कैलाश बनवासी के उपन्यास 'रंग तेरा मेरे आगे' की मीना बुद्धिराजा द्वारा की गई समीक्षा

 



कैलाश बनवासी का हाल ही में एक नया उपन्यास आया है 'रंग तेरा मेरे आगे'। यह उपन्यास सेतु प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। 'बनास जन' के हालिया अंक में इस उपन्यास की युवा आलोचक मीना बुद्धिराजा की समीक्षा प्रकाशित हुई है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं कैलाश बनवासी के उपन्यास पर मीना बुद्धिराजा की समीक्षा "खुरदरी ज़मीन पर प्रेम का स्वप्न : रंग तेरा मेरे आगे"।



खुरदरी ज़मीन पर प्रेम का स्वप्न : रंग तेरा मेरे आगे



मीना बुद्धिराजा


 

प्रेम किसी एक व्यक्ति के साथ सबंधों का नाम नहीं है बल्कि यह एक दृष्टिकोण है, एक स्वाभाविक रूझान है जो उस व्यक्ति और दुनिया के व्यापक सबंधों को अभिव्यक्त करता है। प्रेम एक सीमित लक्ष्य और सिर्फ एक संबंध की सोच से आगे यह एक मूल्य के रूप में अपना विस्तार करता है। किसी एक के प्रेम की उच्चता का प्रभाव उसके अहं का समपर्ण सार्वभौमिक रूप से प्रेमहीनता के निर्मम समय में एक स्थायी मूल्य बन जाता है । अपने आरंभिक अथवा कहा जाए कि अपरिपक्व रूप में भले समजैविक जुड़ाव तक ही सीमित हो, लेकिन अपनी सूक्ष्मतम और परिपक्व स्थिति तक आकर मानव अस्तित्व की चेतना के संवर्द्धित होने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । प्रेम एक नैसर्गिक संवेदना और मानवीय अनूभूति है जिसके बिना जीवन की परिकल्पना असंभव है और यह अनेक-अनेक अप्रत्याशित रंग-रूपों में घटित हो सकती है। प्रेम अपने आप में मुक्ति है, यह किसी भी युग में बाधाहीन नहीं रहा है लेकिन परिस्थितियों और परिवेश के बंधन भी प्रेम के व्यापक दायरे की सीमा नहीं बन पाते।

 

समकालीन कथा जगत के परिदृश्य में कथाकार ‘कैलाश बनवासी’ एक मूल्यवान उपस्थिति हैं जिनकी कहानियों में ग्रामीण जीवन के त्रासद यथार्थ से लेकर शहरी मध्य वर्ग तक की विडबंनाओ और बाज़ारवाद के दुष्प्रभावों का अमानवीय चेहरा उजागर होता है। छत्तीसगढ़-दुर्ग में रहते हुए उसकी सरल प्रकृति में रचे-बसे भीड़ के दिखावे से अलग लेकिन अपनी रचना प्रक्रिया में उतने ही समकालीन, व्यवस्था की सामाजिक-राजनीतिक विसंगतियों के प्रति सचेत, साधारण मनुष्य के स्वर के साथ प्रासंगिक कथाकार के रूप में कैलाश बनवासी  निरंतर सक्रिय हैं। ‘बाज़ार में रामधन’ से लेकर ‘जादू टूटता है’, ‘कविता पेंटिंग पेड़ कुछ नहीं’ और ‘लौटना नहीं है’ तक जैसी कथा कृतियों तक उनकी संवेदना का सघन विस्तार है जिसमें अपने परिवेश के सभी हल्के-गहरे और धूसर रंग बिखरे हैं और प्रदर्शन, शोरशराबे से दूर एक धीमी और सहज़ ईमानदारी स्पष्ट झलकती है।

   

उनका नया उपन्यास  ‘रंग तेरा मेरे आगे” अपने युग और समय की सभी प्रेम विरोधी परिस्थितियों, नैतिक अंतर्द्वंदों, जीवन के विरोधाभासों के बीच भी शुष्क, निरर्थक और जड़ यथार्थ की सतह पर प्रेम की तरल अनूभुति को स्पंदित रखता हुआ कोमल तंतुओं से बुनी गया अनूठी कृति है। कथाकार के रूप में लीक से हटकर लिखने की उनकी चिरपरिचित शैली की विशेषता यहाँ भी प्रेम की परिभाषा सर्वथा मौलिक अर्थ में उसके ओस की बूंद जैसी आभा के समान अभिव्यक्त हुई है जहाँ जीवन की तमाम दुश्वारियों के साथ प्रेम को उसके निष्कपट रूप में बचा कर रखने की आकांक्षा का अहसास पूरे उपन्यास की कथा में अबाध गति से प्रवाहित होता है।

    

इस उपन्यास की कथा का नायक सुनील है जो दुर्ग में कस्बेनुमा शहर के एक सरकारी स्कूल में स्थायी शिक्षक के रूप में कार्यरत है। लगभग चालीस साल की उम्र का विवाहित व्यक्ति जिसका घर परिवार है, माता-पिता, भाई बहन, पत्नी व दो बच्चे भी हैं और जिसका जीवन एक साधारण मध्यम वर्गीय नौकरीपेशा व्यक्ति की गति से चल रहा है। लेकिन जीवन के प्रति सुनील का सौंदर्यबोध और दृष्टिकोण भीड़ की मानसिकता से कुछ हटकर है, परिष्कृत- सुरुचिसंपन्न है जिसमें कला, कविता, सिनेमा और उर्दू शायरी की भी अपनी भूमिका है। इस वर्ष राज्य शिक्षा विभाग द्वारा दो वर्षीय डी. एड. कार्यक्रम के प्रशिक्षण  केंद्र में आयोजक अनुभवी व्याख्याता के रूप में सुनील को नवनियुक्त शिक्षकों को प्रशिक्षित करने का दायित्व मिला है। जो समूह उसे मिला है उस बैच में निकट के बालोद गांव से आयी युवा शिक्षिका नसीम भी उसकी कक्षा में शिक्षाकर्मी छात्रा की तरह शामिल है। सुनील एक महीने की इस ट्रेनिंग के दौरान धीरे-धीरे नसीम के प्रति जिस खिंचाव और जुड़ाव को महसूस करता है वह नसीम के सौंदर्य के साथ ही उसकी सादगी, सरल स्वभाव के साथ ही अपनी कक्षा के प्रति उसकी गंभीरता भी है और उसके व्यक्तित्व में साधारणता से उपर कोई ऐसी विशिष्टता जो अनायास ही आकर्षण से ज्यादा है और इस अनूभुति को प्रेम के स्तर तक पहुंचाती है और सुनील इस बदलाव को दिन-रात महसूस कर रहा है । सुनील के एकरस, ठहराव भरे तयशुदा जीवन में प्रेम का यह आगमन एक ठंडी बयार की तरह है जिसमें शायद अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों के साथ ही नौकरी से जुड़ी स्थानांतरण से संबधित समस्याओं की भी भूमिका है। पिछले तीन सालों की विभागीय असुरक्षा, विवशता, तनाव, अंतर्द्वंद्व से जूझने की यातना से गुजरने की पीड़ा से मुक्त होने का अहसास भी कहीं न कहीं इस सुकून में शामिल है। सुनील का नकारात्मकता से दूर एक सकारात्मक सोच और दृष्टि की तरफ बढ‌ना नि:सदेह इसमें इस प्रेम की भी भूमिका है। नसीम से उसका नि:स्वार्थ और आत्मीय लगाव प्रेम की एक तरल नदी की तरह बहने लगता है शुष्क और सीमाओं से बंधे जीवन की मरूभूमि पर जैसे यह अहसास बाढ़ में निर्बाध वेग से प्रवाहित होता प्रेम उसे जिस सुकून और परिपूर्ण चेतना का आंनद देता है। उस प्रेम के घटित होने में एक तरफ पीड़ा है तो दूसरी ओर अनिर्वचनीय सुख जो उसके जीवन की शैली को बदल रहा है। एक महीने के इस शिक्षण सत्र में सुनील और नसीम की औपचारिकता कुछ कम हुई है और मौन व संवादों के बीच भी इस प्रेम की खामोश अभिव्यक्ति को दोनों अनुभव करते हैं।

 

सुनील अपनी कल्पनाओं में और स्वप्न में जैसे इसी प्रेम को जीना चाहता हो, प्रेम के अथाह नीलें समुद्र में डूबे अस्तित्व में इस अनुभव के मूल्यवान मोती को जैसे मन के गहरे तल में हमेशा के लिए संजो कर रख लेना चाहता है। आसपास की बेंरग दुनिया तमाशों से अब जैसे उसे कोई शिकायत नहीं और प्रेम का यह गहरा रंग ही उसकी आत्मा के लिए सांसो के समान जरुरी हो गया है। एक महीने के बाद नसीम के वापस जाने के समय सुनील इस प्रेम को पत्तियों में ओस की बूंद की तरह संभाल कर रख लेना चाह्ता है जो अचानक बिना किसी आहट के उसके जीवन में आकर बेशकीमती सपना बन गया है और जिस प्रेम ने उसे इतना समृद्ध, मानवीय और दुनिया के प्रति उदार बना दिया है-


‘जब से नसीम ने तसलीम किया है, ज़िन्दगी बदल गई है अपनी! एक कारण तो उसका मुसलमान होना है! यह जैसे कोई बरसों पुरानी ख्वाहिश थी... सबसे छुपा कर सबसे भीतर कहीं रखी हुई... कि हाँ, किसी ऐसी लड़की से प्यार हो। इसकी कोई साम्प्र्दायिक वज़ह नहीं, सांस्कृतिक वजह है। यहाँ की आबोहवा में, लोगों में, तहज़ीब में ज़माने से घुली-मिली संस्कृति। अभी यहाँ उस तफ़्सील में जाने का अवकाश नहीं है। ना जरूरत। बस हो गया प्रेम।‘

    

कैलाश बनवासी



सुनील की नज़र में नसीम के पास जैसे कोई अद्भुत कोमल, स्वप्नशील और संवेदनशील मन है जो वह बहुत कम लड़कियों में वह पाता है या शुरु से ही उसे ऐसी किसी स्त्री की तलाश रही है । प्रेम के इस अव्याख्यायित दौर में उसकी मनोदशा ऐसी हो गई है कि बगैर नसीम के वह किसी चीज़ के बारे में सोच नहीं पाता न संगीत, न कला न किताबें। वह जैसे नसीम के व्यक्तित्व को  एक नये सिरे से गढ़ना चाहता है। निदा फ़ाज़ली और फ़ैज़ की शायरी की सीडी, कुछ किताबें जिन्हें ले कर वह सोचता है कि उसे पढ‌नी ही चाहिए। जैसे चेखव की कहाँइयाँ , तुर्गनेव के उपन्यास जिन्हें वह नसीम को कुछ मुलाकातों में उसके जाने से पहले देना चाहता है। नसीम के जाने के बाद सुनील एक बार मानिकपुर गाँव के उसके स्कूल में मिलने जाता है जहाँ दोनो अपने अनुभव, अपना प्रेम, सच और मजबूरी बाँटते हैं लेकिन इसके बाद धीरे-धीरे नसीम की तरफ से संवाद और फोन पर संपर्क बंद होने लगता है, आगामी प्रशिक्षण केंद्र की जगह भी बदल गयी है और दुर्ग के स्कूल में फिर से नसीम के आने की कोई संभावना भी नहीं है। दोनो के बीच सिर्फ एक दूरी और खामोशी बढती जाती है और नसीम के स्कूल में उससे आखिरी मुलाकात के साथ ही उस दिन तक बचाई वह नामालूम सी उम्मीद भी दफ़न हो जाती है। ग़ालिब की शायरी ‘रंग तेरा मेरे आगे’ से शुरु हुई प्रेम कहानी अपने अंत के मुकाम पर भी जैसे उनके इस शेर से प्रेम की त्रासदी का बयान करती है –


जला है जिस्म वहीं दिल भी जल गया होगा

कुरेदते हो जो अब राख जुस्तज़ू क्या है।


 

उपन्यास की मुख्य कथा में सुनील और नसीम के सबंध में मूल रूप से वही प्रेम अंत तक प्रवाहित होता है जो अंतत: किसी परिणाम तक नहीं पहुंच पाता लेकिन इस प्रेम की अपूर्णता में भी सुनील जीवन में उसकी गहराई को पूर्ण रूप से जीकर उसे अपने अस्तित्व की सार्थकता के रूप में प्राप्त कर लेता है। उसकी संवेदनशीलता और बौद्धिकता के सांमजस्य में यह प्रेम नूर की बूँद की तरह उसके अंतर्मन को रससिक्त और उर्वरित रखता है जिसमें उसके जीवन की गतिशीलता छुपी है। एक मानवीय अनूभूति के रूप में इस प्रेम का जो विस्तार है वह असाधारण है जो नयी संभावनाएँ और विकल्पों के लिये उसे किसी  संकीर्ण बँधन में न बाँध कर मुक्त कर देता है और यह उसके प्रेम की असफलता नहीं है। एक तरफ सामाजिक नैतिकताएँ जैसे उसके शिक्षक होने की नैतिकता उसका उन्मुक्त रास्ता रोक कर खड़ी हैं तो व्यक्तिगत नैतिक ज़िम्मेदारी भी जिसमें अपने परिवार ,पत्नी और बच्चों को वह कोई धोखा नहीं देना चाहता क्योंकि विवाहेतर संबंधों में प्रेम की स्वीकार्यता अभी भी समाज में असंभव है। विरुद्धों के द्वंद्व में लेकिन इन विवशताओं और नैतिकताओं के बीच भी सुनील की आंतरिक चेतना में नसीम का प्रेम एक निर्द्वंद्व झरने की तरह निरंतर प्रवाहित होता है। यह अपारिभाषित और सीमाहीन प्रेम व्यक्ति और समाज के परंपरागत रूढ ढांचे को तोड‌ता हुआ सुनील को जीवन का एक नया नजरिया देता है जो मनुष्य के रूप में उसकी उपलब्धि है-


 ‘’मैं हूँ, लबालब भरा हुआ। इस प्रेम और जीवन रस से। एकदम तरबतर। और यह अनुभूति ज़िंन्दगी की कितनी बड़ी नेमत है।शायद मनुष्य होने का सब्से बड़ा और सबसे आत्मीय सुख कि यह जैसे कोई और ही दुनिया है। अब तक जीते आए दुनिया से बिल्कुल अलग। मैं इस दुनिया को किसी अबोध बच्चे के भोलेपन से निहार रहा हूँ और महसूस कर रहा हूँ प्रेम करना जैसे अपने बच्चे को जन्मना है। प्रेम यही होता है - पवित्र, उज्ज्वल, निश्छल निष्कलुष। किसी भी लालसा कामना से परे। एक ज़रा सी इच्छा भी इसे नष्ट करने को क़ाफी है।‘’

         

यथार्थ और आदर्श का द्वंद्व हमेशा ही जटिल होता है क्योंकि इसके साथ ही कथानक में समानांतर कथा के रूप में शिक्षा- तंत्र की विकट जड़ता, शिक्षा विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार, तबादले, प्रमोशन के क्रूर और ह्र्दयहीन खेलों में फंसे सुनील जैसे सच्चे और ईमानदार शिक्षकों की नियति, प्रशासनिक व्यवस्था की जड़ में पैठ चुकी विसगंतियों और शोषण को भी सक्सेना जैसे चरित्रों के माध्यम से अनेक घटनाओं, कथा स्थितियों के प्रसंगों में बहुत प्रभावशाली और जींवत  रूप से प्रस्तुत किया गया है। जीवन के इन्हीं घात-प्रतिघातों, उतार-चढाव और संघर्षों के बीच यह प्रेम आकार लेता और विकसित होता है ।

   

एक नयी कथाभूमि पर प्रेम जैसे सार्वकालिक विषय को ले कर लिखा गया यह उपन्यास नयी सोच से रचा गया है जो जीवन में प्रेम की उपस्थिति का शिद्दत से अहसास कराता है। बेहिसाब मज़हबी नफ़रत और हिंसा के दौर में जब प्रेम जैसी कोमल और निष्कपट संवेदना को भी ज़िहाद में तबदील किया जा रहा है, इन विरोधी परिस्थितियों में इस उपन्यास में जिस अपरिभाषित, असीमित, नि:स्वार्थ आद्योपांत प्रेम की एक कोमल और मर्मस्पर्शी धारा प्रवाहित होती है वह इस संवेदनहीन समय, उपभोक्तावादी संस्कृति में अप्रत्याशित है लेकिन असंभव नहीं । किसी ताज़े खिलते हुए फ़ूल की खुश्बू की तरह यह प्रेम स्वाभाविक, प्राकृतिक और सुबह की ओस की तरह पारदर्शी । सुनील जैसे शिक्षक, बौद्धिक और संवेदनशील मन के कस्बाई युवा व्यक्ति के यांत्रिक, बँधे और सीमित दायरे मे चलते जीवन में नसीम का प्रेम एक ताज़ा हवा के झोंके की तरह उसकी समूची मानसिकता में इंद्र्धनुषी रंगों की तरह बिखर कर अस्तित्व को एक गहरा, उत्कृष्ट और नया अर्थ दे देता है।

 

मनुष्य का अस्तित्व जड़ नहीं है लेकिन बहुत सी निश्चितताएँ, दबाव, प्रतिबंध, जोखिम, चुनौतियों और मान्यताओं के संघर्ष के बीच ही उसकी स्वंतत्र चेतना का विकास होता है जो उसे चेतना के स्तर पर मुक्त करता है। प्रेम की अनुभूति अपने आप में इतनी मूल्यवान है कि वह उसके लिये सर्वस्व की माँग करती है, जाति, धर्म ,वर्ण की संकीर्णता से बहुत उपर। इसलिए उसकी सफलता- असफलता से अधिक उस प्रेम को अपनी चेतना के रूप में जीकर ही वास्तविक उद्देश्य तक पहुंचा जा सकता है, अधिक मानवीय और उदार बना जा सकता है। यही प्रेम की हर युग में सार्वभमिक और सार्वकालिक उपलब्धि कही जा सकती है । इस सच को एक मौलिक और नयी दृष्टि से देखते हुए कथाकार ने मुख्य पात्रों को हिन्दू और मुसलमान होते हुए भी किसी स्थूल फार्मूलाबद्धता से दूर बगैर किसी आरोपित चरित्र विन्यास और कृत्रिम दावे के बिना अपने परिवेश की आबो-हवा में सहजता से घुले-मिले और साझा संस्कृति में रचे-बसे जीवंत रूप से चित्रित किया है। 


इसके साथ ही नायक सुनील में नसीम के लिए गहरे प्रेम की रोमानियत के तीव्र आवेग के बावजूद अपनी व्यक्तिगत खामियों और अपनी मनोवृत्ति का सूक्ष्म और ईमानदार आत्मालोचन पूरे उपन्यास में है जो उसके चरित्र को समकालीन और विश्वसनीय बनाए रखता है। कथाशिल्प की संरचना में अपने परिवेश, स्थितियों और पात्रों को जीवंत बना देने वाली सशक्त, प्रवाह्पूर्ण भाषा कैलाश बनवासी की अपनी विशिष्टता है जो ‘रंग तेरा मेरे आगे” उपन्यास में एक नये अंदाज़ और जिस रचनात्मक आयाम के साथ पारदर्शी भाषिक शिल्प में अभिव्यक्त हुई है वह बेजोड़ है। कला, सिनेमा और संगीत की तरह प्रभावशाली इस खूबसूरत, सघन, नफ़ासत से भरे और संवेदनशील उपन्यास से गुज़रते हुए जैसे पार्श्व में मीर की एक गज़ल का मकता मद्धिम और उदास धुन की तरह बजता रहता है, भीषण समय में भी जीवन में प्रेम की जरुरत और मूल्यवत्ता का अहसास कराता हुआ : 


इश्क इक ‘मीर’ भारी पत्थर है

कब ये तुझ ना- तवाँ से उठता है।



उपन्यास : रंग तेरा मेरे आगे

कथाकार : कैलाश बनवासी 

प्रकाशक : सेतु प्रकाशन, नोएडा (उत्तर प्रदेश) 201301

प्रथम संस्करण : 2022

मूल्य: रू. 325



सम्पर्क 

डॉ. मीना बुद्धिराजा

एसोसिएट प्रोफेसर- हिन्दी विभाग, 

अदिति कॉलेज, बवाना, 

दिल्ली विश्वविद्यालय



मेल आईडी : meenabudhiraja67@gmail.com

मो. - 9873806557

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