स्वप्निल श्रीवास्तव का आलेख 'क्या यह स्मृति का दूसरा समय है?'
आज के दिन प्रिय कवि मंगलेश डबराल हमारे बीच से अनुपस्थित हो गये थे। स्वप्निल श्रीवास्तव ने यह लेख उनकी स्मृति में लिखा था। आइए आज पहली बार ब्लॉग पर हम पढ़ते हैं स्वप्निल श्रीवास्तव का आलेख 'क्या यह स्मृति का दूसरा समय है?'
'क्या यह स्मृति का दूसरा समय है?'
स्वप्निल श्रीवास्तव
मंगलेश डबराल के नये संग्रह का नाम 'स्मृति एक दूसरा समय है' अब उनके अंतिम कविता संग्रह के रूप में याद किया जायेगा। यह भी याद रखा जाना चाहिये कि कवि के जीवन और उसके बाद भी कुछ भी अंतिम नहीं होता, उसके और उसकी कविताओं की स्मृति हमारे साथ बनी रहती है। उसे अपने जीवन-काल में यश और जाने के बाद अमरता की प्राप्ति होती है। लेकिन बहुत से कवि मंगलेश डबराल की तरह सौभाग्यशाली नहीं होते।
इस संग्रह का शीर्षक अब सन 2020 के बिडम्बनापूर्ण वर्ष का उनवान बन गया है। हमारी स्मृतियों में कोविड के मारक रंग शामिल हो गये हैं। दुनिया के लाखों लोग इस महामारी के शिकार हुये हैं। जब भी हम इस वर्ष को याद करेंगे हमारी स्मृति ज्यादा दुखद होगी उसमें तमाम लोगों की मृत्यु के साथ एक कवि की भी मृत्यु शामिल होगी। अपनी कविता में तानाशाहों, अत्याचारियों से लडने वाला कवि कोविड से परास्त हो गया, हमारी शुभकामनायें उनके काम नहीं आयी। मृत्यु जीवन का अंतिम सत्य है, जीवन में हमें इसका सामना करना पड़ता है लेकिन कुछ लोग ऐसे समय में हमारे बीच से चले जाते है जब हमें उनकी सर्वाधिक जरूरत होती है। हम जिस तरह के समय और व्यवस्था में रह रहे हैं, उसमें प्रतिरोध की आवाजें निरंतर कम होती जा रही है। मंगलेश डबराल उन थोड़े बुद्धिजीवी कवियों में रहे हैं जिन्होंने अपनी कविता में विरोध का स्वर बुलंद किया है और प्रतिरोध की सभाओं में शामिल हुये हैं।
मंगलेश डबराल की कीर्ति देश तक सीमित नहीं रही, उन्हें विश्व के तमाम देश के मंचो पर कविता-पाठ का अवसर मिला है। उनकी कवितायें अंग्रेजी, रूसी, इतालवी डच, फ्रेंच आदि भाषाओं में अनूदित हुई हैं। वे अमेरिका के आयोवा विश्वविद्यालय के अंतरराष्ट्रीय लेखन कार्यक्रम में सम्मिलित हुए हैं जिसमे विश्व के मशहूर लेखक शामिल होते रहे हैं। विश्व के कवियों से उनकी दोस्तियां रही हैं, वे स्वयं विश्व कविता के कुशल अनुवादक रहे हैं। उन्होंने ब्रेख्त, पाब्लो नेरूदा, नाजिम हिकमत, एर्नेस्तो कार्दनाल और यानिस रित्सोस जैसे कवियों की कविताओं के अनुवाद किये हैं। दुनिया के महत्वपूर्ण कवियों के अनुवाद उपलब्ध कर हमें विश्व की कविता से परिचय कराया और कविता के वितान को बड़ा किया। अनुवाद का काम मूल रचना के सृजन से कम कठिन नहीं होता। इस तरह वे दुनिया के तमाम भाषाओं के बीच आवाजाही करते रहे, इससे उनकी कविता भी समृद्ध होती रही। इसके अलावा वे एक अच्छे गद्य लेखक भी रहे हैं। 'लेखक की रोटी', 'कवि का अकेलापन' उनकी गद्य कृतिया रही हैं। 'एक बार आयोवा' और अभी प्रकाशित यात्रा संस्मरण एक सड़क एक जगह' उनकी काव्य यात्राओं का विवरण प्रस्तुत करती हैं। 'एक सडक एक जगह' के एक लेख 'कविता का शहरनामा' में हालैंड के नगर रोतरडम के कविता समारोह का वर्णन जिस तरह करते हैं, वह हमें बहुत आकर्षित करता है और ताज्जुब से भर देता है। इसी प्रकार 'हायकू के इर्द-गिर्द' में वे जापान के साहित्यिक समाराहों की चर्चा बेहद मनोयोग से करते हैं। हम पचास करोड़ हिंदी भाषी समाज में यह दूर की कल्पना है। यहां कवि से ज्यादा अपराधी लोकप्रिय हैं। साहित्य की चर्चा कुछ सीमित लोगों में होती है। शिक्षा संस्थाओं और विश्वविद्यालयों में अपढ़ लोगो की संख्या बढ़ रही है तो साहित्य के पाठक कहां से आएंगे।
हिंदी के कवियों ने कविता के साथ गद्य लेखन भी किया है। अपने अनुभव का विस्तार अन्य विधाओं में किया है अज्ञेय, रघुवीर सहाय, कुवर नारायण, विनोद कुमार शुक्ल का नाम सहज लिया जा सकता है। कवि का गद्य स्वतंत्र गद्य लेखक होता है उसमें हमे काव्य-छवियां दिखाई देती हैं। अपने समकालीनों में मंगलेश डबराल के गद्य की छटा अलग हैं, उनके अनुभव का इलाका विस्तृत है।
कृष्ण बलदेव वैद, उदय प्रकाश जैसे लेखकों के कृतियों के अनुवाद विदेशी भाषाओ में हुए हैं, मंगलेश इस पंक्ति में शामिल हैं जिनकी रचनाय विश्व के अन्य भाषाओं में अनूदित हुई है। यह गौरव उनके साथ हिंदी भाषा को भी मिला है। हमारी भारतीय भाषाओं में विश्वस्तरीय साहित्य लिखा जा रहा है लेकिन अनुवाद न होने के कारण अपने देश तक उनका साहित्य सीमित हो कर रह गया है।
किसी कवि का जीवन उसकी कविता से कम रोचक नहीं होता। कवि को जानने समझने के लिये कवि के जीवन की जगहों को जानना जरूरी है, उन जगहों पर उसकी कविता के बीज छिपे होते हैं। कवि मंगलेश डबराल उत्तराखंड के टेहरी गढ़वाल के एक गांव काफलपानी में 16 मई 1948 को पैदा हुये थे। उनकी शिक्षा देहरादून में हुई है, जीविका की खोज में वह 1960 में दिल्ली आ गये थे। दिल्ली उनकी रचनात्मकता का केंद्र बना। भारत भवन की पत्रिका 'पूर्वग्रह', समाचार पत्र 'अमृत प्रभात' से होते हुये वे 'जनसत्ता' के साहित्यिक सम्पादक बने। इस अखबार में वे लम्बे समय तक रहे। यह उनके जीवन का उत्कर्ष काल भी था। जहां जनसत्ता ने अखबारी भाषा को बदलने का काम किया, वहीं मंगलेश डबराल ने साहित्यिक पत्रकारिता को नई पहचान दी। 'जनसत्ता' के रविवारीय संस्करण ने जो सांस्कृतिकी बनाई, उसे हम आज तक याद करते हैं।
जब वे 'अमृत प्रभात' में आये तभी से मेरा उनसे जुड़ाव हुआ। वह जनसत्ता के दिनों तक बना रहा। उन्होंने उन दोनो अखबारों में निरंतर मुझे प्रकाशित किया और लिखने के लिये विषय सुझाये। मैं सिनेमा-महकमे में अधिकारी था, उन्होने मुझसे छोटे शहरों में सिनेमा के प्रभाव पर लेख लिखवाया। गद्य लिखने के लिये प्रेरित करते रहे। स्मृति के रूप में 'अमृत प्रभात' और 'जनसत्ता' के दफ्तरों उनसे अनगिनत मुलाकातें याद हैं। वे मिलते ही कवितायें भेजने के लिये कहते। किसी न किसी रूप से उनसे मेरा सम्वाद बना रहा। जहां यह सम्वाद भंग होता उसकी कवितायें इस भूमिका का निर्वाह करती रही। मै भले ही अच्छा कवि न बन सका लेकिन एक अच्छे पाठक का दायित्व निभाता रहा। वे मेरे पंसदीदा कवियों में एक थे जिन्हें मैं बहुत ध्यान से पढ़ता था। उनकी काव्य यात्रा पर मेरी नजर रहती थी। वीरेन डंगवाल, पंकज सिंह, नीलाभ की कवि मंडली में वे सर्वाधिक प्रतिभाशाली थे। मुझे सभी कवियों का सानिध्य मिला है। यह खिलद्दड काव्य मंडली थी, सभी मस्ताने किस्म के आवारगी में दक्ष लोग थे। किसी सांध्य समय में इनसे मिल कर लगता था कि सभ्य लोग कुछ भी हो जाये लेकिन कवि नहीं बन सकते। मुझे उनकी महफिलों, उनकी ध्वनियों को सुनने का अवसर मिला है। लेकिन बहुत जल्द ही इस मंडली का अवसान हो गया। वे इस मंडली के अंतिम कवि थे।
उनके कवि कर्म को समझने के लिये साहित्य अकादमी में सम्मान मिलने पर उनके आख्यान की याद आती है। हिंदी के अनेक कवि छोटे शहरों और गांवों से बड़ी जगहों में आये है। वे पहाड के एक सुदूर गांव से दिल्ली आये थे। इस व्याख्यान में ब्रेख्त की कविता को उद्धृत करते हुये अपनी बात इस तरह कहते हैं ....करीब तीस साल पहले पहाड़ी गांव के एक बीहड़ भूगोल निकल कर दिल्ली आने के बाद मैंने जर्मन कवि बेटोल्ड ब्रेख्त की कविता पढ़ी थी; पहाड़ो की यातनायें हमारे पीछे हैं, मैदानों की यातनायें हमारे आगे। शायद वही अनुभव था जो मेरे भीतर इतने समय से घुमड़ता था और जिसे मैं समझ या व्यक्त नही कर पाता था। तब से मेरे पीछे पहाड़ों की यातनायें बढ़ती गईं और मेरे आगे मैदानों की यातनायें फैलती गयी जिसे जब कभी पहचान पाता हूं तो एक नयी कविता बन जाती है।
मंगलेश का यह आत्मकथन उनकी कविता को समझने के लिये एक कुंजी है। उनका पहला काव्य संग्रह 'पहाड़ पर लालटेन' (1981) में प्रकाशित हुआ था। वे पहाड़ के लालटेन की रोशनी से दिल्ली की नियोन-लाइट की दुनिया में पहुंचे थे। इस संग्रह के बाद उनका दूसरा संग्रह- 'घर का रास्ता' प्रकाशित हुआ तो लोगों ने कहना शुरू कर दिया था कि वे घर का रास्ता भूल चुके है। दरअसल दिल्ली पहुंच कर उनके अनुभव-क्षेत्र का विस्तार हो चुका था, पहाड़ की यातनायें कम दिखाई दे रही थी लेकिन वे जब कभी पहाड़ के जीवन के बारे में लिखते तो उनकी तकलीफें दिखाई दे जाती थीं।
दिन भर लकड़ी ढ़ो कर
मां आग जलाती है
पिता डाकखाने में चिट्ठी का इंतजार करेगे
लौटते हैं हाथ-पांव में
दर्द की शिकायत के साथ
रात में जब घर कांपता है
पिता सोचते हैं जब मैं नहीं रहूंगा
क्या होगा इस घर का
हम आ गये हैं
घर से बहुत दूर
अब यह परदेश की भूमि है
हमारे पास जो कुछ है
उसे बांट लेना चाहिये।
(घर का रास्ता - संग्रह से )
हम सब के जीवन में कहीं न कहीं कोई विस्थापन जरूर है। हमें जहां होना चाहिए, वहां हम नहीं है, हम अपने केंद्र से बहुत दूर है। यह दूरी एक कवि के जीवन में अनुभव बन जाती है। दुनिया के बड़े कवि विस्थापन की यातना के शिकार रहे हैं - ब्रेख्त, पाब्लो नेरूदा, नाजिम हिकमत और महमूद दरवेश इसके उदाहरण हैं। दुनिया की बेहतरीन कविताओं की जन्मभूमि ये यंत्रणायें ही रही हैं।
कवि केदार नाथ सिंह को मृत्युपरांत याद करते हुये मंगलेश डबराल ने कहा था कि वे नागार्जुन के बाद सबसे लोकप्रिय कवि थे। मंगलेश डबराल की लोकप्रियता नहीं थी। उनके प्रशंसक देश भर में फैले हुये हैं। ये दोनों कवि गांव से दिल्ली जैसे शहर में आये थे। केदार जी दिल्ली की जिंदगी से घबड़ा कर पूर्वी उत्तर प्रदेश के इलाके में चले जाते थे और कविता के लिये नये बिम्ब लेकर लौटते थे। मंगलेश डबराल के पीछे पहाड़ की जमीन छूट चुकी थी इसके बरअक्स वे नागर–जीवन के अनुभव को अपने काव्य अनुभव में बदल रहे थे। वे नये शत्रुओं की पहचान कर रहे थे। घर का रास्ता के बाद – हम जो देखते हैं, आवाज की एक जगह हैं, मुझे दिखा एक मनुष्य, नये इलाके में शत्रु और स्मृति एक दूसरा समय की कविताओं उनकी काव्य भाषा बदलती हुई दिखती है। उनकी कविताओ में बड़े संदर्भ दिखते है। इक्कीसवीं सदी में जिस तरह के संकट आये हैं –मनुष्यता की भूमिका कम हुई, सत्ताओं में तानाशाही प्रवृतियां बढ़ी हैं, उनके अक्स उनकी कविताओं में प्रमुखता से आते हैं।
मंगलेश डबराल की कविताओं में हत्यारे, तानशाह, शासक, अत्याचारी और बड़ी-बड़ी मंहगी गाडीयों में अपने शानदार मोबाइल से खेलते हुये संदिग्ध लोग खूब मिलते, वे नये – नये रूप धारण करते हैं। बड़े शहरों की दुनिया इन्ही आततायियों से भरी हुई है। हत्यारे हत्यारों की तरह नहीं लगते।
सेनायें कट मरेगी हत्यारा जीतेगा
हर बार जीतने के बाद
लाशों के बीच अकेला खड़ा
हत्यारा कहेगा
अब मैं जाता हूं बुद्ध की शरण में
ये हत्यारे अपनी मोक्ष की खोज में बुद्ध की पनाह में नहीं जाते, यह उनका ढोंग है। यह बात साहित्य में उस समय तस्दीक हो गयी थी जब हिंदी के एक प्रवर आलोचक ने एक अपराधी की आत्मकथा का लोकार्पण किया था। हिंदी साहित्य में अब लोग अपराध की शब्दावलियों का उपयोग करते हैं। राजनीति कम हिंसक नहीं हुई है, उसमें हिटलर के कई प्रतिरूप दिखाई देते हैं। हिटलर की शैली को प्रचलित किया जा रहा है।
दुनिया और देश में हुई तमाम घटनाओं ने हमें कम प्रभावित नहीं किया है। चाहे वह सोवियत संघ का पतन हो, या बाबरी मस्जिद का ध्वंस। गुजरात का नरसंहार ने भारतीय मानस को गहरे प्रभावित किया है। उसके बाद धर्म और राजनीति का जो खेल हुआ, वह हम सबके सामने है। यह राजनीति में ध्रुवीकरण की शुरूआत थी जिसके बाद देश की राजनीति बदलने लगी थी। मंगलेश डबराल अपने समय की घटनाओं को अपनी कविता में दर्ज करते हैं। उनकी कविता 'गुजरात के मृतक का बयान' की इस कविता की कुछ पंक्तियां देखे।
मुझे इस तरह मारा गया
जैसे मारे जा रहे एक साथ हो बहुत से लोग
मेरे जीवित होने का कोई मकसद नहीं था
और मुझे मारा गया इस तरह
जैसे मुझे मारना कोई बड़ा मकसद हो।
मंगलेश डबराल की कविताओं में हत्याओं और मारे जाने के बिम्ब बहुत मिलेगे, ये हमारे जीवन की सामान्य घटनायें बनती जा रही हैं। अपराधियो ने हिंसा को जीवन-मूल्य के रूप में स्वीकार कर लिया है। कभी-कभी हत्यारों के बीभत्स वर्णनों से उब भी होती है लेकिन हम उनकी छाया से कहां बच पाते हैं। उनकी कविता 'हत्यारों का घोषणापत्र', 'हत्यारा चाकू', 'हत्यारा प्रेम' तथा 'पुराना अपराधी' पढते हुए लगता है कि हत्यारे कहीं बहुमत में न हो जाएं। हत्यारे परम्परागत नहीं रह गये हैं, वे अपनी भेष-भूषा में सभ्य दिखाई देते हैं। संसद और विधानसभाओ में उनका प्रतिनिधित्व बढ़ा है, वे ताकतवर हुए हैं। हत्यारे प्रेम भी करते हैं-
हत्यारा हत्या करके घर लौटा
तो देखा घर में फूल वैसे ही खिल्रे हुये हैं
जैसे वह सुबह छोड़ कर गया था
उसकी पत्नी ने रोज की तरह दरवाजा खोल कर
उसका स्वागत किया....
एक पुराने गाने की पंक्तियां याद आयी
जो एक जमाने में उसे बहुत प्रिय थी;
कोई सागर दिल को बहलाता नहीं।
यह हत्यारों का अलग रूप है, उसकी दिनचर्या आम आदमी से भिन्न नहीं है लेकिन वह भीतर से क्रूर है। यह ह्वाइट कालर क्राइम का जमाना है। शासक भी किन्हीं हत्यारे से कम नहीं हैं। यकीन न हो तो उनकी कविता शासक (नये युग में शत्रु) पढ़ लीजिये। शासक हो या आततायी उनके बीच का अंतर लगातार कम होता जा रहा है। नये युग में शत्रु-उनका महत्वपूर्ण संग्रह है। इसमें 21वीं सदी के तमाम संकटों का अपनी कविता में परीक्षण किया है।
हम सब एक शत्रु-समय में रह रहे हैं, इसमें मित्र भी संदेह से परे नहीं रह गये हैं। जीवन की शब्दावली के साथ कविता की शब्दावली में भी परिवर्तन हुये हैं। मंगलेश डबराल की कविता में ऐसे विषय आये हैं जो एकदम नये है। प्राय: हिंदी कवियों के पास बहुत से रूढ़ विषय हैं। उसे थोड़े से परिवर्तनों के साथ नया कर दिया जाता रहा है इससे एकरसता नहीं टूटती है। मंगलेश डबराल नये तथ्यों पर लिखने का खतरा उठाते हैं। वह यह नहीं सोचते कि कविता गद्यात्मक हो रही है। मोबाइल, मीडिया-विमर्श, कुशल प्रबंधन, मदर डेयरी, निकोटीन, भूमंडलीकरण, यह नम्बर मौजूद नहीं है। ये कवितायें उत्तर आधुनिक दुनिया के शीर्षक भी हैं। हर समय के अपने औजार होते हैं
अंतत: हमारा शत्रु भी एक नये युग में प्रवेश करता है
अपने जूते और मोबाइल के साथ
वह एक सदी का दरवाजा खटखटाता है
और उसके तहखाने में चला जाता है...
हमारा शत्रु कभी हमसे नहीं मिलता सामने नही आता
हमें ललकारता नहीं ...
कभी कभी उसका संदेश आता है कि अब कहीं शत्रु नहीं है
हम सब एक दूसरे के मित्र हैं।
आधुनिक सभ्यता के संकट कम जानलेवा नही है यहां दुश्मन अपनी पोशाक बदल कर आते हैं। देखा जाय तो ये पूंजीवाद के संकट है, वह भूमंडलीकरण और बाजार के रूप में हमारे सामने दिखाई देते हैं। यह किसी एक देश की घटना नहीं है बल्कि वैश्विक हैं।
.......
हर कवि का एक नीरव–लोक होता है जिसमें वह दुनिया की हलचलों से दूर उन तमाम लोगों को शिद्दत से याद करता है। उसमें मां होती है, पिता होते है, कुछ दोस्त अहबाब और दृश्य होते हैं। कवि इस तरह की कविताओं में ज्यादा सहज और आत्मीय दिखाई देता है। दादा की तस्वीर, पिता की तस्वीर, अपनी तस्वीर, पिता का चश्मा और मां का नमस्कार – ऐसी कवितायें जिसमें वे अपनी सघन स्मृतियों के साथ मौजूद हैं। गुणानंद पथिक, केशव अनुरागी, संगतकार, अमीर खां अत्याचारी के प्रमाण, पागलों का वर्णन, यह नम्बर मौजूद नहीं के अलावा मुझे उनकी बहुत सी कवितायें पसंद है। मित्रों पर कवितायें लिखने का चलन कम हुआ है, रिश्तों में खूब मंदी आयी है। उनकी 'मोहन थपलियाल' और 'करूणानिधान' पर लिखी कविता मुझे बहुत याद आती है। मोहन थपलियाल को मैं बहुत अच्छे से नहीं जानता था लेकिन बनारस से जीविका की खोज में दिल्ली में आये हुये करूणानिधान को हापुड़ से दिल्ली या दिल्ली की सिटी-बस में सफर करते हुये उनसे भोजपुरी में खूब बात करता था लेकिन वे असमय ही हमारे बीच से चले गये। 'करूणानिधान' कविता के अंश देखे।
सबसे मुलायम ब्रेड कहां मिलती है
कम मीठे की मिठाई
कम नमक की नमकीन कहां मिलती है
सबसे मजबूत कागज कहां बिकते हैं,
सुंदर सस्ते झोले कहां टंगे रहते हैं
किस जगह से दिखता है
सबसे ज्यादा आसमान
शहर के बारे में सब कुछ जानते थे करूणानिधान ...?
कुछ खाता हुआ मनुष्य दुनिया का सबसे सुंदर दृश्य है
ऐसे दृश्यों को वे रख लेते थे अपने थैले में ..।
मंगलेश डबराल की कविताओं में स्मृति के अनेक लोक हैं, उसमें ज्यादातर स्मृतियां मोहक नहीं है। यह अकल्पनीय और बर्बर घटनाओं का समय है, उनके जाने की स्मृति कम दारूण नहीं है लेकिन वह हमारे बीच अनुपस्थित नहीं है, उनकी कवितायें हमारे साथ हैं और यह उनकी स्मृति का समय है। जापानी लेखक हारूकी मुराकामी कहते हैं कि मृत्यु जीवन का विलोम नहीं बल्कि उसका हिस्सा है।
सम्पर्क
स्वप्निल श्रीवास्तव
510, अवधपुरी कालोनी
अमानीगंज
फैज़ाबाद - 224001
मोबाइल - 09415332326
बहुत सुन्दर
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