबजाती सड़ांध को
नजरंदाज नही कर सकता
मुझे रोशनी से परहेज़ नहीं
लेकिन अंधेरों को उनके हाल पर नही छोड़ सकता
मुझे अच्छा लगता है अखबारों के मुखपृष्ठ पर
देश की चमचमाती विकास योजनाओं को देखना
लेकिन कैसे भूल जाऊं
हाशिए पर गिरती आदमकद लाशों को
मुझे पसंद है पत्थर से बनी पक्की सड़कें
मगर जंगलों की पीड़ा को देख कर
अपनी संवेदनाओं पर पत्थर कैसे रख लूं
तुम जिस आदमी की चुहलबाज़ी को
वक्त्रता की कसौटी मानते हो
मेरे लिए वे सिर्फ मनोरंजक कहानियां हैं
और कहानियों के लिए
मैं जिंदा चीखों को अनसुना नही कर सकता
मेरे दोस्त गांधी से मैने बस इतना ही सीखा है
कि अपनी आस्तीन कितनी भी जहरीली क्यों न हो
मगर अपने ही मुल्क में किसी से मिलते वक्त
बगल में छुरी नही रखूंगा
गांधी कभी मरते नहीं इसका पुख्ता सबूत यह भी है
जब जब तुम एक कायर हत्यारे के समर्थन में खड़े होते हो
मेरा भीतर एक गांधी ज़िंदा होता जाता है
दर्द दवा और प्यार
दो कप चाय भी इसे पिघला नहीं सकी
दो घंटे बिना चश्मे निगाहों की किताब से जोर आजमाइश में
दो पलकों का वजन बढ़ा कर दो आंखों को बोझ दे कर
दो घंटों से दिमाग की अंतड़ियों में दुंदुभी बजा रहा है दर्द
इसके शोर में कुछ देर खामोश रहना चाहता हूं
बेचैन सर को खाली कर देना चाहता हूं
मगर यह क्या
जैसे जैसे खामोशी बढ़ती है
उससे दुगुनी तेजी से बढ़ती है पीड़ा की तीव्रता
अब मन कराहना चाहता है
मगर बच्चों के सामने कराहूं कैसे
कि अचानक खामोश देख कर
चुप क्यों हो अब्बू कह कर
बेटी ने पेशानी चूम ली है
गले में डाल दिए है नन्हे नन्हे हाथ
न चाहते हुए भी खेलने लगा हूं बच्चों के साथ
और देखते देखते दर्द छूमंतर हो गया है
किताब ए जिंदगी से एक सबक और मिला
कि जैसे लोहे को लोहे से काटा जाता है
वैसे ही शोर का इलाज खामोशी नही शोर है
भीतर का शोर बाहर के शोर में मिल कर उल्लास बन जाता है
दर्द को दवा नही प्यार की जरूरत होती है
उदास दिनों में
जो आंखें प्रेम में होती हैं उनमें एक गांधी रहता है
उनके भीतर जारी रहती है मुसलसल जंगे आजादी
उनके दिन भले उदास हों मगर उम्मीद से भरे होते हैं
पलकें पूरी ताकत से नींद को कैद करना चाहती हैं
मगर विनम्रता से जारी रहता है
गांधीवादी आंख का नींद के साम्राज्य से असहयोग
और दिन गुजरते जाते हैं
रात जब भी आती है अकेले नहीं आती
उसके साथ आता है बहुत कुछ अनचाहा अनकहा
उसकी कालिमा में छिप कर आता है भुलावा
उसकी आंखों में उग आते हैं कुछ अनचाहे स्वप्न
जैसे बरसात में उग आती है बिना बोई घास
जैसे गर्मी में शरीर पर निकलती हैं घमोरियां
जैसे सर्दी में बुजुर्गों की बीमारियां
जैसे पुरबैया में उखड़ते है पुराने दर्द
जैसे लड़कियों को डराती है पहली माहवारी
रात के आंचल में सितारे ढूंढने गए कवि
अक्सर उसके पल्लू से दुखों की पोटली खोज कर लौटते हैं
लौटते हैं अपने कोटरों में उग आईं प्रेमियों की आंखें लेकर
अपने सीने पर महसूस करते हैं रात का भारीपन
वायुमंडल में दिखते हैं
सिगरेट कश के सफेद छल्लों से बने बादल
और उनके साथ हवा में विलीन होते चट्टानी प्रेम के दावे
अंधेरे कोनों में टूट ही जाता है
दिन भर सीने में बहती नदी का तटबंध
भीतर कुलबुलाते विहाग की गूंज
शुक्र तारे पर दस्तक देते देते
थक हार कर लोट जाती है धरती पर निढाल हो कर
और एक योद्धा स्खलित हो जाता है
जब फैल रहे होते हैं मुर्गों के वैतालिक संदेश
जब धरती पर उतर रहा होता है प्रेमिल रंग
जब पक्षियों में चल रहा होता है प्रेमालाप
जब खेतों की तरफ बढ़ रहे होते हैं अनेक कदम
जब महिलाएं आंगन बुहार कर रसोई में होती हैं
जब तरोताजा सूरज क्षितिज से उचक कर
सद्यः स्नात धरती से स्नेह संदेश कह रहा होता है
ठीक उसी समय प्रेम लोक में जागा
एक योद्धा नींद के पानीपत में ढह रह होता है
.
जिंदगी
एक पल की ज़िंदगी
उदास सन्नाटे में खनकी
पायल की महीन आवाज़ जैसी
सुनसान अंधेरे उगलते वीराने से दिखती
दूर गांव में टिमटिमाती दीपक की लौ जैसी
सर्दी में खेत रखाते किसान के लिए
जलते अलाव जैसी
पीहरगामी पत्नी की याद में उदास
आकाश ताकते मजदूर की
सुलगती बीड़ी जैसी
फाकाकशी वाले घर में
पेड़ पर लगे पपीते की घौर जैसी
या उमस भरी दोपहरी में
मलयानिल के झोंके से क्षण भर को हिले
गुलदुपहरी के नन्हे फूल जैसी
उम्मीदों से भरी
छोटी और खूबसूरत होनी चाहिए
एक आदमी की मौत
तुम्हारी कहानियों में
मैं लुटेरों का वंशज हूं
पतित नराधम म्लेक्ष
तुम्हारी कल्पनाओं में पांच सौ साल पहले
मेरे पुरखे जो शायद तुम्हारे भी पुरखे थे
पता नही कैसे मंदिरों को तोड़ा
और विधर्मियों का कत्ल ए आम किया
जिसके बदले में दस पुश्तों बाद
आज हमारा कत्ल तुम्हारे लिए वाजिब हुआ
और हमारी इबादतगाहों को ढहाना तुम्हारा न्यायसूत्र
तुम्हारे लिए देश में जन्मी एक भाषा
सिर्फ इसलिए अछूत हो गई
कि उसे इतिहास के मेरे सहधर्मियों ने विकसित किया
एक बात बताना दोस्त
एक भाषा की मौत तुम्हारे लिए गर्व का विषय है
किसी विधर्मी का कत्ल तुम्हारे अट्टहास का ईंधन है
धर्म और राष्ट्र का कॉकटेल
तुम्हारे उन्माद का साधन है
देशभक्त का टाइटल तुम्हारा गोत्र है
एक धर्म को मानना तुम्हारा गौरव है
फिर बिकता हुआ देश तुम्हारे लिए शर्म क्यों नही
देश को फूंकने में लज्जित क्यों नहीं होते
धर्म को बदनाम करने में छाती सिकुड़ती क्यों नही
देश की बेटियों में अपनी बेटियां नजर क्यों नहीं आती
दो टके के लिए दंगाई मैसेज फॉरवर्ड करते
तुम्हारी उंगलियां क्यों नही कांपती
तुम्हारा धर्म फुंकार रहा है
तुम्हारा गर्व हुंकार रहा है
लेकिन एक बार आंखें खोल कर
अपनी जामातलाशी जरूर लेना दोस्त
तुम देखोगे कि कुछ है जो असल में डर रहा है
तुम्हारे भीतर एक आदमी धीरे धीरे मर रहा है
पता -
हाउस नंबर 380,
थर्ड फ्लोर, पॉकेट 9,
सेक्टर 21, रोहिणी,
दिल्ली 110086
मोबाईल नंबर - 9136397400
जावेद आलम एक उत्कृष्ट कवि और साहित्यकार हैं। मैं उनका नियमित पाठक हूं। एक संवेदनशील कवि के रूप में जावेद आलम स्थापित साहित्यकार हैं उनकी कविताओं में उत्कृष्ट भाषा शैली होती है जो हिंदी साहित्य के मानदंडों पर खरी उतरती है। साहित्यिक समझ के साथ सामायिक विषयों पर पैनी नजर रखते हैं।
जवाब देंहटाएंमैं उनको पढ़ने के लिए बेहद उत्सुक रहता हूं।
बहुत शुक्रिया सर
हटाएंश्रीलाल जे एच आलोरिया, दिल्ली
जवाब देंहटाएंब्लॉग पर आपकी टिप्पणी सहित कविताएं देखकर बहुत खुशी हुई। बहुत बहुत शुक्रिया सर।
जवाब देंहटाएंजावेद एक बेहद संवेदनशील और सतत रचनात्मक रहने वाले कवि हैं। समकालीन कवियों में आसपास की घटनाओं पर पैनी नज़र रखते हुए व्यंजनात्कम तरीके से बातों को कहने वाले एक अनूठे कवि भी हैं। बहुत बेहतरीन कविताओं को स्थान दिया गया है। जावेद की इतनी सारी कविताओं को एक साथ पढ़ने का अवसर उपलब्ध करवाने के लिए संपादक मॉडरेटर का हार्दिक आभार और कवि को हार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएंAll poems are so good
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